बुधवार, 6 नवंबर 2013

सिद्धांतों पर आधुनिकता का भीषण बोझ

महात्मा गाँधी ने अपने जीवन के सत्याग्रह में जिन तीन बंदरों को जन्म दिया दरअसल वे तीन बंदर ही एक विस्तृत समाज व अहिंसा के सिद्धांत की सीढ़ियाँ कहे जा सकते हैं, लेकिन अफसोस कि महात्मा गाँधी के उन तीन बंदरों का अनुपालन करने का सामर्थ्य आज विश्व में किसी भी व्यक्ति के पास नहीं हैं। जिसके परिणाम स्वरूप विश्व में हिंसाशोषणअत्याचार व आपराधिक प्रवृत्तयों का कोप दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा हैं। यहां तक कि हमें जो सिद्धांत धरोहर के रूप में मिले वे आज आधुनिकता की बलि-बेदी पर बेड़ियों से जकड़े उन्हीं महापुरूषों की राह ताक रहे है, जिन्होंने उन्हें जन्म दियाउनका लालन-पालन कर उन्हें इस योग्य बनाया कि वे कुंठित समाज से एक सभ्य व नम्र समाज का खाका खींच सकें। पर इन सिद्धांतों पर हमने आधुनिकता का इतना भीषण बोझ रखा कि सभ्य समाज का सपना तो छोड़ो इन सिद्धांतों की परिकल्पना भी आज नहीं की जा सकती। शायद इसका एक कारण मानव का स्वार्थी होना भी रहा है। क्योंकि स्वार्थ ही वह बेड़ी है जो व्यक्ति को जकड़ कर उसे अपनों से दूर कर देती है फिर सिद्धांतों को यहाँ कहावतों के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता।
यही कारण है कि देश ही नहीं समूचे विश्व में नित नये अपराधों की उगाही से व्यथित हृदयों की पुकारें आज भी महात्मा गाँधी को रो-रो कर पुकारती हैं। इसका कारण अहिंसा के प्रति उनकी सत्यनिष्ठा ही कही जा सकती है। विश्व में शांतिसौहाद्रता व भाईचारा बने इसके लिये जरूरी है अहिंसा का वह नारा जिसे महात्मा गाँधी ने “अहिंसा परमो धर्मः” कह कर बुलन्द किया। जिसके लिये तीन सीढ़ियों को बनाया और उन्हें हिदायतें दी कि वे बुरा न देखें, ‘बुरा न सुनें और बुरा न कहें। लेकिन आज ये हिदायतें इस आधुनिकता के दौर में इतनी फीकी दिखाई देती है कि विश्व और देश तो छोड़ो इनका अनुपालन घर-परिवार में भी नहीं किया जाता। एक-दूसरे के प्रति बने आदरसम्मान व स्नेह को हमने इस कदर लताड़ दिया है कि वर्षो पुरानी सारी की सारी परम्पराएँधूमिल होती जा रही है। आधुनिकता का ढोंग और बढ़ती स्वार्थ प्रियता के कारण महात्मा गाँधी के उन तीन बन्दरों ने भी सख्त हिदायतों के बावजूद अपने आँखकान व मुँह पर बंधी पट्टियाँ खोल दी है। जिससे कि महात्मा गाँधी का सभ्य समाज के लिये देखा गया सपना भी चकना चूर हो गया हैं।
कुल मिलाकर हमने इन तीन बन्दरों को महज बन्दर ही मानालेकिन ये बन्दर बिना गोरे-काले का भेद किये प्रत्येक इंसान में समाये वे गुण हैं जिनसे एक शांतिमय वातावरण स्थापित किया जा सकता है। ऐसे में इन तीन बन्दरों का पतन सम्पूर्ण मानव जाति का पतन कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। मानव समुदाय से इन तीन गुणों के पतन के बाद समूचा विश्व न जाने किस ओर जायेगालेकिन महात्मा गाँधी के वे तीन बन्दर हमेशा याद किये जायेंगे

