मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

मूल मुद्दे से भटकाव

किसी घोटाले का पर्दाफाश करना तो आसान है, पर दोषी शख्स को सजा दिलाना मुश्किल है। खास तौर से लोकतांत्रिक भारत में। घोटाले के लिए जिम्मेदार कौन है, यह समझना बेहद जरूरी है। चूंकि हम इस मूल मुद्दे को भूल गए हैं, इससे दोषी शख्स आसानी से बच रहे हैं। गौरतलब है कि सूचनाओं की भरमार से मूल मुद्दा लुप्त होता जा रहा है। बहस मूल मुद्दे से भटक रही है। जरूरी है कि स्थितियों को सरल बनाते हुए हम मूल विषय पर ही ध्यान केंद्रित करें। घोटाला यह है कि नीतियों को बदल कर कुछ कंपनियों को लाभ पहुंचाया गया। इसके बदले में मंत्री और नौकरशाह भी लाभान्वित हुए हैं। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में टेलीकॉम मंत्री ए.राजा ने कुछ कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए लाइसेंस देने की प्रक्रिया ही पूरी तरह से बदल दी। ऐसा नौकरशाहों की मिलीभगत से ही संभव हो सकता है। यह घोटाला सिर्फ लॉबिंग करने वालों और पत्रकारों की बातचीत या रतन टाटा की निजता की समस्या भर नहीं है। ये तो इस घोटाले से जुड़ी साइड स्टोरी हैं, प्रमुख दोषी तो अब भी आजाद घूम रहे हैं। उन्हें सजा दिलाने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है। विपक्ष ने अपने विवेक से संसद की कार्यवाही को चलने नहीं दी, कारण था सरकार त्राहि-माम करेगी और देश के सामने उसे बेनकाब किया जाएगा। मगर भाजपा नेता व संसद की लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने विपक्ष की जेपीसी की मांग की हवा निकाल कर रख दी है। सोमवार को बतौर पीएसी अध्यक्ष विधिवत संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने उन तर्कों को ध्वस्त कर दिया जो विपक्ष, खासतौर पर भाजपा, के नेताओं ने जेपीसी के पक्ष में दिए थे। जोशी के इन बयानों से भाजपा नेताओं के माथे पर बल पड़ गया है। इससे देशभर में जेपीसी की मांग के लिए रैलियां करने की राजग की मुहिम पर असर पडऩा भी लाजिमी है। स्पेक्ट्रम घोटाले पर पीएसी की नौवीं बैठक के बाद मीडिया से मुखातिब जोशी ने सबसे पहले विपक्ष के इस तर्क को धराशायी कर दिया कि पीएसी केवल सीएजी की रिपोर्ट की छानबीन करती है। जोशी के अनुसार, सीएजी पीएसी का सहायक जरूर है और उसे एक विशेषज्ञ के तौर पर जानकारी देता है मगर पीएसी का दायरा इससे कहीं ज्यादा बड़ा है। और तो और जोशी ने 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की राशि पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया। यहां यह जानना जरूरी है कि जेपीसी आखिर क्या है और यह क्या अधिकार देती अथवा रखती है। दरअसल, संसद के कार्यों में विविधता तो है, साथ ही उसके पास काम की अधिकता भी रहती है। चूंकि उसके पास समय बहुत सीमित होता है, इसलिए उसके समक्ष प्रस्तुत सभी विधायी या अन्य मामलों पर गहन विचार नहीं हो सकता है। अत: इसका बहुत-सा कार्य समितियों द्वारा किया जाता है। संसद के दोनों सदनों की समितियों की संरचना कुछ अपवादों को छोड़कर एक जैसी होती है। इन समितियों में नियुक्ति, कार्यकाल, कार्य एवं कार्य संचालन की प्रक्रिया कुल मिलाकर करीब एक जैसी ही है और यह संविधान के अनुच्छेद 118 (1) के अंतर्गत दोनों सदनों द्वारा निर्मित नियमों के तहत ही काम करती है। जेपीसी के पास घोटाले में शामिल कंपनियों को समन जारी करने का भी अधिकार रहता है। सरल शब्दों में कहें तो इस तरह संसद में प्रत्येक पार्टी को प्रश्न दागने का अधिकार होगा, मानो सभी सरकार में हों। बहरहाल, बात आगे बढ़ गई है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले पर जेपीसी जांच की माँग पर अड़ी भाजपा की ओर से घोषणा की गई है कि वो 2जी स्पेक्ट्रम मामले की संयुक्त संसदीय जांच समिति (जेपीसी) से जाँच के मुद्दे पर गतिरोध समाप्त करने के लिए आयोजित सर्वदलीय बैठक में हिस्सा लेगी। लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार की ओर से 2जी स्पेक्ट्रम मामले पर 30 दिसंबर को सर्वदलीय बैठक आयोजित करने की योजना है। लूट के इस बड़े झूठ की गांठें और उलझती जा रही हैं और लगता है कि मांग और पूर्ति के बीच कहीं किसी और सिद्धांत की ही पुष्टि न हो जाए।

परिपूर्णता से आगे की संपूर्णता

महाराष्ट्र सरकार ने एक शराब ब्रांड के विज्ञापन की पेशकश स्वीकार नहीं करने के लिए मास्टर बल्लेबाज सचिन तेंडुलकर की सराहना की है। महाराष्ट्र के सामाजिक न्याय मंत्री शिवाजीराव मोघे ने एक प्रमुख ब्रांड के विज्ञापन के लिए 20 करोड़ रुपए की पेशकश को ठुकराने पर उनकी सराहना करते हुए एक पत्र लिखा है। पत्र में मोघे ने कहा, हम सचिन की सराहना करते हैं क्योंकि वह अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार के मद्य निषेध अभियान में मदद कर रहे हैं तथा दूसरों के लिए मिसाल पेश कर रहे हैं। मोघे ने कहा कि करोड़ों युवा दिलों के अजीज सचिन ने जताया है कि वह समाज के जिम्मेदार नागरिक हैं और अपने सिद्धांतों पर कायम रहकर उन्होंने इतनी बड़ी राशि ठुकरा दी। उन्होंने कहा, मैं उम्मीद करता हूं कि अन्य मशहूर लोग भी सचिन के कदमों का अनुसरण करेंगे और समाज को नशामुक्त बनाने में मदद देंगे। मंत्री ने कहा कि हम युवाओं को शराब और सिगरेट से दूर रखना चाहते हैं तथा इसके लिए एक नीति तैयार की जा रही है। यह अगर महाराष्ट्र सरकार की नेकनीयति है तो सचिन की महानता भी। सचिन तेंदुलकर को यूं ही महान नहीं कहा जाता। मगर इस महानता के पीछे तपस्या होती है। किसी शख्स का तप ही उसे महानता की तरफ ले जाता है। आजकल सचिन को क्रिकेट के भगवान के रूप में नवाजा जा रहा है। सचिन परिपूर्णता से आगे निकल चुके हैं। वो खुद अपने शिखर तय करते हैं और फिर उन्हें देखते ही देखते हासिल कर डालते हैं। उनके लिए ये सिर्फ एक नई मंजिल तक पहुचना होता है, लेकिन उनके चाहने वालों के लिए ये एक किंवदंती में तब्दील हो जाता है। ये उन्हें क्रिकेट के दायरे से बाहर ले जाता है। फिर भी तेंडुलकर बेपरवाह हैं आलोचनाओं से, अपने पर उठते सवालों से। हर सवाल का जवाब उनके बल्ले से निकलता है। वे चुनौतियों का आंख में आंख डालकर सामना ही नहीं करते, वो जो सर्वश्रेष्ठ है, उसको अपने बल्ले से जवाब देने में यकीन रखते हैं। भारतीय टीम की धुरी बने सचिन तेंदुलकर ग्रीक कथाओं के नायक एटलस की याद दिलाते हैं। अपने कंधे पर ग्लोब यानी दुनिया को उठाए एटलस। पिछले दो दशक में सचिन ने भी अपने बल्ले के सहारे भारतीय टीम का भार इसी तरह उठाया हुआ है।

गतिरोध जीत गया

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की आंच से आखिरकार मनमोहन पिघल ही गए। संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की विपक्षी दलों की मांग पर अड़े रहने के बीच उन्होंने लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी को लिख ही दिया कि वह स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में पेशी को तैयार हैं। जैसा कि याद होगा प्रधानमंत्री ने कांग्रेस महाधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा था कि वह इस मामले की जांच के लिए संसदीय समिति लोक लेखा समिति (पीएसी) के समक्ष पेश होने को तैयार हैं। मनमोहन की मंशा साफ है और वह कुछ नहीं छिपाना चाहते। सिंह ने पत्र ऐसे दिन लिखा है जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय ने संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) को 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर अपनी रिपोर्ट के बारे में जानकारी दी। कैग की रिपोर्ट में 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन में 1.76 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा बताया गया है, जिसके चलते संसद के पूरे शीतकालीन सत्र की कार्यवाही बाधित रही।नि:संदेह 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले बहुत बड़ा है। इस मामले का संबंध इससे है कि क्यों प्रधानमंत्री ने टेलिकॉम मिनिस्ट्री के लिए एक खास पार्टी के एक खास व्यक्ति का चुनाव किया। और क्यों उन्होंने टेलिकॉम पॉलिसी बनाने का काम एक खास पार्टी (डीएमके) पर छोड़ दिया। जब इन मुद्दों को लेकर प्रधानमंत्री संदेहों के घेरे में हैं, तो उन्हें शक से बरी कैसे माना जा सकता है? खुद कांग्रेस बैकफुट पर है। कारण सीएजी रिपोर्ट के खुलासे और स्पेक्ट्रम घोटालों की जानकारी के बावजूद वह अनजान बनी रही! जब सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद तूफान मचा है और प्रधानमंत्री सवालों के घेरे में हैं। मगर यह सरकार के लिए नई बात नहीं है। चाहे सीएनजी का मामला हो या कॉलेजों में रैगिंग या खुले में खाद्यान्न सडऩे का मामला; कार्यपालिका-विधायिका ने स्पष्ट दिशा-निर्देश के लिए अदालत का ही मुंह ताका, ताकि जनता की नाराजगी के जोखिम से बचा जा सके। बड़े भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति देने में सरकार जान-बूझकर विलम्ब करती है जिससे कानून के हाथ उन तक न पहुंच सकें। कांग्रेस अपने राजनीतिक ईमान पर लगे ग्रहण से वह बेचैन और बेबस है। आमजन में उसकी छवि भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने की बनती जा रही है, जिससे उसकी संसद के अंदर और बाहर फजीहत हो रही है। इसके चलते आम धारणा बन रही है कि सत्ता के लिए कांग्रेस कुछ भी कर सकती है। उसके शासन काल में बड़े घोटाले हो रहे हैं और वह जान-बूझकर मूकदर्शक बनी है। क्या कांग्रेस जनमानस में बनती यह छवि तोड़ पाएगी! इसके लिए उसे दृढ़ता दिखाने की जरूरत है, अन्यथा उसकी छवि पर भ्रष्टाचारियों को आश्रय देने के लगे दाग की भारी कीमत, आने वाले दिनों में चुकानी पड़ सकती है। कांग्रेस को आज अपने अतीत से सबक लेने की जरूरत है। 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव पर अपनी अल्पमत सरकार को बहुमत में बदलने के लिए झामुमो सांसदों को रिश्वत देने का आरोप था। मामला अदालत गया जिसमें वह कटघरे में थे। उस समय भी पार्टी की खूब भद्द पिटी थी। यूपीए-एक में भी परमाणु करार को लेकर संसद में विश्वासमत के दौरान मनमोहन सरकार पर भाजपा सांसदों को पैसा देने का आरोप लग चुका है। उस समय सांसदों ने पैसे को सदन में दिखाया था, जिसको लेकर सरकार की किरकिरी हुई थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति संविधान, विधि और न्याय से ऊपर नहीं है, चाहे वह देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। प्रधानमंत्री तो इस लोकतंत्र के मुखिया हैं, वह मंत्रिपरिषद के प्रमुख हैं, तो उन पर इसका उत्तरदायित्व दूसरों से कहीं ज्यादा है कि कैसा भी संदेह उन पर नहीं किया जा सके। इसकी पूरी जिम्मेदारी उन्हीं पर है कि अगर उनके मंत्रिमंडल का कोई सदस्य संदिग्ध आचरण करता है तो वह उस पर संविधानसम्मत कार्रवाई करें और इस तरह स्वयं पर कोई आक्षेप लगने की स्थिति पैदा नहीं होने दें। लगभग दो दशक से देश में गठबंधन सरकार है। क्षेत्रीय दल खूब सौदेबाजी करते हैं, यह जग-जाहिर है। इसलिए गठबंधन धर्म के निर्वहन के लिए राजनीतिक आचार संहिता जरूर बननी चाहिए। कांग्रेस, जिसे अपने सहयोगी दल द्रमुक के भ्रष्टाचार के चलते बगलें झांकनी पड़ रही हैं, को इस घटना से सबक लेना चाहिए। उसे सहयोगियों के साथ आम सहमति से यह तय करना चाहिए कि किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगने पर उसे स्वत: नैतिकता के आधार पर पद त्याग देना चाहिए। तभी सहयोगी दलों के भ्रष्ट कारनामों पर रोक लग सकेगी। साथ ही यह भी होना चाहिए कि जिस विभाग का भ्रष्टाचार उजागर हो, वह विभाग स्वत: सम्बंधित सहयोगी दल के कोटे से हट जाए। मुमकिन है इस तरह के कुछ ठोस उपायों से कांग्रेस की जन छवि में सुधार हो सके।आम जन में उसकी तस्वीर भ्रष्टाचारियों के शरणदाता की बन गई है।

सोना पाने सोना छोड़ें

जीवन में कुछ अच्छा प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि आप अपनी आरामदायक स्थिति से बाहर आएं। एक विद्यार्थी को परीक्षा में अच्छा नम्बर लाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है जबकि एक व्यवसायी अपने प्रतिद्वंदी को मात देने के लिए कई रातें जगता है या फिर एक खिलाड़ी को ओलंपिक की ऐसी प्रतियोगिता में जो एक मिनट भी नहीं जाएगी, पदक जीतने के लिए सालों पसीना बहाना पड़ता है। कम शब्दों में कहें तो कोई भी महत्वपूर्ण चीज आरामदायक स्थिति में रहकर प्राप्त नहीं की जा सकती है। यदि आप कभी हार न मानने वाला दृष्टिकोण अपना लेते हैं तो सफलता की उस शिखर पर काबिज होंगे जिसके बारे में आपने सोचा भी न था। मगर किसी भी ऊंचाई पर पहुंचने से पूर्व आप यह निर्धारित करें कि आपको कहां पहुंचना है। जब तक आप ये नहीं जानते कि आपको कहां जाना है, क्या करना है आप कैसे करेंगे। जब तक आपके पास कुछ करने को नहीं होगा, तब तक आप प्रेरित कैसे होंगे? प्रोत्साहन एवं इच्छा के बगैर आप जो भी प्राप्त करना चाहते हैं, आप नहीं कर पाएंगे। प्रोत्साहन की कमी का कारण आपके अंदर इच्छा एवं इस विश्वास की कमी है कि आप ऐसा कर सकते हैं। कमजोर इच्छा का प्रतिफल भी कमजोर ही होना है। प्रोत्साहन तो निष्ठा, दृढ़ विशस, प्रेरणा एवं इच्छा का मिश्रण है जो किसी भी काम को पूरा करने के लिए आवश्यक है। इस आधुनिक, युग में ऐसा देखा जाता है कि भागमभाग एवं काम के दबाव का पहला शिकार कसरत होती है जो स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है। वास्तव में ऐसा नहीं होना चाहिए। यदि आप जीवन में अपनी छाप छोडऩा चाहते हैं तो स्वस्थ रहना होगा ताकि आप सफलता के लिए बारम्बार प्रयास कर सकें। किसी भी ऐसे डर को पैदा न होने दे जो आपको रोकती है कि ये सही समय नहीं है। हर क्षण सही एवं शुभ है। बस इसकी आवश्यकता है कि एक बार उद्देश्य बनाकर मैदान में कूदा जाये। यदि आप प्रयास ही नहीं करेंगे तो सफलता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। इसके लिए आपको उचित समय पर उचित रवैया एवं व्यवहार विकसित करना होगा। हमें अपने दिमाग को इस भांति प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह हर उस चीज को बाहर करे जो हमारे लिए आवश्यक नहीं है। हमारा लक्ष्य हमारे दिमाग में स्वत: होना चाहिए। यदि आप ऐसा करते हैं तो लक्ष्य प्राप्ति से आपको कोई रोक नहीं सकता है।

