रविवार, 14 अक्तूबर 2012


  बॉस के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी...
 पत्रकारिता  का उद्देश्य है आम से खास तक और खास से आम तक यानि जन जन तक सूचना पहुचाना और आवाम की आवाज़ बनना पर शायद इन आवाज़ों में खुद की हीं लड़ाई लड़ने का साहस खत्म सा हो गया है।  इस पेशे में ऐसे कई है जो जी तो रहे है घुट घुट कर पर हिम्मत जुटे तो जुटे कैसे आखिरकार अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता।  आखिर मीडिया में चमचागिरी और चापलूसी नाम की भी कोई चीज़ है जिसे सलाम करने वाले कभी हमारी तरह शोषित नहीं होते। उन्हें तो बस बॉस को पैर छूकर प्रणाम भईया, गुड मॉर्निंग बॉस या फिर केबिन में घुंसकर बटरिंग करने का डोज़ देना होता है जिसके करने मात्र से हीं संस्थान में उनका डंका बजता है। देखा जाए तो ऐसे लोग अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए दलाली तक करने पर अमादा हो जाते है जिसमें वो बॉस के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी...।  मीडिया संस्थानों को अपने परिश्रम और कार्यकुशलता से चलाने वाले लोंगो के साथ हो रहे शोषण के लिए वो कौन लोग जिम्मेदार हैं इसका पता जरुर लगना चाहिए।  इस विषय पर सभी मीडिया संस्थानों में एक गुप्त जांच पड़ताल टीम भी होनी चाहिए जो चमचागिरी और दलाली जैसी गतिविधियों पर नज़र रख सके ताकि ऑफिस के हित में काम करने वाला कोई भी कर्मचारी खुद को कभी ठगा सा महसूस न करे क्योंकि इनसे गुणवत्ता और काम करने की क्षमता पर असर पड़ता है।



चाटुकारिता की पत्रकारिता 
पत्रकारिता यानि मीडिया यानि लोकतंत्र  का चौथा स्तम्भ पढने में ये शब्द  शायद  भारी भरकम लगे पर आज के समय में ये शब्द उतने ही खोखले हों गए हैI कभी पत्रकारिता को  एक क्रांति के रूप में देखा गया था अब वही  क्रांति धीरे -धीरे बिज़नेस का रूप धारण कर चुकी है और आगे चलकर शायद  ऐसी सब्जी मंडी जहां औने पौने दाम में कुछ भी बेचा जा सकता है I देश में अखबार की शुरुआत के साथ शुरू हुआ बदलाव का दौर, राजा राम मोहन राय जैसे समाज सेवको ने इसे एक क्रांति का रूप दिया I धीरे-धीरे इस क्रांति ने जन व्यापक को अपने साथ जोड़ा और शुरू हुई ऐसी शुरुआत  जो देश आज़ाद होने पर ही रुकी। पत्रकारिता का जो असली उद्देश्य था वो पूरा हो चूका था। वो वह दौर था जहां अखबार में छपी खबर को सूरज पूर्व से निकलता है जितना सच मन जाता था। और अब का पत्रकारिता का दौर ऐसा दौर है जहा सिर्फ चाटुकारिता की पत्रकारिता होने लगी है ! जहां आगे निकलने की होड़ में उजुल-फिजुल छापने की होड़ तो कहीं अपने आप को सबसे तेज और श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए अंधविश्वास और बिना पुष्टि के खबर चलने की होड़। कुछ तो दुनिया खत्म   और भूत प्रेत चलाने से भी पीछे नहीं रहते। पत्रकारिता का असली कर्त्तव्य कहीं विलुप्त सा हो गया है। रही सही कसर कुकुरमुत्ते की तरह उगे टीवी चैनल पूरा कर रहे है। सिर्फ एक या दो टीवी चैनल को छोड़ दें, तो बाकी   मुन्नी बदनाम, या दुनिया खत्म होने को ही अपनी लीड  स्टोरी मानते है। हद तो तब हो गयी जब उपायुक्त के पालतू कुत्ते के खोने की खबर दिन भर चलती रही। ऊपर से पेड न्यूज़ नाम का कैंसर भी मीडिया की विश्वसनीयता  को लगातार  खोखला किये जा रहा है । आने वाले टाइम में भी अगर यही पत्रकारिता का हाल रहा तो आम आदमी का नेताओं की तरह पत्रकारों से भी विश्वास उठ जाएगा।