शनिवार, 22 जून 2013

संघ, नागपुर और भाजपा

समाज में बड़ा नाम, सम्मान पाने वालों को कई बार घर में ही सम्मान या स्वीकार्यता का संघर्ष करना पड़ता है। जानी - मानी हस्तियां इस अनुभव के साथ जीती रही हैं। सार्वजनिक जीवन में जीत के शिखर तक पहुंचने के बाद भी घर-परिवार का अपेक्षित प्रेम न मिल पाना, सालते रहता है। नागपुर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म स्थान हैं। दोनों की परस्पर पहचान जुड़ी है। देश व देश के बाहर संघ भले ही राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ रहा है, लेकिन जन्मस्थान में अब वह अपेक्षित स्थान नहीं बना पाया है।
पुस्तैनी आवास के तौर पर नागपुर में संघ की दो इमारतें हैं। 1925 में डॉ.केशव बलीराम हेडगेवार ने संघ की नींव रखी। वे कोलकाता में मेडिकल छात्र थे। अंगरेजों के राज में संघ की बातें युवाओं को प्रभावित करती थी। अंगरेजी कालोनियों का विरोध व मुस्लिमों के पृथक्कीकरण का मुद्दा उठाया जाता था। करीब दो दशक पहले तक रेशमबाग स्थित हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ का मुख्यालय मानता और समझता था। हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है। हर सुबह, शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती है और खुला मैदान होने के कारण खेल का शोर कुछ इस तरह रहता है कि पुराने नागपुर की दिशा में जानेवाले हर शख्स को दूर से दिखाई पड़ जाता है। आज भी हेडगेवार भवन सभा, चिंतन व प्रशिक्षण के लिहाज से महत्वपूर्ण है। आधुनिकीकरण किया गया है। बड़ी लागत का सभागृह बनाया गया है। लेकिन असली संघ मुख्यालय की बात हो तो महल क्षेत्र का भवन याद किया जाता है। 6 दिसंबर 1992 को समूचे देश में हंगामा मचा हुआ था। अयोध्या-विध्वंस को लेकर क्रिया-प्रतिक्रिया की आहट सुनायी दे रही थी। तब के सरसंघचालक बालासाहब देवरस को संघ के महल-भवन के अहाते में कुर्सी पर बैठाया गया। तब तक इस संघ मुख्यालय की पहचान उसी तरह थी जैसे किसी रिहायशी बस्ती में सामाजिक संगठन के कार्यालय की रहती है। उस दिन के बाद संघ मुख्यालय मील के पत्थर में तब्दील हो गया। पुलिस के डेरे के रुप में पहचान होने लगी। सुरक्षा टेंट लगाए गए ,जवानों की टोली बिठा दी गई। 20 वर्षों में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीनें आ गई। महल का मतलब संघ का मुख्यालय हो गया। अब संघ की सारी शतरंज यहीं खेली जाती है।
एक बात और। संघ पर अंगरेजों ने आधा दर्जन से अधिक बार प्रतिबंध लगाया। स्वतंत्रता के बाद भी 3 बार प्रतिबंध लगा। 1948 में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। तब गोडसे संघ छोड़ चुके थे। फिर पर संघ को प्रतिबंध की सजा मिली। आपातकाल के समय 1975 से 78 तक अन्य संगठनों के साथ ही संघ पर भी प्रतिबंध लगा। उसके बाद 1993 में संघ ने प्रतिबंध का स्वाद नागपुर में ही चखा।
अयोध्या-विध्वंस के बाद संघ को नई पहचान मिली। वह स्वयं बदलाव के पथ पर नजर आया। अयोध्या मामले पर स्वयंसेवक की भूमिका निभानेवाले कांग्रेस के बनवारीलाल पुरोहित ने भाजपा की टिकट पर नागपुर से चुनाव लड़ा। वे चुने गए, संसद पहुंचे। उस जीत से भाजपा को जितनी खुशी मिली, उससे कहीं अधिक संघ गदगद हुआ होगा। लेकिन खुशी व्यक्त करने की स्थिति भी नहीं बन पायी। संघ व भाजपा दिल्ली की राजनीति के मामले में यह कहने की स्थिति में नहीं पहुंच पाए कि नागपुर उनके साथ है।
संघ के राजनीतिक संस्करण जनसंघ को कभी नागपुर में जीत नहीं मिली। आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत विदर्भ की सभी 11 सीटों पर जनता पार्टी का उम्मीदवार जीत नहीं पाया। प्रयासों के बाद भी संघ नागपुर में भाजपा को लाभ नहीं दिला पाया।
