रविवार, 31 अक्तूबर 2010

सरकारी जमीन में सेंध

बाबुओं- नेताओं को सरकारी जमीन में सेंध लगाकर अपने की पर्ची डालने में महारत हासिल है। वे कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। अगर चूक हो गई तो, सिपहसालारों की शामत ही शामत। बानगी देखें। मुंबई के कोलाबा इलाके में स्थित आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के एक अपार्टमेंट में सेना के 2 पूर्व जनरल, कई नौकरशाह और नेताओं को फ्लैट अलॉट किए गए हैं परंतु यहां कई नियमों के साथ खिलवाड़ किया गया है। यह जमीन सेना के कब्जे में कई सालों से थी और इस जमीन के मालिकाना हक के बारे में सेना ने रक्षा मंत्रालय को धोखे में रखा। रक्षा मंत्रालय ने भी 2003 में एक सवाल के दौरान संसद को गुमराह किया। यही नहीं, बिल्डिंग के जरिए कोस्टल रेग्युलेशन जोन नियम का भी उल्लंघन किया गया है। मामला सामने आते ही हर बार की तरह लीपा-पोती काम भी शुरू हो गया है। हाउसिंग सोसाइटी ने फ्लैट ऑनर्स का नाम बताने से इनकार कर दिया है। महाराष्ट्र सरकार ने भी यह कहा है कि उसके पास इस बिल्डिंग का कोई विवरण नहीं हैं। फिर कहने का असली कारण? बिल्डरों की जो फौज जमीन पर घरों का सपना दिखाकर मध्यम तबके के जीवन में खटास ला चुकी है, अब वह रइसों के सपनों को हर कीमत पर हकीकत का जामा पहनाने में जुटा है। जिस तरह सेज के लिये जमीन हथियाने का सिलसिला जमीन पर देखने में या और सैकड़ों सेज परियोजना को लाइसेंस मिलता चला गया, मनमाफिक कीमत दी जा रही है। लेकिन इस मनमाफिक रकम की उम्र किसानी और जमीन मालिक होने का हक खत्म कर मजदूर में तब्दील करती जा रही है। सैकड़ों कॉटेज की रखवाली वही परिवार बतौर नौकर कर रहे हैं, जिस जमीन के कभी वो मालिक होते थे। आज चारों ओर जो झाडिय़ां उगी हुई हैं वे कल अनमोल हो जाएंगी। कीमत इतनी अधिक होगी कि आम आदमी साफ हवा और तालाब का पानी पाने के लिए तरस कर रह जाएगा। यहअसली खेल है। बहुत सारे छोटे बड़े नामी-बेनामी व्यापारी भी हैं जो अनाप-शनाप तरीकों से जमीन हथियाने में लगे हुए हैं। इस पवित्र कर्म में सरकारें उनको पूरा मदद कर रही हैं। रियल एस्टेट डेवलपर हरियाली की सबसे ज्यादा कीमत वसूलते हैं। लाखों-करोड़ों अदा करने पर हरियाली मिलती है। पिछले एक दशक में समय ने अपने साथ बहुत कुछ बदल दिया है बेहतर ग्रामीण और शहरी बुनियादी ढांचे की आवश्यकता में वृद्धि हुई है, लोगों की आकांक्षाओं में भी वृद्धि हुई है । लेकिन देश की राजनैतिक प्रणाली इन बदलावों के साथ अपने आप को विकसित करने में असफल रही है । आज के राजनीतिक नेतृत्व से यह अपेक्षित है की वह आम आदमी के दु:ख दर्द और समस्याओं को समझे और एक ऐसा सक्षम तंत्र विकसित करे जो इस समस्याओं को न सिर्फ समझे बल्कि इनका कुशलतापूर्वक समुचित समाधान कर सके। आज आम आदमी विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित है फिर चाहे वो समस्या पानी की हो, बिजली की, खस्ताहाल सड़कों की, सूखाग्रस्त किसानों की, बेरोजगारी की, गुंडे -मवालियों की या फिर महंगाई की । आज हम एक ऐसे समाज में जी रहें हैं जो भ्रष्टाचार और भय के बादलों से घिरा हुआ है । इन सब के बीच आम आदमी की आवाज कहीं खो गयी है। मुंबई के कोलाबा में जो कुछ हुआ अथवा हो रहा है उसे बानगी के रूप में देखें तो देश के कई भागों के दृश्य नजर के सामने होंगे। किसी एक उदाहरण को पेश नहीं किया जा सकता, जिसमें किसी गरीब को सरकारी जमीन पर हल चलाते देखा जा सके। इसलिए कि उसे डर है। यह काम तो वही कर सकता है, जो निडर है। गरीब किसी हवलदार का सामना नहीं कर सकता, अदालत के नाम पर तो उसे यूं ही पसीने छूटते हैं। उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए जो सवाल पूछने पहुंचे अधिकारियों से उलट सवाल कर डालते हैं। देश में जमीन चोरों का खाका साफ हो जाएगा।

सवा अरब स्वर्गवासी

अतिथि देवो भव: हमारा मूल मंत्र है। इसे हर जगह पोते हुए देखा जा सकता है। आप बेशक आएं। धरती के इस स्वर्ग से रू-ब-रू हों। यहां सवा अरब स्वर्गवासी हैं। रहमों-करम पर ही जिंदा रहने की आदत डाल दी गई है। कहने पर सिर हिलता है, कहने पर जबान चलती है, कोड़ा देख कुलांचे याद आ जाती है। रोबोट आज आपकी देने होगी, हमारी व्यवस्था ने तो सदियों पहले से लोगों को गुलाम रोबोट बना रखा है। विविधता से भरे इस देश का दर्शन- एक बानगी। अगर दीवालों पर पान-पीक के धब्बे मिले तो इन्हें हमारी सांस्कृतिक परंपरा समझिये जो आपको दफ्तरों, इमारतों (खासकर सरकारी) और यत्र-तत्र-सर्वत्र नजर आएंगे। ये धब्बे दीवालों पर कला के अच्छे नमूने पेश करते हैं। इनकी फोटो ले जाइये शायद कोई आर्ट गैलरी इन्हें खरीद ले। जहां तक खड़ें होकर खूले में पेशाब करने का सवाल है ये तो हमारी समृद्ध विरासत का प्रतीक है क्योंकि जनाब खुली हवा में ऐसा करने से जो सुख मिलता है वो बंद शौचालयों/मूत्रालयों में कहां। अब देखिये ना बिन्देश्वरी पाठक जी ने सुलभ शौचालय तो बनाए पर वो उनके प्रयोग का पैसा मांगते है। अब आप ही बताएं की जब सड़क पर मुफ्त करने की आजादी है तो पैसा क्यों देना। रही बात कुत्तों की सो जनाब हम अपने कुत्तों का बहुत आदर करते हैं पर सरकारी कुत्तों यानि बुल-डॉग और जर्मन शेपर्ड आदि से डरते हैं। वैसे भी इन कुत्तों का कमाल आप देख ही रहे हैं क्योंकि ये रोटी की जगह हजार-हजार के करंसी नोट खाते हैं। सीधी-सी बात है सरकारी नेता और बाबू की नजर में ही कॉमन-मैन गली के कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं है। हमारे पूर्वजों ने हमेशा कुश घास बिछा कर जमीन पर सोने का सबक सिखाया है। परदेसी हैं और सुरक्षा की गारंटी लेना चाहते हैं तो अब क्या बताएं। चिंता की कोई बात नहीं है, यहां पर कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता। हमारी पुलिस होती तो सौ का नोट देख कर ही आतंकवादी को घूसने देती पर अब सेना के लोग इस काम में जुटे हैं और वे काफी हद तक ईमानदार हैं। धमाके होने के बाद इन्हें ही तो कमान संभालनी पड़ती हैं। बचेंगे तो आपकी हिफाजत के लिए सरकार इन्हें झोंक देगी। इसलिए बेहिचक कदम बढ़ाएं, स्वर्गवासी स्वागत के लिए तैयार हैं।

राजनीति में झंडू बाम