सलीब पर उम्मीदें

गुजिस्तां साल खट्टे-मीठे अनुभव के साथ समापन पर है। नए साल नई उम्मीदों के साथ दहलीज पर खड़ी है। विश्लेषण का अवसर फिर सामने है। उच्च वर्ग को शायद असर पड़े न पड़े, मध्यम वर्ग और निचले तबके के लिए आने वाला हर पल अग्निपरीक्षा से कम नहीं। क्या नया साल किसानों के लिए कोई उम्मीद जगाएगा? साल दर साल किसानों की आर्थिक दशा बद से बदतर होती जा रही है। साथ ही कृषि भूमि किसानों के लिए अलाभकारी होकर उनकी मुसीबतें बढ़ा रही है। रासायनिक खाद के अत्यधिक इस्तेमाल से मिट्टी जहरीली हो रही है। अनुदानित हाइब्रिड फसलें मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर रही है और भूजल स्तर को गटक रही है। इसके अलावा इन फसलों में बहुतायत से इस्तेमाल होने वाले रासायनिक कीटनाशक न केवल भोजन को विषाक्त बना रहे हैं, बल्कि और अधिक कीटों को पनपने का मौका भी दे रहे है। परिणामस्वरूप किसानों की आमदनी घटने से वे संकट में फंस रहे हैं। खाद, कीटनाशक और बीज उद्योग किसानों की जेब से पैसा निकाल रहा है, जिसके कारण किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि किसानों के खूनखराबे के लिए सबसे अधिक दोषी कृषि अधिकारी और विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक हैं। रोजाना दर्जनों किसान रासायनिक कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेते हंै। पिछले 15 वर्षों में कृषि विनाश का बोझ ढोने में असमर्थ दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है। यह सिलसिला थमता दिखाई नहीं देता। पुरजोर प्रयासों के बावजूद करोड़ों किसान अपनी पीढिय़ों को विरासत में कर्ज देने को मजबूर हैं। सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों को अकारण दोषी नहीं ठहराया जा रहा है, किंतु एक हद तक किसान भी इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं। जल्दी से जल्दी पैसा कमाने का लोभ उन्हें अनावश्यक प्रौद्योगिकियों की ओर खींच रहा है, जो अंतत: उनके हितों के खिलाफ है। लंबे समय से किसान उपयोगी कृषि व्यवहार से विमुख होते जा रहे हंै और कृषि उद्योग व्यापार के जाल में फंसते जा रहे हैं। उद्योग उन्हें एक सपना बेच रहा है-जितना अधिक उपजाओगे, उतना ही कमाओगे, जबकि असलियत में उद्योग जगत का मुनाफा बढ़ रहा है, किसानों को तो मरने के लिए छोड़ दिया गया है। हरित क्रांति के 40 साल बाद 90 प्रतिशत से अधिक किसान गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। मानें या न मानें, देश भर में किसान परिवार की औसत आय 2400 रुपये से भी कम है। यह भी तब जब किसान अधिक आय के चक्कर में तमाम प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस प्रकार अनेक रूपों में किसानों के साथ जो श्राप जुड़ गया है उसके लिए वे भी कम जिम्मेदार नहीं है। जरा इस पर विचार करें कि क्या किसानों को कृषि संकट के लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए? आप कब तक सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों के सिर ठीकरा फोड़ते रहेंगे। आप कृषि से दीर्घकालिक और टिकाऊ तौर पर अधिक आय हासिल क्यों नहीं करते? कृपया यह न कहे कि यह असंभव है। अगर किसान अपने परंपरागत ज्ञान का इस्तेमाल कृषि में करे तो वे इस लक्ष्य को आसानी से हासिल कर सकते हंै। विदर्भ की पहचान किसान आत्महत्या प्रभावित क्षेत्र के रूप में की जाने लगी है। यहां की मिट्टी अभी काली है जो हजारों किसानों की मौतों के बाद भी लाल नहीं हुई। राज्य सरकार पैकेजों की पुनर्समीक्षा करने के बजाय बयान देते फिर रही है कि विदर्भ के किसान आर्थिक कारणों से नहीं मनोवैज्ञानिक वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं। सच यह है कि कर्ज और सूदखोरी आत्महत्याओं की मुख्य वजह है। विदर्भ में कुल ग्यारह जिलों में इन ज्वलंत तथ्यों को हकीकत न मानने वाली सरकार की बयानबाजियां बेशक फरेब लगती हैं । सवाल यह है कि क्षेत्र में किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे हैं। व्यावहारिक सचाई यह है कि जिन किसानों ने बैंकों से पहले कर्ज ले रखा है उन्हें बैंक कर्ज देते ही नहीं हैं, जिस कारण सूदखोरों के चक्रव्यूह में फंसे रहना और न चुका पाने की स्थिति में खुद को समाप्त कर लेना ही किसानों के पास अंतिम विकल्प रह जाता है। सरकार फिर भी घोषणाओं और आश्वासनों से काम चला रही है। विदर्भ के खासकर दो जिले अमरावती और यवतमाल के गांवों में हाल के दिनों में दवा ही जहर बन रही है। मरने वाले ज्यादातर किसान जहर खाकर मर रहे हैं। मरने के लिए जहर खरीदना नहीं पड़ता बल्कि कपास और सोयाबीन के खेतों में डाला जाने वाला कीटनाशक, खरपतवार नाशक ही मौत का काम आसान कर देता है जो विदर्भ के हर किसान के घर में सहज उपलब्ध है। फिनोलफॉस कपास में डाला जाता है तथा मोनोक्रोटाफॉस सोयाबीन से लगने वाली सफेद मक्खी के खात्मे की दवा है। किसानों को खतरपतवार नाशकों और कीटनाशकों का प्रयोग इसलिए भी अधिक करना पड़ता है क्योंकि मासेंटो और कारगिल बीज कंपनियों से पिछले दशकों में भारत सरकार ने जो गेहूं के बीज आयात किये उनके साथ विभिन्न तरह के खरपतवार आए। इलाकों के ज्यादातर किसानों से बातचीत में यह स्पष्ट ढंग से उभरकर सामने आया कि बीटी कॉटन की खेती करने वाले किसानों की आत्हत्याओं का प्रतिशत सर्वाधिक है। परंपरागत बीजों से खेती करने वाले किसान इसलिए भी कम मरते हैं क्योंकि बीज की कीमत 400 से 600 के बीच ही होती है। बीटी कॉटन जहां एक तरफ महंगा पड़ रहा है वहीं वह परंपरागत बीजों के संरक्षण को तो नष्ट कर ही रहा है अपने को उत्पादित करने वाली मिट्टी की उर्वरता को भी समाप्त कर रहा है बावजूद इसके सरकार ने बीटी कॉटन को प्रतिबंधित नहीं किया है। किसान आत्महत्याओं का सिलसिला 1994-95 से शुरू हुआ जो आज सामूहिक का रूप ले चुका है। उल्लेखनीय है कि मरने वाले ज्यादातर किसान कपास और सोयाबीन पैदा करने वाले हैं। वैसे तो तुअर और गेहूं, ज्वार की भी खेती होती है किन्तु तत्काल मुनाफा देने वाली फसल कपास बोने का प्रचलन तेजी के साथ बढ़ा है। प्रचलन बढऩे का एक कारण क्षेत्र में लगातार विकराल होती पानी की समस्या है। कपास, सोयाबीन ऐसी फसलें हैं जिनका काली मिट्टी से ज्यादा उत्पादन होता है और पानी की जरूरत बाकी फसलों के मुकाबले कम होती है। सरकार विदर्भ को लेकर कितनी लापरवाह है इसका अंदाजा पिछले बारह सालों से लंबित बांधों की योजनाओं से लगाया जा सकता है। यह अलग पहलू है कि बांधों के बचने के बाद भी विदर्भ की बीस प्रतिशत जमीन असिंचित रहेगी। कारण कि उतनी उंचाई पर पानी पहुंचना फिलहाल की तैयारियों के हिसाब से असंभव होगा। अभी भी विदर्भ में 57 प्रतिशत खेती योग्य जमीन का ही उपयोग हो पाता है। यहां जितनी बारिश होती है उससे मात्र पांच प्रतिशत भूमि ही सिंचित हो सकती है। रहा सवाल नलकूपों, कुओं या पंप सेटों का तो कम से कम अमरावती और यवतमाल में असंभव जान पड़ता है क्योंकि यह क्षेत्र वर्षों से 'रेन फेडेडÓ घोषित है। हालांकि विदर्भ में नदियां भी हैं किन्तु बेमड़ा जैसी नदियां पानी की कमी के चलते कई साल से छह महीने सड़क के रूप में इस्तेमाल होती है। इसके अलावा वर्धा, वैनगंगा, कोटपूर्णा नदियों को नहरों से न जोड़े जाने के कारण किसानों को लाभ नहीं पहुंच पाता। इन तथ्यों पर ध्यान दें तो किसान जहां एक तरफ सिर के बल खड़ी सरकारी नीतियों के कारण आत्महत्या करने को मजबूर हैं वहीं मोसेन्टो और कारगिल जैसी कंपनियों के बीजों से भी त्रस्त हैं। यह सचाई किसी से छुपी नहीं है कि गाजारगौंत, पहुनियां, हराड, गोंडेल, लालगांडी, वासन, लई, केन्ना और जितनी भी किस्मों की घासों के नाम गिना लें यह सभी विदेशी बीजों और खादों के प्रयोग के बाद से ही पनपनी शुरू हई। आत्महत्या रोकने के सरकारी प्रयासों में एक है सब्सिडी का प्रावधान। सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी के बावजूद किसानों को सरकारी खरीद महंगी पड़ रही है, जो कि सरकारी नीतियों की पोल खोलती है। विवादों को यदि छोड़ भी दिया जाए तो जारी हुए पैकेज किसानों को और अधिक कर्ज में फंसाने के ही उपक्रम साबित हो रहे हैं। किसानों की मांग है कि सरकार कर्ज माफ करे जबकि सरकार ने कर्ज का दायरा बढ़ा दिया है। क्षेत्र के 80 प्रतिशत किसान सूदखोरों के चंगुल से उबर नहीं पाए हैं। वैसे सरकार ने आत्महत्याओं के बढ़ते प्रतिशत के दबाव में आदेश जारी किया है कि सूदखोर किसानों से सूद न वसूलें। किन्तु इस पर गरीब किसानों के बीच अमल नहीं हो रहा है। उल्टे सूदखोरी और बढ़ रही क्योंकि सरकारी बैंक ज्यादातर कर्जदार किसानों को कर्ज देने से बच रहे हैं। हरियाणा के जींद जिले में चुपचाप एक क्रांति हो रही है। यहां के किसान बीटी कॉटन पैदा नहीं करते, बल्कि प्राकृतिक परभक्षियों पर भरोसा करते हैं। ये परभक्षी कीट, नुकसानदायक कीटों को चट कर जाते हंै। उन्होंने कपास में लगने वाले प्रमुख कीट मिली 'बगÓ का प्राकृतिक उपाय खोज निकाला है। जींद के सुरेद्र दलाल ने बड़े परिश्रम के बाद मिली 'बगÓ को काबू में करने में सफलता प्राप्त कर ली है। उन्होंने इस विषय पर काफी शोध किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि नुकसान न पहुंचाने वाली आकर्षक 'लेडी बीटलÓ इन मिली 'बगों Ó को चट करने के लिए काफी है। यह इन मिली 'बग Ó को बड़े चाव से खाती है, जिससे किसानों का महंगे कीटनाशकों पर पैसा खर्च नहीं होता। उन्होंने महिला पाठशाला भी शुरू की है। इन दो किसानों ने कृषि क्षेत्र में नया अध्याय लिख दिया है। अब सही समय है कि आप इनकी सफलता से सबक लें और कृषि का खोया हुआ गौरव वापस लौटा दें। निश्चित तौर पर आप यह कर सकते हैं। इसके लिए बस दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है। तभी हम उम्मीद कर सकते है ं कि किसानों के लिए नया वर्ष नया हर्ष लेकर आएगा। कर्ज के इस भयावह चक्र से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि किसान हरित क्रांति के कृषि मॉडल का त्याग कर दें। हरित क्रांति कृषि व्यवस्था में मूलभूत खामियां हैं। इसमें कभी भी किसान के हाथ में पैसा नहीं टिक सकता। अब वह देश भर में कार्यशाला आयोजित कर किसानों को सजग कर रहे हंै कि प्राकृतिक कृषि के तरीकों से कर्ज के जाल को कैसे काटा जा सकता है।