ऐसा भी नहीं है कि संघ को नागपुर में अपनी पहचान बनाने का अवसर नहीं मिला। स्वतंत्रता संघर्ष के समय महात्मा गांधी के समांतर संघ नेता चलते रहे। गांधी को लेकर संघ के विचार समझे जा सकते हैं। लेकिन दलितों को लेकर डॉ.बाबासाहब आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नजर नहीं आया। नागपुर या महाराष्ट्र में दलितों की संख्या राजनीतिक ,सामाजिक गतिविधियों के मामले में काफी मायने रखती है। नागपुर में दलितों के संघर्ष से लेकर बुनकरों का संघर्ष स्वतंत्रता के बाद से ही शुरु हुआ,लेकिन संघ साथ नहीं खड़ा हुआ।
यहां बुनकरों के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गए थे। अंगरेजों ने सबसे बड़ी कपास मिल स्थापित की थी। संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बी.एम.एस ने कॉटन मिल में ही अपनी यूनियन बनायी थी। 90 के दशक में मिल बंद होने को आयी तो बीएमएस मजदूरों के हक की लड़ाई से किनारा करते नजर आया। संघ उन लोगों से भी पहले अधिक मधुरता नहीं बना पाया, जिन्हें उसका समविचारी समझा जाता था। आज भले ही संघ राजनीतिक तौर पर सक्रिय है व बदलाव को स्वीकार कर रहा है। पर हिंदू महासभा के राजनीतिक स्वरुप को संघ झटकती रही। पहली बार जब सावरकर नागपुर पहुंचे तो उन्होंने कॉटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीकों को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा माना था। संघ की राजनीतिक समझ पर सवाल उठाए थे। सावरकर संघ मुख्यालय भी नहीं गए।
सरसंघचालक डॉ.मोहन भागवत भारतीय मुस्लिमों को हिंदुत्व का ही हिस्सा मानते हैं। लेकिन 7 दिसंबर 1992 को मुस्लिमों के प्रति संघ की जो समझ उभरी वह अब भी कायम है। 6 दिसंबर को बालासाहब देवरस के नजर कैद होने के बाद मोमिनपुरा में हिंसा हुई। रैलियों की शक्ल में सड़क पर आए लोगों पर पुलिस ने गोलीबारी की। 9 युवा समेत 13 लोग मारे गए। तब कहा गया कि मुस्लिमों की रैली व अन्यों की रैली के साथ पुलिस भी दोयम दर्जे का व्यवहार करती है। नागपुर में अन्य संगठन की भी रैली निकली थी। उसे बर्दाश्त कर लिया गया। गोलीबारी के बाद तत्कालीन पुलिस आयुक्त अरविंद इनामदार का तबादला किया गया। लेकिन युति सरकार ने उन्हें पदोन्नति भी दी। अयोध्या प्रकरण के पहले संघ की पहचान स्वयंसेवी संस्था की तरह ही थी। लेकिन बाद में वह राजनीतिक सत्ता की सीढिय़ों पर चढ़ता नजर आया।
एक दशक में
नागपुर में भले की संघ समाज में पूरी तरह से घुल मिल नहीं पाया पर संघ पर नागपुर का प्रभाव बढ़ता गया। राजग सरकार तक स्थिति थोड़ी अलग थी। लालकृष्ण आडवाणी का मतलब भाजपा के रुप में प्रचारित किया जाता था। सबकुछ दिल्ली में तय होता था। नागपुर से जुड़े डॉ.मोहन भागवत के तेवर ने संघ व भाजपा में हलचल मचा दी। आडवाणी ने पाकिस्तान में जिन्ना का गुणगान क्या किया भागवत तीखेे बोलने लगे। वे सरसंघचालक पद पर नहीं थे। संघ व भाजपा में तालमेल की बात पर यह भी कहा जा रहा था कि भागवत को संयम में रहना चाहिए। लेकिन नागपुर में एकाएक परिवर्तन हुआ। के.एस सुदर्शन ने सरसंघचालक की कुर्सी पर अपनी जगह डॉ.भागवत को बिठा दिया। उनका कहना था- पिता की चप्पल पुत्र के पैर में आने लगे तो पिता को समझ लेना चाहिए कि परिवार में मुखिया बदलने का समय आ गया है। युवाओं को प्रोत्साहन देना आवश्यक है। उम्र भले ही 60 तक पहुंच रही है पर भागवत युवा हैं। युवा को नेतृत्व देने की बात वहीं नहीं थमी। भाजपा को युवा नेतृत्व देने की सुगबुगाहट ने सबका ध्यान नागपुर की ओर खींच लिया।  2009 में भाजपा महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की हार का चिंतन भी नहीं कर पायी थी। महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष नितीन गडकरी को देश स्तर पर भाजपा की कमान सौंपी गई। केंद्रीय स्तर पर पारिवारिक कसमसाहटों के बाद भी संघ व भाजपा का नियंत्रण केंद्र नागपुर हो गया। यह बात अलग है कि अपनों में गिने जानेवाले ही अधिक आंख दिखाते रहे।
   