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने कोल्हापुर की एक सभा में ये घोषणा करके फिल्म दबंग के लोकप्रिय गाने के बोल मैं झंडू बाम हो गई, डार्लिंग तेरे लिए को नए अर्थ दे दिए हैं। झंडू बाम पर कमर लचकाने वाली मल्लिका अरोड़ा खान ने इस प्रकार के आयटम गानों पर थिरकने से भले ही तौबा कर ली हो, लेकिन इसे जुमला -ए-आम बनाने वालों को कोई तौबा नहीं। पहले तो यह समझना होगा कि इस जुमले को उगल वे क्या कहना चाहते हैं। वैसे इसका भान कटु-व्यंग्य ही प्रतीत होता है। चव्हाण ने कहा कि पश्चिम महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा गठबंधन का जो (कांग्रेस के लिए) सिरदर्द है, उसे दूर करने के लिए हमारे मंत्री पतंगराव कदम और हर्षवर्धन पाटील झंडू बाम साबित होंगे। मुख्यमंत्री कोल्हापुर महानगरपालिका चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी द्वारा आयोजित सभा को संबोधित कर रहे थे। मतलब साफ है कि युवा मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए उन्हीं की बोली बोलते हुए सीएम ने नई पीढ़ी के मुहावरों का जमकर उपयोग किया। पतंगराव और हर्षवर्धन को कांग्रेस पार्टी की तरफ से कोल्हापुर की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इनमें से मंत्री पतंगराव मसखरेपन और बेबाकी के लिए जाने जाते हैं। आम तौर पर फिल्मी गानों की टॉप टेन के हिसाब से रेटिंग की जाती है। सीएम ने यह जनप्रिय शब्दावली अपनी बात पहुंचाने के लिए उधार ले ली। उन्होंने कहा उज्ज्वल भविष्य और विकास के लिए काम करने की धमक कांग्रेस पार्टी में है। कोल्हापुर की सत्ता हमारे हाथ में दीजिए, इसे टॉप टेन में लाकर दिखा देंगे। माथे पर थोड़ा बल दें। शुरुआती क्षणों में देश भर में सिनेमा हालों की खिड़कियां तुड़वा रही मुन्नी जब नसीबन आंटी का मुखड़ा चुरा कर उस पर झंडू बाम लगाएगी तो बदनाम होगी ही। अब अतीत को खंगालें। गत 26 नवम्बर को जब पाकिस्तान से आये आतंकवादियों ने मुम्बई में हमला किया था, और उसके नतीजे में कर्तव्यनिष्ठ, जिम्मेदार और सक्रिय सूट-बूट वाले विलासराव देशमुख अपने बेटे रितेश और रामगोपाल वर्मा को साथ लेकर ताज होटल में तफरीह करने गये थे, उसके बाद शर्म के मारे उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था और अचानक अशोक चव्हाण की लाटरी लग गई थी। इसके बाद तो मुड़कर देखने की जरूरत ही नहीं हुई। बुलंद हौंसलों की तस्वीर कुछ और ही होती है। लेकिन अपने पीछे यह कुछ राज भी छोड़ जाती है। मुन्नी की बदनामी और नामी की बदनामी पर बड़ा फर्क है। जुबान फिसलने की दुहाई दी जा सकती है, लेकिन अपने को तृतीय पंक्ति से लाकर प्रथम पंक्ति में खड़ा करना आसान नहीं। अगर किसी ने इसे भाव नहीं दिया तो और बात है, ताव खा गया तो नाहक ही बदनामी हो जाएगी। देखने की घड़ी होगी पलटवार किस जुमले के साथ होता है। अंताक्षरी की दो-चार कड़ी तो हो ही जाएगी। मगर ध्यान रहे यह बानगी है कि देश में चिंतनशील राजनेताओं की कमी होती जा रही है। चिंतित राजनेताओं की नई पौध लहलहा रही है। श्री चव्हाण भी तो कहीं चिंतित नहीं। तराने में कई अफसाने शामिल हो सकते हैं। गिनने वाले दिल्ली में इसे उंगलियों पर गिन रहे होंगे। निनांबे के बाद सौै ही आता ही है। राजनीति के स्वरूप और सरोकार में भारी परिवर्तन आया है। अब विचार की जगह रणनीति और राजनेताओं की जगह पॉलिटिकल मैनेजरों का महत्व बढ़ा है। राजनेता सूत्रों और प्रतीकों की घोर व्यक्तिवादी राजनीति में उलझकर रह गए हैं। अपनी नब्ज टटोलने की बजाए दूसरों का बुखार मापने का चलन बन गया है। झंडू बाम का जुमला अगर आज आम होने जा रहा है तो राजनीति के संकट पर बात करते हुए इस पहलू पर भी गौर करना होगा।

सेंट रावण स्कूलों के चलन

वक्त था, अच्छे स्कूलों, गुरुकुलों के आचार्य खुद आगे होकर बच्चों को मांग कर लाते थे, पढ़ाने के लिए। राजा दशरथ से मुनि राम और लक्ष्मण को मांग कर ले गये थे। भले दिन थे वो, अब के से नहीं। अब राजा दशरथ बालकों को लेकर किसी कायदे के स्कूल में जाते, तो संवाद यूं होता-अपनी इनकम, अपने पिताजी की इनकम, उनके पिताजी की इनकम बताइये। देखिये आप बच्चों के ज्ञान की परीक्षा लें, उनके बारे में पूछें-राजा दशरथ कहते। स्कूल वाले बताते कि बच्चों की इनकम थोड़ी ही होती है, जो उनके बारे में पूछें। और बच्चों के ज्ञान से उन्हे कोई मतलब नहीं है। राजा दशरथ बताते-मेरे बालक सच्चरित्र, कुशाग्र हैं। उससे क्या होता है-स्कूल वाले बताते। उससे क्या होता है, सही बात है। चरित्र देखा नहीं जा सकता, नोट देखे जा सकते हैं। जो दिखता है, उसी की वैल्यू है। कुशाग्रता गिनी नहीं जा सकती, नोट गिने जा सकते हैं। जो गिनने योग्य है, उसी की वैल्यू है। स्कूल इसी फंडे पर काम करते हैं। तब सेंट वशिष्ठ स्कूल होते थे। अब तो सेंट रावण स्कूलों के चलन हैं। एयरकंडीशंड क्लास रूमों में पलने वालों को अगर चौदह साल जंगल जाने का फरमान आ जाये, तो संवाद यूं होंगे-आपको चौदह सालों के जंगल में जाना है।ओ के, जंगलों में एयरकंडीशनर होंगे। नहीं आप बात नहीं समझ रहे हैं, जंगल में एयरकंडीशनर नहीं होते। जंगल में कुछ नहीं होता। पंखे तक नहीं होते। जंगल क्या यूपी में पड़ते हैं जो बिजली पंखे वगैरह नहीं होते। नहीं जंगल यूपी के हों या एमपी के, कहीं भी पंखे नहीं होते। क्या जंगल में पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन, मल्टीप्लेक्स, शापिंग माल नहीं होते। नहीं यह सब नहीं होता। ओह, नो जंगल में नहीं जाना। हम वादा तोड़ देंगे।

बयानों के चुभते तीर

बयानों के चुभते तीरों से लोकतंत्र छलनी हो चला है। कद-पद की परवाह किसी को नहीं। दूसरों पर थूकने की प्रवृति खासकर नेताओं में इतनी बढ़ गई है कि थूक अपने चेहरे पर ही गिर रहा है या दूसरे के , होश ही नहीं। तब एक बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। नि:संदेह नहीं। हम आज खुद को विश्व में सबसे बड़े और सबसे मजबूत लोकतंत्र वाले देश के नागरिक के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं, लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व परंपराओं का किया जा रहा उल्लंघन आज चिंता का विषय है। एक समय इंदिरा गांधी को गूंगी गुडिय़ा कहकर चिढ़ाया जाता था, लेकिन बाद में उन्होंने साबित किया कि वास्तविकता क्या थी? राजनीतिक टकरावों को व्यक्तिगत अहम का मुद्दा मान लेने से ही इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और डॉ. राम मनोहर लोहिया में भी तीव्र मतभेद थे, लेकिन उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप नहीं लगाए और न ही कभी किसी तरह का अपशब्द कहा। ऐसा न तो सार्वजनिक जीवन में हुआ और न ही व्यक्तिगत जीवन में सुनने को मिला। इससे यही समझ आता है कि आज के राजनेता बहुत जल्दी में है और बिना जनसेवा के आरोप-प्रत्यारोप लगाकर जनता में एक तरह का उन्माद पैदा करके लाभ पाना चाहते हैं। जब नेताओं के पास जनता के विकास और उनकी खुशहाली के लिए कोई उपाय नहीं रह जाता तो वे इस तरह की बातों से लोगों को घुमाने की कोशिश करते ही हैं। हमारे राजनेता देश को दिशा देते हैं और उनके द्वारा बताए गए और अपनाए गए तौर तरीकों को आम लोग भी अपने जीवन में दुहराते हैं। तो क्या अब हमारे राजनेता देश को यही संदेश दे रहे हैं कि दूसरे की मान-मर्यादा की परवाह करने की बजाय अपने हितों को पूरा करने के लिए कुछ भी करना जायज है। राजनीति में सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे के प्रति अपशब्दों का प्रयोग इसी मानसिकता का प्रतिफल है। इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए सभी दलों के नेताओं को मिल-बैठकर एक आचार संहिता बनानी चाहिए, क्योंकि यह एक राजनीतिक समस्या है। चुनाव आयोग को ऐसे संगीन मसलों