‘गोदी राजनीति’ इस देश के माथे पर चस्पा किया हुआ कलंक है। जो इसे दूर करने के लिए पार्टी में सिर उठाता है, पार्टी से ही दूर हो जाता है। दूध में पड़ी मक्खी के समान उसे निकालकर बाहर फेंक दिया जाता है। यहां ‘गोदी राजनीति’ की तासीर को समझना जरूरी है। न तो यह ‘पेटीकोट’ सोच की देन है और न ही उत्तराधिकारी की लड़ाई। यह शुद्ध रूप से वर्चस्व का एक रूप है, जो कुछ समय के अंतराल पर अचानक राजनीतिक क्षितिज पर चमकता है और फिर लीप-ईयर की तरह गुम हो जाता है।
देश के अलग-अलग राज्यों की अपनी-अपनी कहानी है और सभी का अपना मापदंड। आज प्रसंगवश बिहार को रेखांकित करना समीचीन होगा। बिहार की राजनीति पिछले कुछ दशकों से लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड की दो पाटों के बीच हिचकोले खा रही है। 'लालटेन' के जरिए गरीब की कुटिया में रोशनी लाने का दावा करने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 5 जुलाई 1997 को जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल के नाम से नए दल का गठन किया। पार्टी गठन के समय लालू ने कहा था कि यह दल समाजवाद का नारा बुलंद करेगा। उस समय रघुवंश प्रसाद सिंह, कांति सिंह समेत लोकसभा के 17 सांसद और राज्यसभा के 8 सांसद लालू की नई पार्टी में आ गए। लालू यादव को पार्टी का संस्थापक अध्यक्ष बनाया गया। लालू यादव मार्च 1990 से लेकर जुलाई 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे।
23 सितंबर 1990 को लालू ने राम रथयात्रा के दौरान समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया और खुद को एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत किया। चारा घोटाले में आरोप पत्र दाखिल होने के बाद लालू ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर पत्नी राबड़ी देवी को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। वर्ष 2015 में हुए राज्य विधानसभा चुनाव में राजद ने नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के साथ गठबंधन किया और दोनों ने मिलकर 178 सीटों पर जीत हासिल की। राजद को 80 सीटें, जबकि जदयू को 71 और गठबंधन की तीसरी सहयोगी कांग्रेस को 21 सीटें मिलीं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बने और लालू पुत्र तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम एवं बड़े बेटे तेजप्रताप स्वास्थ्य मंत्री बनाए गए, लेकिन जुलाई 2017 में यह गठबंधन टूट गया और नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर राज्य में नई सरकार का गठन किया।
अंदरखाने न जाते हुए तत्कालिक परिदृश्य का ही आकलन युक्तसंगत होगा। चारा घोटाले में जेल में रहे लालू यादव हाल ही में बाहर आए हैं। उनके कद्रदान पहले से और ज्यादा उतावले हुए। वातावरण तैयार किया और राजद के नए युग की शुरुआत के संकेत दिए, लेकिन लालू यादव सियासत की हर जुबान को समझते हैं। उन्होंने सबसे पहले मौके की नजाकत को भांपा और जातिगत समीकरणों पर ही ज्यादा भरोसा किया। दोनों बेटे में राजनीतिक विरासत बांट देने की मंशा जताई, तो कहीं से कोई कुलबुलाहट नहीं हुई। उल्टे जिंदाबाद के नारे लगे। वैसे बृषिण पटेल जैसे नेता जरूर कहते हैं कि राजद परिवार की पार्टी है, क्योंकि यहां परिवार वाली फिलिंग है। बिना पारिवारिक फीलिंग के दल चल ही नहीं सकता। दल का मतलब ही होता है परिवार। यहां सभी सदस्य आपस में परिवार की तरह हैं, क्योंकि यहां नेता और कार्यकर्ता में अंतर नहीं है। यहां कार्यकर्ता का रोआं भी टूटता है तो नेता को दर्द होता है। हालांकि इस ‘दर्द’ को वे अच्छी तरह से जानते होंगे। परंपरा बोलने की रही है, तो बोलते हैं, कभी बिफरते भी हैं। रटंतु जुमला बोलते हैं कि भाजपा हमेशा समाज में बिखराव करना चाहती है। चाहे वह जाति की सोच हो या हिंदू-मुसलमान की। गैर बराबरी ही उनकी नियति बन गई है। भाजपा कुछ चहेते को ही देना चाहती है और गरीबों का हक मारना चाहती है।