बंजर का खंजर

देश की मिट्टी में क्षारीय तत्व तेजी से बढ़ रहा है और बंजर जमीनों का दायरा भी बड़ा हो रहा है।   परिणाम यह हो रहा है कि देश की 45 फीसदी जमीन अनुत्पादक और अनुपजाऊ हो गयी है।  वनों का विनाश हो रहा है, खदान और पानी का अनियमित दोहन किया जा रहा है तथा गलत तरीके के खेती की पद्धतियों का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे जमीन को सबसे अधिक नुकसान पहुंच रहा है। अगर थोड़ी सावधानी बरती जाए और कुछ प्रयास किया जाए तो खराब हो चुकी 14.7 करोड़ हेक्टेयर जमीन को दोबारा ठीक करके मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है।
एक सर्वे के अनुसार, देश के 11 करोड़ लोग धूल और धुएं के शिकार हैं तथा इन शहरों में प्रदूषण के कारण 15,000 करोड़ सालाना का जीडीपी में नुकसान हो रहा है। शहरों में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ रही गाडिय़ों की संख्या है, उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है सार्वजनिक परिवहन को पूरी मजबूती के साथ चुस्त दुरुस्त किया जाए।
तेजी से बढ़ता शहरीकरण भी पर्यावरण के सामने गंभीर चुनौती पैदा कर रहा है जिस तरह से गावों को अनुत्पादक बनाया जा रहा है उसके कारण गांवों से तेजी से शहरों की तरफ पलायन हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रहनेवाली कुल आबादी का 20 से 40 प्रतिशत झुग्गियों में रह रहा है।  शहरों में मूलभूत सुविधाएं बढ़ाने के नाम पर केन्द्र सरकार द्वारा जो पैसा खर्च किया जा रहा है उसका अधिकांश हिस्सा महानगरों में खर्च हो रहा है जबकि असल समस्या उन 4,000 छोटे शहरों में पैदा हो रही है जहां तेजी से पलायन करके लोग पहुंच रहे हैं। साफ है कि देश के विकास के माडल पर दोबारा सोचने की जरूरत है। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकार विकास के नाम पर खुद देश के पर्यावरण और लोगों के जीवन पर संकट पैदा कर रही है। केवल रिपोर्ट जारी करते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा, जरूरत इस बात की है कि सरकार पूरी औद्योगिक नीति में बदलाव लाये ताकि बदलते पर्यावरण में धरती और लोग दोनों को बचाया जा सके।
आजकल के उद्योगों से तरह-तरह के विषैले रासायनिक उत्सर्जन होते हैं जो कैंसर आदि भयंकर बीमारियाँ ला सकते हैं। विदेशों में उद्योगों के उत्सर्जन पर कड़ा नियंत्रण होने से बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने पुराने और ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को भारत जैसे विकासशील देशों में ले आई हैं। इन विकासशील देशों में प्रदूषण नियंत्रण कानून उतने सख्त नहीं होते या उतनी सख्ती से लागू नहीं किए जाते। इन कारखानों में सुरक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। इनमें कम उन्नत प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जाता है जो सस्ते तो होते हैं, परंतु संसाधन बहुत खाते हैं और प्रदूषण भी बहुत करते हैं। इन कारखानों की मशीनरी पुरानी होने, सुरक्षा की ओर ध्यान न दिए जाने या लापरवाही के कारण कई बार भयंकर दुर्घटनाएँ होती हैं जिसके दौरान भारी परिमाण में विषैले पदार्थ हवा में घुल जाते हैं। इस