पर जागरूक होने की जरूरत है ताकि ऐसे लोगों को जनता को बरगलाने से रोका जा सके। हमारे संविधान में सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है। दूसरे व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता, सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली अभिव्यक्ति पर रोक लगाई जा सकती है और ऐसे लोगों को दंडित किया जा सकता है। एक लंबे अरसे से विधायिका और संसद में असंसदीय भाषा और व्यवहार पर रोक लगाने के लिए उचित तरीके खोजने की बात की जाती रही है। सांसदों-विधायकों द्वारा सदन के भीतर खुलेआम गाली-गलौज, हाथापाई और मारपीट की घटनाएं आखिर कब तक चलती रहेंगी। यदि समय रहते इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई जाती है तो ऐसी घटनाओं की बार-बार दुहराई जाएंगी और हमारा लोकतंत्र लहूलुहान होता रहेगा। अब समय आ गया है जबकि इस दिशा में सरकार पहल करे और राजनीतिक विद्धेषों को व्यक्तिगत रंजिश बनाने से रोके। युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है की तर्ज पर आज राजनीति में भी सब कुछ सही है को सूत्रवाक्य मान लिया गया है। इसी प्रवृत्ति का नतीजा है कि आए दिन अपशब्दों और दोअर्थाी बातें सार्वजनिक तौर पर भी कहने से राजनेता नहीं डर रहे। संसद और विधायिका में जिस तरह जनप्रतिनिधियों का आचरण देखने को मिलता है, वह हमारे लोकतंत्र के विकृत होते स्वरूप का आभास देता है। इस संदर्भ में यदि हम वर्तमान में बिहार में हो रहे चुनावों को देखें तो कुछ भी अलग नहीं है। बात चाहे शरद यादव की हो, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार की हो या अन्य राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की हो, कमोबेश सभी इस रोग के शिकार दिखते हैं।

नकाब में घिनौना चेहरा

बाजारू व्यक्तित्व के धनी लोगों के पास अपना अहम, अपना आत्मसम्मान नहीं होता। कोई सिद्धांत नहीं होता। सही या गलत के बीच फर्क का विवेक नहीं होता। मुख्यधारा हो गयी है, धन की भूख। धन पाने की, हड़पने की, चुराने की, घूस खाने की। इसी होड़ में फंसा है देश-समाज। इसके लिए आत्मसम्मान, विवेक, चरित्र सब दांव पर लगाने के लिए लोग तैयार हैं। और जहां धन है, वहां समाज के सभी ताकतवर अंग एकजुट हैं। क्यों लगातार भारत के धनी और ताकतवर कानून से बाहर जा रहे हैं? क्यों इस देश का कानून सिर्फ उनके लिए रह गया है, जो संविधान में यकीन करते हैं? नि:संदेह लालच अब एक नया धर्म बन चुका है। उसके अलावा अब और कुछ पवित्र नहीं रह गया है- न अफसरशाही के सर्वोच्च दफ्तर, न मुख्यमंत्री, न सेना प्रमुख और न ही शीर्ष नौकरशाह, जिनसे होकर फाइलें गुजरती हैं। अगर युद्ध में जान गंवाने वाले सैनिकों की विधवाओं के लिए हाउसिंग सोसायटी में स्वीकृत फ्लैटों को चुराना हो, तो इनमें से हर कोई कारगिल के शहीदों के खून के साथ दगाबाजी करने को तैयार हो जाएगा। शर्म नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। लालच हमेशा पाखंड के पर्दे के पीछे पनपता है। लोकतंत्र में पाखंड एक बड़ा प्रलोभन है, क्योंकि समझौतों की शुरुआत हमेशा यथार्थवाद या सेवा के नाम पर होती है। चुनाव में होने वाले वास्तविक खर्च और आधिकारिक रूप से स्वीकृत धनराशि के बीच का फासला ही भ्रष्टाचार का सबसे अहम औजार है, क्योंकि तब अवैध 'खैरातÓ लेने को भी न्यायोचित करार दिया जा सकता है। घूस के लिए खैरात एक शिष्ट मुहावरा है। कारगिल के शहीदों की अमानत पर डाका डालने वाले अफसरों की फेहरिस्त हमें शर्मिदा कर देने के लिए काफी है। इनके लिए तो यह एक लॉटरी थी। 'आदर्शÓ बिल्डिंग सोसायटी में शहीदों की विधवाओं के लिए स्वीकृत फ्लैटों को आपस में बांट लेने वालों को भ्रष्टाचार का दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए, उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। हमारे तंत्र को लगता है कि वह किसी भी तरह के जनाक्रोश को मजे से हजम कर सकता है। कॉमनवेल्थ खेलों में जनता के पैसों के साथ जो घिनौना बलात्कार हुआ, उसके लिए सुरेश कलमाड़ी को आधिकारिक रूप से कुर्बानी के लिए नामांकित किया गया था। शायद 'आदर्शÓ के कारण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को भी इस्तीफा देना पड़े, बशर्ते वे दिल्ली में बैठे अपने आकाओं को यह धमकी देते हुए ब्लैकमेल न करने लगें कि वे उस रकम का खुलासा कर देंगे, जो उन तक पहुंचाई जाती रही है। दिल्ली में बैठे चतुरसुजानों ने हमें मूर्ख बनाया है। अशोक चव्हाण उस दिन भ्रष्ट नहीं हुए थे, जिस दिन मीडिया ने यह खुलासा किया कि उन्होंने न केवल कारगिल के नायकों के साथ धोखाधड़ी करने के लिए संदर्भ शर्तो को बदल दिया था और फिर बड़े आराम से अपने कुनबे के लिए उनके हिस्से के चार फ्लैट चुरा लिए थे। वे उसी दिन से भ्रष्ट थे, जब उन्हें महाराष्ट्र सरकार में मंत्री बनाया गया। उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में इसलिए नहीं पदोन्नत किया गया, क्योंकि वे योग्य थे, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें पता था कि कांग्रेस में आगे बढऩे का फॉर्मूला है वफादारी और भ्रष्टाचार का घालमेल। खुलासा होने पर अगर दिल्ली ने चेहरे पर नकाब ओढ़ लिया है तो इसकी वजह यह है कि मामले को टालने का यही एक तरीका उसे पता है। घोटालों के भारत और झुग्गियों के भारत के बीच के फासले को अखबार रोज मापते हैं, लेकिन हम अपनी सहूलियत के चलते उस पर गौर नहीं करते। यही आधे भारत का मुकद्दर है। दूसरी ओर कुछ लोग राष्ट्रीय संपत्ति को लूटते रहेंगे। जो इनके बीच में हैं, वे अपने सपनों और असुरक्षाओं की गिरफ्त में बने रहेंगे।

लूट की छूट

संवेदनाशून्यता और बेशर्मी की हद
-----------------------------
मुम्बई स्थित आदर्श आवासीय सोसाइटी को लेकर विवादों में घिरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की बात आखिरकार इस्तीफे तक पहुंच ही गई। उनका कहना है कि मुम्बई आदर्श सोसाइटी को लेकर जो बवाल खड़ा हुआ, उसकी पूरी जानकारी मैंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को दी। मैंने पूरी सच्चाई उनके सामने रखी है। हमारी यही भूमिका रही है कि आदर्श सोसाइटी की जमीन महाराष्ट्र सरकार की है। मैंने कल भी यही बात कही थी। इस मामले में जांच हो रही है और जांच में पूरी सच्चाई सबके सामने आ जाएगी। कारगिल के शहीदों के लिए बनी इस आवासीय इमारत में चव्हाण की सास और उनके दो अन्य रिश्तेदारों को फ्लैट आवंटित हुए थे। इस वजह से चव्हाण भी आरोपों से घिरे। आरोप है कि कारगिल शहीदों की विधवाओं और बहादुर सैन्य अधिकारियों के नाम पर बने आदर्श हाउसिंग सोसायटी में फ्लैट पाने के लिए अशोक चव्हाण ने सौदेबाजी की थी। सूत्रों के अनुसार अशोक चव्हाण उस समय राजस्व मंत्री थे और उन्होंने आदर्श सोसायटी को बिल्डिंग बनाने के लिए जमीन इस शर्त पर दी थी कि इसमें सामान्य नागरिकों को भी फ्लैट आवंटित किए जाएं। सूत्रों की मानें तो आदर्श सोसायटी के अधिकारियों