रविवार, 6 जून 2010

'लाल साड़ी आतंकित कांग्रेस

अभी तक जो बात देखने में आई है कि वह यह है कि सोनिया गांधी के चित्रण करने वाली फिल्मों, पुस्तकों और कार्टूनों को लेकर कांग्रेस के नेता और अधिकारी बहुत ही सतर्क और सावधान रहे हैं कि कोई भी नकारात्मक बात न सामने आने पाए। मोरो भले ही न जानते , लेकिन हकीकत है कि महात्मा गाँधी के देश में देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी को जिस व्यक्ति के नाम और उसकी छवि के आधार पर वोट मिलते हों वह अपनी पार्टी के नेता के बारे में कोई भी नकारात्मक बात सहन नहीं कर सकती है। यह तो सभी जानते हैं कि वर्षों तक कांग्रेस को पर्दे के पीछे से चलाने वाली सोनिया ने हाल के कुछ वर्षों में ही सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अधिक सक्रियता से भाग लेना शुरू किया है। इसलिए संभव है कि कांग्रेस पार्टी के कुछ तत्व ब्रांड सोनिया के खिलाफ किसी भी प्रकार के चित्रण को आपत्तिजनक मानें। 'द रेड सारीÓ अर्थात, लाल साड़ी (स्पेनिश नाम- एल सारी रोजो) क्या आतंक की एक दस्तान है? फिर कांग्रेस पार्टी इतनी आतंकित क्यों है? जेविएर मोरो की यह वह ताजा पुस्तक है, जिसने कांग्रेस के भीतर आतंक की लहर सी छेड़ दी है। पुस्तक में कांग्रेसियों को सत्ता का भूखा बताया गया है। पुस्तक तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय उपनिषद वाक्य से शुरू की गई है। इसके बाद कहानी शुरू होती है 24 मई 1991 के दिन से, जब राजीव गांधी का अंतिम संस्कार किया जा रहा था। किताब के टाइटल में जिस लाल साड़ी का जिक्र है, उसे लेखक के मुताबिक पंडित नेहरू ने जेल में बुना था और सोनिया ने अपनी शादी के दिन पहना था। यह कहानी है, इटली के एक छोटे से गांव में पैदा हुई लड़की के हैरतअंगेज सफर की जिसे पावर तो मिली, लेकिन मौतों के सिलसिले से गुजरकर। किताब का सब-टाइटल है- लाइफ इज द प्राइस ऑफ पावर यानी ताकत की कीमत है जिंदगी। इस केस की अगुआई कर रहे सीनियर वकील और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और उनके सहयोगियों का कहना है कि किताब में बेमतलब के और मनगढ़ंत किस्से रचे गए हैं। सब कुछ ऐसे पेश किया गया है, जैसे वाकई हुआ हो। मोरो इसे बायोग्राफी बताकर बेच रहे हैं, जिससे गलत इमेज बनती है। किताब में संजय गांधी को गालियां बकते और सोनिया को राजीव की मौत के बाद इटली चले जाने की सोचते दिखाया गया है। न सिर्फ यह किताब झूठ का पुलिंदा है, बल्कि इसे सच बताकर पेश किया गया है। मामला नेहरू-गांधी फैमिली की इज्जत से खिलवाड़ का बनता है। लाल साड़ी ही क्यों?राजीव की हत्या के बाद जब सोनिया ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद ठुकरा दिया तो कांग्रेसी नेता उनके पास गए और उनके घर में लगी उनकी एक तस्वीर की तरफ इशारा किया। सोनिया जी, इस फोटो को देखो। देखो ये लाल साड़ी, जो आपने शादी के दिन पहनी थी, इसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चरखे पर कातकर तैयार किया था। इसी संदर्भ को उठाते हुए लेखक ने पुस्तक का नाम लाल साड़ी (द रेड सारी) रखा। इस पर सोनिया ने जवाब दिया -हां, लेकिन यह मत भूलो कि मैं एक विदेशी हूं। इस पर कांग्रेसी नेताओं ने तर्क दिया-मैडम, आप ऐनी बिसेंट को याद कीजिए। कांग्रेस की प्रमुख नेता। उन्होंने पार्टी का नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर किया था। वे आयरिश थीं। आप इटली की हैं तो क्या हुआ? विचार बुरा नहीं है। लेकिन सोनिया बोलीं : आई एम सॉरी। आप गलत दरवाजा खटखटा रहे हैं।
विवाद इन अंशों पर :एक पुजारी ने सोनिया को राजीव गांधी के अंतिम संस्कार में शामिल होने से यह कहकर रोक दिया था कि विधवाओं को ऐसे में दूर रहना होता है। और फिर वे तो दूसरे धर्म की हैं। सोनिया जब पहली बार राजीव के साथ भारत आईं तो वे यह जानकर हैरान रह गईं कि इस देश में सती प्रथा जैसी बर्बर कुरीतियां हैं। राजीव की हत्या के तत्काल बाद सोनिया ने अपनी बहन अनुष्का से आशंका जताई कि यह कुकृत्य इंदिरा के हत्यारे सिखों, गांधीजी की हत्या करने वाले हिंदू कट्टरपंथियों या कश्मीर के मुस्लिम अतिवादियों जैसों में से किसी का हो सकता है।सोनिया ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद सुरक्षा कम किए जाने पर बेहतर सुरक्षा के लिए दबाव बनाया तो राजीव बोले-अगर वे तुम्हें मारना ही चाहते हैं तो मारकर ही रहेंगे। राजीव की हत्या के तत्काल बाद सोनिया की मां ने फोन करके उन्हें कहा-बेटी तुम्हें इटली वापस लौट आना चाहिए। सोनिया खुद भी सोचने लगीं थी कि अब यहां रुकने का मतलब ही क्या है? -राजीव गांधी सुरक्षा को लेकर पहले ही चिंतित थे। एक बार उन्होंने बच्चों को मास्को के अमेरिकन स्कूल में भर्ती कराने का फैसला कर लिया था, लेकिन सोनिया बच्चों को अपने पास ही रखना चाहती थीं। -सोनिया ने कांग्रेसी नेताओं को फटकारा था -ये तो इंदिरा गांधी दबाव नहीं डालतीं तो राजीव भी राजनीति में नहीं आते। वे पायलट ही अच्छे थे। ऐसा होता तो आज वे हमारे बीच होते। -कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें अध्यक्ष पद के लिए बार-बार जिम्मेदारी के लिए कहा तो सोनिया बोलीं-जिम्मेदारी? इस परिवार को ही बार-बार अपना खून देकर इस देश के लिए अपनी जिम्मेदारी क्यों निभानी चाहिए? क्या आपका दिल इंदिरा और राजीव के खून से भी नहीं भरा है? क्या अभी आप और भी चाहते हैं? कांग्रेसी नेता-आप ही भारत हैं। आपके परिवार के बिना हम कुछ भी नहीं। आपके ही हाथों में आज गांधी-नेहरू का वो दीपक है, जो देश को अंधेरे में रोशनी दिखा सकता है। कांग्रेसी नेताओं पर तीखे कटाक्षकांग्रेसी नेताओं ने सोनिया के दुख की घड़ी में भी ये नहीं सोचा कि उनके सीने में एक इनसान का दिल धड़क रहा है। उन्होंने बिना एक क्षण भी विलंब किए, सोनिया के जरिए अपने व्यक्तिगत सत्ता को सुरक्षित करने की चिंता की। -भारत में सत्ता ऐसा चुंबक है, जिससे बचना किसी के लिए संभव नहीं। कांग्रेसी नेता इतने चालाक निकले कि उन्होंने सोचा तारीफों के जरिए सोनिया गांधी अंतत: मान ही जाएंगी। अपने लिए न सही, अपने बच्चों के लिए और अपने गांधी-नेहरू परिवार के नाम के लिए। -सोनिया गांधी बचपन से ही दमे की मरीज है। उन्होंने अपने कुत्ते का नाम स्टालिन रखा था। -सोनिया की मां पाओला एक पुलिस वाले की बेटी हैं और वे अपने दादा का बार संचालित करती थीं।———————————- एक इत्तिफाकन गांधी वो शख्सियत जिसने ऐसी पार्टी में जान फूंकी जिसे खुद पार्टी के ही लोग खत्म हुआ मान चुके थे। जो ये माने बैठे थे कि अब कांग्रेस का पुनर्जन्म मुश्किल है। इटली के एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की, जो दुनिया के सबसे अस्थिर लोकतंत्र के साथ कदमताल कर रही है। बेटी प्रियंका गांधी कहती हैं-मुझे अपनी मां में हुए कायापलट पर ताज्जुब होता है। सोनिया गांधी के हिंदुस्तान की ग्रैंड ओल्ड पार्टी में शुरुआती कदम बेहद मुश्किल भरे रहे। देश के पहले परिवार के बतौर उन्हें सत्ता के विशेषाधिकार से जरूर नवाजा गया लेकिन निजी तौर पर वो हमेशा किसी न किसी पारिवारिक ट्रेजडी से ही दो-चार होती रहीं। उनके पास कुछ नहीं था-न भाषा और न जनाधार। था तो बस सरनेम गांधी का ताबीज और घर के दरवाजे पर बढ़ती घोर निराशा की लहर। 11 साल बाद अब ये तूफान थम गया है। पार्टी बेशक अपनी रफ्तार कायम न रख सकी लेकिन सोनिया आगे बढ़ गईं। 2009 के लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू ही हुई थी कि सोनिया ने सीधे दुश्मन के कैंप पर हमला बोला। ये सीधा हमला था भाजपा के प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग पर। हमला भी वहां जहां दुश्मन को सबसे ज्यादा चोट पहुंचती है। कंधार मामले पर उन्होंने आडवाणी को घेरा। वैसे उनका फोकस इस देश का आम आदमी रहा। संप्रग सरकार का पांच साल का रिपोर्ट कार्ड और उससे पहले राजग का शासन। वो इस दौर में आक्रामक और हमलावर रही हैं। सोनिया ने इस बार अपना अतीत याद दिलाने और परिवार की विरासत सामने रखने का फैसला कर लिया है। भारत के साथ सफरनामा :सोनिया एंटोनिया मायनो का इस देश से रिश्ता एक रोमांस से शुरू हुआ था। आज ये रिश्ता पूरी तरह राजनीतिक थ्रिलर में तब्दील हो चुका है। तीन बेटियों में दूसरी सोनिया पाओला और स्टेफानो के घर इटली के ट्यूरिन शहर के बाहरी इलाके ओरबैसानो में पैदा हुई थीं। पिता ने बेटियों को बिल्कुल पारंपरिक ढंग से पाला पोसा। चर्च, कन्फर्मेशन और कम्यूनियन। रोकटोक के बावजूद सोनिया को याद है कि मेरे पिता आधुनिक सोच रखते थे और मुझे विदेश में पढऩे की इजाजत मिल गई। इसके बाद मैंने मैजिनी और गैरीबाल्डी को पढ़ा और इटली के एक होने की जानकारी हासिल की लेकिन आधुनिक देश के बतौर भारत के उदय के बारे