तरह की घटनाओं का सबसे अधिक ज्वलंत उदाहरण भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक कारखाने में हुआ विस्फोट है। इस दुर्घटना में एमआईसी नामक अत्यंत घातक गैस कारखाने से छूटी थी और हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गई। इस तरह की अनेक दुर्घटनाएँ हमारे देश के औद्योगिक केंद्रों में आए दिन घटती रहती हैं। उनमें मरने वालों की संख्या भोपाल के स्तर तक नहीं पहुंची है लेकिन इससे वे कम घातक नहीं मानी जा सकतीं। मानव स्वास्थ्य को पहुंचे नुकसान के अलावा भी वायु प्रदूषण के अनेक अन्य नकारात्मक पहलू होते हैं। नाइट्रोजन के ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड अम्ल वर्षा को जन्म देते हैं। अम्ल वर्षा मिट्टी, वन, झील-तालाब आदि के जीवतंत्र को नष्ट कर देती है और फसलों, कलाकृतियों (जैसे ताज महल), वनों, इमारतों, पुलों, मशीनों, वाहनों आदि पर बहुत बुरा असर छोड़ती है। वह रबड़ और नायलोन जैसे मजबूत पदार्थों को भी गला देती है। वायु प्रदूषण राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं मानता और एक देश का प्रदूषण दूसरे देश में कहर ढाता है। जब रूस के चेरनोबिल शहर में परमाणु बिजलीघर फटा था, तब उससे निकले रेडियोधर्मी प्रदूषक हवा के साथ बहकर यूरोप के अनेक देशों में फैल गए थे। लंदन के कारखानों का जहरीला धुंआ ब्रिटिश चैनल पार करके यूरोपीय देशों में अपना घातक प्रभाव डालता है। अमेरिका का वायु प्रदूषण कनाडा में विध्वंस लाता है। इस तरह वायु प्रदूषण अंतर्राष्ट्रीय तकरारों को भी जन्म दे सकता है। भारत के दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता आदि बड़े शहरों में वायु प्रदूषण गंभीर रूप ग्रहण करता जा रहा है। नागपुर के राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) के अनुसार इन शहरों में सल्फर डाइऑक्साइड और निलंबित पदार्थों की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा से कहीं अधिक है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अध्ययनों से भी स्पष्ट हुआ है कि वायु प्रदूषण फसलों को नुकसान पहुँचाकर उनकी उत्पादकता को कम करने लगा है। वायु प्रदूषण ओजोन परत को नष्ट करता है और हरितगृह प्रभाव को बढ़ावा देता है। इससे जो भूमंडलीय पर्यावरणीय समस्याएं सामने आती हैं, उनसे समस्त मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। हरितगृह प्रभाव वायुमंडल में ऐसी गैसों के जमाव को कहते हैं जो सूर्य की गर्मी को पृथ्वी में आने तो देती हैं, परंतु पृथ्वी की गर्मी को अंतरिक्ष में निकलने नहीं देतीं। इससे पृथ्वी में सूर्य की गर्मी जमा होती जाती है और वायुमंडल गरम होने लगता है। वायु हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। उसे शुद्ध रखना हमारे कायमी अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है।  

दुनिया ने पहचाना



जीवन से ऊब कर जब कोई आत्महत्या के लिए तालाबों की ओर कदम बढ़ता है तो उसे होश नहीं होता, मगर होश में होता एक शख्स। वह उनकी गतिविधियों पर नजर रखता है और उसकी कोशिश उसे बचाने की रहती है। एक नहीं, दो नहीं,.....सैंकड़ों घरों की दुआएं उसके अमन की कामना करती है और उसी का असर है कि गोताखोर जगदीश खरे का नाम आज विश्वपटल पर धमाके के साथ उभर आया है।
उपराजधानी का नाम रोशन