और तत्कालीन राजस्व मंत्री अशोक चव्हाण के बीच 3 जनवरी 2000 को हुई मुलाकात में जमीन के बदले फ्लैट आवंटित करने की शर्त रखी गई थी। एक निजी टीवी चैनल के अनुसार इस संदर्भ में सोसायटी की ओर से 20 जून 2000 को अशोक चव्हाण के नाम लिखा गया एक खत प्राप्त हुआ है, जिससे सौदेबाजी का खुलासा होता है। खत में साफ तौर पर लिखा गया है कि महोदय, हमारे 3 जनवरी 2000 के पत्र और आपसे मुलाकात के बाद हमारी सोसायटी का निवेदन है हमें जमीन उपलब्ध कराई जाए। हमारी सोसयटी सेना के कर्मचरियों के अलावा सामान्य नागरिकों को भी फ्लैट देने को तैयार है। रक्षा सेवाओं के 31 सदस्यों की लिस्ट इस पत्र के साथ हैं। खैर, एक और जांच की घोषणा की जा सकती है। देखा जाए तो यह सिर्फ चव्हाण से जुड़ा मामला नहीं है, कमोबेश ऐसी स्थिति देश के हर कोने में है। प्रदेश स्तर पर हो अथवा देश के स्तर पर लूट में सभी के हाथ सने हुए हैं। क्या ऐसे लोगों के रहमोकरम पर नए भारत की तकदीर सवारी जा सकेगी,अगर नहीं तो फिर क्या रास्ते अपनाए जा सकते हैं? देश अपने ही लोगों से इसका जवाब मांग रहा है। ——————————————आम आदमी का सगा कोई नहीं :अखबारों में 2जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ घोटालों की खबरें आना कम हुईं तो एक नया घोटाला सामने आ गया। मुंबई में आदर्श हाउसिंग सोसायटी मामले में नियम तोड़े-मरोड़े गए और करोड़ों की कीमत के फ्लैट कौडिय़ों के भाव कुछ खास लोगों को मिले। आदर्श हाउसिंग को ऑपरेटिव सोसाइटी घोटाले की खबरों से परेशान भले ही पूर्व सैन्य प्रमुखों - जनरल दीपक कपूर, जनरल एन सी विज और एडमिरल माधवेंद्र सिंह - ने फ्लैट वापस करने की पेशकश की, लेकिन रक्षा मंत्रालय ने इसे सीधा आपराधिक साजिश करार दिया। इस घोटाले की शर्मिंदगी से जूझता मंत्रालय अब बाकायदा जांच के आदेश देने की सोच रहा है। जांच की प्रकृति क्या होगी, इस बारे में फैसला प्रधानमंत्री की स्वदेश वापसी के बाद होगा। सूत्रों के मुताबिक जांच की घोषणा सोमवार तक हो सकती है। कॉमनवेल्थ में घोटालों के लिए सबसे ज्यादा आरोप सुरेश कलमाड़ी पर लग रहे हैं। गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों के दौरान इतने मजदूर मरे, हजारों लोगों को उनकी जगह से बेदखल करके दिल्ली के एक सूनसान कोने में फेंक दिया गया लेकिन मजदूर और शोषित वर्ग की ठेकेदार लेफ्ट पार्टियों का शायद ही कोई विरोध देखने को मिला। कर्नाटक में खनन माफिया रेड्डी भाई जो चाहते हैं वह करते हैं और पूरा प्रशासन उनकी जेब में रहता है। ये कुछ उदाहरण मात्र हैं, यह बताने के लिए कि आम आदमी का सगा कोई नहीं है। बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि सेना में भी (खासकर अफसरों के स्तर पर) भ्रष्टाचार चरम पर है लेकिन उसकी खबरें आम तौर पर मीडिया में नहीं आ पातीं। सेना का सब सम्मान करते हैं लेकिन लेकिन आदर्श हाउसिंग सोसायटी और सुकना जमीन घोटाले जैसे मामलों को देखते हुए सेना पर भी भरोसा कम होता रहा है। कुछ दिनों पहले पूर्व विधि मंत्री और प्रसिद्ध वकील शांति भूषण ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के 16 में से 8 चीफ जस्टिस, भ्रष्ट थे। आरोप बेहद गंभीर था और शायद शांति भूषण पर इसके लिए अदालत की अवमानना का मामला बनता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने नी-जर्क रीऐक्शन की बजाय इसे बेहद संजीदा और परिपक्व तरीके से लिया। शायद शांति भूषण के आरापों में रत्ती भर सचाई रही होगी तभी कोई उनके खिलाफ कार्रवाई करने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाया। कहने का मतलब यह है कि न्याय की सर्वोच्च संस्था के कुछ लोग भी संदेह से परे नहीं हैं। फिर हमारा रहनुमा कौन है?————-कैसे लगे अंकुश भ्रष्टाचार हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। ज्यादातर लोग इसके आदी हो गए हैं। यह खतरे का संकेत है। इससे भ्रष्टाचार के दंड से बचने की प्रवृत्ति बढ़ेगी और भ्रष्टाचार को स्वीकृति देने की संस्कृति और मजबूत होगी। भ्रष्टाचार का खामियाजा सबसे अधिक गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों को भुगतना पड़ता है। गरीबी उन्मूलन की योजनाओं का इससे बंटाढार हो जाता है, कानून एवं न्याय का राज खतरे में पड़ जाता है। नागरिक जिम्मेदारियों और मर्यादित आचरण के आदर्शों की जगह संकीर्ण स्वार्थों पर आधारित दृष्टिकोण हावी हो जाते हैं। आदर्शवादी युवा पीढ़ी के लिए यह जहर का काम करता है। सबसे दुखद पहलू तो यह है कि एक तरफ वर्षों से इसका अध्ययन हो रहा है, लेकिन दूसरी ओर यह मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। बैड गवर्नेंस की हम जितनी आलोचना करते हैं, शासन में बैठे अधिकारी भ्रष्टाचार को उतने ही उत्साह से गले लगाते हैं । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया की रिपोर्ट विचलित करने वाली है। यह रिपोर्ट बताती है कि कल्याण योजनाओं से लाभान्वित होने वाले एक तिहाई बीपीएल परिवारों को कानूनसम्मत सेवाएँ हासिल करने के लिए रिश्वत देना पड़ती है। लगभग सभी राज्यों में अन्य विभागों की अपेक्षा पुलिस तंत्र सर्वाधिक भ्रष्ट है। यह अत्यंत निंदनीय स्थिति है और इसका प्रभाव सामाजिक आधार को ही खोखला कर रहा है। भ्रष्टाचार का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि एक तरफ वर्षों से इसका अध्ययन हो रहा है, लेकिन दूसरी ओर यह मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। बैड गवर्नेंस की हम जितनी आलोचना करते हैं, शासन में बैठे अधिकारी भ्रष्टाचार को उतने ही उत्साह से गले लगाते हैं। कानून का शासन कायम करना मुश्किल हो गया है इसलिए स्टिंग ऑपरेशन भी बेअसर साबित हो रहे हैं। कुछ छोटे अधिकारियों के खिलाफ कभी-कभार कार्रवाई भी हो जाती है मगर अधिकांश मामलों में बड़े अधिकारियों पर हाथ नहीं डाला जाता। संयुक्त सचिव और बड़े पदों पर आसीन अधिकारियों या मंत्री के खिलाफ कार्रवाई के लिए उनके ऊपर बैठे मंत्रियों या अधिकारियों की पुर्वानुमति आवश्यक है। अधीनस्थों के खिलाफ उच्चाधिकारियों की पूर्वानुमति मिल जाए, ऐसा दुर्लभ ही होता है। हाल की एक मीडिया रिपोर्ट तो बताती है कि भ्रष्टाचार में लिप्त रहे किसी अधिकारी के खिलाफ रिटायरमेंट के दस वर्षों बाद तक कार्रवाई करने के लिए उच्चाधिकारी की पूर्वानुमति आवश्यक बनाने के बारे में सरकार विचार कर रही है। तब तक तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए अनगिनत आयोग और समितियाँ गठित की जा चुकी हैं, मगर केंद्र और अधिकांश राज्य सरकारों ने पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए कोई पहल नहीं की। एक निश्चित समय सीमा के भीतर पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश जारी किए मगर इससे भी बात नहीं बनी। फायदे के लिए कायदे ताक पर :भूमाफियाओं पर दहाडऩे वाला मंत्रिमंडल जिस तरह के फैसले ले रहा है, उससे उद्योगपतियों, नेताओं और भूमाफिया ही चाँदी कूट रहे