में मुझे कुछ नहीं पता था। शायद सोनिया की किस्मत में हिंदुस्तान की खोज किसी और ढंग से होनी लिखी थी। कैंब्रिज के एक ग्रीक रेस्टोरेंट वार्सिटी में दोपहर को छात्र खाने-पीने पहुंचते थे। वार्सिटी का मालिक चार्ल्स एंटोनी राजीव का गहरा दोस्त था। कुछ साल बाद उसकी आंखों की रोशनी चली गई पर उसे वो दिन याद है जब लेनॉक्स कुक स्कूल की छात्रा सोनिया उसके रेस्टोरेंट में पहुंची थी। चाल्र्स एंटोनी बताते हैं कि एक दिन सोनिया आईं, वो अकेली थीं। ये लंच का वक्त था और मेरे पास उसे बैठाने के लिए कोई जगह नहीं थी। राजीव अपने दोस्त एलेक्सिस के इंतजार में राउंड टेबल पर अकेले बैठे थे सो मैंने राजीव से पूछा कि तुम्हें किसी दूसरे और एक लड़की के साथ बैठने में ऐतराज तो नहीं। राजीव ने कहा-नहीं, बिल्कुल नहीं। आपको यकीन नहीं आएगा लेकिन उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया। वो भी इस तरह कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता था। मैं इसके लिए राजीव को दोष नहीं देता। वो खुद ही इतनी सुंदर थीं। एक साल बाद राजीव प्रधानमंत्री बने, तो चाल्र्स उनसे मिलने दिल्ली पहुंचे लेकिन उन्हें नई दिल्ली एयरपोर्ट पर ही रोक लिया गया क्योंकि उनके पास भारतीय वीजा नहीं था। इसके बाद बस एक फोन आया और चाल्र्स ने रेसकोर्स रोड का रुख किया। चाल्र्स के मुताबिक-मुझे नहीं पता था कि गांधी के दोस्त को भी वीजा की जरूरत होगी। 13 जनवरी 1968 को सोनिया दिल्ली पहुंचीं। 12 दिन बाद उनकी राजीव से शादी हो गई। सोनिया के पिता ने इस समारोह में हिस्सा नहीं लिया। नयनतारा सहगल बताती हैं कि मुझे उनकी पहली याद तब की है जब इंदिरा ने मेरी मां को बुलाया और कहा -फूफी, राजीव एक इटैलियन लड़की से प्यार करता है तो मेरी मां ने कहा— ये तो बहुत अच्छी बात है। हम उससे कब मिलेंगे। जब वो भारत से गईं तो मैं उनसे पहली बार तब मिली जब उनकी मेहंदी की रस्म थी। तब वो बच्चन परिवार के साथ थीं और वहीं उनकी मेहंदी रस्म रखी गई थी। उनके पैरों और हाथों पर मेहंदी रचाई गई और इसके बाद हमने साथ खाना खाया। सोनिया और राजीव ने जो जिंदगी चुनी थी वो उनकी निजी जिंदगी थी। दोनों के चारों तरफ ऐसे लोग थे जिनके लिए विचारधारा, विश्वास और शासन जैसी चीजें रोजमर्रा की बातें थीं। सोनिया को अचानक लोगों के सामने न आना और गलत बातों पर एकदम न बोलना सीखना पड़ा। अपनी सास से उनका रिश्ता प्यार, धीरज और साझेदारी का था लेकिन सोनिया ने इंदिरा के साथ कभी एक चीज की साझेदारी नहीं की और वो थी राजनीति। सोनिया और राजीव की जिंदगी के शुरुआती 13 साल कई सियासी उतार-चढ़ावों से होकर गुजरे क्योंकि पूरा परिवार एक के बाद एक दुखद घटनाओं से जूझ रहा था। पहले विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मौत, उसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या और सात साल बाद खुद राजीव गांधी की हत्या। हर बार सोनिया को शिद्दत से ये अहसास हो रहा था कि ये राजनीति ही थी जो राजीव और उनकी जिंदगी की दुश्मन साबित हुई थी। पर विकल्प कोई नहीं था। बाद के सालों ने दिखाया कि विदेश में पैदा हुई ये गांधी अपनी जिंदगी और इस देश की सियासत की किताब नए सिरे से लिखने को तैयार हो रही थी। उनकी भावना की तुलना बाद में उन्हें मिली फतह से की जा सकती है। साल 2004 में भाजपा ने सोनिया की ताकत को अनदेखा किया था और अब भाजपा के सामने ही सोनिया एक खास अंदाज में अपने लिए लिखे भाषण पढ़कर उस भारत तक पहुंच रही थीं जो उतना चमकदार नहीं था जितना दावा किया जा रहा था। सोनिया की लगातार एक ही कोशिश थी कि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए सहयोगी मिल जाएं। पुराने दुश्मन अब दोस्त का दर्जा पा गए थे। कुछ जातियों और समुदायों में सोनिया ने भी अपनी पैठ बना ली थी अचानक सोनिया करुणानिधि, वायको, लालू और पासवान जैसे नेताओं की भी पसंद बन गई थीं। रशिद किदवई बताते है कि वो कोई डील नहीं कर रही थीं। उनके पास जो था वो बस उनकी ईमानदारी थी। हरकिशन सिंह सुरजीत से उनकी काफी बनती थी। एक बार वो सुरजीत के घर भी गई थीं। गर्मियों के दिन थे। सुरजीत ने कहा कि उनके घर में अंदर के कमरे में एक एयरकंडिश्नर है तो क्या तुम अंदर जा सकती हो और सोनिया तुरंत चली गईं। जिस कुर्सी पर वो बैठीं वो टूटी हुई थी। सोनिया ने उस पर तकिया रखा और बैठकर बातचीत करती रहीं। तब से सुरजीत से सोनिया की अच्छी दोस्ती हो गई और याद रखें कि ये कोई राजनीतिक दोस्ती नहीं थी, जिसके लिए वो पांच साल से मोलतोल कर रही थीं। 2004 चुनावों ने दिखाया कि दांव पर क्या लगा था। कांग्रेस का अस्तित्व ही नहीं बल्कि भारत की राजनीति में शायद एक गांधी की औकात भी दांव पर लगी थी। देश ने कांग्रेस को चुना और कांग्रेस ने सोनिया को और सोनिया ने उस शख्स को चुना जो सियासतदान कम था वफादार ज्यादा। उनके घर के बाहर कांग्रेसियों का हुजूम लग गया। पर सोनिया की तरफ से न हो चुकी थी। सोनिया के त्याग की कहानी देशभर में टेलीकास्ट हुई। सत्ता त्यागकर सोनिया और भी ताकतवर बन गई थीं। कांग्रेसियों की चापलूसी ने सारी हदें पार कर दीं। उन्होंने उनकी मिन्नतें कीं। उनके सामने रोए-गिड़गिड़ाए भी। सरकार में पार्टी के सहयोगियों ने भी उनके आगे हाथ जोड़े। यहां तक कि भाजपा ने भी माना कि ये सोनिया का मास्टरस्ट्रोक था। ये उस नेता की कामयाबी थी, जिसे 1999 में सियासत का नौसिखिया कहा जाता था। राष्ट्रपति भवन के सामने कभी न भूलने वाली वो प्रेस कांफ्रेंस जब सोनिया ने जादुई आंकड़ों का ऐलान किया और कहा कि हमें यकीन है कि हमें 272 सीटें मिलेंगी। चुनाव अभियान का कर्ताधर्ता गलती कर सकता था, पर संसद में पार्टी प्रमुख के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। पता चला कि आंकड़ा 272 तक नहीं पहुंच पाया और 40 कम है तो चुनाव मजबूरी बन गए और सोनिया ने पाया कि उनके लिए अब अपनी छवि बनाए रखना बहुत जरूरी था। सोनिया से दोबारा गलती नहीं हुई। अब उन्होंने अपनी हर रुकावट को अपने फायदे में बदलना शुरू कर दिया। इस हद तक कि उनके विरोधी भी चौंक जाते थे। राष्ट्रपति चुनाव, लाभ के पद के संकट और न्यूक्लियर करार पर तकरार जैसे जोखिम से गुजरकर सोनिया सत्ता में भागीदारी की कला अच्छी तरह जान गई थीं। एक सर्वशक्तिमान नेता और एक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री के गठबंधन ने सत्ता में भागीदारी की नई परंपरा को जन्म दिया। सोनिया पार्टी के लिए जिम्मेदार थीं तो मनमोहन सरकार के लिए। ऐसी हिस्सेदारी पहले नहीं देखी गई थी फिर भी बहुत से लोग कहते हैं कि सत्ता सिर्फ सोनिया के पास ही रहती है। सोनिया ने बार-बार सरकार का फोकस आम आदमी की तरफ मोडऩे की कोशिश की। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार अधिनियम ये सभी तब आए जब 2006 तक वो नेशनल एडवाइजरी काउंसिल की अध्यक्ष थीं। नि:संदेह सोनिया ने पार्टी को फिर से खड़ा करने में जो भूमिका निभाई, इतिहास उसके लिए ही उन्हें याद करेगा।
——————————— क्या कहना है मोरो का मोरो का दावा है कि यह एक उपन्यास है, हिस्ट्री नहीं। उनका कहना है कि कांग्रेस तो चाहेगी कि सोनिया को दिल्ली में पैदा हुई ब्राह्मण बताया जाए। क्या कहा , सोनिया ? इमर्जेंसी के दिनों में किस्सा कुर्सी का बनाकर सरकार का डंडा खा चुके जगमोहन मूंदड़ा का इरादा सोनिया पर इसी नाम से फिल्म बनाने का था। सोनिया के रोल के लिए इटैलियन ऐ क्ट्रेस मोनिका बलुची को साइन भी कर लिया गया था। फिर मूंदड़ा ने सोनिया से मुलाकात की और कुछ ही दिन बाद उन्हें सिंघवी का नोटिस मिल गया। कई बरस हो गए , इस फिल्म का जिक्र नहीं हुआ। नई मदर इंडिया फिल्मकार कृष्णा शाह का इरादा इंदिरा गांधी पर एक फिल्म बनाने का है। इसका नाम होगा - मदर: द इंदिरा गांधी स्टोरी। कहते हैं कि शाह ने इंदिरा के रोल के लिए माधुरी दीक्षित से बात की , लेकिन माधुरी ने क्या कहा , यह किसी को नहीं पता। इस फिल्म को 2011 में रिलीज करने की बात थी , लेकिन कौन जानता है क्या हंगामा खड़ा हो जाए। हुए बिना रह जाए, ऐसा तो नहीं हो सकता। हॉट समर फिल्मकार जो राइट ने इंडियन समर नाम से फिल्म बनाने की तैयारी लगभग पूरी कर ली थी। यह भारत के आखिरी गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नी ऐ डविना की कहानी है। ऐ डविना से पंडित नेहरू के लव अफेयर का जिक्र भी इसमें होता , लिहाजा भारत सरकार को शक हुआ। उसने फिल्म की स्क्रिप्ट मांगी। फिलहाल यह प्रॉजेक्ट अटका पड़ा है। केट ब्लेंशेट को इसमें ऐ डविना का रोल करना था। ——————————— अभिव्यक्ति की आजादी छीन रही है कांग्रेस :भाजपाभाजपा ने कांग्रेस की इसलिए निंदा की है, क्योंकि कांग्रेस ने स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की सोनिया