 जगदीश ने अपना नाम लिम्का बुक ऑफ रिकार्डस में दर्ज कराकर उपराजधानी का नाम रोशन किया है। वर्ष 2013 के 24 वें लिम्का बुक ऑफ रिकार्डस के विकास सूची में जगदीश खरे का 248 वें नंबर पर नाम अंकित किया गया है। शहर के अंदर व बाहर तालाबों, कुओं व झीलों से शवों को निकालने में जगदीश का नाम पुलिस महकमे में ससम्मान लिया जाता है। उसने शहर के मध्य भाग में स्थित गांधीसागर तालाब से पिछले कुछ वर्षों में 400 से अधिक लोगों की जान बचाई और 1300 शवों को तालाब से खराब हालत में बाहर निकाला। जगदीश के इस काम में उनकी पत्नी जयश्री भी मदद करती है। किसी महिला का शव मिलने पर जयश्री मदद करती है।  गांधीसागर में शव के दिखाई देने पर गणेशपेठ थाने की पुलिस महानगरपालिका के गोताखोर का इंतजार करने के बजाय जगदीश खरे को याद करता है। जगदीश खरे के पास कमाई का दूसरा कोई साधन नहीं है।
कभी मांगता नहीं
शवों को निकालने के बाद पुलिस या मृतक के परिजनों से जो स्वेच्छा से मिल जाता है, वह जगदीश रख लेता है।  कभी  मांगता नहीं है। लिम्का बुक ऑफ रिकार्डस ने जगदीश के कई प्रसंगों में से एक को प्रमुखता के साथ उकेरा है। वर्ष 2013 के प्रकाशन में लिखा है कि  एक व्यक्ति ने तालाब में छलांग लगाने से पहले सुसाइड नोट में जगदीश का शुक्रिया अदा करते हुए लिखा था कि मुझे पूरी उम्मीद है कि  मौत के बाद मेरा शव जगदीश की मदद से घरवालों तक पुलिस पहुंचा देगी।  इस शख्स ने गांधीसागर से कितने शव निकाले, कितने लोगों की जान बचाई है, इसका बकायदा रिकार्ड नोटबुक में कर रखा है। कोलकाता में टेलीग्राफ की ओर से भी जगदीश का भव्य स्वागत किया जा चुका है।
विडंबनाओं का मारा
जगदीश फिर भी विडंबनाओं का मारा है। इसे अपना नाम छोड़कर कुछ और लिखना नहीं आता। पत्नी 10वीं पास जरूर है। जगदीश के नाम इस कीर्तिमान पर बधाई देने वालों में से कुछ ने चुटकी भी ली कि यार, मरने के बाद भी अगर तेरा हाथ लग गया तो बंदे का नाम रिकार्ड में दर्ज हो जाएगा, क्योंकि हर वर्ष इसका नवीनीकरण भी तो होगा।
मानधन देना बंद किया मनपा ने
नागपुर महानगरपालिका गोताखोर जगदीश खरे को जो मानधन देती थी, उसी पर वह पत्नी जयश्री खरे के साथ जीवन का गुजर बसर करता था। अब उसने भी मानधन देना बंद कर दिया है। जगदीश को फिर भी शिकवा नहीं। कहता है नसीब में होगा, तो मिल ही जाएगा। हां, महंगाई के इस दौर में तकलीफ तो है ही, मगर हाथ फैलाने की आदत जो नहीं। लिम्का बुक का यह कद्र हमारे लिए धरोहर है।
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किसान कर्ज के लिए परेशान

लाइलाज मर्ज ही सही, कर्ज किसानों की जरूरत है। कहीं से भी मिले, खेती-किसानी को छोड़ें कैसे? कहने के लिए केंद्र और राज्य सरकार ने किसानों की सेहत सुधारने के नाम पर ढेरों योजनाओं की घोषणा की है, लेकिन साल-दर-साल गवाह हैं कि ये योजनाएं किसानों के दर्द पर मरहम लगाने में बेअसर साबित हुई हैं। इस वर्ष ने और सितम ढ़ाया है। सहकारी बैंकों ने कर्ज देने से हाथ पीछे खींच लिए हैं। राष्ट्रीयकृत बैंकों की राह आसान नहीं। उनकी बैकिंग प्रणाली इतनी सख्त है कि कम पढ़ा लिखा किसान इनसे कर्ज नहीं ले पाता है। बच जाता है एक ही रास्ता-साहूकारों से कर्ज। आधी रात को भी ये कर्ज दे तो देते हैं, मगर इनके चंगुल में फंसने के बाद बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। जिले के प्राय: गांवों के किसानों की हालत कमोबेश एक जैसी है। धीरे-धीरे कर्ज के बोझ तले दबे किसान लगातार आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते हैं और तबाह हो जाती है एक गृहस्थी।