हैं । एक तरफ सरकारी जमीनों को कौडिय़ों के भाव औद्योगिक घरानों के हवाले किया जा रहा है , वहीं दूसरी तरफ बड़े बिल्डरों को फायदा पहुँचाने के लिये नियमों को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है । सरकार के फैसले से नाराज छोटे बिल्डरों को खुश करने के लिये भी नियमों को बलाए ताक रख दिया गया है । गोया कि सरकार नेताओं को चंदा देने वाली किसी भी संस्था की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती । सरकारी कायदों की आड़ में जमीनों के अधिग्रहण का खेल पुराना है , लेकिन अब हालात बेकाबू हो चले हैं । नेताओं की छत्रछाया में बेजा कब्जा कर जमीनें बेचने वाले भूमाफिया फलफूल रहे हैं । करोड़ों की सरकारी जमीनें निजी हाथों में जा चुकी है । कई मामलों में नेताओं और अफसरों की मिलीभगत के चलते सरकार को मुँह की खाना पड़ी है । कृषि भूमि पर भी टाउनशिप खड़ी हो रही है। किसान तात्कालिक फायदे के लिये अपनी जमीनें भूमाफियाओं को बेच रहे हैं । सरकार की नीतियों के कारण सिकुड़ती कृषि भूमि ने धरतीपुत्रों को मालिक से मजदूर बना दिया है । पिछले छ: दशकों में आदिवासी तथा अन्य क्षेत्रों की खनिज संपदा का तो बड़े पैमाने पर दोहन किया गया है मगर इसका फायदा सिर्फ पूँजीपतियों को मिला है। जो आबादियाँ खनन आदि के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापित हुईं, अपनी जमीन से उजड़ीं, उन्हें कुछ नहीं मिला। यहाँ तक कि आजीविका कमाने के संसाधन भी नहीं मिले, सिर पर एक छत भी नहीं मिली और पारंपरिक जीवनपद्धति छूटी, रोजगार छूटा, सो अलग। सरकार को उसकी हैसियत बताने के लिये जनता को अपनी ताकत पहचानना होगा और जागना होगा नीम बेहोशी से, क्योंकि जमीनों की इस बंदरबाँट को थामने का कोई रास्ता अब भी बचा है ? ————————————सीखो इन आंखों को पढऩा :ये गरीबों की आँखों से आँसू पोंछने का धंधा भी चंगा है। मैं जब बच्चा था, तब भी मैं यही सुनता था कि हर गरीब की आँख का आँसू पोंछेगी सरकार। अब भी ठीक यही सुनता हूँ, यानी गरीब तब से अब तक लगातार रो रहा है और इन बेचारों मंत्रियों को तब से अब तक इतनी फुर्सत नहीं मिल रही है कि इनके आँसू पोंछे। मेरा सीधा-सा सवाल है कि गरीब अगर रोते जा रहे हैं महाशय, तो ये चौड़ी-चौड़ी सड़कें, ये बड़े-बड़े बाँध, ये चमकीले मॉल, ये बड़ी-बड़ी होटलें, ये मेट्रो आदि तब कौन बना रहा है? अगर गरीब ही बना रहे हैं, मेहनत-मजदूरी करके बना रहे हैं, तो उनकी आँखों में फिर भी आँसू क्यों हैं? और हैं तो उन्हें पोंछ क्यों नहीं रहे हो? पोंछ दो, तुम्हारा रूमाल ही तो खराब होगा, हालाँकि रूमाल भी तुम अपने पैसे से थोड़े ही खरीदकर लाए होंगे? और अगर ये आँसू ऐसे हैं जो कि रूमाल से नहीं पुछेंगे तो जैसे भी पोंछ सकते हो, पोंछ दो। इतने सालों से ये काम पेंडिंग क्यों रखे हुए हो? और अगर गरीब काम भी कर रहे हैं, उनकी आँखों में आँसू भी हैं तो तुम्हारी आँखों में एकाध आँसू भी है या नहीं? और नहीं है तो किसी से उधार ले लो। तुम्हारे पास जो रूमाल है, उसका इस्तेमाल कभी तुमने अपनी आँखों के आँसुओं को पोंछने के लिए भी किया है या नहीं। और वह नेता किसी की आँखों के आँसू क्या पोंछेगा जिसकी आँखें अपने दुख तक से कभी गीली नहीं हुईं? शायद उसके लिए हर गरीब की आँख के आँसू पोंछना बस एक राजनीतिक मुहावरा है जिसे वह माइक देखकर रटना शुरू करता है ताकि अगली सुबह अखबार में छापने के काम आ सके। और अगर तुम सचमुच गरीब की आँखों में आँसू देख रहे हो, सिर्फ आँसू ही आँसू देख रहे हो, तो तुम्हारी आँखें तो अब तक अंधी हो जानी चाहिए थीं, पथरा जानी चाहिए थीं लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तुम्हारी आँखें तो बड़ी चंचल हैं, अपना शिकार ढूँढने में एक मिनट की भी देरी नहीं करतीं और अपने शिकारी से सावधान रहने में भी जरा भी चूक नहीं करतीं! जरा गरीबों की तरफ एक बार देख लो। उनकी आँखों में आँसू ही नहीं हैं, गुस्सा भी है। उनकी आँखों में वह रोशनी भी है जिसे देखकर तुम्हारी आँखें अंधी हो सकती हैं और वह अंधकार भी है जिसे देखकर तुम्हें भ्रम हो सकता है कि तुम अंधे हो चुके हो। उनकी आँखों की तरफ देखते हुए, जरा आईने में अपनी आँखों की तरफ भी देख लो। शायद अपनी आँखों को भी तुम पढऩा सीख सको।————————————————————————————-कारपोरेट का शिकार अपना भारत भीअनिल रघुराजसंवेदनाशून्यता और बेशर्मी की हद है ये बाजार। कॉरपोरेट प्रॉफिट उन जांबाज लुटेरों की लूट की तरह है, जो यूरोप के देशों से जहाजों में निकल कर शेष महाद्वीपों से लाया करते थे। आज तकनीक के आविष्कार ने उस लूट को जरा सभ्यता का जामा पहना दिया है। तलवार और तोप के स्थान पर कागज और कैल्क्यूलेटर या लैपटॉप आ गए हैं। दुनिया भर की आर्थिक विषमता इस बात का सबूत है। इधर जुही चावला का कुरकुरे का एक विज्ञापन चल रहा है, जिसमें दूल्हे के पीछे बाराती नहीं हैं, बैंड नहीं है। बेचारा स्टीरियो टेप रिकॉर्डर गोद में लेकर घोड़ी पर अकेला ही चला आ रहा है दुल्हन के दरवाजे पर। स्टॉक मार्केट की तेजी बिन बारातियों के दूल्हों का विवाह लग रहा है। आम निवेशक समझदार है इस बार। इस लूट में वे अपनी पॉकेट नहीं कटने दे रहे। इंडिया शाइनिंग की मीडिया चिल्लाहट को अनसुना कर के चुनावों में नेता को यह अवाम धूल चटा सकती है तो क्या कॉर्पोरेट इससे अछूता रहेगा? इस मार्च पास्ट का मतलब?सरकार देश भर में मार्च पास्ट करवा रही है। मार्च पास्ट तो इसलिए किया जाता है कि आम नागरिक को भरोसा हो कि सरकार नागरिक सुरक्षा के लिए पर्याप्त सक्षम है। पर ये कश्मीर, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र, असम के मार्च पास्ट तो दमनकारी व गलत तत्वों को संरक्षण देने के लिए किए जा रहे हैं। आम नागरिक को सरकार आतंकित कर रही है ताकि कोई अन्याय के खिलाफ जुबान न खोले। जिज्ञासा प्रकट करना और अटकलें लगाना मानव मन की दो कमजोरियां है। मीडिया की बेशर्मी देखो। अपने आकाओं (जिनसे विज्ञापन की आय होती है) के खिलाफ कुछ नहीं बोलते। हालांकि उन आकाओं के राजनीतिक चमचों व सरकारी अफसरों (जिनके हिस्से खुरचन तक भी पूरी नहीं आती) की पैंट उतारने में ये कोई कसर नही छोड़ते क्योंकि इनको पता है कि जनता को तो तालियाँ पीटनी है, ओपिनियन पोल की प्रीमियम दरों पर एसएमएस करने हैं। 'वालस्ट्रीटÓ की हिन्दी डबिंग तो अपने ही खिलाफ जंग को न्योता देना है। सुरेश कलमाड़ी और राजा को निशाना बनाने पर निर्माण के ठेके और ब्रॉडबैंड के ठेके भी प्रतिद्वन्द्वियों से हस्तांतरित होते रहेंगे। आपस की दोस्ती भी बनी रहेगी। वेयरहाउस शेयरिंग भी तो करनी है कॉस्ट कटिंग के लिए। आपस में एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलने से तो सब के लाभ खतरे में पड़ जाएंगे। के एम अब्राहम शेयर ट्रेडिंग के लिए लाइसेंस नहीं दे रहा तो क्या हुआ। सेबी उसके बाप की थोड़े ही है, उसकी जगह कोई और साइन करेगा। जय शेयर बाजार (मत दो भारत में कैसिनो के लाइसेंस, हम बाजार को ही कैसिनो बना डालेंगे)! जय कॉरपोरेट ।