पर लिखी काल्पनिक विचारों वाली पुस्तक की आलोचना की है। भाजपा का आरोप है कि सत्ताधारी पार्टी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगा रही है। भाजपा के मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने मोरो की किताब के विषयवस्तु पर टिप्पणी से इनकार करते हुए कहा कि पूरा घटनाक्रम अलग-थलग करके नहीं देखा जा सकता। कांग्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। भाजपा का कहना है कि इस तरह की सेंशरशिप सत्तर के दशक में लगे आपातकाल की याद दिलाते हैं जबकि श्रीमती इंदिरा गाँधी सत्ता में थीं। उस समय कथित तौर पर जिन पुस्तकों, फिल्मों और समाचार पत्रों को सरकार विरोधी माना जाता था उन पर सरकार का चाबुक चला था। हालांकि राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि ऐसे मामलों में सोनिया गाँधी को उतना सख्त नहीं माना जाता है जितनी कि उनकी सास हुआ करती थीं लेकिन कांग्रेस पार्टी अपने नेताओं की छवि को लेकर बहुत अधिक संवेदनशील रहती है जिसे कुछ लोग चापलूसी की संस्कृति भी कहते हैं। ———————- मोरो को कानूनी नोटिस :इस संदर्भ में गौरतलब होगा कि कांग्रेस के सांसद और पार्टी के कानूनी और मानवाधिकार प्रकोष्ठ के प्रमुख अभिषेक मनु सिंघवी ने जेवियर मोरो को कानूनी नोटिस भेजा है जिनका कहना है कि कांग्रेस पार्टी और इसके नेता भारतीय प्रकाशन कंपनियों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे मोरो की किताब का अंग्रेजी अनुवाद न छापें। उनका दावा है कि उन्होंने सोनिया के जीवन का काल्पनिक लेखा जोखा लिखा है और इसका यह मतलब नहीं है? कि किताब में लिखी सारी बातें सच हों लेकिन संघवी और कांग्रेस नेताओं का कहना है कि एक जीवित व्यक्ति पर काल्पनिक जीवनी एक विरोधाभास भी पैदा कर सकता है क्योंकि इसमें झूठी बातें, अपमानजनक टिप्पणियाँ भी की जा सकती हैं और चूँकि यह संबंधित व्यक्ति की सहमति और अधिकार के लिखी गई है ?इसलिए इसमें गलत और अपमानजनक तथ्यों का समावेश हो सकता है। ———————याद आया गुजरा जमाना : इन दिनों पैतीस साल पुरानी घटनाएं फिर याद आने लगी है। 1975 में महान लेखक कमलेश्वर की कहानी काली आंधी पर गुलजार ने एक फिल्म बनाई थी आंधी। कहानी सिर्फ यह थी कि एक पति पत्नी हैं, पत्नी के पिता राजनेता हैं और उसकी भी राजनीति में दिलचस्पी है। पत्नी चुनाव लड़ती है और बड़ी नेता बन जाती है, पति होटल का मैनेजर बन कर अपने आप में खुश हैं। दोनों अलग हो जाते हैं और बाद में पत्नी जब चुनाव लडऩे उसी इलाके में आती है और बिछड़े हुए पति के होटल में ठहरती है तो दोनों में फिर अंतरंगता हो जाती है। इस फिल्म को ले कर दो विवाद हुए थे। एक तो गुलजार ने कहानी और पटकथा का श्रेय कमलेश्वर को नहीं दिया था और दूसरे इंदिरा गांधी को बताया गया था कि आप पर यह फिल्म बनाई गई है। आपातकाल का जमाना था और जब सारे अखबार प्रतिबंधित हो सकते थे तो आंधी फिल्म को प्रतिबंधित करने में कितनी देर लगनी थी। गनीमत है कि संजय गांधी और उनकी मंडली के आसपास बनाई गई अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का की तरह फिल्म के प्रिंट जब्त कर के नहीं जला दिए गए। सोनिया गांधी बहुत अनमने भाव से राजनीति मेंं आई थी। उनकी राजीव गांधी के साथ प्रेम कथा, भारत आ कर लाल साड़ी पहन कर राजीव से शादी करना, राजनीति में आ कर हिंदी बोलना, कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाने की प्रेरणा बनना और मिला मिलाया प्रधानमंत्री पद ठुकरा देना ये सब चीजें सोनिया गांधी को रहस्यमय भी बनाती है और एक हद तक आदर का पात्र भी। अब स्पेनिश और इतालवी में प्रकाशित सोनिया गांधी के जीवन पर लिखी गई किताब लाल साड़ी को ले कर कांग्रेस में बवाल मचा हुआ है। जेवियर मोरो ने यह किताब लिखी है और इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करने के लिए दिल्ली की रोली बुक्स ने अनुबंध किया है। कांग्रेस के प्रवक्ता और सोनिया गांधी के वकील की भूमिका में अभिषेक मनु सिंघवी ने कई महीने पहले इस किताब के प्रकाशक को नोटिस भेज दिया था कि वे यह किताब बेचना बंद करे और भारत में प्रकाशन का किसी से अनुबंध नहीं करें। जेवियर मोरो ने एक ई मेल के जवाब में कहा है कि सरकार खुद भारत के प्रकाशकों पर दबाव डाल रही है कि वे यह पुस्तक नहीं छापे। इस किताब में जो अंश निकल कर आए हैं उनके अनुसार काफी विवादास्पद हिस्से हैं। इससे सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा फिर उभर सकता है। यह किताब इसलिए कमाल की है कि भारत आई नहीं मगर भारत में हंगामा पहले मच गया क्योंकि इस किताब के साथ सोनिया गांधी का नाम जुड़ा है। सोनिया के नाम पर कोई रिस्क नहीं :हाल ही में प्रकाश झा की फिल्म राजनीति पर भी कांग्रेस ने आपत्ति जताते हुए फिल्म के कुछ दृश्य हटवा दिए थे। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक फिल्म की नायिका का किरदार भी सोनिया गांधी से प्रेरित है। ऐसे में फिल्म के आपत्तिजनक दृश्य कांग्रेस अध्यक्ष की छवि के अनुकूल नहीं थे। इससे पहले भारतीय मूल के ब्रिटिश फिल्म निर्माता जगमोहन मुंदड़ा को भी सोनिया गांधी की जिंदगी पर फिल्म बनाने का इरादा छोडऩा पड़ा था, क्योंकि कांग्रेस सेंसर बोर्ड ने इसकी इजाजत नहीं दी। भले ही इसे सृजनात्मक आजादी के हनन का नाम दिया जाए या लोकतंत्र के खिलाफ करार दिया जाए, कांग्रेस सोनिया गांधी के नाम पर कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। आखिरकार सोनिया ने ही कांग्रेस को नया जीवनदान दिया है। कांग्रेस नहीं चाहती कि सोनिया को लेकर कोई विवाद खड़ा हो या विरोधियों को विदेशी मूल का मुद्दा दोबारा उठाने का मौका मिले।:::::::::::::::::::::::::::::::::::: किस्सा कुर्सी का किस्साराजनीति पर आधारित फिल्म किस्सा कुर्सी का आपातकाल के दौर में खुद राजनीति का शिकार हुई। 1975 के दौरान बनी फिल्म किस्सा कुर्सी का, से जुड़ा विवाद अपने आप में खासा दिलचस्प है। शबाना आजमी की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म एक राजनीतिक व्यंग्य थी। कांग्रेस के सांसद रहे अमृत नाहटा फिल्म के निर्माता-निर्देशक थे। 1975 में जब यह फिल्म रिलीज होनी थी उससे पहले देश में आपातकाल लगाया जा चुका था। चूंकि फिल्म का मुख्य किरदार इंदिरा गांधी से मिलता-जुलता चरित्र था इसलिए सरकार के दबाव में सेंसर बोर्ड ने फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी। सेंसर बोर्ड के इस निर्णय के खिलाफ नाहटा ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने फैसला दिया कि सार्वजनिक प्रदर्शन के पहले ये फिल्म न्यायाधीशों को दिखाई जाएगी। इससे पहले कि अदालत के सामने फिल्म का प्रदर्शन होता, उसका मूल प्रिंट गायब हो गया। कहा जाता है कि संजय गांधी के इशारे पर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने मुंबई से फिल्म के प्रिंट जब्त करवाकर उन्हें दिल्ली के पास गुडग़ांव स्थित मारुति फैक्टरी परिसर में रखवा दिया जहां बाद में इन्हें नष्ट कर दिया गया। 1977 के चुनावों में अमृत नाहटा जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर सांसद बने। उन्होंने संसद में मांग की कि आपातकाल के दौरान जब्त की गई उनकी फिल्म के प्रिंट उन्हें वापस किए जाएं। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और तब के सूचना और प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने यह केस सीबीआई को सौंपने का फैसला किया। सीबीआई के संयुक्त सचिव निर्मल कुमार सिंह ने इस मामले की जांच की और संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ इस मामले में मुकदमा दर्ज कराया। केस की सुनवाई हुई और दिल्ली की एक सत्र अदालत ने दोनों आरोपियों पर जुर्माना लगाते हुए सजा सुनाई। गांधी और शुक्ल की तरफ से बाद में सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई। इस वक्त तक मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद छोड़ चुके थे। चौधरी चरणसिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री थे। बदली राजनीतिक परिस्थितियों में फिल्म को लेकर नाहटा अपने आरोपों से मुकर गए। अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के अभाव में संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल को बरी कर दिया। किस्सा कुर्सी का मामला इस मायने में भी खास है कि देश में पहली बार अदालत द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद भी आरोपियों को चुनाव लडऩे की अनुमति मिली और दोनों उम्मीदवार चुनाव जीते भी। 1977 में अमृत नाहटा ने फिर उसी कहानी पर किस्सा कुर्सी का फिल्म बनाई जो बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल साबित हुई।———————