न्यायमंदिर के गुंबद पर पड़ते हथौड़े

सामान्य नागरिक को राहत की अंतिम उम्मीद न्याय के मंदिर से होती है। इस मंदिर के गुंबद पर इन दिनों हथौड़ा चलने की आवाज आ रही है। न्याय-व्यवस्था में पारदर्शिता, तटस्थता, न्यायाधीशों की नियुक्तियों-तबादलों और गड़बड़ होने पर कठोर कार्रवाई के मुद्दों पर पिछले वर्षों के दौरान बहस होती रही हैं। संसद-विधानसभा यानी विधायिका और कार्यपालिका-सरकार-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और विश्वसनीयता पर पहले ही बहुत कालिख लगी हुई है। पेड न्यूज पर मचे बवाल से मीडिया की साख गड़बड़ा गई है। हाल के वर्षों में सेना के विभिन्न अंगों में भी भ्रष्टाचार के मामलों की गूँज दूर तक पहुँचने लगी है। ऐसी स्थिति में न्यायालय के दरवाजे से ही राहत की अपेक्षा की जाती है। व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के आधार पर संपूर्ण न्याय-पालिका पर हमला कहाँ तक उचित है? देश में इंसाफ की आखिरी उम्मीद भी अब चुकने लगी है। न्यायिक सुधार पर आठ राज्यों के 29 शहरों में करीब दो सप्ताह चले अभियान ने यह तल्ख सच्चाई उघाड़ दी है कि आम लोग न्याय प्रणाली में विश्वास खो रहे हैं। करीब एक लाख लोगों के बीच हुए अपनी तरह के पहले एवं सबसे बड़े सर्वेक्षण में 75 फीसदी लोगों ने दोटूक कहा कि न्याय प्रणाली में उनका भरोसा डगमगाने लगा है। जनता न केवल एक पारदर्शी न्याय प्रणाली के लिए बेचैन है, बल्कि यह भी चाहती है कि मुकदमों के निपटारे के लिए समय-सीमा तय की जाए। आम लोगों की बेबाक राय है कि कानून से ऊपर कोई न हो, न्यायमूर्ति भी नहीं। यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि न्याय से भरोसा उठना अराजकता को आमंत्रण है। उच्च न्यायालय और जिला अदालतों में हुए सर्वेक्षण में लोगों से यह पूछा गया था कि न्यायिक व्यवस्था में उनको कितना भरोसा है, आधा, पूरा या बिल्कुल नहीं। लगभग 75 फीसदी लोगों की प्रतिक्रिया थी कि उनको न्यायपालिका में या तो बिल्कुल भरोसा नहीं है या भरोसा आधा-अधूरा है। जब न्याय व्यवस्था में भरोसा नहीं है तो संतुष्टि कैसे होगी। इसलिए न्याय व्यवस्था से संतुष्टि का प्रतिशत आश्चर्यजनक तौर पर दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सका। ऐसे लोग चार फीसदी से भी कम थे जिन्हें न्यायिक प्रणाली संतुष्ट कर रही थी। देश की आम जनता अदालतों में अंधेर से बुरी तरह परेशान है। सर्वेक्षण के तहत एक सवाल के जवाब में 81.1 प्रतिशत प्रतिभागियों ने न्याय व्यवस्था को भ्रष्ट बताया। अदालतों की साख के लिए यह निष्कर्ष बहुत गंभीर है। अदालतों में अपारदर्शिता से परेशान लोगों ने बेबाक तौर पर कहा कि उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण को भी सख्त कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए। जनता के सामने त्वरित न्याय, पारदर्शी न्याय, सस्ता न्याय और सक्षम न्याय जैसे चार मुद्दे रखे थे और सर्वेक्षण में एक सवाल के जरिये यह पूछा था लंबित मामले, भ्रष्टाचार, पुराने कानून या महंगा इंसाफ में सबसे बड़ी समस्या क्या है। जवाब में लोगों ने अपारदर्शिता व लंबित मामलों को न्याय प्रणाली के सामने बड़ी चुनौती बताया। लंबित मामलों से परेशानी का आलम यह है कि 88 फीसदी लोग मामलों के निपटारे की समय-सीमा तय करने के पक्ष में हैं जबकि 60 फीसदी से ज्यादा लोगों ने इस बात की हामी भरी है कि ऑनलाइन मुकदमे दायर करने की इजाजत दी जाए। हालांकि सर्वे में 36.6 फीसदी से अधिक लोगों ने इस सुझाव पर असहमति भी जताई है। 55 फीसदी लोगों ने माना कि वह मुकदमा लड़ रहे हैं या मुकदमे में उलझ चुके हैं। वहीं 35.8 फीसदी लोगों की नजर में उन्हें अदालत से केवल आंशिक न्याय ही हासिल हो पाया। अर्थात करीब 70 फीसदी लोग न्याय से संतुष्ट नहीं हुए। मुकदमे को लेकर 41.2 फीसदी लोगों ने अपने अनुभव को खराब और 27.6 प्रतिशत लोगों ने बेहद खराब बताया। न्याय विभाग में अकुशल पीठासीन अधिकारियों के कारण जनता को न्याय नहीं मिल पा रहा है । न्याय विभाग में गुण-दोष के आधार पर निर्णय नहीं हो पा रहे हैं इसलिए भी वाद लंबित रहते हैं । अकुशल पीठासीन अधिकारी अपने सारे अपराधिक वाद के फैसले में सजा सुना कर इतिश्री कर लेते हैं। सजा सुना देने से वाद का निर्णय नहीं हो जाता है और अब व्यवहार में अधिकांश पीठासीन अधिकारी अभियोजन पक्ष के एजेंट के रूप में नजर आ रहे हैं। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता तथा उससे सम्बंधित अन्यविधियों की अनदेखी होती है जनता पीठासीन अधिकारियों को बड़े सम्मान की निगाह से देखती है लेकिन उनके निर्णय जो आ रहे हैं उससे न्याय नहीं हो पा रहा है। आज आवश्यकता इस बात की है की पीठासीन अधिकारियों को और बेहतर प्रशिक्षण और कानून की जानकारी दी जाए । याय अगर समय पर नहीं मिले तो वह न्याय नहीं होता! देर से न्याय अपने आप में ही एक अन्याय है! वावजूद इसके देश में आज की तारीख में साढ़े तीन करोड़ मामले देश की विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं! लोगों को अपने मामलों में तीन तीन दशक तक इंतजार करना पड़ रहा है! भोपाल गैस कांड पर न्यायालय का फैसला दुर्घटना के 26 वर्षों के बाद आया,वो भी ऐसा फैसला आया जिस पर पूरी दुनिया में आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है! सिख दंगों के दो बड़े नेताओं जिसमे वे आरोपी हैं,पर 25 वर्ष बाद मामला दाखिल किया गया! रुचिका काण्ड में उसके परिजनों को भी काफी लम्बे अंतराल तक संघर्ष करना पड़ा! ये कुछ मामले ऐसे हैं जो भारत में नया व्ययवस्था का असली चेहरा सामने खोल कर रख देते हैं! हालाँकि सरकार ने इस दिशा में सुधर लाने के प्रयास तेज कर दिए हैं! संभावना जताई जा रही है आने वाले 4 वर्षों में मुकदमों की संख्या में कमी होगी लेकिन असली सवाल अभी भी बरकरार है कि न्यायिक व्यवस्था में पिसने वाले परिवार को इससे लाभ मिलेगा? पीढिय़ां जो न्याय के इन्तजार में खत्म हो जाती हैं क्या उन्हें कुछ हासिल हो पायेगा? ऐसे प्रश्नों के लिए अभी इन्तजार का ही वक्त बचता है! प्रश्न यह है की सुचना अधिकार,शिक्षा अधिकार,ग्रामीण रोजगार अधिकार और वनाधिकार कानून की तरह क्या आम आदमी को सही और त्वरित न्याय का अधिकार नहीं मिलना चाहिए! सबसे बड़ी बात यह है कि राजतांत्रिक व्यवस्थाओं के ध्वस्त होने के पीछे सबसे बड़ा कारण न्याय व्ययवस्था में मनमानी रही है! गलत और देर से मिला न्याय लोगों में आक्रोश पैदा करता है! सरकारों के अलोकप्रिय होने के मुख्यत: कारणों में एक यह भी है! इसी दिशा में सुधार कर सरकार नए भारत के निर्माण में योगदान कर सकती है नहीं तो आम आदमी अपनी पूरी पूंजी, क्षमता और पूरा समय लगा कर भी न्याय के लिए दर-दर भटकता रहेगा और दुनिया के विकसित देशों में भारत उपहास का पात्र बनता रहेगा !

न्यायालयों पर बाजार बुरी तरह से हावी

तारीख पर तारीख और वकीलों की लूट- खसोट, बाप रे बाप! यह उस हर नागरिक की कहानी है जो न्याय पाने के चक्कर में इस अनंतकाल तक चलने वाली पीड़ादायक न्याय प्रक्रिया में पड़ जाते हैं। देखो, गौर करने वाली बात है कि जिसे हम न्याय मान लेते हैं वह न्याय होता भी है क्या? मान लो किसी सुदूर गांव में कोई घटना घटती है, चाहे वह जमीन का मामला हो या हत्या का ही हो। शुरू में न्याय के लिए जिसका दरवाजा खटखटाया जाता है वह होती है पुलिस, जिसे आपको न्याय दिलाने में कोई भी दिलचस्पी नहीं है। और वहीं से शुरू होता है आपके शोषण का सिलसिला जो जिला कोर्ट, हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाता है। न्याय तो एक ही होता है किसी भी मामले के लिए, लेकिन यहां एक ही संविधान में, एक ही देश में, एक ही व्यक्ति के लिए और एक ही केस में तीनों कोर्ट तीन तरह के फैसले सुना देते हैं। हत्या के किसी मामले में अगर जिला कोर्ट फांसी सुनाता है तो हाई कोर्ट उम्र कैद और वहीं सुप्रीम कोर्ट उसे बाइज्जत बरी भी कर सकता है। यहां एक प्रश्न उठता है कि कोर्ट में फैसले सुबूत के आधार पर होते हैं या फाइल के आधार पर? कोर्ट तो कहता है सबूत के आधार पर। लेकिन सुदूर क्षेत्र का सबूत शहर में बैठे जज साहब और बहस करते वकील साहब के पास कहां से आएगा और अगर सबूत आता है तो तीन कोर्टों में तीन तरह के फैसले क्यों सुनाए जाते हैं। एक कहावत है हमारी परम्परा में कि न्याय तो त्वरित होना चाहिए और मुफ्त होना चाहिए। आज जहां किसी मामले के निपटारे में कोर्ट 20 वर्ष भी लगा देता है तो त्वरित होने की बात स्वत: ही खत्म हो जाती है और मुफ्त न्याय की बात तो मजाक ही लगती है, क्योंकि न्यायालयों पर बाजार बुरी तरह से हावी है। न्यायालय परिसर में घुसते ही वकीलों और दलालों की जो लूट-खसोट मचती है, उसकी अपेक्षा तो कभी-कभी चोर और डाकू भी ज्यादा मानवीय लगते हैं। यह न्याय नहीं बल्कि अन्याय प्रक्रिया है। अगर न्याय होना है तो इसका भी विकेंद्रीकरण करना पड़ेगा और न्याय करने का अधिकार गांवों और कस्बों को तो देना ही पड़ेगा। न्याय अविलम्ब हो, इसके लिए न्याय तो मौके पर ही मिलना चाहिए। पंच परमेश्वर की प्रतिष्ठा जो इन कोर्ट, कचहरी और थानों से खण्डित हुई, उसे थोड़ा बहुत युगानुकूल सुधार के साथ प्रतिस्थापित करना ही पड़ेगा। चीन के राजा ने लाओ-त्जु से अपने न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश बनने का अनुरोध किया और कहा कि सम्पूर्ण विश्व में आप जितना बुद्धिमान और न्यायप्रिय कोई नहीं है। आप न्यायाधीश बन जायेंगे तो मेरा राज्य आदर्श राज्य बन जायेगा। लाओ-त्जु ने राजा को समझाने का बहुत प्रयास किया कि वे उस पद के लिए उपयुक्त नहीं हैं लेकिन राजा नहीं माना। लाओ-त्जु ने कहा कि आप मेरी बात नहीं मान रहे हैं लेकिन मुझे न्यायालय में एक दिन कार्य करते देखकर आपको अपना विचार बदलना पड़ेगा। आप मान जायेंगे कि मैं इस पद के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। वास्तव में सम्पूर्ण व्यवस्था में ही दोष है। आपके प्रति आदरभाव रखे हुए ही मैंने आपसे सत्य नहीं कहा है। अब या तो मैं न्यायाधीश बना रहूंगा या आपके राज्य की कानून-व्यवस्था बनी रहेगी। देखें, अब क्या होता है। पहले ही दिन न्यायालय में एक चोर को लाया गया, जिसने राज्य के सबसे धनी व्यक्ति का लगभग आधा धन चुरा लिया था। लाओ-त्जु ने मामले को अच्छे से सुना और अपना निर्णय सुनाया -चोर और धनी व्यक्ति, दोनों को छ: महीने का कारावास दिया जाए। धनी ने कहा-आप यह क्या कर रहे हैं? चोरी मेरे घर में हुई है! मेरा धन चुरा लिया गया है! फिर भी आप मुझे जेल भेजने का निर्णय कर रहे हैं!? यह कैसा न्याय है? लाओ-त्जु ने कहा-मुझे तो लगता है कि मैंने चोर के प्रति न्याय नहीं किया है। तुम्हें वास्तव में अधिक लम्बा कारावास देने की आवश्यकता है क्योंकि तुमने आवश्यकता से अधिक धन जमा करके बहुत से लोगों को धन से वंचित कर दिया है! सैकड़ों-हजारों लोग भूखे मर रहे हैं लेकिन तुम्हारी धनसंग्रह करने की लालसा कम नहीं होती! तुम्हारे लालच के कारण ही ऐसे चोर पैदा हो रहे हैं। अपने घर में होनेवाली चोरी के लिए तुम ही जिम्मेदार हो। तुम अधिक बड़े अपराधी हो। कहना न होगा कि राजा ने लाओ-त्जु को अपने पद से उसी दिन मुक्त कर दिया। यह घटना आज भी प्रासंगिक है। न्याय वास्तव में किसके लिए हो, यह विचारणीय है। आज न्याय के नाम पर लटकाने की प्रवृति चल पड़ी है। सक्षम जानते हैं कि लंबी अवधि के रेस में सब घोड़े नहीं टिकते। लिहाजा न्याय को लेकर रोना किस बात का?

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

ऐतिहासिक नुकसान, साहसिक दिलेरी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम सहित भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर रही लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने पेश होने को तैयार हैं। सिंह ने कांग्रेस के 83वें महाधिवेशन में कहा कि 2-जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल में अनियमितताओं की जांच चल रही है और मैं वायदा करता हूं कि कोई भी दोषी बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का नेता हो, अधिकारी हो या कोई कितना ही ताकतवर क्यों न हो। नि:संदेह प्रधानमंत्री के इसी दिलेरी का तो देश कायल है। उनका यह कहना कि मैं खुद पीएसी के चेयरमैन को पत्र लिखने जा रहा हूं कि अगर वह मुझे समिति के सम्मुख उपस्थित होने को कहेंगे तो मैं सहर्ष पेश होने को तैयार हूं, वाकई काबिलेतारीफ है। बावजूद इसके इसमें कोई दो राय नहीं कि 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले ने जहॉं एक ओर राष्ट्र के राजकोष को तकरीबन पौने दो लाख करोड़ की अत्यंत घातक क्षति पंहुचाई, वहीं दूसरी तरफ देश को ऐसी अपूरणीय नुकसान पंहुचाया, जिसको कि आर्थिक ऑंकड़ों के दायरों में रखकर कदाचित आंका ही नहीं जा सकता। यह भयावह नुकसान एक जबरदस्त गहरे यकीन को पूर्णत: ध्वस्त कर देने का गहन ऐतिहासिक नुकसान है। देश को यह ऐसा नैतिक नुकसान है, जिसकी भरपाई नामुमकिन प्रतीत होती है। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के तौर पर एक बेहद ईमानदार शख्स क रार दिया जाता रहा। वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री का ओहदा संभालने के पश्चात संपूर्ण देश को इस बात का पक्का यकीन था कि उसे एक अत्यंत समझदार प्रधानमंत्री के साथ एक ईमानदार प्रधानमंत्री भी मिल गया है। कॉंग्रेस और मनमोहन सिंह के धुर विरोधियों को भी उनकी ईमानदारी पर कोई शक शुब्हा नहीं रहा। मनमोहन सिंह पर अकसर राजनीतिक तौर पर एक कमजोर प्रधानमंत्री होने के इल्जामात तो आयद होते रहे, किंतु कभी उनकी ईमानदार नैतिक ताकत पर संदेह व्यक्त नहीं किया गया। कॉंग्रेस के यूपीए राज में बहुत से स्कैंडल उजागर होते रहे, किंतु किंचित तौर पर भी किसी भी घोटाले में प्रधानमंत्री का नाम दूर दूर तक नहीं लिया गया। 2 जी स्पैक्ट्रम स्कैंडल ने इसे गहन विश्वास को बहुत जबरदस्त धक्का पंहुचाया है और ऐसा कुछ एहसास हो रहा कि देश ने जीते जी ही एक ईमानदार प्रधानमंत्री खो दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 2 जी स्पैक्ट्रम केस में प्रधानमंत्री के संपूर्ण आचरण पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। मनमोहन सिंह के ईमानदार आचरण पर इससे पहले कदाचित कभी संदेह व्यक्त नहीं किया गया। वर्ष 2004 से 2009 तक प्रधानमंत्री के तौर पर कथित तौर पर शानदार पारी खेलने वाले मनमोहन सिंह ने 2006 में ही वह ऐतिहासिक भूल अंजाम दे डाली, जिसका खामियाजा देश को 2008 से ही निरंतर भुगतना पड़ा है। अब तो कुछ ऐसे तथ्य उजागर होने लगे हैं कि अपने विगत कार्य काल में अपने पद और सत्ता को बनाए बनाए रखने के लिए 2006 से ही मनमोहन सिंह डीएमके दूरसंचार मंत्री मारन को ऐसी घातक नीतियों का अनुसरण करने की पूरी छूट प्रदान कर दी थी, जोकि संवैधानिक तौर पर बेहद आपत्तिजनक करार दी जा सकती है। वर्ष 2006 से ही ग्रुप आफ मिनिस्टर्स के नियंत्रण से दूरसंचार मंत्रालय को मुक्त कर दिया गया था, क्योंकि किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वामपंथी दलों से लोहा लेने के लिए डीएमके पार्टी को अपने साथ यूपीए में बनाए रखना चाहते थे। इसी कारणवश मनमोहन सिंह ने डीएमके के मंत्री मारन की ब्लैकमेलिंग करने वाली प्रत्येक गैरवाजिब शर्त को स्वीकार कर लिया। तत्कालीन वित्त सचिव की सलाह को बाकायदा दरकिनार करते हुए मनमोहन सिंह ने असंवैधानिक तौर पर दूरसंचार मंत्री को नीतिगत मामलों में भी कैबिनेट की क्लेटिव रैसपांसबिलीटी से मुक्त करके, उनको मनमानी करने की भयंकर ऐतिहासिक गलती अंजाम दे डाली। जो कि आगे भी निरंतर कायम रही और उसका ही पूरा फायदा उठाकर डीएमके पार्टी के कोटे से केंद्र में दूरसंचारमंत्री का ओहदा सभालने वाले ए राजा ने 2008 में 2 जी स्पैक्ट्रम को मनमाने तौर पर औने पौने दामों में प्राइवेट कंपनियों को बेचकर राष्ट्र के राजकीय कोष को पौने दो लाख करोड़ का नुकसान करने की भयानक हिमाक़त कर डाली। जिसे कि अत्यंत तफसील के साथ कंपोटर एंड एकाउंटेट जनरल (सीजीए) ने अपनी रिर्पोट में पेश किया, जिसे संसद के पटल पर भी रखा जा चुका है। अब तो मनमोहन सिंह की समस्त ईमानदार प्रतिष्ठा ही दॉंव पर लग चुकी है। जबकि एक सत्तालोलुप प्रधानमंत्री के तौर पर उनके चरित्र की एक नई इबारत देश के समक्ष आ रही है। अपनी सत्ता की खातिर अभी तक देश की आजा़दी के दौर में किसी प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल में जानते बुझते इतना बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं होने दिया, जितना कि मनमोहन सिंह ने अपने सत्तालोपता के कारण राष्ट्र को करवा दिया। यदि प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह यदि डीएमके पार्टी की ब्लैकमैलिंग के समक्ष झुके नहीं होते तो देश इतनी विशाल आर्थिक क्षति से बच गया होता और उनका स्वयं का चरित्र भी कदाचित कलंकित नहीं हुआ होता। देश के आजादी के दौर के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री के विषय में इतनी विपरीत टिप्पणी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट विवश नहीं हुआ, जितना कि मनमोहन सिंह के विषय में हो गया। अब चाहे जो कानूनी दॉंव पेंच सुप्रीम कोर्ट में मनमोहन सरकार खेल ले, किंतु तो देश को जो नैतिक नुकसान होना था वह तो हो ही चुका है।

