बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

बाघों और इंसानों के बीच का द्वंद्व

नागपुर और आस-पास के घने वन में पाए जानेवाले बाघों की संख्या को ध्यान में रखते हुए नागपुर को टाइगर कॅपिटल बनाने की तैयारी जोरों पर है। नागपुर वह स्थान है जहां से सैलानी अपनी पसंद के किसी भी 8 बाघ परियोजनाओं तक पहुंच सकते हैं। अवैध शिकार के अलावा छोटी-मोटी खेती कर जंगल किनारे गुजर-बसर करने वाले ग्रामीण भी बाघ के उस समय तात्कालिक दुश्मन बन जाते हैं, जब उनके मवेशी (गाय-भैंस-बकरी आदि) कोई भूखा बाघ उठाकर ले जाता है। वे लोग बाघ को खत्म करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं।  केंद्र सरकार ने ऐसे मामलों में किसानों को मवेशियों के नुकसान की नगद भरपाई की व्यवस्था कर रखी है, फिर भी भी बाघों और इंसानों के बीच का यह द्वंद्व खत्म नहीं हो पा रहा है।  सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि 1973 में इंदिरा गांधी द्वारा व्यक्तिगत रुचि लेकर प्रारंभ किए गए प्रोजेक्ट टाइगर (राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण), प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाला राष्ट्रीय वन्य प्राणी बोर्ड एवं केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय मिलकर भी संयुक्त रूप से बाघ संरक्षण के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं कर पा रहे हैं? प्रकृति विनाश बनाम मानव विकास, यह पुरानी लड़ाई जनसंख्या वृद्धि के चलते और अधिक विकराल रूप ले रही है। बाघ बेवजह उसमें पिसकर दम तोड़ रहा है। विश्व वन्यजीव सप्ताह के तहत  इस बार तेजी से गुम होते जा रहे बाघों की रक्षा के लिए कुछ संस्थाओं ने कदम आगे बढ़ाया है। इनकी सुरक्षा को लेकर कई गैर सरकारी संगठनों ने भी चिंता जाहिर की है। गोंड मोहाड़ी पलसगांव रेज में शिकार हुए बाघों के शिकार के तरीकों को लेकर इन निजी संस्थाओं ने सवाल उठाए हैं। इन संस्थाओं के मुताबिक बाघों के शिकार के मामले में राज्य सरकार ने सीबीआई को जांच का जिम्मा सौंपा है। सीबीआई को स्थानीय शिकारियों के अलावा शिकार के लिए कुख्यात बहेलिया समुदाय के लोगों की संलिप्तता की जांच का भी सुझाव दिया गया है। गोंड मोहाड़ी के बाघों को न्याय देने की मांग को लेकर उमरेड़ की डब्लूएलसीडीसी, शंकरपुर के तरुण पर्यावरणवादी मंडल, मूल के संजीवन पर्यावरण संस्था व नागभीड़ की जेप पर्यावरण संस्था ने गोंड मोहाड़ी शिकार मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग के समर्थन में सांसदों, विधायकों व नगर सेवकों से निवेदन करने की मुहिम छेड़ी है। मुहिम के तहत ये संस्थाएं सोशल नेटवर्किंग साइट का भी सहारा लेंगी। फेसबुक के माध्यम से युवाओं को जोडऩे की पहल की जाएगी। इन संस्थाओं ने सीबीआई का ध्यान इस ओर आकृष्ट करने की कोशिश की है कि गोंड मोहाड़ी शिकार के लिए उपयोग में लाए गए बड़े शिकंजे केवल अंतरराष्टर्रीय शिकार गिरोह बहेलियाओं द्वारा ही उपयोग में लाई जाती है। सीबीआई ने जिन स्थानीय आरोपियों की धरपकड़ की है, उनके पास केवल छोटे शिकंजे ही पाए जाते हैं।