अगर पिछले महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण 2011-12 को देखें तो  वर्ष 2011 में साहूकारों की संख्या 9 फीसदी की रफ्तार से बढ़कर 8,326 हो गई जबकि 2010 में राज्य में कुल 7636 निजी साहूकार थे। साल 2011 में सरकार ने 1331 निजी साहूकरों को लाइसेंस जारी किए जबकि 2010 में 1184 साहूकरों को लाइसेंस दिये गए थे। साहूकरों के लाइसेंस के नवीनीकरण में भी सरकार ने तेजी दिखाई है। 2010 में जहां 6452 लाइसेंस का नवीनीकरण किया गया था। वहीं 2011 में 7291 साहूकरों के लाइसेंस का नवीनीकरण करके सरकार ने उन्हे कर्ज देने की छूट दे दी। महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण 2011-12 के अनुसार 2011 में साहूकरों से कर्ज लेने वालों की संख्या में 22 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। 2011 में कुल 6,77,165 किसान और छोटे कारोबारियों ने साहूकरों से कर्ज लिया जबकि 2010 में 5,55,018 लोगों ने कर्ज लिया था। बैंकों और सरकारी प्रयास के बावजूद राज्य में निजी साहूकरों की संख्या, इनके कर्जदारों और कर्ज राशि में भी इजाफा हुआ है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट देखें तो 1995 से लेकर अब तक भारत में 270940 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
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रिश्तों के टीसते दर्द

बालगंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि 'तुम्हें कब क्या करना है यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है। बुजुर्ग अनुभवों का वही खजाना है। जीवन पथ के कठिन मोड़ पर उसकी उपस्थिति ही उचित दिशा-निर्देश के लिए काफी है। मगर वक्त के बदलते मिजाज ने बुजुर्गों को परिवारों पर बोझ बना दिया है। कानूनी संरक्षण की आवश्यकता तक पडऩे लगी है। कहने को तो सब कुछ इनका ही है, मगर कोई अधिकार नहीं। जीवन संध्या में मुफलिसी व दर्द के सिवाय कुछ भी नहीं बचा है इनके पास।  झुर्रीदार चेहरा, सफेद बाल, दोहरी कमर और चलने की ताकत खो चुके पैर। ये पूरा व्यक्तित्व उस मजलूमियत का है, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर एकदम अकेला पड़ गया है। जुबान पर एक ही गिला- लोगों के पास हमारे लिए अब वक्त नहीं है।  किसी एक उम्रदराज की नहीं, उस पूरी पीढ़ी का दर्द है, जिनका अस्तित्व अपने ही घर में कोने में पड़े कबाड़ से ज्यादा नहीं रह गया है। मोहताज दिल से फिर भी दुआएं निकलती हैं- बेटा, आबाद रहो। मगर इतिहास स्वयं को दोहराता है। आज इनकी बारी, कल...।

उद्यानों में नया चलन
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 शहर के उद्यानों में नया चलन देखने को मिल रहा है, जो विषाक्त है, विडंबनाओं से भरा हुआ है। बुजुर्ग सुबह और शाम घर से बाहर इसलिए घुमने के बहाने निकल जाते हैं, क्योंकि घर में बहुओं और बेटे-बेटियों की जली कटी सुननी पड़ती है। किसी मेहमान के आने पर बैठक कमरे से या तो भीतर जाने के लिए कह दिया जाता है या फिर बेईज्जती सा बर्ताव किया जाता है।  फिर सुबह और शाम का समय बच्चों के स्कूल की व्यस्ततता और या फिर घर में खेलने का होता है। इस दौरान घर के परिवार को लोग बुजुर्गों पर झुंझलाहट निकालते हैं। रोजमर्रा के किटकिट से अजीज होकर बुजुर्ग  बाहर ही रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। पार्क, लाइब्रेरी आदि सार्वजनिक स्थलों में सुबह 6 से 10 और शाम 5 से 8 के दरम्यान ये बाहर ही रहते हैं। ये बुजुर्ग ऐसे समय घर लौटना पसंद करते हैं, जब या तो घर से लोग चले गए हों या सोने की तैयारी कर रहे हों। चुपचाप खाना खाकर वे  किसी कोने में पड़ जाते हैं। ये शहर के उस बुजुर्ग वर्ग का  तबका है, जो घर की बदनामी के चलते अपनी परेशानी को किसी से साझा भी नहीं कर सकते।

...आ गए बेटा