गुम होता बचपन

'अर्पाटमेंट कल्चरÓ आज देश के कई शहरों में बड़ी तेजी से अपने पांव पसार रहा है, जिसका उदाहरण मध्यम और छोटे श्रेणी के शहरों में घरों की जगह पर लगातार बहुमंजिला भवनों का बनना है। तेज रफ्तार दौड़ती जिन्दगी में आज अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस अर्पाटमेंट आम लोगों की पहली पसंद बनता जा रहा है। लोगों का रूझान अब भूमि खरीद कर मकान बनाने की बजाए फ्लैट लेने में ज्यादा दिखाई पड़ रहा है, लेकिन इस कल्चर की वजह से बच्चों का बचपन गुम होता जा रहा है क्योंकि न तो अब उन्हें खेलने के लिए घर के आगे बड़े-बड़े मैदान मिल रहे हैं , न ताजी हवा के लिए छत ही नसीब हो रही है। बस महज दो से चार कमरों के फ्लैट में उनका बचपन सिमटता जा रहा है। उंची-ऊंची इमारतों के बीच मासूम बच्चों का बचपन खोता जा रहा है। सुबह से लेकर दोपहर तक बच्चों की दिनचर्या स्कूल के बैग के बोझ तले ही दबी रहती है। खाली समय में वह थोड़ी मस्ती भी करना चाहे तो इस के लिए उन्हें खाली जगह नहीं मिलती। छत पर खेलने पर पाबंदी होती है क्योंकि नीचे के फ्लैट में रहने वाले पड़ोसी को शोर पसंद नहीं होता। बच्चे यदि नीचे खेलने जाएं तो गाडिय़ों का डर बना रहता है। बाल मनोविज्ञानिकों की राय में जो बच्चे शारीरिक खेल नहीं खेलते उन में सहन क्षमता कम होती है और उन के स्वभाव में चिड़चिड़ापन हमेशा रहता है। साथ ही वे दूसरे बच्चों की अपेक्षा ज्यादा भावुक और हीन भावना से ग्रसित होते हैं। ऐसे बच्चे धीरे-धीरे अंर्तमुखी होते जाते हैं। इस कारण कई बच्चों का न तो शारीरिक विकास हो पाता है, न ही वे मानसिक रूप से दृढ़ बन पाते हैं। अपार्टमेंट कल्चर में जगह की कमी की वजह से परिवार भी एकल होते जा रहे हैं क्योंकि संयुक्त परिवार जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची समेत अन्य लोग साथ होते थे, उनके लिए अब साथ रहना असंभव हो गया है। इससे बच्चे जहां एक ओर दादा-दादी समेत अन्य बड़े बुजुर्गो के प्यार से वंचित रह जाते हैं वहीं दूसरी ओर उन्हें उनसे मिलने वाले ज्ञानवर्धक बातों का ज्ञान नहीं मिल पाता है।

पवार ने फिर मुंह खोला

केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार जब भी मुंह खोलते हैं, जनता डर जाती है। कारण महंगाई से जुड़ी हुई है। एक भविष्यवक्ता की तरह भविष्यवाणी तो कर देते हैं, लेकिन एहसास कर ही जनता कांप जाती है। लोगों को भरोसा था कि संप्रग सरकार शायद कुछ राहत का संदेश देगी। घोटालों की चुभन के बीच अगर महंगाई से पार पाने की कुछ बात हो जाती, तो करोड़ों हाथ दुआओं के लिए उठते। लेकिन शरद पवार ने जले पर नमक छिड़क दिया। उन्होंने कहा है कि अगले अभी 2-3 हफ्ते तक प्याज की कीमतें रुलाएंगी। पवार साहब का कहना है कि प्याज खेत में ही सड़ गए, इसके चलते कीमतें एकाएक बढ़ गई हैं। लगता हैपवार साहब और सड़ाध के बीच चोली-दामन का रिश्ता कायम हो गया है। गत 12 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय खाद्य निगम के गोदामों के अंदर और बाहर सड़ते हुए अनाजों को गरीबों के बीच मुफ्त उपलब्ध करवाने के आदेश को वे समझ ही नहीं सके थे। सर्वोच्च न्यायालय ने लगभग लताड़ते हुए कहा था कि जब केबिनट मंत्री को अदालत की भाषा समझ में नहीं आ रही है तो आम आदमी का क्या होगा? सच कहा जाए तो शरद पवार को आसानी से कोई चीज समझ में नहीं आती है। या फिर वे जान-बूझकर ऐसा करते हैं। 12 अगस्त के अदालत के आदेश के आलोक में उन्होंने कहा था कि सड़ते हुए या सड़े हुए अनाज को बांटना संभव नहीं है। इसी कारण 31 अगस्त को न्यायधीश दलवीर भंडारी और न्यायधीष दीपक वर्मा की खंडपीठ को अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल मोहन पाराशरन से कहना पड़ा कि मंत्री महोदय अदालत के आदेष को गलत तरीके से पारिभाषित नहीं करें। अदालत की इस फटकार के बाद श्री शरद पवार को सब कुछ साफ-साफ समझ में आ गया। दरअसल इधर कुछ सालों से कृषि एवं खाद्य आपूर्ति मंत्री श्री शरद पवार लगातार विवादों में रह रहे हैं। कभी आईपीएल को लेकर तो कभी शक्कर के कारण। उनका दूध के दाम को बढ़ाने वाला बयान भी काफी विवादास्पद रहा था। महंगाई यूं ही नहीं बढ़ रही। इसे प्रश्रय मिला हुआ है। जमाखोर, नेता, अफसर... सब मिले हुए लग रहे हैं। एक बयान आता है और जमाखोरी शुरू हो जाती है। दाम बढऩे लगता है। शरद पवार ने एक बार फिर वह काम किया है, जिसके लिए उन्हें गरीब आदमी कभी माफ नहीं करेगा। एक बार फिर उन्होंने सरकार के संभावित फैसले को लीक कर के महंगाई के नीचे पिस रही जनता को भूख से मरने वालों की अगली कतार में झोंक दिया है। उन्होंने जो बयान दे दिया है , उससे आने वाले दिनों में सूंघने के लिए प्याज का मिलना मुश्किल हो जाएगा। शरद पवार को ऐसे कामों में महारत हासिल है। अपनी शातिराना साजिशों के असर का जिम्मा किसी और के ऊपर मढ़ देने में भी उनका जवाब नहीं है। चौतरफा महंगाई के लिए उनसे मीडिया ने जब सवाल किया तो उन्होंने कहा कि राशन की दुकानों और गरीबी के रेखा के नीचे के लोगों का काम राज्य सरकारों के जिम्मे है और राज्य सरकारें अपना काम सही तरीके से नहीं कर रही हैं इसलिए महंगाई पर काबू पाने में दिक्कत हो रही है। केंद्रीय सरकार में विभिन्न व्यापारिक हितों के प्रतिनिधियों के शामिल होने की वजह से भी खाने पीने की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं पर शरद पवार को कोई फर्क नहीं। वे नीरो की तरह अपने काम में लगे हुए हैं। मनमोहन सिंह कितनी बार सफाई पेश करेंगे। मौजूदा केंद्र सरकार में और भी ऐसे सूरमा मंत्री हैं जो जनता के पेट पर लात मार कर अपने पूंजीपति आकाओं को खुश करने के लिए तड़प रहे हैं। पूंजीपतियों के हुक्म की गुलाम सरकार से कोई उम्मीद बेमानी है। ठीक आज से एक साल पहले नए वर्ष का स्वागत करने जहां जनता सर्द चेहरे पर भरसक मुस्कान लाने की कोशिश कर रही थी, शरद पवार देश में महंगाई पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि गरीबों के विकास और आर्थिक रूप से समर्थ हो जाने के कारण खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़े हैं। खाद्य तेल और दालों की कमी आगे भी बने रहने की संभावना जताते हुए उन्होंने देशवासियों को इस साल कम खाने की सलाह भी दे डाली थी। नए साल के आगमन की तैयारी जोरों पर है। प्याज की बढ़ती कीमतों से चिंतित सरकार ने पाकिस्तान से प्याज मंगाने का फैसला किया है। समस्या हल हो जाती, लेकिन किसी और ने नहीं, प्याज के बारे में शरद पवार ने कुछ बोला है।

बेशर्मी की हद हैं ये बाजार

आज जबकि बाजार मनुष्यता को भी एक उत्पाद बनाता जा रहा है, वैसे में एक कलम ही है जो इसके सामने दीवार बनकर खड़ी है। हालाँकि बहुत से बुद्धिजीवियों का आरोप है कि बहुत से कलमकार भी जाने-अनजाने इस बाजार की चपेट में आ चुके हैं, वैसे में यह खोज पाना बहुत मुश्किल है कि कौन अदीब इस बाजार को तटस्थ होकर देख पा रहा है, कौन नहीं। तभी तो वह घुसता है आदमी की चेतना में हौले-हौले और संचार के नूतन तरीकों-तकनीकों को अपनाकर, भाषा की नई ताबिश में ऐसी चाबुक जड़ता है पीठ पर कि आदमी घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ उसके इशारे पर दौड़ पड़ता है। दरअसल बाजार की अंदरूनी ख्वाहिश यह रही है कि आदमी अपनी भावना, अपनी अभिव्यक्ति को उसकी दुकान की महरी बना दे और अपना सेंसेक्स इतना गिरा दें कि लानतों से बनी सुविधाओं की मंदी की मार जीवन-भर वह हँस-ठठाकर झेलता रहे। संवेदनाशून्यता और बेशर्मी की हद है ये बाजार। कॉरपोरेट प्रॉफिट उन जांबाज लुटेरों की लूट की तरह है जो यूरोप के देशों से जहाजों में निकल कर शेष महाद्वीपों से लाया करते थे। आज तकनीक के आविष्कार ने उस लूट को जरा सभ्यता का जामा पहना दिया है। तलवार और तोप के स्थान पर कागज और कैल्क्यूलेटर या लैपटॉप आ गए हैं। दुनिया भर की आर्थिक विषमता इस बात का सबूत है। इधर जुही चावला का कुरकुरे का एक विज्ञापन चल रहा है जिसमें दूल्हे के पीछे बाराती नहीं हैं, बैंड नहीं है। बेचारा स्टीरियो टेप रिकॉर्डर गोद में लेकर घोड़ी पर अकेला ही चला आ रहा है दुल्हन के दरवाजे पर। स्टॉक मार्केट की तेजी बिन बारातियों के दूल्हों का विवाह लग रहा है। आम निवेशक समझदार है इस बार। इस लूट में वे अपनी पॉकेट नही कटने दे रहे। इंडिया शाइनिंग की मीडिया चिल्लाहट को अनसुना कर के चुनावों में नेता को यह अवाम धूल चटा सकती है तो क्या कॉर्पोरेट इससे अछूता रहेगा? सरकार देश भर में मार्च पास्ट करवा रही है। मार्च पास्ट तो इसलिए किया जाता है कि आम नागरिक को भरोसा हो कि सरकार नागरिक सुरक्षा के लिए पर्याप्त सक्षम है। पर ये कश्मीर, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र, असम के मार्च पास्ट तो दमनकारी व गलत तत्वों को संरक्षण देने के लिए किए जा रहे हैं। आम नागरिक को सरकार आतंकित कर रही है ताकि कोई अन्याय के खिलाफ जुबान न खोले। जिज्ञासा प्रकट करना और अटकलें लगाना मानव मन की दो कमजोरियां है। मीडिया की बेशर्मी देखो। अपने आकाओं (जिनसे विज्ञापन की आय होती है) के खिलाफ कुछ नही बोलते। हालांकि उन आकाओं के राजनीतिक चमचों व सरकारी अफसरों (जिनके हिस्से खुरचन तक भी पूरी नहीं आती) की पैंट उतारने में ये कोई कसर नही छोड़ते क्योंकि इनको पता है कि पब्लिक ने तो तालियाँ पीटनी है, ओपिनियन पोल की प्रीमियम दरों पर एसएमएस करने हैं। सुरेश कलमाड़ी और राजा को निशाना बनाने पर निर्माण के ठेके और ब्रॉडबैंड के ठेके भी प्रतिद्वन्द्वियों से हस्तांतरित होते रहेंगे। आपस की दोस्ती भी बनी रहेगी। वेयरहाउस शेयरिंग भी तो करनी है कॉस्ट कटिंग के लिए। आपस में एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलने से तो सब के लाभ खतरे में पड़ जाएंगे। के एम अब्राहम शेयर ट्रेडिंग के लिए लाइसेंस नही दे रहा तो क्या हुआ। सेबी उसके बाप की थोड़े ही है, उसकी जगह कोई और साइन करेगा। जय शेयर बाजार (मत दो भारत में कैसिनो के लाइसेंस, हम बाजार को ही कैसिनो बना डालेंगे)! जय कॉरपोरेट ।