आईपीएल में पावर प्ले

सब कुछ हो रहा है। चोरी-छिपे नहीं डंके की चोट पर। बस थोड़ी सी मशक्कत यह करनी है कि जनता के आंखों में मुट्ठी भर धूल फेंक भर देना है। हो सके तो उसमें थोड़ी मिर्ची लगाकर, ताकि जनता आंखें मलती रहे। आरोप मढऩे में आसानी होगी। कह देंगे नशे के सुरूर में अनाप-शनाप बोल रहा था। हजारों करोड़ की बातें हो रही है। जनता जानती है, नहीं भी जानती है। लाखों करोड़ के सौंदे हो रहे हैं। जनता देख रही है, नहीं भी देख रही है। करोड़ों रुपए के एडवांस इनकम टैक्स भरे जा रहे हंै। चियरगर्ल्स नाच रही है। देर रात तक पार्टियां हो रही है। प्राइवेट जहाज उड़ रहे हैं। टीवी चैनलों पर पैसे की बारिश हो रही है। मगर जनता के पास प्रतिकार के दो शब्द नहीं। हैं भी तो उसकी परवाह किसी को नहीं। कहने वाले को पागल करार देने वाले हजारों चमचे मिल जाएंगे। आईपीएल और पवार परिवार को लेकर एक बार फिर विवाद गरम है। कहा जा रहा है कि आईपीएल फ्रेंचाइजी हासिल करने के लिए जिस कंपनी ने बोली लगाई थी, उसमें पवार का भी पैसा लगा हुआ है। दूसरी तरफ पवार परिवार लगातार इस बात को गलत बता रहा है। बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष शरद पवार ने इस बात साफ इनकार किया कि वो या उनके परिवार का कोई भी सदस्य आईपीएल की नई टीमों के लिए हुई नीलामी में शामिल था। पवार ने कहा कि यह मामला कुछ दिन पहले भी उठाया गया था तब भी मैंने कहा था कि इससे हमारे परिवार का कोई लेना देना नहीं है। दरअसल, आईपीएल में सबसे बड़ा रुपैया है। इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के पेचीदा गलियारों में, असलियत को झूठ और धोखे, लालच और राष्ट्रीय गर्व से अलग करना एक असंभव सा काम है। इस में पैसा क्रिकेट या राष्ट्रीय गौरव से अधिक अहमियत रखे हुए है। कौन हिस्सेदारी, कैसी हिस्सेदारी :एक अंग्रेजी अखबार ने ये दावा किया था कि पवार की कंपनी पुणे के लिए हुई नीलामी में शामिल थी। जबकि इससे पहले लगातार पवार और उनकी बेटी सुप्रिया सुले इस बात से इनकार कर रहे थे। अखबार के मुताबिक पुणे की टीम के लिए बोली लगाने वाली एक कंपनी सिटी कॉर्पोरेशन में बीसीसीआई के पूर्व मुखिया शरद पवार की भी हिस्सेदारी है। पवार ने अखबार के इस दावे को निराधार बताते हुए कहा कि जिस कंपनी के इस बिडिंग में शामिल होने की बात कही जा रही है वो इस किसी भी तरह की बोली प्रक्रिया में शामिल ही नहीं थी। पवार ने कहा कि सिटी कार्पोरेशन के एमडी ने व्यक्तिगत तौर पर पुणे की टीम के लिए बोली लगाई थी। लेकिन वो टीम पाने में कामयाब नहीं हुए इसलिए मामला यहीं खत्म हो गया। इससे पहले मामला फंसता देख कंपनी के एमडी देशपांडे का कहना था कि उन्हें शरद पवार के शेयर होने की कोई जानकारी तक नहीं है। लेकिन कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के डाटाबेस में साफ साफ दर्ज है कि पवार परिवार के पास सिटी कॉर्पोरेशन के 16.22 फीसदी शेयर हैं। सिटी कॉर्पोरेशन के शेयर 10 लोगों के नाम से लिए गए हैं जिसमें कंपनी के एमडी देशपांडे उनकी पत्नी सोना और शरद पवार की कंपनी लेप फाइनेंस और नम्रता फिल्म एंटरप्राइजिज लिमिटेड के नाम शामिल हैं। जबकि नम्रता फिल्म इंटरप्राइजेज लिमिटेड और लेप फाइनेंस से शरद पवार का संबंध है इसका खुलासा खुद शरद पवार 2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान दिए अपने एफिडेविट में भी कर चुके हैं। मालूम हो कि पुणे की टीम के लिए हुई नीलामी में सहारा समूह ने सबसे ज्यादा 1702 करोड़ की बोली लगाई थी। इसलिए सिटी कॉर्पोरेशन को पुणे की टीम नहीं मिली। इस पाकीजा को क्या नाम दें : पवार ने माना कि पुणे फ्रैंचाइजी के लिए सिटी कॉर्पोरेशन की ओर से बोली लगाई थी। पर उन्होंने बोली की प्रक्रिया में खुद या परिवार के शामिल रहने की बात को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि बोली पर्सनल लेवल पर लगाई गई थी और इसमें कंपनी का कोई निदेशक शामिल नहीं था। खबर में यह कहा गया है कि आईपीएल की पुणे फ्रैंचाइजी की बोली में पवार और उनके परिवार के सदस्य परोक्ष रूप से शामिल थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस सिटी कॉर्पोरेशन नामक कंपनी ने बोली लगाई थी उसके निदेशक मंडल में पवार, उनकी पत्नी और बेटी शामिल हैं।
बंसी पुकारे तेरा नाम :लैप फाइनैंस कंपनी और नम्रता फिल्म एंटरप्राइजेज शरद पवार (भारतीय कृषि मंत्री), उनकी पत्नी प्रतिभा पवार और बेटी सुप्रिया सुले (सांसद) की सौ फीसदी हिस्सेदारी वाली कंपनियां हैं। लैप में पवार परिवार के तीनों सदस्यों की बराबार हिस्सेदारी है, जबकि नम्रता फिल्म के 2000 शेयरों में से 1100 पवार की पत्नी के नाम हैं। खुद उनके नाम 652 और बेटी सुप्रिया के नाम 248 शेयर हैं। सिटी कॉरपोरेशन पुणे की कंस्ट्रक्शन कंपनी है। कंपनी के प्रबंध निदेशक अनिरुद्ध देशपांडे हैं। कंपनी के कुल 2.07 करोड़ शेयरों में लैप फाइनैंस के 25.6 लाख और नम्रता फिल्म के 8 लाख शेयर हैं। इन दोनों कंपनियों की सिटी कॉरपोरेशन में कुल हिस्सेदारी 16.22 फीसदी है। मार्च में सिटी कॉरपोरेशन ने पुणे आईपीएल की फ्रेंचाइजी हासिल करने के लिए 1,176 करोड़ रुपये की बोली लगाई थी। 21 मार्च को सहारा इंडिया ने 1,702 करोड़ रुपये में यह बोली जीती थी।
नहीं कर रहे यूं ही बदनाम : आईपीएल में पुणे की टीम के लिए कंस्ट्रक्शन कंपनी सिटी कॉर्पोरेशन ने 1176 करोड़ रुपए की बोली लगाई थी। इस कंपनी के 2 करोड़ 7 लाख शेयर में से 16.22 फीसदी शेयर शरद पवार के पास है और सिटी कॉर्पोरेशन में लैप फाइनेंस एंड कंसल्टेंट प्राइवेट लिमिटेड और नम्रता फिल्म एंटरप्राइजेज लिमि. का शेयर है। इन दोनों कंपनियों के मालिक शरद पवार, उनकी पत्नी प्रतिभा