फोकट में बोरियत भगाने का बेहतर संसाधन मॉल

मेरे शहर में भी आजकल एक विशेष टाईप की गंध पसरी हुई है ये गंध शहर के नवनिर्मित शॉपिंग मॉलों से निकल रही है। आदमीऔरतबच्चेबूढ़े सभी कस्तुरी मृग से मगन इसे सुंघते हुए मॉल के अंदर घूम रहे हैं। पहले शहर में एक मॉल खुला फिर खुलते चले गए लोग भी पहले एक में घुसे फिर बाकियों में भी घुसते चले गए। शॉपिंग मॉल की कुछ विशेषताएँ होती है जो लोगों को बेहद आकर्षित करती हैं। इसमें घूमने-फिरने हेतु पर्याप्त स्थान होता है पार्किंग शुल्क नहीं होता है ये वातानुकूलित होते हैं तथा अति महत्वपूर्ण यह कि वस्तु खरीदना कतई जरूरी नहीं होता है। शहरवासियों को फोकट में बोरियत भगाने का इससे बेहतर संसाधन कहाँ मिल सकता है। मॉल अर्थात् आधुनिकता का नवीनतम लबादा पहना हुआ मेला। मॉल हर दृष्टिकोण से मॉल ही होता है यहाँ सब्जी खरीदने से लेकर फिल्म देखने तक का इंतजाम होता है। मॉल चाहे पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित हो उसमें जाने वाला तो अपना देशी आदमी ही है। मॉल में घुसते ही वो मॉल के कल्चर (?)में ढलने का प्रयास करने लगता है तथा इस प्रयास में शनैःशनैः अपनी सहजता को खाने लगता है। भीड़ के भय से वो अपना बटुआ तो नहीं गिरने देता पर उसकी सहज़ता मॉल के बाहर गिर जाती है और उसे पता भी नहीं चलता। अपने इस असामान्य व्यवहार में मॉल के भीतर हर व्यक्ति यह बताने का प्रयास करता है कि वो यहाँ अनेकों बार आता-जाता रहता है तथा इस कल्चर” को खूब जानता है। मॉल में खाने हेतु कुछ विशेष प्रकार से निर्मित रेस्टोरेंट होते हैं। अमूमन यहाँ खाने हेतु जो भी मिलता है वो सामान्य रूप से घरों में न तो बनाया जाता है और न ही खाया जाता है। पिज्जा खाना मॉल में जाने-घूमने की अघोषित शर्त के समान होती है। जिनके बाप-दादाओं ने ना कभी पिज्ज़ा देखा हो या खाया हो वे अत्यन्त असहजता के साथ सहज पिज्जा को ऐसे देखते हैं मानो प्लेट में भूचाल आ गया हो। जिन लोगों ने समोसेकचैरी और आलू बड़े के स्वाद की व्याख्या और इन पर बहस – मूबाहिसों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हो वे पिज्जा के गुणों-अवगुणों पर चर्चा करने में अपने को सबसे पिछली कतार में खड़ा पाते हैं। अनेक अवसरों पर तो रेस्टोरेंट में दिए जाने वाले मैन्यू में लिखे नाम लोगों की सामान्य समझ से ही बाहर होते हैं पर जब सवाल पैसे चुकाने से जुड़ा हो तो व्यक्ति अपने आत्म सम्मान को क्षणिक रूप से खूंटी पर टांग कर पूछ ही लेता है कि इस आईटम में आखिर मिलेगा क्या और कितने लोग खा सकेंगे मॉल में बने रेस्तरां आमतौर पर वे स्थान हैं जहाँ खाने वाला स्वयं को बिना बात के गर्वित महसूस करता है हालांकि यह अलग बात है कि अधिकांश लोग बाद में यह समीक्षा करते पाए जाते हैं कि अगली बार यदि मॉल में चले तो घर से खा-पीकर ही चलेंगे।