धीरे-धीरे महंगाई की मार

प्याज की आसमान पर पहुंची कीमत को थोड़ा नीचे लाने के लिए सरकार सक्रिय हो गई है। इसका असर भी दिख रहा है। इसके बाद सरकार डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ाने की तैयारी में है। इस पर अंतिम फैसला होना था, लेकिन इसे एक सप्ताह के लिए टाल दिया गया है। बीते सप्ताह ही पेट्रोल की कीमत में करीब 3 रुपये प्रति लीटर की भारी बढ़ोतरी हुई है। अब डीजल के दाम में दो रुपये प्रति लीटर बढ़ोतरी की तैयारी है। डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी का सीधा असर माल ढुलाई और अंतत: तमाम चीजों की महंगाई पर पड़ता है। लेकिन जनता को एक झटके में करारी चोट देने के बजाय सरकार धीरे-धीरे महंगाई की मार देना चाहती है। इसीलिए सरकार ने 80 रुपये प्रति किलो तक पहुंच चुके प्याज की कीमत थोड़ी नीचे लाने की कोशिश की है। इस मामले में प्रधानमंत्री के दखल देते ही थोक बाजार में प्याज के दाम 30 फीसदी तक कम हो गए। जल्द ही खुदरा बाजार में इसका असर दिखने की उम्मीद है। अब यह तो साफ हो गया है कि प्याज हमारे खाने में जितनी महत्वपूर्ण जगह रखता है, इसका उतना ही महत्व राजनीति में भी है। सरकार प्याज के दामों को लेकर बहुत संवेदनशील रहती है, क्योंकि एकाध चुनाव में प्याज ने सरकार को चुनाव हरवा दिया है। इस वक्त भी प्याज के दामों में अचानक उछाल से सरकार चौकन्नी हो गई है। रातोंरात प्याज के दाम दुगने-तिगुने हो गए और जनता में हाहाकार मच गया। सरकार अब हरकत में आई है और उसने दाम घटाने की कवायद शुरू कर दी है। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने कह दिया है कि महंगाई पर जल्द ही काबू पाया जाएगा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस समस्या का हल निकालेंगे। मान लेने में कोई हर्ज नहीं। तब तक मानते रहते, आज मानने में कोताही क्यों? ईमानदार इंतजार बेसब्री को कम करता है। तमिलनाडु के कांग्रेसी सदस्यों से मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा कि हम सुनिश्चित करेंगे कि दाम कम हों। इसे प्रधानमंत्री पर छोड़ दीजिए। एक कार्यकर्ता ने कहा कि लोग प्याज के आसमान छूते दामों सहित महंगाई से चिंतित हैं और लोग कांग्रेसी नेताओं से पूछ रहे हैं कि इस समस्या पर नियंत्रण के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं। दरअसल, प्याज के दाम अचानक बढऩे की वजह यह बताई जाती है कि प्याज उपजाने वाले महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात आदि के इलाकों में बेमौसम की बारिश से प्याज की फसल कम हुई है। इसके बाद मंडियों में प्याज की सप्लाई घटकर आधी रह गई और दाम आसमान छूने लगे। सरकार ने इसके बाद प्याज के निर्यात पर रोक लगाई और नैफेड से सस्ते दामों पर प्याज बेचने की घोषणा की। प्याज के दामों में हर दो-तीन साल बाद इस तरह का उछाल देखने को मिलता है लेकिन चीनी ही की तरह हमारी सरकार प्याज के दामों में इस असाधारण उछाल का कोई स्थायी उपाय नहीं कर पाई। एक बुनियादी समस्या यह है कि हमारी कृषि नीति का जोर गेहूं-चावल पर इस कदर है कि अन्य खाद्य वस्तुओं की उसमें उपेक्षा होती है। इस उपेक्षा का एक नतीजा दालों के दामों में अभी-अभी देखने में आया है, जबकि दालों के दाम सौ रुपये किलो तक पहुंच गए। दालें भी भारतीय भोजन का उतना ही अभिन्न अंग हैं, जितना गेहूं-चावल। दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में प्रोटीन का मुख्य स्नोत मांस होता है, जबकि भारत में जो लोग मांसाहारी हैं, वे भी नियमित रूप से दालें खाते हैं, मांस उतना नियमित रूप से नहीं खाते। वही स्थिति प्याज की है। प्याज काफी वक्त से भारतीय भोजन का अनिवार्य हिस्सा बन गया है। किसी वक्त प्याज की खपत उतनी नहीं थी, इसलिए प्याज गरीबों का भोजन माना जाता था, अब गरीब-अमीर तकरीबन सभी के खाने में प्याज अनिवार्य है। ऐसे में प्याज के उत्पादन और वितरण के बेहतर इंतजाम किए जाने चाहिए। प्याज के साथ सुविधा यह है कि यह जल्दी खराब नहीं होता इसके सही भंडारण से इसकी सप्लाई और दामों को नियंत्रित किया जा सकता है। अब जो दाम बढ़े हैं या पहले भी जब बढ़े थे, तब प्याज के उत्पादन में गिरावट जितना बड़ा कारण था, उससे बड़ा कारण था जमाखोरी और कालाबाजारी। अगर सप्लाई घटी है, तो इसका अर्थ यह है कि कम उत्पादन को देखते हुए जमाखोरों ने प्याज की सप्लाई कम की है, ताकि दाम बढ़ाकर ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। सरकार इस स्थिति के लिए पहले ही सजग हो सकती थी, जब बारिश की वजह से फसल खराब होने का अंदेशा हुआ था। इसी तरह प्याज के निर्यात पर पाबंदी पहले ही लग जानी थी, प्याज के दामों के अस्सी-सौ रुपये प्रति किलोग्राम होने का इंतजार नहीं करना था। एक बार बढ़ जाने पर दाम घटाना मुश्किल होता है। अगर हम उपभोक्ता तक प्याज पहुंचाने का बेहतर तंत्र बना सके, तो ज्यादा फसल होने पर किसान को कम दाम नहीं मिलेंगे, न कभी प्याज सेब से ज्यादा महंगे होंगे। यह वक्त है, जब हम गेहूं-चावल के अलावा भी खाद्य वस्तुओं पर ध्यान दें, क्योंकि आर्थिक तरक्की के साथ-साथ ऐसी खाद्य वस्तुओं की खपत भी बढ़ती जाएगी, वरना हम हर बार आग लगने पर कुआं खोदते पाए जाएंगे।

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पेट्रोल की असली आग बाकी है

पांचवीं बार पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी की गई है। यह बढ़ोतरी तेल कंपनियों को हो रहे घाटे की भरपाई के उद्देश्य से की गई है, हालांकि इन कंपनियों का कहना है कि अब भी प्रति लीटर करीब सवा रुपये का नुकसान उन्हें उठाना पड़ेगा। सरकार कह रही है कि उसने जनहित में तेल कंपनियों को पूरी कीमत वसूलने की छूट अभी नहीं दी है। पर जिस तरह से तेल कंपनियों के घाटे और अंतरराष्ट्रीय कीमतों का लगातार संतुलन बिठाया जा रहा है, उसमें सारा बोझ उपभोक्ता के सिर आना तय है। मुद्दा यह नहीं है कि कार-स्कूटर वालों से तेल की वही कीमत क्यों न ली जाए जो तेल कंपनियों को चुकानी पड़ती है। बल्कि मुद्दा यह है कि सरकार को ऑयल मार्केटिंग कंपनियों (ओएमसी) को हो रहे घाटे की तो फिक्र है, लेकिन महंगाई से त्रस्त जनता की नहीं। ओएमसी के घाटे की पूर्ति के लिए सरकार हमेशा ऑयल बॉन्ड जारी नहीं कर सकती। तेल कंपनियां दिवालिया ना हो जाएं, इसके लिए उन्हें ग्राहक से पूरी कीमत लेने की छूट देनी होगी। पर यदि सरकार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें तय करने में तेल कंपनियों की बात मानती है तो जनता को राहत देने के लिए उसे इन कीमतों में शामिल उन टैक्सों के बारे में सोचना होगा जिनका हिस्सा अलग-अलग राज्यों में पेट्रोल की खुदरा कीमत के आधे से ज्यादा है। सरकार कहती है कि पेट्रो पदार्थों पर लग रहे टैक्स के बिना शायद उसका काम नहीं चल पाए, लेकिन सर्विस टैक्स के रूप में आमदनी के नए स्रोत उसने शायद इसी मकसद से बनाए हैं। अगर पेट्रोलियम पदार्थों पर करों का बोझ पहले की तरह बनाए रखा जाता है, तो इन नए टैक्सों का क्या अर्थ है। सरकार पेट्रोल की डीकंट्रोलिंग के फैसले को बेशक ना पलटे, लेकिन इस पर तो गौर करे कि इस वजह से महंगाई कितनी बढ़ सकती है। अजीब बात है कि एक तरफ वह डीकंट्रोलिंग करती है, पर दूसरी तरफ तेल कंपनियों की सब्सिडी रोना भी रोती है।

सदाचार के ताबीज

सदाचार के ताबीज की तलाश भारत में छोडि़ए, दुनिया में किसी भी देश में आसानी से नहीं मिलते। जिन्हें मिलते हैंं वे भी इनका इस्तेमाल करने के पहले कई बार सोचते हैं। सदाचार हमारे समाज की और हमारे समय की संस्कृति का पुछल्ला भी नहीं रह गया है। अगर आप एक सप्ताह सदाचार के साथ और अपने आपको ठीक रखते हुए बिता लेते हंैं तो आपको जरूर विचित्र किंतु सत्य प्राणी माना जाएगा। जमाना भ्रष्टाचार का है और जैसा कि बड़े बड़े यानी पहली दुनिया के कहे जाने वाले देश करते हैं, बड़े बड़े देशों की पत्रिकाएं बड़े बड़े सर्वेक्षण छाप कर सिद्व करती है कि जिसे तीसरी दुनिया कहा जाता है और जिसमें अभी तक तमाम खगोलीय आर्थिक विडंबनाओं के बावजूद भारत अब तक बना हुआ है, वहां भ्रष्टाचार का पैमाना काफी ऊपर है। कुल मिला कर हम जिस समय में रह रहे हैं वहां हमे अपने आपको समकालीन बनाए रखने के लिए भ्रष्ट साबित करना ही होगा। विकल्प दो ही है। या तो भ्रष्ट कहलाओ या बेवकूफ कहलाओ। आप चुन लीजिए। भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री राजनैतिक प्रतिष्ठान में से निकलती है। यह प्रतिष्ठान में गोमुख के रास्ते की तरह बहुत उबड़ खाबड़ है। अब तो भ्रष्टाचार बाकायदा ईमानदारी का धंधा बन गया है और दुनिया में भ्रष्टाचार नापने की एक बड़ी संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल हर साल चंदे में तीन चार सौ करोड़ रुपए प्राप्त करती है। इस रकम से वह निर्वाचित भ्रष्टाचार को पारदर्शी बना देती है। इस बार इस संस्था का गणित है कि आठ अरब डॉलर सिर्फ रिश्वतों में खर्च किए गए। हो सकता है कि यह गणित भारत के राजा रानी के खेल के पहले का हो। वैसे 2010 के लिए भारत को दुनिया के 178वें सबसे भ्रष्ट देश की गिनती में इस संस्था ने रखा है। पिछले साल हम इस प्रतिभा सूची में 191 नंबर पर थे। भारत ने तरक्की की है। अब तो भ्रष्टाचार अनुपात इंडेक्स बन गया है जो शेयर बाजार की तरह बार बार बदलता रहता है। भारतीय राजनीति के जो आयाम हैं वे देख कर ही समझा जा सकता है कि देश को दुराचार और भ्रष्टाचार से मुक्ति सिर्फ राजनीति दिलवा सकती है मगर जो राजनीति अपने सड़क छाप चुनाव चिन्हों के बावजूद हैलीकॉप्टरों ने नीचे नहीं उतरती उसकी काली आकाशगंगा को अपन कहां तक ठीक कर सकते हैं। जुलाई 2008 में वॉशिंगटन पोस्ट ने लिख दिया था कि भारतीय संसद के 540 सदस्यों में से एक चौथाई बाकायदा घोषित अपराधी हंै। पूरे विवरणों के साथ कहा गया था कि इन पर हत्या से ले कर तस्करी, बालात्कार, रिश्वत, ठगी और जालसाजी के आरोप हैं और ज्यादातर के खिलाफ प्रमाण ऐसे हैं कि आरोप सिद्व होने में बहुत दिक्कत भी नहीं आएगी। सदाचार का ताबीज निकाल कर भारत के राजनैतिक प्राणियों ने वॉशिंगटन पोस्ट को दौड़ा लिया था और माफी मांगने के लिए कहा था। वॉशिंगटन पोस्ट ने उल्टे भारत सरकार से कहा था कि उन्होंने जो आंकड़े दिए हैं उनका खंडन किया जाए तो वे माफी मांग सकते हैं। खंडन करने के लिए कलेजा चाहिए सो, वह नहीं हुआ। एक और अंतर्राष्ट्रीय संस्था की ओर से एक और सर्वेक्षण हुआ जिसमें कहा गया था कि 1948 से 2008 के बीच बीस लाख करोड़ रुपए की रकम गलत सलत तरीकों से विदेशी खातों में भारत से जाती है और यह भी बताया गया था कि यह रकम भारत के सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत है। 1950 से 1980 तक के तीस सालों में जब भारत की अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी तो कोटा परमिट लाइसेंस का राज था और उस जमाने में भी रेल का कंडक्टर आपको सोने की जगह देने के पांच रुपए ले लिया करता था। इसी चक्कर में दलाल बढ़ेे और विकास धीमा हुआ। भारत के भूतपूर्व गृह सचिव एन एन वोहरा की एक रिपोर्ट 1993 में आई थी। इस रिपोर्ट में भारत में अफसरों और नेताओं के कर्मकांडों की जांच पड़ताल की गई थी और चूंकि यह सरकारी जांच थी इसलिए स्वाभाविक तौर पर सरकारी एजेंसियों ने सरकारी प्रश्नावली का सरकारी ढंग से सरकारी उत्तर दिया था और यह सरकारी तौर पर बताया था कि जहां हाथ रख दो, वहां भ्रष्टाचार का पौधे उग आता है। भ्रष्टाचार की इस बागवानी पर भी काफी सवाल उठे थे और कम से कम तीन राज्यों की विधानसभाएं तो अपने अपने यहां के जंगल काटने को तैयार हो गई थी लेकिन शायद सदाचार के ताबीज का ही कमाल था कि जो सच एन एन वोहरा को दिख गया वह विधानसभाओं और संसद को नहीं दिखा। और तो और वोहरा कमेटी की मुख्य रपट के परिशिष्ट उनमें मौजूद पुख्ता दस्तावेजों की वजह से छापे नहीं गए। आज भी अगर उन्हें प्रकाशित किया जाए तो बड़े बड़े चेहरों के आभामंडल टूटने की बहुत प्रचंड आवाजें होगी। समस्या यह है कि अब भ्रष्टाचार हमारी आदत में शामिल हो गया है। यह अपवाद नहीं, सच बन गया है। हमें शर्म नहीं आती जब हम थोड़े से ले कर ज्यादा पैसे दे कर अपने बिजली के बिल और मकानों के दस्तावेज ठीक करवा लेते हैं। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को हम तब भी गाली देते हैं लेकिन काम भी उसी से चलाते है। जुलाई 2008 वाली वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में सबसे ज्यादा आपराधिक मामलों के अभियोगी उत्तर प्रदेश विधानसभा में पाए गए थे। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल भारत के बारे में हर साल कहती है कि देश के आधे से ज्यादा लोगों, और उनमें बच्चे भी शामिल हैं, यह जानते हैं कि भ्रष्टाचार क्या होता है और कैसे किया जाता है? इसी रिपोर्ट में लिखा है कि बाबू शाही और अफसरशाही दोनों ही खास तौर पर दक्षिण पूर्व एशिया में भ्रष्टाचार को पनपाने में आदर्श माली का काम करते हैं। यह भी लिखा गया है कि सरकारी लोग आम तौर पर सरकारी संपत्ति की चोरी करते हैं। हाल ही में जिस बिहार में विकास के नाम पर ढोल नगाड़े बजा कर चुनाव हुआ है वहां औसतन अस्सी प्रतिशत गरीबों को दिया जाने वाला अनाज वे लोग खा जाते हैं जिनका उससे कोई संबंध नहीं होता। पूरे देश की नगरपालिकाओं ग्राम जनपदों और जिला पंचायतोंं में माफिया राज चल रहा है, इसके सबूत मिलते जा रहे हैं लेकिन हम भारतीय अपने घर में महात्मा गांधी की तस्वीर लगा कर और ऑफिस या दुकान जाने के पहले जल्दी जल्दी बजरंग बली को याद कर के अपने आपको अपनी ही नजर में कलंक मुक्त कर लेते है। कलंक हमारा है और मुक्त करने का तरीका ही हमे ही खोजना है। इसमें वॉशिंगटन पोस्ट वगैरह कहां से आ गए? ठेकों और लाइसेंसों और परमिटों में घपले इतने चलते हैं कि अगर हम लोग खुद नहीं भुगत रहे हो तो हमें आनंद आ जाता। बाढ़ और सूखा एक पूरे के पूरे वर्ग के लिए आनंद का उत्सव ले कर आते हैं। राहत का सामान उनकी कई पीढिय़ों को राहत दे जाता है। कुछ लोग पकड़े जाते हैं, कुछ लोगों के खिलाफ जांच होती हैं, कुछ के खिलाफ जांच के ऐलान होते हैं जिन्हें कभी पूरा नहीं किया जाता और अब सबसे बड़ी बात यह है कि हम बड़े से बड़े घोटाले और उनके तथाकथित सदाचारी पात्रों के चेहरों पर से नकाब उठ जाने, तमाम टेप सुन लेने, तमाम दस्तावेज देख लेने के बावजूद चौकते नहीं है। डार्विन के सिद्धांत के बाद अनुकूलीकरण का जो सिद्धांत आया था उसे हमने बगैर पढ़े अपना लिया है। हमने अपने आपको भ्रष्टाचार के प्रति अनुकूलित कर लिया है। कुछ लोग हैं जो उम्मीद का आंचल नहीं छोड़ते। वे पानीपत और प्लासी के मैदान में रास होने की कल्पना करते ही रहते हैं। उनके लिए यह दुनिया अटपटी जरूर है लेकिन उनके संदेहों और संकटों का निराकरण भी शायद इसी दुनिया में हैं। अगर हम शास्त्रों वाले सतयुग से इक्कीसवीं सदी के कलयुग तक आ पहुंचे हैं और अभी तक हमारा अस्तित्व और वर्चस्व बरकरार है तो इसका एक मात्र सीधा अर्थ यही होता है कि अभी सारे उम्मीदें खत्म नहीं हुई है। सिर्फ उन उम्मीदों तक पहुंचना हैं और इसमें सदाचार का ताबीज शायद कुछ मदद कर सके। वैसे ताबीजों और तमगों के भरोसे जंग नहीं जीती जाती और करने वाले भूदान में और गोदान में भी घपला करते हैं लेकिन सब कुछ बुरा हो रहा है इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अच्छा होने की कल्पना से भी हम अपने आपको दूर कर लें।