मैं सच कह रहा हूं पवार ने कहा कि आईपीएल नीलामी में देशपांडे ने अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं के आधार पर हिस्सा लिया था। इस बोली में न तो उनके परिवार को कोई व्यक्ति शामिल था और न ही सिटी ग्रुप का इससे कोई संबंध था। पवार ने कहा कि इसके बाद नीलामी में टीम सहारा ग्रुप को मिली। उन्होंने अखबार में छपी खबरों पर चुटकी लेते हुए कहा कि यह अच्छी बात है कि वे और उनका परिवार आज के अखबारों में हैडलाइंस में है। लेकिन यह गलत खबर है। पवार ने कहा कि जहां तक इस रिपोर्ट की बात है तो ऐसी बात दो महीने पहले भी मीडिया में आई थी। मैं कहना चहता हूं कि मेरा या मेरे परिवार का आईपीएल से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कोई संबंध नहीं है। पवार ने स्पष्ट कहा कि सिटी कार्पोरेशन का नीलामी से कोई लेना-देना नहीं था। पुणे टीम के लिए लगाई गई बोली में सिटी कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक अनिरूद्ध देशपांडे शामिल थे। हालांकि पवार ने माना कि पुणे फ्रेंचाइजी के लिए सिटी कार्पोरेशन की ओर से बोली लगाई थी लेकिन उन्होंने बोली की प्रक्रिया में स्वयं या परिवार के शामिल रहने की बात को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि बोली व्यक्तिगत स्तर से लगाई गई थी और इसमें कंपनी का कोई निदेशक शामिल नहीं था। देशपांडे ने व्यक्तिगत स्तर पर इस नीलामी प्रक्रिया में हिस्सा लिया था। कंपनी ने इस संबंध में अपना पक्ष साफ कर दिया था। उसने अपनी विज्ञप्ति के माध्यम से साफ कर दिया था कि देशपांडे व्यक्तिगत स्तर पर बोली में शामिल थे। इससे कंपनी का कोई संबंध नहीं था। दागदार आईपीएल : आईपीएल को भारत ही नहीं दुनियाभर के क्रिकेटप्रेमियों का जबरदस्त समर्थन मिला। इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के ताजा संकट के बारे में कोई क्या लिख सकता है, जब पहले से ही इसका अंदाजा हो? तीन साल पहले जिस धूमधड़ाके के साथ आईपीएल की शुरुआत हुई थी और एक ब्रैंड के रूप में लोगों ने इसे स्वीकार किया, उससे दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा तो बढ़ी, लेकिन साथ ही क्रिकेट के इस स्वरूप से नाइत्तेफाकी जताने वालों को या तो नजरअंदाज कर दिया गया या फिर उन्हें चुप रहने के लिए कहा गया। बदकिस्मती से सच्चाई ये है कि हम अति हो जाने के बाद ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। किसी चीज की तारीफ या इसकी आलोचना करने से पहले इसकी अच्छाई या बुराई पर सोचना भी नहीं चाहते। आज आईपीएल दागदार है । मोदी की छवि राक्षस की बन गई। आईपीएल के पैरोकार घोटाले दर घोटाले के रहस्योदघाटन से सदमे की स्थिति में हैं। आलोचक हावी हैं और उनका कहना है कि इस हास्यास्पद मनोरंजनज्का ये हश्र तो तय था। पैंतरा बदलाआईपीएल की मलाई खाने वालों में एक बड़े हिस्सेदार मीडिया ने भी पैंतरा बदल लिया है। वो ये भूल गया है कि आईपीएल को दागदार करने वालों को बढ़ावा देने वालों में उसकी भूमिका अहम रही है। क्रिकेट प्रेमियों के साथ धोखा हुआ है और हो रहा है। क्या असल अपराधी राजनेता और उद्योगपतियों का गठजोड़ है या फिर पूँजीवाद जिसने परीकथा जैसी आईपीएल की शुरुआत को इस शर्मनाक मुकाम तक पहुँचा दिया है। कॉर्पोरेट गवर्नेंस में हम लोगों को बहुत यकीन है-बावजूद इसके कि दुनियाभर में आए आर्थिक संकट के लिए इसी कॉरपोरेट गर्वेंनेंस के तौर तरीके जिम्मेदार थे।
विपक्ष को धारदार हथियार संयुक्त संसदीय जांच की मांगभारतीय जनता पार्टी सहित विपक्ष को धारदार हथियार मिल गया है। विपक्ष अब इस घोटाले की संयुक्त संसदीय जांचकी मांग पर अड़ गई है। इसके पहले भी आईपीएल विवाद की तलवार बड़ी मुश्किल से शरद पवार और नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल के कंधे से हटी थी। जेडीयू और लेफ्ट ने यह मांग कर सकते में डाल दिया था कि जब तक आईपीएल की जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक उन दोनों केंद्रीय मंत्रियों का भी इस्तीफा लिखा लिया जाए जिनके नाम विवाद में हैं। विपक्ष इस मसले पर संयुक्त संसदीय समिति की भी मांग कर रहा था। संसद में हंगामा हुआ और स्थगन तक पहुंच गया। जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने तो आईपीएल को लुटेरों का अड्डा तक कह डाला था। लोगों ने क्या-क्या नहीं कहा। किसी ने कहा देश में खेला जा रहा सबसे बड़ा जुआ तो किसी ने बड़े लेवल का भ्रष्टाचार तो किसी -किसी ने तो पराकाष्ठा ही कर दी। दलाल और कोठे शब्द न चाहते हुए भी घुस आए मैदान में।
सवालों के घेरे में झूठ :शरद पवार तो आईपीएल विवाद में शशि थरूर और ललित मोदी के बाद खुद सवालों के घेरे में काफी पहले ही आ चुके थे, लेकिन इज्जत बचा ले गए। हैं। वर्ना शरद पवार ही नहीं बल्कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले और राकांपा नेता प्रफुल्ल पटेल तक सफाई देते घूम रहे थे। पवार साहब ने तो तब और हद कर दी थी कि पता ही नहीं कि आईपीएल में क्या हो रहा है। उसी समय एक अखबार में ये खबर आई थी कि एक ताकतवर मंत्री का दामाद भी आईपीएल की दो टीमों की हाल ही में लगी बोली में एक औद्योगिक घराने की ओर से शामिल हुआ था। उसे बोली जीतने पर तीस फीसदी की स्वेट इक्विटी देने का वादा किया गया था लेकिन ये घराना बोली नहीं जीत पाया और इस घराने के कागजात उसे वापस कर दिए गए। इस खबर के बाद सुप्रिया सुले ने एक साक्षात्कार में कहा था कि मैं ये साफ कर देना चाहती हूं कि मेरा, मेरे पति या मेरे परिवार का न तो आईपीएल की बोली से और न ही आईपीएल से कोई संबंध है। हमारा क्रिकेट से संबंध सिर्फ क्रिकेट प्रेमी के रूप में है। सबसे दिलचस्प सफाई खुद शरद पवार की ओर से आई। पवार ने कहा कि आईपीएल विवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं है। सुप्रिया की कर्णप्रिय बातें : केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की बेटी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की नेता सुप्रिया सुले ने कहा है कि सिटी कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक अनिरूद्ध देशपांडे ने व्यक्तिगत स्तर पर इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) की पुणे फ्रेंचाइजी के लिए बोली लगाई थी और उनके इस कदम का कंपनी के निदेशक मंडल ने विरोध किया था। उन्होंने कहा कि देशपांडे ने पुणे फ्रेंचाइजी के लिए व्यक्तिगत स्तर पर बोली लगाई थी और उनके इस कदम का कंपनी के निदेशक मंडल ने विरोध जताया था। सुप्रिया ने कहा, सिटी कार्पोरेशन में हमारी सिर्फ 16 फीसदी हिस्सेदारी है और ऐसे में कंपनी के फैसले में हमारा दखल नहीं होता है। बोली में मेरे परिवार की कोई भूमिका नहीं थी। मैंने पहले भी कहा है कि आईपीएल से हमारा कोई संबंध नहीं है। जरा याद करें ईमानदारी : तब आईपीएल फ्रैंचाइजी मामले में घोटाला मामले के केंद्र में रहे आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी से बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष शरद पवार ने सीधे इस्तीफे की मांग कर डाली थी। शरद पवार के घर पर बैठक में बैंगलोर रॉयल चैलेंजर्स के मालिक विजय माल्या सहित बीसीसीआई के भी कुछ अधिकारी उपस्थित थे। शरद पवार ने बीसीसीआई से मोदी को तीन से पांच दिन की मोहलत देने की अपील की। हालांकि बीसीसीआई सूत्रों के हवाले से आई खबर में बताया जा रहा है कि शरद पवार की वह अपील नहीं मानी गई। अब भ्रष्टाचार को नए ढंग से पारिभाषित किया जाएगा या फिर भ्रष्टाचार अपने तेवर से लोगों को रू-ब-रू कराएगा, यह तो समय ही बताएगा।