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 नागपुर में हुड़केश्वर स्थित  'विजया संस्था में जीवन के अंतिम दिन गुजारते असहाय बुजुर्गों, विकलांगों और असक्षम लोगों की आंखों में झांकने के लिए खूब हिम्मत जुटानी पड़ती है। उनसे मिलने के लिए और उनका ध्यान आकृष्टï करने के लिए उनके अपने ही रिश्तेदार होने का छद्म रुप धारण करना पड़ता है। भले ही अपनों ने उन्हें यहां छोड़ दिया हो, लेकिन अपनों का नाम सुनकर बुझी आंखें रौनक से भर उठती हैं।  'विजया संस्था में एक मरीज पिछले साल भर से रह रही हैं। उनके आगे-पीछे कोई नहीं। संस्था ने पहचान उजागर न करने की शर्त पर बताया कि इनके पति का स्वर्गवास 5 साल पहले हो चुका है। घर की बिजली इसलिए काट दी गई, क्योंकि वे बिजली का बिल भरने कार्यालय नहीं जा सकती थीं। तकरीबन 4 साल वे बिना बिजली के ही रहीं। आज रोशनी देखकर वे चौंक उठती हैं। कोई मिलने आया है, कहने पर अचरज करती हैं। उनकी कोई संतान नहीं, रिश्तेदारों ने ही उन्हें यहां भर्ती किया है। वे मानसिक रोग की भी शिकार हैं। 3 बेटियों की मां पूर्वा गोरे (परिवर्तित नाम) 63 वर्ष की हैं। हंसमुख हैं, लेकिन डा. रामटेके ने बताया कि ये भी मानसिक रोगी हैं। बहुत ज्यादा याद नहीं रहता। पागलपन का दौरा पडऩे पर वे कपड़े फाडऩे लगती थीं और सड़क पर दौडऩे लगती थीं। उन्हें पलंग से ही बांध कर रखा जाता है। वहीं रितेश (परिवर्तित नाम) केवल 29 साल के हैं लेकिन बेहद कमजोर। पूछताछ में पता चला कि माता-पिता का देहांत हो गया है। बीते मार्च में मां का स्वर्गवास हो गया, जिसके बाद परिजनों ने यहां लाकर छोड़ दिया। परिजनों से मिलने की आस तो रहती है, लेकिन  उनके बीच जाना नहीं चाहता। 'विजया संस्था के संचालक, संस्थापक डा. शशिकांत रामटेके बताते हैं कि यहां अब तक 185 लोगों को आश्रय दिया गया है। सभी मजहब और प्रांत के लोगों के लिए यहां के द्वार खुले हैं। यहां भर्ती होनेवालों की मृत्युपर्यंत सेवा की जाती है। सारी सुविधाएं, सेवाएं और अपनत्व दिया जाता है, जो घर से मिलने की उम्मीद रहती है। डा. रामटेके ने बताया कि ऐसे कई मरीजों की अंत्येष्टिï भी हमने की है, जिनके रिश्तेदार लेने तक नहीं आते। फोन पर संपर्क करने पर बाहर होने या व्यस्त होने की बात कहकर अंत्येष्टि डा. रामटेके को ही कर देने की सलाह देते हैं। बदलते मूल्यों को देख डा. रामटेके काफी दु:खी हैं। डा. शशिकांत रामटेके का कहना है कि यहां भर्ती मरीजों का अपना कोई नहीं। जिस वक्त उन्हें सबसे ज्यादा अपनों के बीच रहने की आवश्यकता होती है, वे उतना ही  अपनों से दूर मौत के इंतजार में दिन काटते हैं। श्री रामटेके  पत्नी, 7वीं कक्षा में पढऩेवाले 11 साल के बेटे, छोटे भाई और एक नौकरानी के परिवारनुमा स्टॉफ से मरीजों की सेवा करते हैं।  डा. रामटेके ने वैसे अपने इस सेवाभाव के पीछे बालपन में घटी घटना को याद किया। बताया कि बीमार था, पड़ोसी ने डाक्टर से दिखाया और एक पैसे की दवा दिलाई। उस घटना के बाद लाचार, बेसहारा लोगों की सेवा में ही जीवन समर्पित करने का लक्ष्य रखा। उन्होंने बताया कि सारा दिन मरीजों की सेवा करते बीत जाता है। बुढ़ापा, मानसिक रोग और अस्वस्थ स्थिति के मरीजों की संपूर्ण साफ-सफाई, खाने-पीने, बर्तन-कपड़े धोने में काफी समय और मेहनत लगती है। हर मरीज को 2 से 15-20 हजार रुपए मासिक खर्च आता है। सरकार से कोई मदद नहीं मिली। बुजुर्गों के लिए 500 रुपए प्रतिमाह देेने की व्यवस्था तो है, लेकिन  'विजया परिवार में सभी उम्र के मरीजों के होने से उनकी स्वयंसेवी संस्था वृद्घाश्रम के तहत पंजीकृत नहीं हो सकी। यह संस्था पिछले 16 सालों से लगातार सेवारत है।
 मजदूरी नहीं यह, जीवन की मजबूरी