40 लाख की पत्थरबाजी

कश्मीर घाटी में आए दिन होने वाले प्रदर्शनों के दौरान पुलिस व सुरक्षाबलों पर पथराव को गुस्से के इजहार के तौर पर लिया जाता रहा है लेकिन वास्तव में वह घाटी के बेरोजगार युवकों के लिए बड़ा और चोखा धंधा है। आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन व लश्कर-ए-तैयबा इस गंदे धंधे को विस्तार देने के लिए हर साल लाखों रुपये खर्च करते हैं। बेरोजगार युवकों के लिए यह धंधा रोजी-रोटी का एक बेहतर जरिया बना हुआ है। यह कड़वा सच सामने आ चुका है। कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी के लिए पत्थरबाज लड़कों को 40 लाख रकम दिए गए थे। यह खुलासा गिरफ्तार हुर्रियत नेता मसारत आलम ने पूछताछ में किया। आलम ने यह भी बताया है कि अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने भी उसे धन दिए थे। लिहाजा पुलिस उन उन रास्तों का पता करने की कोशिश कर रही है, जिनके जरिए गिलानी के पास धन आया और फिर उन्हें मसारत आलम जैसे विरोध प्रदर्शन भड़काने वालों में बांटा गया। वाकया पिछले वर्ष गर्मी का है। घाटी पूरी तरह से हिंसा की आग में झुलस रहा थी। इसका कारण धन का भारी प्रवाह था। मसारत ने पुलिस को बताया कि उसने घाटी में विरोध प्रदर्शन के लिए 40 लाख रूपये खर्च किए थे। उस हिंसक विरोध प्रदर्शन में सुरक्षा बलों के साथ संघर्ष में 110 से अधिक व्यक्ति मारे गए थे। यह मात्र पहली घटना नहीं। कश्मीर जो धरती का स्वर्ग कहा जाता है, आतंकी गतिविधियों के कारण नरक में तब्दील हो गया है। आज कश्मीर समस्या का जो स्वरूप हमें दिखाई दे रहा है उसके अनेक ऐतिहासिक कारण हैं जिनकी चर्चा समय समय पर होती रहती है परंतु सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आज भी कश्मीर हमारे समक्ष इतिहास के अनसुलझे प्रश्न की तरह मुँह फैलाये खड़ा है। कश्मीर समस्या निश्चित रूप से देश की स्वतंत्रता के बाद देश के नेतृत्व की उस मानसिकता का परिचायक ही है कि देश का नेतृत्त्व किस प्रकार उन शक्तियों के हाथ में चला गया जो न तो भारत को एक सांस्कृतिक और न ही आध्यात्मिक ईकाई मानते थे। वे तो भारत को एक भूखण्ड तक ही मानते थे जिसका सौदा विदेशी दबाव में या अपनी सुविधा के अनुसार किया जा सकता है। कश्मीर के सम्बन्ध में एक बडी भूल यही होती है कि हम इसे भारत का अभिन्न अंग मानते हुए भी इसे एक राजनीतिक ईकाई भर मान कर संतुष्ट हो जाते हैं। इसी पक्ष के अभाव के चलते इस समस्या को पूरी तरह राजनीतिक सन्दर्भ में देखा जाता है और भारत का एक वर्ग कहीं न कहीं जाने अनजाने इस सम्बन्ध में हीन भावना से ग्रस्त होता जा रहा है कि कश्मीर में स्वायत्तता या फिर स्वतंत्रता की माँग पर विचार किया जा सकता है। पिछले दो दशकों के घटनाक्रम के बाद इस विषय में किसी को सन्देह रह ही नहीं जाना चाहिये कि कश्मीर में अलगाववादी चाहते क्या हैं? सैयद अली शाह गिलानी पिछले अनेक दशकों से घोषित करते आये हैं कि कश्मीर का विषय जिहाद से जुड़ा है। कश्मीर समस्या का तीसरा आयाम भी है जिसे हमें ध्यान में रखना होगा- यह विषय पूरी तरह वैश्विक जिहादी अन्दोलन से भी जुड़ा है। खाड़ी के देशों में तेल के धन ने अचानक समस्त विश्वमें जिहादी राजनीतिक मह्त्वाकाँक्षा का नया दौर आरम्भ कर दिया और मध्य पूर्व सहित पश्चिम एशिया में 1980 के दशक से राज्य प्रायोजित आतंकवाद का जो दौर आरम्भ हुआ है वह अभी तक जारी है। पत्थर बरस रहे हैं। अपनों के हाथों में पत्थर अपनों को ही लहूलुहान कर रहे हैं। खाड़ी के तेल के धन से वहाबी विचारधारा और फिर सलाफी विचारधारा ने जो जड़ें समस्त विश्व के मुस्लिम देशों और गैर मुस्लिम देशों मुस्लिम जनमानस में बनाई हैं उसका परिणाम आज हमारे समक्ष है।

विकिलीक्स का राहुल बम धमाका

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के कथित बयान पर बखेड़ा खड़ा होता नजर आ रहा है। विकिलीक्स के मुताबिक अमेरिका के राजदूत टिमोथी रोमर से राहुल गांधी ने कहा था कि हिंदू कट्टरवाद देश के लिए लश्कर-ए-तैयबा से ज्यादा बड़ा खतरा हो सकता है। विकिलीक्स के मुताबिक ये बातें राहुल ने टिमोथी रोमर से 2009 में कहीं थी। 2009 में अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के भारत दौरे के वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लंच का आयोजन किया किया था। इस लंच में राहुल गांधी और अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर भी मौजूद थे। विकिलीक्स ने टिमोथी के हवाले से दावा किया है कि इसी लंच में राहुल ने हिंदु कट्टरपंथ को भारत के लिए आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से बड़ा खतरा बनने की आशंका जाहिर की थी। राहुल गांधी की यह पोल पट्टी संयोग से उस समय सामने आई हैं जब राहुल के मार्ग दर्शक होने का दावा करने और श्रेय लेने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह 26/11 के हमले में शहीद हेमंत करकरे के एक फोन कॉल का दावा कर के मुसीबत में फंस गए हैं। पहले दिग्विजय सिंह ने कहा था कि फोन रिकॉर्ड से जाहिर हो जाएगा कि करकरे ने उनसे बात की थी मगर जब महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर .आर .पाटिल ने दिग्विजय को झूठा साबित करते हुए कह दिया कि करकरे के फोन का कोई ऐसा रिकॉर्ड नहीं हैं, जिससे पता चले कि उन्होंने दिग्विजय को फोन किया ही था तो दिग्विजय सिंह भी कह रहे हैंं कि उन्हें नहीं पता था कि बीएसएनएल वाले महत्वपूर्ण फोन कॉल्स का भी रिकॉर्ड नहीं रखते। अब बीएसएनएल की मशीनें सपना नहीं देखती कि उन्हें आभास हो जाए कि मुंबई से एक पुलिस अधिकारी जो फोन कर रहा है वह मारा जाने वाला है और वह देश के एक सबसे बड़े नेता को फोन कर रहा है। अभी राहुल गांधी ने विकिलीक्स के खुलासे का कोई साफ जवाब नहीं दिया है, मगर किसी को आश्चर्य नहीं होगा यदि उन्हें यह पट्टी भी दिग्विजय सिंह ने ही पढ़ाई हो। खुद राहुल गांधी का सामान्य ज्ञान काफी जर्जर है। उधर विकिलीक्स के मुताबिक रोमर ने जब राहुल से पूछा कि लश्कर-ए-तैयबा से भारत को कितना बड़ा खतरा है तो राहुल ने कहा कि देश के कुछ मुसलमानों में उन्हें समर्थन प्राप्त है। लेकिन राहुल ने आगाह किया कि बड़ा खतरा बढ़ते हिंदू कट्टरवाद से है। विकिलीक्स ने अब तक अमेरिकी सरकार के कई निजी बातचीत को सार्वजनिक कर चुका है जिससे अमेरिकी सरकार को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी। इससे पहले भी राहुल गांधी ने भोपाल में एक सभा के दौरान आरएसएस की तुलना प्रतिबंधित संगठन सिमी से की थी। राहुल के इस बयान का आरएसएस ने कड़ी आलोचना की थी। राजनीतिकों गलियारों में भी इस बयान को लेकर जमकर बहस हुई थी। यही नहीं, अब विकिलीक्स के इस नए खुलासे से आने वालों दिनों में भी जमकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलने की आशंका है। अब चूंकि मामले में राहुल गांधी का नाम आ गया है इसलिए दिग्विजय सिंह थोड़ी राहत की सांस ले सकते हैं। मामला चूंकि देश के युवराज का है इसलिए दरबारियों पर से ध्यान हटेगा। जूलियन असांज के जेल से रिहा होने के बाद हालांकि अमेरिकी राजनयिक हवालों से ही खबर आई है लेेकिन पहला निशाना राहुल गांधी बने हैं इससे जाहिर है कि भारत भी विकिलीक्स के निशाने पर पूरे तौर पर हैं और इंटरनेट के जमाने में साउथ और नॉर्थ ब्लॉक की फाइलें बहुत आसानी से विकिलीक्स कीे टीम तक पहुंच सकती हैं और जमानत पर तो सिर्फ जूलियन असांज हैं और दुनिया भर में उनका समर्थन और सहयोग करने वाले हजारों लोग नहीं। हिंदू आतंकवाद का यह सवाल कांग्रेस को अब बहुत महंगा पडऩे वाला है। जब तक दिग्विजय सिंह बोल रहे थे तब तक यह माना जा रहा था कि कांग्रेस एक खिसका हुआ महासचिव बोल रहा है जो अपनी गंभीरता और सुंदरता का भी ख्याल नहीं रखता। चाहे जब आजमगढ़ पहुंच जाता हैं, चाहे जब बाटला हाउस के बारे में बयान दे देता है और चाहे जब उनका खंडन कर देता है। दिग्विजय सिंह ने तो पता नहीं अपने राजनैतिक गुरु अर्जुन सिंह ने भी कुछ नहीं सीखा। अब तो अर्जुन सिंह ने रिटायरमेंट की घोषणा कर दी है और दिग्विजय सिंह भी आधे रिटायर जैसे ही हैं इसलिए अब भी गुरु दीक्षा लेने में कुछ जाता नहीं है।

मोहरों के बीच चेहरे

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक किताब लिखने का वादा किया है, जिसमें 2004 के आम चुनावों में जीत हासिल करने के बाद आए तनाव से भरे उस वक्त का जिक्र होगा जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद ठुकराकर मनमोहन सिंह के हाथों में देश की बागडोर सौंप दी थी। विकिलीक्स की ओर से जारी अमेरिकी कूटनीतिक केबलों के मुताबिक, लोगों की ओर से बार-बार यह पूछे जाने के बाबत कि उन्होंने देश के शीर्ष पद को क्यों नहीं स्वीकार किया, सोनिया ने 2006में दिल्ली आई कैलिफोर्निया की प्रथम महिला मारिया श्राइवर से कहा था कि मुझसे अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है, लोगों से कहिए कि किसी दिन मैं एक किताब लिखूंगी जिसमें पूरी कहानी बयान की जाएगी। वर्ष 2006 में भेजे गए इस केबल में सोनिया और कैलिफोर्निया के गवर्नर आर्नोल्ड वारजेनेगर की पत्नी मारिया के बीच हुई बातचीत का विवरण है। इस केबल का शीर्षक मारिया श्राइवर के सामने राज खोलतीं सोनिया गांधी हैं। संभवत: तब तक राष्ट्रपति ने यह साफ कह दिया था कि वे प्रधानमंत्री के रूप में सोनिया गांधी को शपथ लेने के लिए नहीं बुला सकते। इसलिए इस बार मिलने जाते समय सोनिया गांधी अपने साथ मनमोहन सिंह को ले गयी थीं। उसी दिन शाम को कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई जिसमें सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद से अपनी दावेदारी वापस ले ली थी। इसके बाद यहां भी मान-मनौवल का एक नाटक चला, जिसमें अजीत जोगी जैसों ने चापलूसी की नयी मिसाल पेश की। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि सोनिया गांधी ने बहुत बड़ा त्याग किया है। सोनिया गांधी के इस इनकार को देशभर में प्रचारित किया गया कि सोनिया गांधी ने कोई महान त्याग किया है। यह बात छिपा ली गयी कि कई तरह की कानूनी अड़चनों के कारण सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया गया था। उनकी नागरिकता पर भी सवाल खड़े किये गये और कहते हैं राष्ट्रपति से अपनी मुलाकात में सुब्रमण्यम स्वामी ने ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत किये थे, जिससे सोनिया गांधी की नागरिकता और संसद में उनके हलफनामे पर सवाल खड़ा होता था। इन दस्तावेजों में सोनिया गांधी ने कई झूठी जानकारियां दी थीं। उस दिन देर रात यही सब नाटक चलता रहा। लेकिन सोनिया गांधी ने साफ कह दिया कि उन्होंने अपने बच्चों से राय-मशविरा कर लिया है और अब वे अपने प्रधानमंत्री न बनने के निर्णय पर कोई पुनर्विचार नहीं करेंगी। उन्होंने अपनी 'अन्तरात्माÓ की आवाज सुन ली थी, भले देर से ही सही। 19 मई को ही 10 जनपथ पर एक बैठक हुई जहां औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का नाम तय हुआ। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के नाम की घोषणा के साथ ही तात्कालिक तौर पर राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन ने इस मुद्दे पर अपनी गतिविधियां रोक दी। इन ढाई दिनों में जो लोग सक्रिय हुए थे उन्हें इस बात की खुशी थी कि इस आंदोलन ने अपने लक्ष्य को इतने कम समय में हासिल कर लिया। इस पूरे घटनाक्रम का उल्लेख यहां करने का कारण है। पहला आपको अब तक पता चल गया होगा कि सोनिया गांधी या कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में कलाम क्यों पसंद नहीं आये। दूसरा, सोनिया गांधी कोई त्याग की देवी नहीं हैं। वे ताकत की राजनीति करती है। अगर उन्हें सत्तामोह नहीं होता तो वे यूपीए अध्यक्ष पद को प्रधानमंत्री के समानांतर न बना देतीं। मनमोहन सिंह ऐसे कठपुतली प्रधानमंत्री हैं जिसकी डोर सोनिया गांधी के हाथ में है। अब यह सब कुछ साबित हो गया है। कलाम का उन ढ़ाई दिनों में जो रुख था, वही उनके दोबारा राष्ट्रपति बनने में सबसे बड़ी बाधा बन गया। यह बात अलग है कि उनके उस रुख के कारण ही भारत के स्वाभिमान की रक्षा हो सकी। यदि कलाम ने उस समय वैसा ही व्यवहार किया होता जैसा सोनिया गांधी अपेक्षा करती थीं तो आज कलाम शायद दोबारा राष्ट्रपति पद के दावेदार होते, क्योंकि यह कांग्रेस भी जानती है कि कलाम की लोकप्रियता और सच्चरित्रता का कोई जोड़ नहीं है। इस समय जिस प्रकार कांग्रेस ने प्रतिभा पाटिल के रूप में एक कमजोर और गुमनाम व्यक्ति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है, उससे यह प्रमाणित हो रहा है कि कांग्रेस और उसकी नेता सोनिया गांधी के लिए कलाम का कार्यकाल किसी दु:स्वप्न से कम नहीं था। अब हर हालत में कांग्रेसी टोले की रुचि एक ठप्पा राष्ट्रपति बनाने में है जो राष्ट्रपति भवन में बैठकर अंधभक्ति के साथ उनका समर्थन करे। लगता है कांग्रेस आगे चलकर कुछ ऐसा करने वाली है जिसमें उसे राष्ट्रपति के समर्थन की सख्त जरूरत पड़ेगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि सोनिया गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करने वाली हैं?