सोनिया गांधी अपनी जीवनी से इतनी डरती क्यों हैं?

बात एक ऐसी किताब की जिसके आने से पहले ही बवाल मच गया है। क्योंकि इस किताब के साथ सोनिया गांधी का नाम जुड़ा है। स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की एक किताब 'द रेड साड़ीÓ सोनिया गांधी की जिंदगी पर लिखी गई है। कांग्रेस पार्टी को किताब की कुछ लाइनों पर ऐतराज है और पार्टी चाहती है कि देश में किताब पर बैन लगा दिया जाए। पार्टी की तरफ से इस किताब के लेखक को कानूनी नोटिस भी भेजा गया है। सोनिया गांधी पर लिखी गई इस किताब के कुछ खास अंश हैं। 24 मई 1991 को राजीव का पार्थिव शरीर तीन मूर्ति हाउस के बड़े हॉल में रखा था। ये वक्त अलविदा कहने का था। सोनिया ने राजीव के पार्थिव शरीर पर श्रद्धांजलि अर्पित की। टेलीविजन कैमरों की नजर से पूरी दुनिया ने सोनिया को देखा, सोनिया ने लोगों को जैक्वेलीन केनेडी की याद दिला दी। राजीव की मौत से टूट चुकी सोनिया वापिस इटली जाने की सोचने लगीं। तो क्या राजीव गांधी की हत्या सोनिया गांधी को भारत छोडऩे और अपने देश इटली लौटने पर मजबूर कर रही थी। मोरो के कलम से सोनिया गांधी की ये जिंदगी स्पेन में 2008 से ही बिक रही है। अब इसके अंग्रेजी अनुवाद को भारत में बेचने की तैयारी है। मोरो ने राजीव गांधी की बर्बर हत्या के बाद के पलों को सोनिया गांधी की नजरों से देखने की कोशिश की है। वो लिखते हैं कि राजीव की मौत से सोनिया को झकझोर कर रख दिया और उसके बाद ही वो सब कुछ समेट कर वापस अपने मुल्क जाने की सोचने लगीं। जाहिर है कांग्रेस के नेता ये नहीं चाहेंगे कि सोनिया गांधी की एक ऐसी छवि जनता के बीच आ जाए जो पति की हत्या के बाद बहादुरी से हालात का सामना करने के बजाए, पति के ही देश को अपना देश बनाकर उनकी यादों को यहीं संजोने, अपने बच्चों को यहीं बड़ा करने के बजाए वापस अपने सुरक्षित मुल्क लौट जाने की सोचने लगी थीं। जाहिर है सोनिया गांधी की ये छवि उनकी मौजूदा छवि से मेल नहीं खाएगी। हालांकि किताब के लेखक मोरो दावा करते हैं कि उनकी किताब सोनिया की जिंदगी पर आधारित जरूर है लेकिन कहानी है पक्की काल्पनिक। लेकिन सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस का एक धड़ा सोनिया पर लिखी गई किताब 'द रेड साड़ीÓ से खासा खफा है। उसका कहना है कि एक जीवित शख्सियत की जिंदगी को काल्पनिक बनाने की कोशिश ठीक नहीं है। वो भी तब जब ये किताब सोनिया गांधी की जिंदगी से प्रेरित है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पेशे से वकील और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने मोरो को लीगल नोटिस थमा दिया है। 'द रेड साड़ीÓ का इटालवी, फ्रें च और डच भाषा में अनुवाद हो चुका है। मोरो का दावा है कि अब तक उनकी किताब एल साड़ी रोजा की करीब ढाई लाख कॉपियां बिक भी चुकी हैं। जाहिर है सोनिया की जिंदगी अंतर्राष्ट्रीय बेस्टसेलर के दर्जे में पहुंच रही हैं। लेकिन किताब पर तूफान सिर्फ राजीव गांधी की हत्या के बाद के पलों पर ही नहीं उठ रहा है बल्कि कहा ये भी जा रहा है कि कांग्रेस की नाराजगी किताब में दर्ज सोनिया की शुरुआती जिंदगी के कई पन्नों पर भी है। यानि सोनिया का बचपन और इटली में बिताए गए कई अहम पल। साफ है कांग्रेस सोनिया के नाम के साथ कोई खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं करने वाली। जी हां, राजीव गांधी की मौत के बाद इटली जाने की सोचने की बात के जिक्र के अलावा कांग्रेस पार्टी को किताब की कुछ और लाइनों पर भी ऐतराज है। जिसके जरिए लेखक ने सोनिया के बचपन की कुछ अनकही, अनसुनी बातों को दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है। ये किताब नहीं एक तूफान है। इसमें लिखी कुछ बातें अगर दुनिया के सामने आ गईं तो विरोधियों को बोलने का मौका मिल जाएगा। देश की सबसे बड़ी पार्टी का स्वयंभू सेंसर बोर्ड ऐसा नहीं चाहता। वैसे ऐसा नहीं है कि मोरो ने अपनी किताब में सिर्फ भारत आने के बाद ही सोनिया की जिंदगी के अहम पहलुओं को समेटा है। इस किताब में उस वक्त का भी जिक्र है जब इटली के एक छोटे से गांव लुजियाना में सोनिया का जन्म हुआ, मोरों की नजर में कैसे बीता सोनिया का बचपन किताब में वर्णन है। सोनिया के पैदा होने पर लुजियाना के घरों में परंपरा के अनुसार गुलाबी रिबन बांधे गए। चर्च ने सोनिया को नाम दिया एडविजे एनटोनिया अलबिना मैनो। लेकिन उनके पिता स्टीफैनो ने उन्हें सोनिया के नाम से पुकारा। रूसी नाम रखकर वो उन रूसी परिवारों का शुक्रिया अदा करना चाहते थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी जान बचाई। सोनिया के पिता स्टीफैनो, मुसोलिनी की सेना में थे जो रूसी सेना से हार गई थी। सोनिया जियावेनो के कॉन्वेंट स्कूल में गई लेकिन पढ़ाई उतनी ही की, जितनी जरुरत थी। यानी वो अच्छी स्टूडेंट नहीं थी लेकिन हंसमुख और दूसरों की मदद करने वाली थीं। कफ और अस्थमा की शिकायत की वजह से वो बोर्डिंग स्कूल में अकेले सोती थीं। आगे जाकर तूरीन में पढ़ाई के दौरान उनके मन में एयर होस्टेस बनने का अरमान भी जागा लेकिन वो सपना जल्द ही बदल गया। इसके बाद वो विदेशी भाषा की टीचर या संयुक्त राष्ट्र में अनुवादक भी बनना चाहती थीं। जाहिर है कांग्रेस पार्टी ये नहीं चाहेगी कि सोनिया की जिंदगी का ये अनछुआ पहलू भी दुनिया के सामने आए। सवाल उठाए जा रहे हैं वास्तविकता से छेड़छाड़ के लेकिन मोरो का दावा है कि उनकी किताब रिसर्च पर आधारित है और इसके लिए उन्होनें खुद सोनिया के होम टाउन लुजियाना में काफी वक्त बिताया। किताब की पांडुलिपि सोनिया की बहन नाडिया को भी दिखाई गई। लेकिन उन्होंने किताब पढऩे से इनकार कर दिया। खुद मोरो का मानना है उन्हें कांग्रेस पार्टी की तरफ से धमकी भरे ई-मेल्स भेजे गए हैं जिसमें किताब की कई लाइनों पर नाराजगी जताई गई है। हाल ही में प्रकाश झा की फिल्म राजनीति पर भी कांग्रेस ने आपत्ति जताते हुए फिल्म के कुछ दृश्य हटवा दिए थे। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक फिल्म की नायिका का किरदार भी सोनिया गांधी से प्रेरित है। ऐसे में फिल्म के आपत्तिजनक दृश्य कांग्रेस अध्यक्ष की छवि के अनुकूल नहीं थे। इससे पहले भारतीय मूल के ब्रिटिश फिल्म निर्माता जगमोहन मुंदड़ा को भी सोनिया गांधी की जिंदगी पर फिल्म बनाने का इरादा छोडऩा पड़ा था, क्योंकि कांग्रेस सेंसर बोर्ड ने इसकी इजाजत नहीं दी। भले ही इसे सृजनात्मक आजादी के हनन का नाम दिया जाए या लोकतंत्र के खिलाफ करार दिया जाए, कांग्रेस सोनिया गांधी के नाम पर कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। आखिरकार सोनिया ने ही कांग्रेस को नया जीवनदान दिया है। कांग्रेस नहीं चाहती कि सोनिया को लेकर कोई विवाद खड़ा हो या विरोधियों को विदेशी मूल का मुद्दा दोबारा उठाने का मौका मिले।