————————————————आर्थिक विकास में बाधा है भ्रष्टाचार :भारत के महाशक्ति बनने की सम्भावना का आकलन अमेरिका एवं चीन की तुलना से किया जा सकता है। महाशक्ति बनने की पहली कसौटी तकनीकी नेतृत्व है। दूसरी कसौटी श्रम के मूल्य की है। तीसरी कसौटी शासन के खुलेपन की है और चौथी कसौटी भ्रटाचार की। सरकार भ्रट हो तो जनता की ऊर्जा भटक जाती है। देश की पूंजी का रिसाव हो जाता है। भ्रष्ट अधिकारी और नेता धन को स्विट्जरलैण्ड भेज देते हैं। इसके अलावा पांचवीं कसौटी असमानता की है। गरीब और अमीर के अन्तर के बढऩे से समाज में वैमनस्य पैदा होता है। गरीब की ऊर्जा अमीर के साथ मिलकर देश के निर्माण में लगने के स्थान पर अमीर के विरोध में लगती है। भ्रटाचार में कमी के संकेत मिल रहे हैं। सूचना के अधिकार ने सरकारी मनमानी पर कुछ न कुछ लगाम अवश्य कसी है। परन्तु अभी बहुत आगे जाना है। अमीरी-गरीबी के मध्य असमानता भी अपने देश में कैंसर की तरह पनपती जा रही है। मूल रोग है आर्थिक नीतियां। बड़ी कम्पनियों को सरकार खुली छूट दे रही है। इनके लाभ उत्तरोत्तर बढ़ रहे हैं जबकि गरीब कराह रहा है। गरीब पर ढाये गये इस अत्याचार पर सरकार मनरेगा द्वारा मरहम पट्टी करने का दिखावटी प्रयास कर रही है। परन्तु इस योजना में भी भ्रटाचार तेजी से बढ़ रहा है। इसके अतिरिक्त इस योजना में समाज की ऊर्जा निकम्मेपन एवं फर्जी कार्यों में खर्च हो रही है। इस प्रकार भ्रष्टाचार एवं असमानता दोनों समस्यायें आपस में जुड़ी हुई हैं।देश कैसे बनेगा महाशक्ति!सरकार की मंशा इन समस्याओं को हल करने की है ही नहीं। राजनीतिक पार्टियों का मूल उद्देश्य सत्ता पर काबिज रहना है। इन्होंने युक्ति निकाली है कि गरीब को राहत देने के नाम पर अपने समर्थकों की टोली खड़ी कर लो। कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए भारी भरकम नौकरशाही स्थापित की जा रही है। सरकारी विद्यालयों एवं अस्पतालों का बेहाल सर्वविदित है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में 40 प्रतिशत माल का रिसाव हो रहा है। मनरेगा के मार्फत निकम्मों की टोली खड़ी की जा रही है। 100 रुपये पाने के लिये उन्हें दूसरे उत्पादक रोजगार छोडऩे पड़ रहे हैं। अत: भ्रटाचार और असमानता की समस्याओं को रोकने में हम असफल हैं। यही हमारी महाशक्ति बनने में रोड़ा है। उपाय है कि तमाम कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके बची हुयी रकम को प्रत्येक मतदाता को सीधे रिजर्व बैंक के माध्यम से वितरित कर दिया जाये। आकलन है कि प्रत्येक परिवार को 2000 रुपये प्रति माह मिल जायेंगे जो उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को पर्याप्त होगा। उन्हें मनरेगा में बैठकर फर्जी कार्य का ढोंग नहीं रचना होगा। वे रोजगार करने और धन कमाने को निकल सकेंगे। कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रटाचार स्वत: समाप्त हो जायेगा। इस फार्मूले को लागू करने में प्रमुख समस्या राजनीतिक पार्टियों का सत्ता प्रेम है। सरकारी कर्मचारियों की लॉबी का सामना करने का इनमें साहस नहीं है। सारांश है कि भारत महाशक्ति बन सकता है यदि राजनीतिक पार्टियों द्वारा कल्याणकारी कार्यक्रमों में कार्यरत सरकारी कर्मचारियों की बड़ी फौज को खत्म किया जाये। इन पर खर्च की जा रही रकम को सीधे मतदाताओं को वितरित कर देना चाहिये। इस समस्या को तत्काल हल न करने की स्थिति में हम महाशक्ति बनने के अवसर को गंवा देंगे।—————————- कुछ करना होगा : केंद्र कहता तो है कि वह सुधार के पक्ष में है मगर इस मामले में नेतृत्वविहीन दिखता गृह मंत्रालय बिलकुल निष्क्रिय नजर आता है। गृह मंत्रालय का तर्क है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियाँ राज्य सरकारों के अधीन हैं और इन मामलों में गृह मंत्रालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इस तर्क में कोई दम नहीं है क्योंकि केंद्र ने भी अब तक पुलिस व्यवस्था में सुधार जाँच आयोगों का औचित्य भी संदेह के घेरे में है। 1992 के बाबरी मस्जिद कांड की जाँच कर रहे लिब्रहान आयोग की समय-सीमा 47वीं बार बढ़ाई गई। गुजरात में नानावती आयोग को भी पाँचवीं बार मोहलत मिली। पुलिस और खुफिया एजेंसियों का राजनीतिकरण हो चुका है, राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया तेज है। अपराधों के राजनीतिकरण की प्रक्रिया में भी तेजी आई है। फौजदारी कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है। परिणामस्वरूप न्यायालय की बजाय अन्य स्रोतों से न्याय प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ गई है।ल सीबीआई और अन्य खुफिया एजेंसियाँ भी राजनीतिक दखलंदाजी की शिकार हैं। इसी कारण हम आतंकवाद का सामना सफलतापूर्वक नहीं कर पा रहे हैं। अत्यंत कठोर कानूनों के प्रति समाज में आक्रोश पैदा हो जाता है क्योंकि इनका दुरुपयोग गरीबों और कमजोरों के खिलाफ किया जाता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा राज्य नहीं चाहता जहाँ सुरक्षा एजेंसियाँ हावी हों। साथ ही वह मानवाधिकारों में कोई कमी भी नहीं चाहता जबकि यह सच है कि अगर विद्यमान कानूनों को भी पूरी तरह लागू किया जाए तो वे प्रभावी होंगे। मगर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि इन्हें लागू करने वाले तंत्र की धार को राजनीतिक रूप से कुंद कर दिया गया है। जाँच आयोगों का औचित्य भी संदेह के घेरे में है। 1992 के बाबरी मस्जिद कांड की जाँच कर रहे लिब्रहान आयोग की समय-सीमा 47वीं बार बढ़ाई गई। गुजरात में नानावती आयोग को भी पाँचवीं बार मोहलत मिली। हमें लोकतंत्र को बचाने के लिए तुरंत कुछ करना होगा। —————————हम कहां ?भ्रष्टाचार के मामले में भारत ने साल भर में काफी तरक्की कर ली है। ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष 2010 के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत तीन पायदान नीचे गिर कर 87वें स्थान पर पहुंच गया है। जबकि 2009 में वह 84वें स्थान पर था। सूची में एशिया में भूटान को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण कई अमीर देशों में भ्रष्ट्राचार में वृद्धि हुई है। बर्लिन स्थित गैर सरकारी संगठन, ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा 178 देशों के इस सूचकांक में चीन 78वें स्थान पर है। यानी वह भारत की बनिस्पत कम भ्रष्ट देश है। हालांकि पाकिस्तान भारत से भी अधिक भ्रष्ट देशों में शुमार है। सूचकांक में वह 143वें स्थान पर है। जबकि बांग्लादेश पाँच पायदान की छलांग लगाकर 134वें नंबर पर है। भूटान काफी आगे 36वें नंबर पर हैं। डेनमार्क, न्यूजीलैंड और सिंगापुर इस फेहरिस्त में अव्वल हैं। अगर अफ्रीकी देशों की बात करें तो रवांडा,बोस्तवाना और घाना की स्थिति सुधरी है। लातिन अमरीकी देशों में चीली (21) और उरुग्वे (24) ने अच्छा प्रदर्शन किया है। लेकिन सबसे भ्रष्ट समझे जाने वाले देशों- अफगानिस्तान, बर्मा