अपने मुंह मियां मिठ्ठू

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला... अपने मुल्क में घोटालों की फेहरिस्त काफी लंबी है। भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री राजनैतिक प्रतिष्ठान में से निकलती है। यह प्रतिष्ठान गोमुख के रास्ते की तरह बहुत ऊबड़-खाबड़ है। अब तो भ्रष्टाचार बाकायदा ईमानदारी का धंधा बन गया है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी का पार्टी के 83वें महाधिवेशन में यह कहना कि पार्टी भ्रष्टाचार को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करेगी, हास्यास्पद जरूर लगता है। ऐसा लगता हैं कि 2-जी घोटाले के मामले में विपक्ष के हमले का जवाब देने में कांग्रेस व सोनिया के तरकश के तीर या तो खत्म हो गए हैं या जो तीर बचे हैं वे भी भोथरे हो गए हैं ! उल्टे भ्रष्टाचार पर विपक्षी दलों के रूख की आलोचना करते हुए सोनिया ने कहा कि कांग्रेस ने एक मिसाल कायम की है और केवल आरोप के आधार पर मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों के इस्तीफे लिए हैं। मगर इससे इनकार कौन कर सकता है कि चाणक्य नीति से लेकर दंड विधान तक एक समान विचार लगातार चलता रहा है और इसका सार यह है कि अभियोगी और अपराधी को उन सभी लाभों से वंचित कर दो, जो उसने भ्रष्टाचार के जरिए अर्जित किए हैं। अपने देश में जहां नगरपालिकाओं और कचहरियों के मामूली कर्मचारी भी करोड़पति पाए जाते हैं और जब छापे पड़ते हैं, तो जूनियर इंजीनियरों की भी कोठियां पाई जाती हैं। भारत के भूतपूर्व गृह सचिव एन. एन. वोहरा की एक रिपोर्ट 1993 में आई थी। इस रिपोर्ट में भारत में अफसरों और नेताओं के कर्मकांडों की जांच-पड़ताल की गई थी और चूंकि यह सरकारी जांच थी इसलिए स्वाभाविक तौर पर सरकारी एजेंसियों ने सरकारी प्रश्नावली का सरकारी ढंग से सरकारी उत्तर दिया था और यह सरकारी तौर पर बताया था कि जहां हाथ रख दो, वहां भ्रष्टाचार का पौधा उग आता है। समस्या यह है कि अब भ्रष्टाचार हमारी आदत में शामिल हो गया है। यह अपवाद नहीं, सच बन गया है। हमें शर्म नहीं आती, समाज में पसरे भ्रष्टाचार को हम तब भी गाली देते हैं लेकिन काम भी उसी से चलाते हैं। ठेकों, लाइसेंसों और परमिटों में घपले इतने चलते हैं कि अगर हम लोग खुद नहीं भुगत रहे हों तो हमें आनंद आ जाता। बाढ़ और सूखा एक पूरे-के-पूरे वर्ग के लिए आनंद का उत्सव लेकर आते हैं। राहत का सामान उनकी कई पीढिय़ों को राहत दे जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम बड़े-से-बड़े घोटाले और उनके तथाकथित सदाचारी पात्रों के चेहरों से नकाब उठ जाने, तमाम टेप सुन लेने, तमाम दस्तावेज देख लेने के बावजूद चौंकते नहीं है। भ्रष्टाचार से लडऩे की जिम्मेदारी समाज की है। लोकायुक्त से लेकर अदालतों के जो न्यायसंगत संगठन बनाए गए हैं, वे समाज की सहायता करने वाले ही हैं, मगर जब तक उन्हें शिकायत नहीं मिलेगी, तब तक वे भी हाथ बांधे बैठे रहेंगे। अलग-अलग राज्यों में लोकायुक्तों, लोक अदालतों और सूचना आयुक्तों के अलावा दूसरी न्याय संस्थाओं के खिलाफ भी शिकायतें मिलती ही हैं। राज्य सरकारों तक तो लोकायुक्त हैं भी, लेकिन केंद सरकार में प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रिमंडल को समेटने वाला लोकपाल का पद सिर्फ संविधान में रचा रह गया है और इसे अमली जामा कौन, कैसे, कब पहनाएगा, यह किसी को पता नहीं है। भ्रष्टाचार की परिभाषाएं देश, काल, परिस्थितियों के हिसाब से सापेक्षतावाद के हिसाब से बदलती रहती हैं और इसीलिए लगभग संविधान के स्तर की कोई किताब होनी चाहिए जो काले, सफेद अक्षरों में परिभाषित कर दे कि किस सीमा तक भ्रष्टाचार समाज या देश सहन कर सकता है और कहां से उल्लंघन की सीमा शुरू होती है। सारे सरकारी नियम और संहिताएं कोई अमृत से नहीं लिखी गई हैं, जिन्हें मिटाया नहीं जा सके। जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि समाज और प्रतिष्ठान भ्रष्टाचार के तत्वों को पहचानें और पहचान कर इस पाप से मुक्ति पाने का इंतजाम करें। वरना दलाली से लेकर तमाम किस्म की भाडग़ीरी को भी हम मान्यता देते रहेंगे और किताबों में सिर्फ कक्षाओं से आवाज आती रहेगी कि हमारा देश एक महान देश है।

दिग्विजय को शर्म नहीं आती?

एक जमाने में दिग्विजय सिंह की चमक धमक और हंसी को देख कर ईष्र्या होती थी लेकिन अब जितने खिसियाने तरीके से वे हंसने का अभिनय कर रहे हैं उससे निराशा भी होती है और शर्म भी आती है। पिछले एक डेढ़ साल में लगभग पागलपन से भरे उनके बयानों, जिनमें आखिरी हेमंत करकरे के फोन के बारे में फैलाई गई अफवाह हैं, को देखा जाए तो दिग्विजय सिंह पहेली बने नजर आते हैं। इस पहेली का अगर राजनैतिक इतिहास समझे तो बहुत कुछ सामने आता हैं और वंश का इतिहास तो सारी परते खोल कर रख देता है। 22 दिसंबर, 1998 को झाबुआ के नवापाड़ा में जब एक नन के साथ बलात्कार हुआ था तब भी दिग्विजय सिंह ने हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों पर ही आरोप मढ़ दिए थे। लेकिन बाद में बलात्कार के कई आरोपी मतान्तरित ईसाई ही पाए गए थे। विपक्ष सहित कई पार्टियों की मांग और राज्यपाल द्वारा सीबीआई जांच के लिए पत्र लिखने के बाद भी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पूरे मामले से मुंह मोड़ लिया था। वे सिर्फ घटना का राजनैतिक लाभ उठाना चाहते थे। दिग्विजय सिंह ने झाबुआ नन बलात्कार कांड के एक आरोपी को कांग्रेस का टिकट भी दिया था। अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जब उन पर सोम डिस्लरी से घूस लेने का आरोप लगा और वे विपक्ष के आक्रामक तेवरों से घिर गए तो अचानक तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसा करने लगे। वे अचानक ही राजग की शिक्षा नीति के प्रशंसक बन गए। ज्योतिष को विज्ञान मान लिया। लेकिन जब-जब उनको मौका हाथ लगा हिन्दुत्व पर आक्रमण करने से कभी नहीं चूके। महाराष्ट्र एटीएस के मुखिया हेमंत करकरे की आतंकी हत्या को लेकर दिए गए बयान पर दिग्गी बुरी तरह घिर गए हैं। अपनी किरकिरी होते देख कांग्रेस ने भी उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन विपक्ष कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री चिदंबरम से दिग्विजय के बयान पर उनकी प्रतिक्रया पूछ रहा है। कांग्रेस में अलग-थलग पड़े दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद जगदंबिका पाल के बयान से एक और झटका लगेगा। दिग्गी जिस प्रदेश के प्रभारी हैं उसी प्रदेश के कांग्रेसी नेता अब उनके खिलाफ हो गए हैं। जाहिर है दिग्विजय की ओछी राजनीति से कांगेस का धर्मरिपेक्षता का राग भी कमजोर पड़ता दिख रहा है। कांग्रेसी सांसद जगदंबिका पाल ने एक कार्यक्रम में कहा कि दिग्विजय सिंह का बयान गैर जरूरी था। मुम्बई हादसे के बाद गृहमंत्री ने इस मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया, उस पर ऐसे बयान से प्रतिकूल असर पड़ेगा। दरअसल अपने बड़बोलेपन से वे कई बार पूरी पार्टी को संकट में डाल चुके हैं। हो सकता है दिग्विजय सिंह का बयान स्वयं को पार्टी में स्थापित करने या अपना कद बढ़ाने के लिए हो। यह भी संभव है कि वे अपने बयानों से पार्टी का भला करना चाहते हों। लेकिन उनके बयानों से हर बार पार्टी को नुकसान ही होता रहा है। ऐसे में पार्टी के भीतर भी वे आलोचना और निन्दा के पात्र बनते हैं। अंतत: उनके स्वयं का नुकसान भी होता है। लेकिन दिग्विजय सिंह है कि अपनी करनी से बाज नहीं आते। मध्यप्रदेश की राजनीति में 'बुआजीÓ के नाम से चर्चित और वर्तमान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रही जमुना देवी ने वर्ष 19995 में कांग्रेस के वर्तमान महासचिव और तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बारे में टिप्पणी की थी, '' मैं आजकल मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के तंदूर में जल रही हूं।ÓÓ इन्हीं बुआजी ने एक बार कहा था - मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने सलाहकार और वामपंथी विचारधारा के समर्थक संगठनों को विशेष महत्व दे रहे हैं, जिससे नक्सली गतिविधियां फल-फूल रही हैं। राघोगढ़ ने हमेशा ही अंग्रेजों का साथ दिया। राजा अजीत सिंह के दरम्यान राघोगढ़ के ब्रिटिश राज के ही अधीन रहा। 1904 में राघोगढ़ सिंधिया राज के अधीन हो गया। राघोगढ़ के तब के राजा सिंधिया को नजराना दिया करते थे। राघोगढ़ के राजा बहादुर सिंह भारतीय राजाओं में अंग्रेजों के सबसे वफादार थे। इनकी इच्छा थी कि वे प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए मारे जाएंं। अंग्रेजों की इस वफादारी के लिए राघोगढ़ राजघराने को वायसराय का धन्यवाद भी मिला। इतिहास के पन्नों में इस बात का उल्लेख है कि राघोगढ़ सामंत ने अपने क्षेत्र अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की हर आवाज को दबाया। 1857 के गदर के दौरान भी यह राजघराना भारतीयों की बजाए अंग्रेजों के ही साथ था। दिग्विजय सिंह को यह अवसर मिला था कि वे राघोगढ़ पर लगने वाले आरोपों का जवाब देते, लेकिन उन्होंने न तो अपने 10 वर्षों के अपने शासन में और न ही अब ऐसा कोई प्रयास किया। बजाए इसके वे लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं, जिससे आतंवादियों और उनके पोषक शक्तियों को ही मदद मिल रही है। मामला चाहे बटला हाउस का हो या आजमगढ़ जाकर आतंकियों के परिजनों से मुलाकात का, हर बार दिग्विजय सिंह पर आतंकियों की मदद करने का आरोप लगा। मध्यप्रदेश भाजपा ने दिग्विजय सिंह और खंूखार अपराधियों के गठजोर को केन्द्र में रखकर एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। 'एक संदिग्ध मुख्यमंत्रीÓ नाम से प्रकाशित इस पुस्तिका में मालवा क्षेत्र के खूंखार अपराधी खान बन्धुओं और दिग्विजय के संबंधों को उजागर किया गया था। मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने भोपाल में पत्रकारों से बात करते हुए कहा- दिग्विजय सिंह सिर्फ दया के पात्र हैं। वर्ष 2003 में वे मध्यप्रदेश से बेदखल कर दिए गए थे। इस बेदखली में संघ को दोषी मानते हैं। बकौल सुश्री भारती दिग्विजय सिंह को लगता है कि मध्यप्रदेश से कांग्रेस और उनको बेदखल करने में संघ की ही भूमिका थी। इसीलिए वे हर बात में संघ का नाम घसीटते हैं। दिग्विजय सिंह ने हमेशा ही संघ को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की है। हिन्दू आतंकवाद का नारा उछालने और संघ को आतंकी संगठन सिद्ध करने के लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की। हालांकि दिग्विजय सिंह का दामन स्वयं ही दागदार है। दिग्विजय सिंह का ताजा बयान यही बयां करता है कि उन्होंने देशभक्ति का कोई सबक नहीं सीखा है, बल्कि इसके उलट वे अंग्रेजों से लेकर आतंकियों और देश विरोधियों के समर्थक के तौर पर उभरे हैं। अब यह सच भी उजागर होने लगा है कि उन्हीं के राज में सिमी, नक्सली गतिविधियां, बांग्लादेशी घुसपैठ और आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा मिला, बल्कि अरुंधति राय जैसी देश विरोधी बुद्धिजीवियों को भी शह मिला। इतिहास के पन्नों में यह दर्ज है कि दिग्विजय सिंह के पुरखे अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। अब अखबारों में यह दर्ज हो रहा है कि दिग्विजय सिंह ने आर. आर. खान से लेकर अजमल कसाब तक की रहनुमाई राजनीति कैसे की। इन सब से कांग्रेस और दिग्विजय की धर्मनिरपेक्ष छवि को कितना बल मिला या उनके वोट बैंक में कितना इजाफा हुआ यह तो नहीं मालूम, लेकिन तब प्रदेश का और अब पूरे देश का नुकसान जरूर हो रहा है।

सलीब पर लटका पति

आवश्यकता आविष्कार की जननी है, कहावत को साकार करते हुए जननियों और विस्तृत रूप से पति का आविष्कार किया गया। यानि वह प्राणी जो अपने आप शिकार होने के लिये तत्पर हो और धारावाहिक रुप से प्रतिदिन जीवनपर्यन्त बिना किसी प्रतिरोध के सफल शिकार होता रहे। पति बनने के बाद पुरुषों को लगा कि वे ठगे गये , पर बेचारे, पति शब्द के मोह से मुक्त होने का साहस नहीं कर पा रहे थे। जैसे शोषित शोषक के बिना अधूरा है , समाजवाद पूंजीवाद के बिना अधूरा है तथा शिकार शिकारी के बिना अधूरा है वैसा ही कुछ पति भी पत्नी के बिना अधूरा है। यूं भी गृहस्थी के कलेवर में पति की भूमिका पूंछ की ही है। पूंछ जंतु का संतुलन साधने का साधन है तथा यहां बेचारा पति भी गृहस्थी का संतुलन साधने के लिये इधर उधर होता रहता है। पूंछ की ही भांति पति भी भिन्न भिन्न् आकार प्रकार व रंग के पाये जाते हैं। कुछ लोमड़ी की पूंछ से झब्बेदार , कुछ चूहे की पूंछ से पतले , कुछ खरगोश की पूंछ से रेशमी नाजुक तो कुछ छिपकली की पूंछ जैसे पुष्ट पर गिलगिले। जैसे जंतु जगत में पूंछ सामाजिक हैसियत का प्रतीक है , पति भी किटी पार्टियों में एक प्रतीक मात्र बन कर रह गया है। पति का ( पत्नी विहीन ) स्वतंत्र अस्तित्व छिपकली की कटी दुम से अधिक महत्व नहीं रखता। जरा देर दिशाहीन , संभ्रमित सा छटपटाता है और फिर निष्प्राण , निस्तेज हो जाता है। पति व पत्नी द्वंद समास का आभास देते हैं। जैसे हार-जीत , रात-दिन , काला-गोरा आदि। इन सभी में गौण पक्ष पहले प्रकट होता है व गुरु पक्ष बाद में। पति-पत्नी भी अपनी प्रकृति के अनुसार विपरीत ही पाये जाते हैं। पति को यदि हरा रंग पसंद है तो पत्नी को लाल। पति को चाय पसंद है तो पत्नी को कॉफी। अंतत: पति समर्पण कर देता है , ले भागवान , जैसी तेरी मर्जी ... । तत्समय वह ईसा की सलीब पर लटकी मुद्रा सा प्रतीत होता है। दोनों हाथ फैले हुए , आंखों में स्थायी खालीपन व चेहरे पर दार्शनिकों जैसी लाचारी। जबकि पति-पत्नी के बीच नियमित संवाद होना बहुत जरूरी है। यदि दोनों में निरंतर विचारों का आदान-प्रदान होता रहे तो विवाह की नाजुक डोर और भी मजबूत हो सकती है। कभी-कभी होता यह है कि गलतफहमी के कारण दोनों बोलचाल बंद कर देते हैं और बात स्पष्ट होने पर दोनों को अपनी गलती का एहसास होता है लेकिन तब तक रिश्तों में कडवाहट तो आ ही चुकी होती है। बेहतर यही होगा कि आप अपने जीवनसाथी की बात पूरी तरह सुनने के बाद ही कोई जवाब दें। एक दूसरे के सहभागी बनें। शादी के शुरू के दिनों में खासतौर पर यह एहसास दिलाना बहुत जरूरी होता है कि आप एक दूसरे की इज्जत करते हैं। सकारात्मक पहलुओं पर अधिक ध्यान दें। ऐसा करने से उनके नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान जाएगा ही नहीं बल्कि हो सकता है कि प्रोत्साहन मिलने पर वह स्वयं को बदल ही लें।