दंडकारण्य में बुद्ध की जरूरत

आज दंडकारण्य खूनी हो चुका है। गोलियों की आवाज से जंगली व हिंसक पशु भी घबरा उठे हैं। यहां एक अंगुलिमाल नहीं, हजारों हैं। जब अंगुलिमाल किसी व्यक्ति की हत्या करता था, तो उसकी अंगुली काटकर उसे अपनी माला में पिरो लेता था। इसी कारण उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा था। उसके अत्याचारों के बारे में बुद्ध ने सुना। उन्होंने उस डाकू को एक साधु के रूप में बदलने का निश्चय कर लिया। एक दिन बुद्ध उसके क्षेत्र में घूमने निकले। अंगुलिमाल ने उन्हें आता हुआ देखा। श्रमण की हत्या के लिए वह अपनी तलवार लेकर दौड़ा। बुद्ध अपनी स्वाभाविक गति से चले जा रहे थे, अंगुलिमाल अपनी पूरी शक्ति से उनके पीछे दौड़ रहा था, लेकिन फिर भी बुद्ध को पकड़ नहीं पा रहा था। भगवान बुद्ध रुक गए और जब डाकू अंगुलिमाल का आमना-सामना हुआ तो शांत भाव से कहा, हे वत्स अंगुलिमाल! मैं तो रुका हुआ हूं, अब तू भी पाप-कर्म करने से रुक। मैं इसलिए आया हूं कि तू भी धर्म-पथ का अनुगामी बन जाए। अंगुलिमाल पर आकाशवाणी की भांति ओजपूर्ण, मधुर एवं सिहरन पैदा करने वाले बुद्ध के वचनामृत का प्रभाव पड़ा। वह बोला, श्रमण ने मुझे जीत लिया। मैं आपके धर्म को स्वीकार करने के लिए तैयार हूं। उसने अपने गले से अंगुलियों की माला उतारकर दूर फेंक दी और अपनी तलवार भगवान के चरणों में समर्पित कर धर्म-दीक्षा की याचना की। धर्म-दीक्षा के लिए आज भी दंडकारण्य तरस रहा है। शेष को बचाने के लिए परिवेश को बदलने की दरकार है।

व्यावसायिक होती संवेदनाएं

टीस उठती है। दर्द शरीर के किसी भाग में नासूर बन कर नहीं उभरा है। दिल बेचैन है, मन व्यथित है। राहत के नाम पर आहत करने की परंपरा गली-कूचों से लेकर अट्टालिकाओं तक आ पहुंची है। सांसत हर जगह घर गया है। व्यवस्था अव्यवस्था के रूप में परिणत होते जा रहा है। हैरतअंगेज रूप से नामचीन अर्वाचीन की ओर तो अनाम नई पहचान के रूप में अब इंगित किए जा रहे हैं। कभी खानाबदोश के रूप में पहचाने जाने वाले अब बाशिंदे तय कर दिए गए हैं। आज यही पहचान बनते जा रहे हैं-हमारी नई संस्कृति के लिए। अहम बात यह कि इनका हमारी संस्कृति से दूर-दूर तक कोई जुड़ाव नहीं होता। नतीजा, संवेदना शुद्ध रूप से व्यावसायिक हो गई है। पैसे के हिसाब से रोना, पैसे के हिसाब से हंसना, पैसे के हिसाब से ही सहयोग की भावना रखना। फिर उम्मीद ही बेमानी है। ऐसे चरित्र के बल पर अपनी पहचान तो कभी हो ही नहीं सकती। दु:ख इसका और ज्यादा है कि जड़ से जुड़े लोग इनकी वजह से हाशिए पर खदेड़ दिए गए हैं। परिणाम भी सामने ही है। जहां कोई टक्कर देने की सोच भी नहीं सकता था, धक्के मार कर जा रहा है। चोट अंतर्मन पर लगती है। सोचने की विवशता आ खड़ी होती है कि जिसके लिए सबको छोड़ा, क्या तू वही है। अगर वही सही है तो इतने दिनों से मैं ही गलत था। पराए कंधे पर सर रखकर नाहक ही इतने दिनों तक गलमतफहमी का शिकार बना रहा। इत्तेफाक से साफ दर्पण हाथ लगा है। कोई धुंंधलका नहीं, तस्वीर तकदीर को साथ लिए खड़ी है। मैं अपने को ही मुंह चिढ़ा रहा हूं। इतने दिनों तक खुद को ही नहीं पहचान सका। मैं कौन हूं-पता किसी और से पूछ रहा हूं। शायद कोई मिले और मेरी बातों पर मुहर लगा दे कि बेवकूफों की कोई पहचान नहीं होती। ढूंढने की जरूरत ही क्योंकर, अपना चेहरा क्या कम है।

जनगणना में जाति का सवाल

2011 की जनगणना के लिए भारत सरकार की सेनाएं (कर्मचारियों की फौज) सज गईं हैं। हर घर जाकर भारत की वर्तमान जनसंख्या के बारे में आंकड़े जुटाए जा रहे हैं। इस प्रक्रिया के पहले चरण में जनगणना में लगे अधिकारी, लोगों के पास पहुंचने आरंभ हो गए हैं, बावजूद इसके संसद में बैठे जनसेवकों का एक बहुत बड़ा धड़ा आज भी इस बात पर आमदा ही नजर आ रहा हैं कि जनगणना को जातिगत आधार पर कराया जाए। देखा जाए तो भारत जैसा देश दुनिया में बिरला ही होगा, जहां हर वर्ग, धर्म, सम्भाव के लोगों को अपने मन मर्जी के काम करने की पूरी आजादी है। इन परिस्थितियों में भारत में जनगणना को जाति, वर्ग, संप्रदाय से पूरी तरह मुक्त ही रखा जाना चाहिए था। एक तरफ तो भारत सरकार यह बात जोर शोर से कहती है कि हम सिर्फ भारतीय हैं, वहीं दूसरी ओर जनगणना में जाति, वर्ग, संप्रदाय की बात कहना बेमानी ही होगा। भारत में जाति आधारित जनगणना का 1931 से 2001 तक किसी को भी जाति आधारित जनगणना नहीं किए जाने से कोई आपत्ति नहीं हुई। भारत गणराज्य के संविधान निर्माताओं ने भी जाति आधारित जनगणना को समर्थन नहीं दिया। दरअसल, जाति आधारित जनगणना को हवा मिली है पिछड़ों को आरक्षण देने की कवायद के बाद। पिछड़ों के बल पर राजनीति करने वाले नेताओं को लगने लगा है कि जाति आधारित जनगणना से अगड़ों और पिछड़ों की संख्या का ठीक-ठीक भान होने पर वे अपनी राजनीति को और अधिक चमका सकेंगे। देखा जाए तो यह मामला काफी हद तक आईने की तरह ही साफ है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भी इस तरह की मांग उठी थी, तब वाजपेयी की अगुआई में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इसे सिरे से खारिज कर दिया था। इसके बाद पिछले साल नवंबर में केंद्रीय कानून मंत्री ने भी जाति आधारित जनगणना चाही थी, पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे भी खारिज ही कर दिया था। जाति आधारित जनगणना चाहने वालों का तर्क सही करार दिया जा सकता है कि जब सरकार जाति के आधार पर आरक्षण और अन्य कार्यक्रमों का संचालन करती है तो फिर जनगणना को जाति के आधार पर क्यों नहीं! इस मामले में सरकार को सोचना ही होगा कि आखिर ऐसा क्यों! क्या देश के शासकों ने अब तक की नीतियां इतनी खोखली बनाईं थीं कि समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण का प्रावधान करने के बावजूद पिछड़ों को मुख्यधारा में नहीं लाया जा सका है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि जाति आधारित आरक्षण को तत्काल प्रभाव से बंद कर दिया जाना चाहिए। इसके स्थान पर अब गरीबों की आर्थिक स्थिति को आधार बनाकर आरक्षण का प्रावधान किया जाना चाहिए, क्योंकि गरीब की कोई जात नहीं होती। आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को वास्तव में सरकारी इमदाद की आवश्यक्ता है। विडंबना ही कही जाएगी कि इस मामले में न तो केंद्र सरकार ही कोई ध्यान दे रही है और न ही विपक्ष में बैठे जनसेवक ही कोई प्रयास करते नजर आ रहे हैं। भारत की आजादी के उपरांत यही अवधारणा जन्मी थी कि वंचित और दबे कुचले, असहाय समुदायों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण की अस्थाई व्यवस्था की जाए ताकि ये अपना सामाजिक जीवन बेहतर बना सकें। यह व्यवस्था पहले दस सालों के लिए लागू की गई थी, बाद में किसी जांच आयोग के कार्यकाल की तरह इसकी समयावधि निरंतर ही बढ़ाई जाती रही है। देखा जाए तो आरक्षण के पीछे मूल भावना यह रही है कि जात-पात के भेदभाव को अंततोगत्वा समाप्त ही किया जाए। पिछले कुछ दशकों में आर्थिक सामाजिक विकास की सतत प्रक्रिया ने लोगों के रहन-सहन पर गहरा प्रभाव डाला है। इसके परिणाम स्वरूप समाज और परिवार का ढांचा बदला है। एक समय था जब अंतर्जातीय विवाह करने वाले को आश्चर्य की नजर से देखा जाता था। आज खाप पंचायतों के तुगलकी फरमानों को अगर छोड़ दिया जाए तो इस तरह के विवाह आम हो चुके हैं। 2011 की जनगणना में 2,209 करोड़ रुपए फूंके जाने वाले हैं, इस बार। इस काम में 12 हजार टन कागज का प्रयोग किया जाएगा, एवं 64 करोड़ से ज्यादा फार्म भरे जाएंगे। इस काम में 25 लाख से अधिक कर्मचारी और अधिकारी शामिल हो रहे हैं । इसमें 7 हजार कस्बे और 6 लाख गांव शामिल किए गए हैं। देखा जाए तो जब बच्चा स्कूल में पढ़ता है, तब उसे यह पता नहीं होता है कि वह जिसके बाजू में बैठकर अध्ययन कर रहा है वह किस जाति का है, वह तो महज उसका नाम ही जानता है। स्कूल में रोजाना आधी छुट्टी के वक्त जिसके साथ बैठकर वह अपना टिफिन शेयर करता है, वह किस जाति का है उसे इससे कोई लेना देना नहीं होता है। बाद में जब वह पढ़ लिखकर नौकरी के लिए जाता है तब जरूर उसे पता चलता है कि फलां नौकरी उसके उसी बाल सखा को मिल गई क्योंकि वह पिछड़ा था, और वह इसलिए वंचित रह गया क्योंकि वह अगड़ी जाति के घर में जन्म लेकर दुनिया में आया है। इस तरह के भेदभाव को जन्म देने वाली व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से रोकने की महती आवश्यक्ता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो भारतवासियों की आपस में बढ़ती कटुता को और अधिक बढ़ाने के मार्ग प्रशस्त होंगे, जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि जनसेवकों को अपने निहित स्वार्थों को परे रखना ही होगा, और अखंड भारत में दरार डालने वाली जात पात की व्यवस्था पर लगाम लगाना होगा, वरना आने वाले कल के भारत की तस्वीर और भयावह हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