और सोमालिया की छवि में कोई सुधार नहीं हुआ है। ये देश सूची में सबसे नीचे हैं। मध्य पूर्व में इराक सबसे नीचे है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक यूरोप के कई देश पिछले एक साल में ज्यादा भ्रष्ट हुए हैं खासकर चेक गणराज्य और हंगरी। रूस गिरकर 154वें नंबर पर आ गया है तो इटली गिरकर 67 पर पहुँच गया है। बर्लिन की संस्था ने बड़े पैमाने पर मत सर्वेक्षण के बाद सूची जारी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ देशों में भ्रष्ट्राचार कम हुआ है लेकिन सब जगह ऐसे हालात नहीं हैं। संस्था के सदस्यों का कहना है कि राष्ट्रमंडल खेलों में उजागर हुई अनियमितताओं से भारत की छवि खराब हुई है। इस सूचकांक में भ्रष्टाचार को नीचे की ओर गिरता हुआ दिखाया गया है। यानी सबसे कम भ्रष्ट देश सूचकांक में सबसे ऊपर तथा सर्वाधिक भ्रष्ट देश सूचकांक में सबसे नीचे स्थित होगा। इस वर्ष सूचकांक में शामिल किए गए 178 देशों में से तीन चौथाई देशों ने शून्य से 10 के पैमाने पर पांच से भी कम अंक हासिल किया है। इससे दुनिया में भ्रष्टाचार की गंभीर समस्या का संकेत मिलता है। इस पैमाने पर इस वर्ष भारत को 3.3 अंक हासिल हुए हैं, जबकि 2009 में 3.4 अंक हासिल हुए थे। नए सूचकांक को जारी करते हुए ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी के लिए भ्रष्टाचार निरोधी कानूनों का क्रियान्वयन ठीक से न होने को जिम्मेदार ठहराया है। संस्था की अध्यक्ष ह्युगेट लैबेल ने एक बयान में कहा है, कि हमें मौजूदा नियमों व कानूनों को अधिक चुस्त बनाने की आवश्यकता है। भ्रष्ट लोगों को छुपने के लिए तथा उनके धन को छुपाने के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इस सूचकांक में सोमालिया दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में हैं। सबसे अधिक भ्रष्ट देशों में अफगानिस्तान और म्यांमार दूसरे स्थान पर हैं। इस मामले में इराक चौथे स्थान पर है। सूची में एशिया में भूटान को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है। इस सूची में अमेरिका 22वें स्थान पर है। जबकि डेनमार्क, सिंगापुर, न्यूजीलैंड को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है।————————-भारतीय टैक्स चोरी की जन्मपत्री फ्रांस मेंसुरेश चिपलूणकरभारत के करोड़ों ईमानदार करदाताओं और नागरिकों के लिये यह एक खुशखबरी है कि फ्रांस के एक बैंक के दो कर्मचारियों हर्व फेल्सियानी और जॉर्जीना मिखाइल ने दावा किया है कि उनके पास स्विस बैंकों में से एक बैंक में स्थित 180 देशों के कर चोरों की पूरी जानकारी मौजूद है। 2 साल से इन्होंने लगातार यूरोपीय देशों की सरकारों को ईमेल भेजकर टैक्स चोरों को पकड़वाने में मदद की पेशकश कर रखी है। जर्मनी की गुप्तचर सेवा को भेजे अपने ईमेल में इन्होंने कहा था कि ये लोग स्विटजरलैण्ड स्थित एक निजी बैंक के महत्वपूर्ण डाटा और उस कम्प्यूटर तक पुलिस की पहुँच बना सकते हैं। इसी प्रकार के ईमेल ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन की सरकारों, विदेश मंत्रालयों और पुलिस को भेजे गये हैं । यूरोप के देशों में इस बात पर बहस छिड़ी है कि एक हैकर या बैंक के कर्मचारी द्वारा चोरी किये गये डाटा पर भरोसा करना ठीक है और क्या ऐसा करना नैतिक रूप से सही है? लेकिन फेल्सियानी जो कि एचएसबीसी बैंक के पूर्व कर्मचारी हैं, पर फिलहाल फ्रांस और जर्मनी तो भरोसा कर रहे हैं, जबकि स्विस सरकार लाल-पीली हो रही है। एचबीसी के वरिष्ट अधिकारियों ने माना है कि फेल्सियानी ने बैंक के मुख्यालय और इसकी एक स्विस सहयोगी बैंक से महत्वपूर्ण डाटा को कॉपी कर लिया है और उसने बैंक की गोपनीयता सम्बन्धी सेवा शर्तों का उल्लंघन किया है। फेल्सियानी ने स्वीकार किया है कि उनके पास 180 देशों के विभिन्न ग्राहकों का डाटा है, लेकिन उन्होंने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया, क्योंकि इस डाटा से उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, बल्कि स्विस बैंक द्वारा अपनाई जा रही गोपनीयता बैंकिंग प्रणाली पर सवालिया निशान लगाना भर है। फ्रांस सरकार फेल्सियानी से प्राप्त जानकारियों के आधार पर टैक्स चोरों के खिलाफ अभियान छेड़ चुकी है। स्विस पुलिस ने फेल्सियानी के निवास पर छापा मारकर उसका कम्प्यूटर और अन्य महत्वपूर्ण हार्डवेयर जब्त कर लिया है लेकिन फेल्सियानी का दावा है कि उसका डाटा सुरक्षित है और वह किसी दूरस्थ सर्वर पर अपलोड किया जा चुका है। इधर फ्रांस सरकार का कहना है कि उन्हें इसमें किसी कानूनी उल्लंघन की बात नजर नहीं आती, और वे टैक्स चोरों के खिलाफ अभियान जारी रखेंगे। फ्रांस सरकार ने इटली की सरकार को 7000 अकाउंट नम्बर दिये, जिसमें लगभग 7 अरब डालर की अवैध सम्पत्ति जमा थी। स्पेन के टैक्स विभाग ने भी इस डाटा का उपयोग करते हुए इनकी जाँच शुरू कर दी है। फेल्सियानी ने वर्ष 2000 में एचएसबीसी बैंक की नौकरी शुरू की थी, वह कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में स्नातक और बैंक के सुरक्षा सॉफ्टवेयर के कोड लिखता है। बैंक में उसका कई बार प्रमोशन हो चुका है और 2006 में उसे जिनेवा स्थित एचबीसी के मुख्यालय में ग्राहक डाटाबेस की सुरक्षा बढ़ाने के लिये तैनात किया गया था। इसलिये फेल्सियानी की बातों और उसके दावों पर शक करने की कोई वजह नहीं बनती। फेल्सियानी का कहना है कि बैंक का डाटा वह एक रिमोट सर्वर पर बैक-अप के रुप में सुरक्षित करके रखता था, जो कि एक निर्धारित प्रक्रिया थी, और मेरा इरादा इस डाटा से पैसा कमाना नहीं है। जून 2008 से अगस्त 2009 के बीच अमेरिका के कर अधिकारियों ने स्विस बैंक के नट-बोल्ट टाइट किये तब अमेरिका के 4450 कर चोरों के बैंक डीटेल्स उन्हें दे दिये। कहने का मतलब यह है कि स्विटजरलैण्ड की एक बैंक (जी हाँ फिलहाल सिर्फ एक बैंक) के 180 देशों के हजारों ग्राहकों (यानी डाकुओं) के खातों की पूरी जानकारी फेल्सियानी नामक शख्स के पास है अब हमारे ईमानदार बाबू के जमीर और हिम्मत पर यह निर्भर करता है कि वे यह देखना सुनिश्चित करें कि फेल्सियानी के पास उपलब्ध आँकड़ों में से क्या भारत के कुछ चोरों के आँकड़े भी हैं? भले ही इस डाटा को हासिल करने के लिये हमें फेल्सियानी को लाखों डालर क्यों न चुकाने पड़े, लेकिन जब फ्रांस , जर्मनी, स्पेन और अमेरिका जैसे देश फेल्सियानी के इन आँकड़ों पर न सिर्फ भरोसा कर रहे हैं, बल्कि छापेमारी भी कर रहे हैं तो हमें संकोच नहीं करना चाहिये। भारत के पिछले लोकसभा चुनावों में स्विस बैंकों से भारत के बड़े-बड़े मगरमच्छों द्वारा वहाँ जमा किये गये धन को भारत वापस लाने के बारे में काफी हो-हल्ला मचाया गया था। एक व्यक्ति के रूप में, प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि पर पूरा यकीन है, लेकिन क्या वे इस मौके का उपयोग देशहित में करेंगे? यदि फेल्सियानी की लिस्ट से भारत के 8-10 मगरमच्छ फँसते हैं, तो मनमोहन सिंह भारत में इतिहास-पुरुष बन जायेंगे। परन्तु जिस प्रकार की आत्माओं से वे घिरे हुए हैं, उस माहौल में क्या ऐसा करने की हिम्मत जुटा पायेंगे? उम्मीद तो कम ही है, क्योंकि दूरसंचार मंत्री ए. राजा के खिलाफ पक्के सबूत, मीडिया में छपने के बावजूद वे उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं, तो फेल्सियानी की स्विस बैंक लिस्ट में से पता नहीं कौन सा भयानक भूत निकल आये और उनकी सरकार को हवा में उड़ा ले जाये।