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एक सामान्य विद्यार्थी की तरह सुबह- सुबह स्कूल जाना और  वहां से लौटने के बाद शाम तक निर्माणाधीन इमारतों में मजदूरी करना, 18 वर्षीय अविनाश वडककर के जीवन का संघर्ष बयान करता है। वर्धा जिले के आजनसराय गांव में रहने वाले अविनाश के परिवार में उसकी मां और छोटा भाई है। पिता का देहांत करीब एक वर्ष पूर्व हो गया था। मां खेतों में मजदूरी और माली के रूप में काम कर परिवार का पालन पोषण करती थी। अकेले मां की कमाई से घर नहीं चल पाता था, इसलिए अविनाश भी मजदूरी करने लगा। अविनाश के सहपाठी और दोस्त राजेंद्र नखाते की कहानी भी अविनाश की तरह है। राजेंद्र के पिता किसान थे। कर्ज के बोझ से परेशान होकर उन्होंने करीब सात वर्ष पहले आत्महत्या कर ली थी। राजेंद्र की मां भी खेतों में मजदूरी करती है। राजेंद्र भी अविनाश की तरह स्कूल से लौटने के बाद मजदूरी करने जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ते हुए काम और पढ़ाई दोनों एक साथ करने वाले इन विद्यार्थियों की जीवन में आगे बढऩे की इक्छा है। राजेंद्र इंजीनियर बनाना चाहता है और अविनाश को नौकरी चाहिए, जिसस वह परिवार का भरण-पोषण कर सके।  कहना और लिखना तो आसान है कि पढ़ाई के साथ साथ अविनाश और राजेंद्र मजदूर के रूप में काम करते हैं, लेकिन शायद उनकी जिंदगी जीना आसान नहीं।
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 'कृतज्ञता की कृतज्ञता
ऐसे ही विद्यार्थियों के संघर्षों को आसान बनाने और उनके सपनों को पूरा करने की कोशिश नागपुर में बूटीबोरी स्थित एक संस्था कर रही।  'रिसर्च एंड डेवलपमेंट एसोसिएशन ऑफ इंडिया नाम की यह संस्था आर्थिक रूप से असक्षम विद्यार्थियों के लिए  'कृतज्ञता नाम से छात्रावास चलाती है और उन्हे व्यावसायिक प्रशिक्षण भी देती है। 'कृतज्ञता में 1500 सौ रुपये मासिक खर्च आता है। इस राशि में रहना, खाना, किताबें सब मुहैया करायी जाती हैं। जिन विद्यार्थियों के पास यह राशि नहीं होती, उन्हें छात्रावास में नि:शुल्क ही रहने दिया जाता है। 'कृतज्ञता में विद्यार्थियों के लिए सत्तर दिन का नि:शुल्क व्यवसायिक प्रशिक्षण का कार्यक्रम चलाया जाता है।  कार्यक्रम के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों से आये अविनाश और राजेंद्र जैसे  विद्यार्थियों को कंप्यूटर से लेकर सब सिखाया जाता है। सत्तर दिवसीय कार्यक्रम के दौरान व्यक्तित्व निखारने की कोशिश की जाती है। 'कृतज्ञता के जरिये इन विद्यार्थियों को नौकरी भी दिलाई जाती है। 5 सितम्बर 1999 में स्थापित इस संस्था का कार्यभार, वीएमवी कॉलेज में केमिस्ट्री विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में पदस्थ डॉ. डी.बी. बनकर के कन्धों पर है। इस कार्य में उनका हाथ बटाते हैं रविन्द्र  सावजी, जो पूर्व में वित विभाग (महाराष्ट्र सरकार) में कोषाधिकारी थे। चंद्रपुर जिले के रहने वाले डॉ. बनकर का जीवन भी काफी संघर्षपूर्ण रहा है। वह बताते हैं कि वह खुद पढ़ाई और मजदूरी साथ-साथ करते थे और आज ऐसे ही विद्यार्थियों के लिए संस्था चलाते हैं। रविन्द्र सावजी ने बताया कि 'कृतज्ञता में महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों से विद्यार्थी आते हैं। अब तक 'कृतज्ञता से पांच सौ विद्यार्थी निकल चुके हैं और देश विदेश में नौकरी कर रहे हैं। सावजी कहते हैं कि 'कृतज्ञता को चलाने में दो लाख रुपये महीने का खर्च आता है। इस खर्च को वहन करने के लिए देश भर से लोग दान देकर मदद करते हैं।
 किसी ने ठीक ही कहा है-
'फल न देगा न सही, छांव तो देगा।
पेड़ बूढ़ा ही सही, आंगन में रहने दो।
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