दरअसल, बिहार की राजनीति को समझने के पहले वहां की मानसिकता को जानना जरूरी है। अगर आप किसी शहर में हैं, तो देख रहे होंगे कि विकास के तमाम दावों के बावजूद कुछ इलाके ऐसे होते हैं, जहां की सड़कें दुकानों से आबाद नहीं हो पाती। होती भी हैं, तो रौनक नहीं समेट पातीं। यह क्षेत्र विशेष का वैचारिक ‘अभिशाप’ होता है। बिहार जैसे प्रदेश भी दशकों से वैचारिक ‘अभिशाप’ झेल रहे हैं। इससे आप जाति आधारित राजनीति कह कर पीछा छुड़ा सकते हैं, पर सच स्याह है और इसका कोई पक्ष उजास से नहीं भरा है। बिहार में राजनीतिक दल इसी बल पर पनपते रहे हैं। जातिगत राजनीति से उपजे नेताओं और उनके द्वारा गठित राजनीतिक दलों में उत्तराधिकारी अधिकतर परिवार से उपजते हैं। जहां ऐसा नहीं होता वहां उत्तराधिकार का संकट हमेशा ही बना रहता है, क्योंकि नेतृत्व के नीचे कोई बेल पनपने ही नहीं पाती। बिहार में जदयू फिलहाल ऐसी ही दुविधा से ग्रस्त है।
सर्वेसर्वा बनकर स्थापित हो चुके मुख्यमंत्री नीतीश कुमार संगठन में अपने उत्तराधिकारी की तलाश कर रहे हैं। नीतीश कुमार अपवाद हैं कि उन्होंने कभी भी अपने स्वजनों को न तो राजनीति में सक्रिय किया और न ही चुनाव या पिछले दरवाजे से सदन में भेजा। उनके साथ संयोग भी जुड़ा कि उनके पुत्र और भाई की राजनीति में रुचि ही नहीं रही और न ही कुटुंब के लोग इधर-उधर परिचय देकर लाभ लेने की कोशिश करते नजर आए। नीतीश ने संगठन के उत्तराधिकारी के तौर पर अपने भरोसेमंद राज्यसभा सदस्य आरसीपी सिंह को जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया। वे नीतीश के 23 साल पुराने सहयोगी हैं, उनके गृह जिले नालंदा से हैं, इसलिए सबसे ज्यादा भरोसा उन्हीं पर किया। अब आरसीपी सिंह केंद्रीय कैबिनेट में शामिल हो गए हैं।
अब जदयू का संकट यही है कि उसमें आरसीपी के अलावा जातिगत समीकरणों में फिट बैठने वाला कोई भी ऐसा नेता नहीं पनपा जो उनकी जगह ले सके। इसलिए फिलहाल हाल ही में पार्टी में शामिल हुए नीतीश के पुराने साथी उपेंद्र कुशवाहा के नाम की चर्चा सबसे आगे है। वह जदयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी हैं। उपेंद्र का नीतीश से रिश्ता लोकदल के समय से हैं। इसे कैलेंडर के हिसाब से वर्ष 1985 से मान सकते हैं। यह रिश्ता इस बीच लगभग आठ वर्षो तक टूटा रहा। पिछले विधानसभा चुनाव में उपेंद्र की पार्टी रालोसपा (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) भी उतरी थी, लेकिन एक भी सीट नहीं ला पाई। अलग दल बनाकर कोई राजनीतिक लाभ न उठा पाने वाले उपेंद्र चुनाव बाद नीतीश के साथ आ गए और संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बना दिए गए। लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा) समीकरण के तहत उपेंद्र, नीतीश के हर समीकरण में फिट बैठते हैं। इसलिए नीतीश इन पर उम्मीद की राजनीतिक कर सकते हैं।
यह बात और
है कि बिहार
की राजनीति में
16 वर्षों तक अपना
दबदबा कायम रखने
वाले नीतीश कुमार
हर तरफ अब
समझौते के मूड
में नजर आ
रहे हैं। जानकार
मानते हैं कि
समता पार्टी के
गठन के बाद
नीतीश कुमार ने
शायद ही कभी
समझौतावादी रुख अपनाया।
नीतीश के साथ
खड़े हर शख्स
को नीतीश की
शर्तों पर चलना
पड़ा। जनता दल
यूनाइटेड के गठन
के बाद जॉर्ज
फर्नांडीस और शरद
पवार जैसे नेताओं
को भी नीतीश
कुमार की तमाम
शर्तें माननी पड़ी, लेकिन
2020 विधानसभा चुनाव के बाद
से हालात बदल
गए हैं। आलम
यह है कि
अब नीतीश कुमार
को उसी जनता
दल यूनाइटेड के
भीतर आंखें दिखाई
जाने लगी हैं।
याद कर लीजिए
कैबिनेट मंत्री मदन सहनी
का प्रकरण। मन मुताबिक
ट्रांसफर-पोस्टिंग न होने
पर बिहार में
अफसरशाही हावी होने
का आरोप लगाते
हुए जिस तरह
से मीडिया में
उन्होंने अपने इस्तीफे
की पेशकश की,
दरअसल वह नीतीश
कुमार के खिलाफ
खुली बगावत ही
तो थी।
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