75 लाख की मांगी थी रिश्वत

मूलत: नागपुर निवासी आयकर आयुक्त हर्षवर्धन नानोटे व शराब व्यवसायी राजेंद्र जैस्वाल ने कमाल किया है।  केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने खामगांव के एक नामी डाक्टर से 75 लाख की रिश्वत मांगनेवाले आयकर अधिकारी हर्षवर्धन नानोटी (42) को गिरफ्तार कर लिया।  आयकर विभाग ने 10 सितंबर को खामगांव के डाक्टर सदानंद इंगले (45) के घर छापा मारा था। छापे में बेनामी संपत्ति व ज्ञात स्त्रोतों से ज्यादा संपत्ति का पता चलने का आरोप था। खामगांव के आयकर अधिकारी हर्षवर्धन नानोटी (42) ने सेटलमेंट के लिए डाक्टर से 75 लाख रुपए की रिश्वत मांगी थी। अकोला के शराब व्ययसायी राजेंद्र जैस्वाल बिचौलिए की भूमिका में थे। जैस्वाल के माध्यम से रिश्वत मांगने का आरोप है। मामले के सेटलमेंट के नाम पर यह रिश्वत मांगी जा रही थी। 12 सितंबर से यह सिलसिला चल रहा था। डा. इंगले ने इसकी शिकायत सीबीआई अधीक्षक संदीप तामगाडगे से की। आरोपों की पुष्टि होते ही सीबीआई ने मंगलवार को आयकर आयुक्त हर्षवर्धन नानोटे व शराब व्यवसायी राजेंद्र जैस्वाल के खिलाफ रिश्वत मांगने का मामला दर्ज किया। सीबीआई अधिकारियों ने आरोपी हर्षवर्धन व राजेंद्र के पांच ठिकानों पर छापामार कार्रवाई की। यह छापेमारी अकोला, खामगांव, मूर्तिजापुर रोड व नागपुर में एक साथ हुई। सीबीआई को आरोपी हर्षवर्धन के खामगांव व नागपुर निवास से संपत्ति के दस्तावेज मिले हैं। लॉकरों का भी पता चला है। दूसरे आरोपी राजेंद्र के निवास से 20 लाख रुपए, 20 किलो चांदी, 8 किलो सोना व संपत्ति के दस्तावेज मिले हैं। 

बदलाव का खास मतलब

एक प्रधानमंत्री के लिए इससे अजीबोगरीब स्थिति और क्या हो सकती है कि विपक्ष तो विपक्ष, अपनी पार्टी भी उसके निर्णय पर सवाल खड़े कर रही हो। शायद इस स्थिति को भांपकर ही यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि पूरी पार्टी मनमोहन सिंह के साथ खड़ी है। तिरुवनंतपुरम में दिए गए अपने एक भाषण में उन्होंने डॉ. सिंह के कामकाज की तारीफ करते हुए कहा कि उनके नेतृत्व में जारी हुई स्कीमों से देश के लाखों जरूरतमंद लोगों को फायदा पहुंचा है। असल में कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव में अपना एक नया चेहरा लेकर जाना चाहती है। लेकिन उसकी दुविधा यह है कि परिवर्तन की प्रक्रिया क्या हो? इतना तय है कि मनमोहन सिंह के बाद राहुल गांधी को नेतृत्व संभालना है, मगर पार्टी यह भी नहीं चाहती कि राहुल चुपचाप अपना काम संभाल लें। पार्टी राहुल को कुछ इस तरह प्रोजेक्ट करना चाहती है कि इस बदलाव का एक खास मतलब हो। वह सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं, एक नई नीति और प्रोग्राम का आगमन लगे। इस तरह लोगों को नएपन का अहसास हो और पार्टी मनमोहन सरकार की तमाम कमियों और विफलताओं से पल्ला झाड़कर चुनाव में उतर सके। शायद इसी सोच के तहत राहुल गांधी ने सरकार के अध्यादेश को खारिज किया। यह दांव इस लिहाज से तो कारगर रहा कि दागियों को खुलेआम बचाने के कलंक से कांग्रेस खुद को बचा ले गई। पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की साख इस कदर कभी दांव पर नहीं लगी थी। इस दूसरे कार्यकाल के दौरान उनके कामकाज पर लगातार उंगलियां उठीं। उन्हें कमजोर और रिमोट कंट्रोल से चलने वाला पीएम बताया गया। लेकिन ये सारी बातें विपक्ष ने कही थीं।  सवाल अपनी जगह बचा ही हुआ है कि क्या अध्यादेश को लेकर पार्टी और सरकार में कोई संवाद ही नहीं था? और अगर अध्यादेश कांग्रेस पार्टी की समझ के तहत ही लाया गया है तो राहुल को इस बारे में जानकारी कैसे नहीं थी? राहुल की सार्वजनिक प्रतिक्रिया का तर्क चाहे जो भी क्यों न हो, व्यक्तिगत छवि या चुनावी लाभ के लिए प्रधानमंत्री की साख को दांव पर लगाना समझदारी नहीं कही जाएगी।
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