—————-संकट की दस्तक :संकट दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। मुद्रास्फीति की दर बेकाबू बनी हुई है। दो अंकों में पहुँच गई मुद्रास्फीति की दर नीचे आने का नाम नहीं ले रही। इसका सीधा असर ब्याज दरों पर पड़ा है और रिजर्व बैंक की सख्त मौद्रिक नीति के कारण छोटे-बड़े उद्यमियों और निवेशकों के लिए बैंकों और खुले बाजार से निवेश के वास्ते धन जुटाना मुश्किल हो गया है। यही नहीं, अमेरिकी वित्तीय संकट के कारण बड़े देशी कारपोरेट समूहों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजारों से नए निवेश और विस्तार के वास्ते पूँजी जुगाडऩे के ज्यादातर स्रोत सूख से गए हैं। इसका नए निवेश पर नकारात्मक असर तय है। निवेश में गिरावट अर्थव्यवस्था की विकास दर की रफ्तार पर ब्रेक लगा सकती है। अधिकांश आर्थिक विश्लेषकों और अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह पैदा हो रही है कि कहीं वह स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में तो नहीं आ रही ? स्टैगफ्लेशन की स्थिति तब पैदा होती है जब एक ओर अर्थव्यवस्था की विकास दर गिर रही हो और दूसरी ओर मुद्रास्फीति की दर बढ़ रही हो या ऊँचाई पर बनी हुई हो। हालाँकि इस मुद्दे पर अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं लेकिन अर्थव्यवस्था उस जैसी स्थिति में ही फँसती दिख रही है। अगर किसी चमत्कार ने नहीं बचाया तो एक बार स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में फँसने के बाद अर्थव्यवस्था का उससे बाहर निकलना न सिर्फ बहुत मुश्किल हो जाता है बल्कि आम लोगों के लिए वह प्रक्रिया बहुत तकलीफदेह हो जाती है। साफ है कि आर्थिक संकट की सुरसा ने अपना आकार बढ़ाना शुरू कर दिया है। लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या मनमोहन सिंह इस सुरसा से निपटने के लिए हनुमान प्रयास करेंगे? अफसोस, हनुमान प्रयास तो नहीं यूपीए सरकार ऊँट की तरह रेत में सिर छिपाकर हनुमान चालीसा जरूर पढ़ती दिख रही है। लेकिन क्या इससे संकट टल जाएगा ?
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::सनातन अविकास नोम चॉम्स्की विश्व व्यापार संगठन के नियमों पर एक नजर डाल लें, जैसे ट्रिप और ट्रिम-व्यापार संबंधी बौद्धिक संपत्ति तथा व्यापार संबंधी निवेश उपाय आदि कार्यक्रम विकास को और वृद्धि को अवरुद्ध करने के लिए ही बने हुए लगते हैं। इसलिए बौद्धिक संपत्ति के अधिकार बस एकाधिकारपूर्ण मूल्य निर्धारण और नियंत्रण बनाए रखने के लिए है। इससे वृद्धि और विकास में बाधा पड़ती है, और उद्देश्य भी यही है। उद्देश्य है सृजनात्मकता, वृद्धि और विकास में कटौती करना और लाभ को असाधारण स्तर तक बनाए रखना। जरा ध्यान से देखें। अनुसंधान और विकास के एक बड़े हिस्से के लिए तो वैसे भी जनता का पैसा लगता है। ऐसे में एकाधिकारवादी मूल्य निर्धारण का कोई उद्देश्य नहीं रह जाएगा, और यह समाज कल्याण के हक में एक बहुत बड़ा फायदा होगा। ऐसा न करने का कोई उपयुक्त आर्थिक कारण नहीं है। एक आर्थिक उद्देश्य है, लाभ, पर यह वृद्धि और विकास को अवरुद्ध करने की कोशिश है। सवाल हो सकता है कि व्यापार संबंधी निवेश उपायों का क्या होगा? ये उपाय क्या करते हैं? ट्रिप्स तो सीधे-सीधे अमीर और ताकतवर निगमों, जिनको सार्वजनिक धन से रियायतें दी जाती हैं, के पक्ष में संरक्षणवाद है। ट्रिम की बात थोड़ी ज्यादा बारीक है। उनके अनुसार कोई देश किसी निवेशकर्ता के निर्णयों पर रोक नहीं लगा सकता। मान लीजिए जनरल मोटर्स आउटसोर्स करने का, यानी अपने कल-पुर्जों का निर्माण किसी अन्य देश में करवाने का, जहाँ मजदूर संगठनों से मुक्त सस्ता श्रम उपलब्ध हो, और उन्हें वापस जनरल मोटर्स में लाने का निर्णय लेती है। अब ऐसे में एशिया के सफल विकासशील देशों को देखें तो उनके विकास करने का एक तरीका था इस तरह की चीज को रोकना, यह जोर देते हुए कि अगर विदेशी निवेश होना है तो उसे इस तरीके से होना पड़ेगा कि वह प्राप्त करने वाले देश के लिए उत्पादनशील हो। तो यह जरूरी था कि तकनीक का आदान-प्रदान हो, या फिर आप वहीं निवेश कर सकते थे जहाँ वे चाहते थे, या कुल निवेश का कुछ हिस्सा ऐसी निर्मित वस्तुओं के निर्यात में लगना चाहिए जिनसे कुछ आय हो। ऐसी बहुत सी युक्तियाँ। यह भी एक कारण है पूर्वी एशिया के आर्थिक चमत्कार का। इसी तरीके से अन्य विकासशील देशों का भी विकास हुआ था, और इनमें संयुक्त राज्य भी शामिल है, जिसे इंग्लैंड से तकनीक मिली थी। व्यापार संबंधी निवेश उपायों के अंतर्गत इस तरीके पर रोक लग गई है। सतही तौर पर ये मुक्त व्यापार को बढ़ावा देती दिखती हैं, किंतु असल में ये निगमों की सीमा-पार लेन-देन के केंद्रीय प्रबंधन की क्षमता बढ़ा रही हैं, क्योंकि आउटसोर्सिंग तथा फर्म के अंदरूनी लेन-देन तो वही हैं , केंद्रीय रूप से प्रबंधित। यह तो वास्तविक अर्थ में व्यापार है ही नहीं और ये वृद्धि तथा विकास में बाधा डालते हैं। असल में अगर आप चारों तरफ देखें तो जिसे लागू किया जा रहा है वह एक ऐसी व्यवस्था है जो उस तरह के विकास को रोक देगी जो उन देशों में हुआ जो आज अमीर देश हैं, औद्योगिक देश हैं, यह हालांकि ऐसा सर्वोत्ताम विकास नहीं है जो संभव है, फिर भी एक तरह का विकास तो है। टिकाऊ विकास का मतलब है, मिसाल के तौर पर, 'बाहरीÓ चीजों पर ध्यान देना, जिन पर धंधा करते समय ध्यान नहीं दिया जाता। जैसे व्यापार को ले लीजिए। माना जाता है कि व्यापार धन-संपत्ति बढ़ाता है। शायद बढ़ाता हो, शायद ना बढ़ाता हो, लेकिन बढ़ाता है या नहीं यह आप तब तक नहीं जान सकते जब तक आप व्यापार की लागतों को नहीं गिन लेते, उन लागतों सहित जिन्हें नहीं गिना जाता, जैसे कि प्रदूषण की लागत। जब कोई वस्तु एक जगह से दूसरी जगह ले जाई जाती है तो उससे प्रदूषण पैदा होता है। इसे बाहरी बात अप्रासंगिक कहा जाता है, आप ऐसी बातों को गिनती में नहीं लेते। इसी श्रेणी में संसाधनों का क्षरण है, यानी आप कृषि विकास के लिए संसाधनों का दोहन करते हैं। फिर सैनिक लागतें हैं। व्यापार की एक और लागत है कि यह लोगों से उनका रोजगार छीन लेता है। असल में यह बहु-आयामी लागत है, क्योंकि इससे लाखों लोगों का उत्पीडऩ ही नहीं होता, उन्हें शहरों में खदेड़ दिया जाता है जहाँ वे मजदूरी या आय को घटा देते हैं, जिससे दूसरे लोग भी उत्पीडि़त होते हैं। आप सकल घरेलू उत्पाद के मापकों को देखें तो पाएंगे कि ये सभी विचारधारात्मक हैं। ::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::