दिल्ली दिल से सुने

विदर्भ की विधवाएं अब अपना दुखड़ा सुनाने दिल्ली जाएंगी। वे प्रधानमंत्री को बताने की कोशिश करेंगी कि कैसे प्रधानमंत्री राहत पैकेज के नाम पर जो कुछ विदर्भवासियों को दिया गया वह सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। दरअसल राज्य की पब्लिक एकाउण्ट्स कमेटी ने नवंबर 2009 में सदन पटल पर जो रिपोर्ट रखी थी उसमें बताया था कि प्रधानमंत्री राहत पैकेज के नाम पर जो 3750 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। अब खबर है कि राज्य सरकार फिर 7650 करोड़ के सिचाईं पैकेज की मांग कर रही हैं। दरअसल दिल्ली दौरे का उद्देशय इसी पैकेज के बंदरबांट को रोकने की कवायद है, ताकि किसी और किसान की लाश उसके खेतों से न निकले। देखा जाए तो आए दिन यहां हो रही किसी एक किसान की मौत विदर्भ में खदबदा रही मौत की हांडी के एक चावल की तरह है। कहते हैं कि विदर्भ कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी का मायका है और कालिदास के मेघदूत पर भरोसा करें तो यक्षों और गंधर्वों का निवास स्थान। लेकिन कभी धन-धान्य से भरपूर विदर्भ की हवा में श्मशान की गंध भरी हुई है। प्रेमचंद के किस्सों में आजादी के पहले के किसानों के मजदूर बनने का जो दर्द मिलता है, वो विदर्भ में छितराया पड़ा है। विदर्भ के किसानों से मिलें तो साफ हो जाएगा कि उनकी जिंदगी ही कर्ज है। हर अगली फसल के लिए कर्ज लेने को मजबूर। शादी-विवाह या त्योहारों के लिए भी वो कर्ज पर निर्भर हैं। और जब बैंक या साहूकार का दबाव बढ़ता है तो वे चुपचाप कीटनाशक पीकर जिल्लत की जिंदगी से विदा ले लेते हैं। दिलचस्प बात ये है कि सरकार बीच-बीच में कर्जमाफी की जो लोकलुभावन घोषणा करती है, उसका कोई खास लाभ किसानों को नहीं मिलता। कर्ज में डूबे किसानों का आत्मविश्वास टूट चुका है। दूसरी तरफ किसी भी राजनीतिक दल की चिंता में ये मसला नहीं रह गया है। विदर्भ जनांदोलन समिति जैसे कुछ संगठन जरूर ये मुद्दा उठाते रहते हैं लेकिन हाशिये का ये हस्तक्षेप बड़ा स्वरूप ग्रहण नहीं कर पा रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि विदर्भ के किसान खुदकुशी नहीं कर रहे हैं, शहादत दे रहे हैं। वे जान देकर हमें चेताना चाहते हैं कि देश को खेती और किसानों के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। वे विकास के मौजूदा मॉडल पर बलि होकर देश की नाभिस्थल कहे जाने वाले विदर्भ में जीवन जल के सूखने की मुनादी कर रहे हैं। लेकिन ये मुनादी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था सुनने को तैयार नहीं। विकास के सारे हो हल्ले के बीच किसानों का दर्द गायब है। राजनीति तेजी से परिवेश को आत्मसात करती जा रही है। जीने की बात कौन करे मरने की घटनाओं पर भी अपना ठप्पा चस्पा करने की जिद पार्टियों ने ठान ली है। विदीर्ण व्यवस्था को भली भांति समझने में माहिर शातिर लालफीताशाही चादर ताने सो रही है। तानों से इन्हें कोई परवाह नहीं। अगर होता तो विदर्भ के किसान विधवाओं की फरियाद दिल्ली पहुंचाने की तैयारी नहीं होती। विधवा शब्द अपने आप में संवेदना का हकदार है। सिफारिश यहां आकर गौण हो जाता है, लेकिन स्थितियां उलट हो गई हैं। झोलियां फैली हैं, मगर वर्षों से खाली है। कभी कोई दिवाली नहीं।

सरकार सोई नहीं है

सरकार सोई या बीमार नहीं है, वो जाग रही है। उसने तो सत्ता, नोट और बाहुबल केत्रिफला चूर्ण से अपना हाजमा सुधार रखा है। वो पचा लेती है तिल-तिल कर मर रहे भूखे लोगों का दर्द। वो देखती है बिल्कुल करीब से महंगाई के इस दौर में गरीब का आटा गिला होते।आंकड़े एकत्र करती है औरसंसद में पेश करती है कि आज कितने किसानों ने खुद्कुशी की। वो अनुसन्धान में रत है कि आखिर बेरोजगारी से कितने परिवार तबाह होते हैं या कितने युवा काम की तलाश में उसके किसी मोर्चे में,किसी आन्दोलन मेंचन्द पैसों के लिये मर भी सकते हैं। वो अध्ययन करती हैकि ऐसे कौन से मुद्दे हो सकते हैं जो प्रजा के मर्म परप्रहार कर नाजुक भावनाओं को तहस-नहस कर सके। वो परखती है कि महंगाई के बावज़ूद आम आदमी कैसे जिन्दा रह लेता है? वो अपने साथ अपने परिजनों को भी मुफ्त हवाई यात्रा करा कर देश में फैली अस्थिरता के दर्शन कराती है। सच में सरकार सोई नहीं है। उसे चिंता है देश की। सोई तो प्रजा है जिसे कुछ भान भी नहीं कि देश चलता कैसे है? धन स्वीस बैकों में पहुंचता कैसे है? कैसे नेता बनते ही धनवान बना जा सकता है?और कैसे आदमी को उल्लू बनाया जाता है? उसने बड़ी लगन से वैज्ञानिक अविष्कार किया है कि हवा के ज्यादा दबाव में कैसे विकल्पहीनता पैदा की जा सकती है? सचमुच राजनीति का त्रिफला बहुत फलता है। जनता अर्धचेतन में है। गहरी नींद में होती तो उठाया जा सकता था। मगर वह मूर्छित है। सब देख रही है, लेकिन कुछ करने की इच्छा मात्र भी शेष नहीं।