लघुता का बोझ जरूरी

भगवान अपने प्रिय भक्त को संकट में देखकर रह नहीं पाते। वह उसके उद्धार के लिये नाना प्रकार के उपक्रम कर उसे विषय-भोग से मुक्त कर देते हैं। जिस पर उनकी कृपा होती है वह जीव अमर हो जाता है। अहंकार, भक्ति में सबसे बड़ा बाधक है। जीव के अहंकार का कारण चाहे वस्तु हो या व्यक्ति, भगवान उसे नष्ट कर देते हैं। इन्द्र को भी अहंकार हुआ। बृजवासियोंद्वारा पूजा नहीं किये जाने से नाराज इन्द्र ने अति वृष्टि की। इन्द्र का अहंकार नष्ट करने के लिए भगवान ने गोवर्धनउठाकर बृज के लोगों की रक्षा की। इन्द्र को अपनी लघुता का बोध हुआ और वह भगवान के चरणों में गिर पडा। श्रीकृष्ण के चरणों में गिरने वाले संसार का राजा बनते हैं। अति महत्वाकांक्षा व अहंकार दोनों ही जीव के लिए घातक है। धर्म कहता है कि मनुष्य को अपने सामथ्र्य के अनुसार भगवान की सेवा में जुटना चाहिए। सभी मनुष्यों में पांच तरह के प्राण होते हैं। इनमें प्राण, व्यान,उदान, समान और अपान शामिल है। रास भी पांचवें अध्याय में आता है। यह अध्याय भागवत का प्राण कहा जाता है। श्रीराधारानी कृष्ण की योग माया हैं। जिन गोपियों के संग भगवान ने रास किया वह सभी कृष्णगतप्राण हैं। गोपियां उनकी रस भावित मति हैं। गोपियों का सब कुछ अपने प्रियतम प्यारे कान्हाके चरणों में समर्पित था। भगवान के चरणों में सब कुछ समर्पित करने वाली गोपियां उनकी परम अन्तरंग लीला का अभिन्न अंग हैं। रास ही भगवान का रस है। वेद और श्रुतिइसका प्रमाण हैं। जब कोई रचनाकार किसी ग्रन्थ की रचना करता है तो उसका स्वभाव उसमें निहित होता है। लेकिन वेद भगवान की सांस हैं। स्वामी जी ने कहा कि 19 प्रकार की गोपियों का वर्णन सुना जाता है। इतने ही प्रकार के गोपी गीत भी गाये जाते हैं। इन गीतों से प्रसन्न होकर परम ब्रह्मापरमात्मा ने गोपियों को दर्शन दिया।

कुत्ते को भी बुरा लगा...

मुझे कुत्ता पालने का कोई शौक नहीं ! मैं कुत्ते, बिल्ली आदि जानवर पालने को अमीरों के चोंचले मानता थी! सुबह शाम लोगों को कुत्ते की जंजीर हाथ में पकड़ कर टहलते हुए देखती तो मैं उनको फुकरा समझा करता था जो अपनी झूठी शान दिखाने के लिए आडम्बर करते हैं ! पिक्चरों में या कई बड़े घरों में लोगों को कुत्ते, बिल्लियों से अपना मुंह चटवाते देखता तो बड़ी नफरत होती थी ! आज के भाग-दौड़ के समय में अपना तथा अपने बच्चों का ख्याल रखना ही बहुत बड़ी बात थी फिर इन जानवरों को पाल कर अपनी फजीहत करवाना मुझे कतई पसन्द न था ! लेकिन मेरे चार साल के बेटे को पता नहीं कहां से धुन सवार हो गई ! पता नहीं उसने टी वी में देखा या किसी दोस्त के कहने पर कुत्ता पालने की जिद करने लगा ! उसे बहुत समझाया ! कुत्ता पालने के दोष गिनवाये ! घर गन्दा होने का वास्ता दिया ! कुत्ते के बदले में कोई और अच्छी और मंहगी चीज लेकर देने का लालच दिया ! लेकिन उसकी तो एक ही जिद थी कि कुत्ता पालेंगें ! आखिर हुआ वही, एक कुत्ते को घर लाई, लेकिन उसके बारे में ये अंतिम शब्द हैं-कुत्ता। वो कुत्ता नहीं रहा। घर का सदस्य हो गया। सब कुछ सामान्य ढंग से चलता रहा। परिवार में एक सदस्य की गिनती बढ़ जो गई थी। मगर एक दिन उसने बेटे को मुंह से पकड़ लिया। मुझे क्रोध आ गया ! मैंने गुस्से से उसको डांटते हुए उससे फिर पूछा तो उसने सिर झुका लिया और धीरे से बोला - भईया ने मुझे बहुत गन्दी गाली दी थी ! मुझे गुस्सा आ गया और मैंने भईया को काट लिया ! गाली दी थी ? इसलिए तो बुरा लगा। वो मुझे मार लेते, मुझे कोई दूसरी गाली दे देते, मां की गाली दे देते, बहन की गाली दे देते ! पर उन्होंने तो मुझे बहुत ही गन्दी गाली दी थी ! मुझे गुस्सा आ गया और गुस्से में मैंने भईया को काट लिया ! वह कहता जा रहा था ! उस गाली को मैं बर्दास्त नहीं कर पाया और गुस्से में मैंने भईया को काट लिया ! क्या गाली दी थी पुरु ने तुम्हें जो तुमने उसे काट लिया ? मैंने आंखें तरेर कर पूछा ! उसने अप्रत्यक्ष रूप से हाल में हुए बड़े घोटालों के कर्ताधर्ताओं की नाम ली और गुस्से में कहा- जो भी मुझे इन नामों से बुलाएगा, उसका वही हश्र करूंगा।

ऐतिहासिक नुकसान, साहसिक दिलेरी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम सहित भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर रही लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने पेश होने को तैयार हैं। सिंह ने कांग्रेस के 83वें महाधिवेशन में कहा कि 2-जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल में अनियमितताओं की जांच चल रही है और मैं वायदा करता हूं कि कोई भी दोषी बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का नेता हो, अधिकारी हो या कोई कितना ही ताकतवर क्यों न हो। नि:संदेह प्रधानमंत्री के इसी दिलेरी का तो देश कायल है। उनका यह कहना कि मैं खुद पीएसी के चेयरमैन को पत्र लिखने जा रहा हूं कि अगर वह मुझे समिति के सम्मुख उपस्थित होने को कहेंगे तो मैं सहर्ष पेश होने को तैयार हूं, वाकई काबिलेतारीफ है। बावजूद इसके इसमें कोई दो राय नहीं कि 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले ने जहॉं एक ओर राष्ट्र के राजकोष को तकरीबन पौने दो लाख करोड़ की अत्यंत घातक क्षति पंहुचाई, वहीं दूसरी तरफ देश को ऐसी अपूरणीय नुकसान पंहुचाया, जिसको कि आर्थिक ऑंकड़ों के दायरों में रखकर कदाचित आंका ही नहीं जा सकता। यह भयावह नुकसान एक जबरदस्त गहरे यकीन को पूर्णत: ध्वस्त कर देने का गहन ऐतिहासिक नुकसान है। देश को यह ऐसा नैतिक नुकसान है, जिसकी भरपाई नामुमकिन प्रतीत होती है। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के तौर पर एक बेहद ईमानदार शख्स क रार दिया जाता रहा। वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री का ओहदा संभालने के पश्चात संपूर्ण देश को इस बात का पक्का यकीन था कि उसे एक अत्यंत समझदार प्रधानमंत्री के साथ एक ईमानदार प्रधानमंत्री भी मिल गया है। कॉंग्रेस और मनमोहन सिंह के धुर विरोधियों को भी उनकी ईमानदारी पर कोई शक शुब्हा नहीं रहा। मनमोहन सिंह पर अकसर राजनीतिक तौर पर एक कमजोर प्रधानमंत्री होने के इल्जामात तो आयद होते रहे, किंतु कभी उनकी ईमानदार नैतिक ताकत पर संदेह व्यक्त नहीं किया गया। कॉंग्रेस के यूपीए राज में बहुत से स्कैंडल उजागर होते रहे, किंतु किंचित तौर पर भी किसी भी घोटाले में प्रधानमंत्री का नाम दूर दूर तक नहीं लिया गया। 2 जी स्पैक्ट्रम स्कैंडल ने इसे गहन विश्वास को बहुत जबरदस्त धक्का पंहुचाया है और ऐसा कुछ एहसास हो रहा कि देश ने जीते जी ही एक ईमानदार प्रधानमंत्री खो दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 2 जी स्पैक्ट्रम केस में प्रधानमंत्री के संपूर्ण आचरण पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। मनमोहन सिंह के ईमानदार आचरण पर इससे पहले कदाचित कभी संदेह व्यक्त नहीं किया गया। वर्ष 2004 से 2009 तक प्रधानमंत्री के तौर पर कथित तौर पर शानदार पारी खेलने वाले मनमोहन सिंह ने 2006 में ही वह ऐतिहासिक भूल अंजाम दे डाली, जिसका खामियाजा देश को 2008 से ही निरंतर भुगतना पड़ा है। अब तो कुछ ऐसे तथ्य उजागर होने लगे हैं कि अपने विगत कार्य काल में अपने पद और सत्ता को बनाए बनाए रखने के लिए 2006 से ही मनमोहन सिंह डीएमके दूरसंचार मंत्री मारन को ऐसी घातक नीतियों का अनुसरण करने की पूरी छूट प्रदान कर दी थी, जोकि संवैधानिक तौर पर बेहद आपत्तिजनक करार दी जा सकती है। वर्ष 2006 से ही ग्रुप आफ मिनिस्टर्स के नियंत्रण से दूरसंचार मंत्रालय को मुक्त कर दिया गया था, क्योंकि किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वामपंथी दलों से लोहा लेने के लिए डीएमके पार्टी को अपने साथ यूपीए में बनाए रखना चाहते थे। इसी कारणवश मनमोहन सिंह ने डीएमके के मंत्री मारन की ब्लैकमेलिंग करने वाली प्रत्येक गैरवाजिब शर्त को स्वीकार कर लिया। तत्कालीन वित्त सचिव की सलाह को बाकायदा दरकिनार करते हुए मनमोहन सिंह ने असंवैधानिक तौर पर दूरसंचार मंत्री को नीतिगत मामलों में भी कैबिनेट की क्लेटिव रैसपांसबिलीटी से मुक्त करके, उनको मनमानी करने की भयंकर ऐतिहासिक गलती अंजाम दे डाली। जो कि आगे भी निरंतर कायम रही और उसका ही पूरा फायदा उठाकर डीएमके पार्टी के कोटे से केंद्र में दूरसंचारमंत्री का ओहदा सभालने वाले ए राजा ने 2008 में 2 जी स्पैक्ट्रम को मनमाने तौर पर औने पौने दामों में प्राइवेट कंपनियों को बेचकर राष्ट्र के राजकीय कोष को पौने दो लाख करोड़ का नुकसान करने की भयानक हिमाक़त कर डाली। जिसे कि अत्यंत तफसील के साथ कंपोटर एंड एकाउंटेट जनरल (सीजीए) ने अपनी रिर्पोट में पेश किया, जिसे संसद के पटल पर भी रखा जा चुका है। अब तो मनमोहन सिंह की समस्त ईमानदार प्रतिष्ठा ही दॉंव पर लग चुकी है। जबकि एक सत्तालोलुप प्रधानमंत्री के तौर पर उनके चरित्र की एक नई इबारत देश के समक्ष आ रही है। अपनी सत्ता की खातिर अभी तक देश की आजा़दी के दौर में किसी प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल में जानते बुझते इतना बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं होने दिया, जितना कि मनमोहन सिंह ने अपने सत्तालोपता के कारण राष्ट्र को करवा दिया। यदि प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह यदि डीएमके पार्टी की ब्लैकमैलिंग के समक्ष झुके नहीं होते तो देश इतनी विशाल आर्थिक क्षति से बच गया होता और उनका स्वयं का चरित्र भी कदाचित कलंकित नहीं हुआ होता। देश के आजादी के दौर के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री के विषय में इतनी विपरीत टिप्पणी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट विवश नहीं हुआ, जितना कि मनमोहन सिंह के विषय में हो गया। अब चाहे जो कानूनी दॉंव पेंच सुप्रीम कोर्ट में मनमोहन सरकार खेल ले, किंतु तो देश को जो नैतिक नुकसान होना था वह तो हो ही चुका है।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

नागरी कलेवर में रोमन

हिंदी को रोमन लिपि में लिखने के फायदे-नुकसान को जांचा-परखा जाए और उसके प्रति एक वैज्ञानिक रवैया अपनाया जाए। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि मानव समाज में भाषा और लिपि को बदलने का काम बहुत कठिन, जटिल और बहुपक्षीय होता है। बहुत-से देश इसका प्रयास ही नहीं करते क्योंकि यह एक तरह से जन-भावनाओं से छेड़छाड़ करने वाला काम माना जाता है। मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले, जिनकी तादाद कुछ ही साल बाद लाखों से बढ़ कर करोड़ों तक पहुंच जाएगी, अच्छी तरह जानते हैं कि निजी और कारोबारी किस्म के एसएमएस हिंदी में आते और जाते हैं। इसकी पहली वजह यह है कि कारोबारी एसएमएस भेजने वाले जानते हैं कि आमतौर पर लोग हिंदी समझते हैं या अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी अच्छी तरह और जल्दी समझ लेते हैं लेकिन उनमें बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो हिंदी लिपि नहीं पढ़ सकते या पढऩे में कठिनाई महसूस करते हैं। विज्ञापन जगत बहुत जागरूक, चतुर और चालाक है जो संचार के नियमों से परिचित है और उसका पूरा उपयोग करता है। संचार का एक मोटा सिद्धांत यह है कि संप्रेषण सीधा हो, उसमें जटिलता या प्रभावी वर्ग के लिए असुविधा न हो। एसएमएस के बाद या पहले ई-मेल का नंबर आता है। हिंदी जानने-बोलने और समझने वाले एक दूसरे को ई-मेल हिंदी में भेजते हैं लेकिन प्राय: लिपि रोमन होती है। इसके कारण भी वही हैं जो रोमन लिपि में एसएमएस भेजने के हैं। यह सब किसी योजना या आंदोलन या समझी-बूझी राजनीति के बगैर हो रहा है। ऐसा नहीं है कि नागरी लिपि जानने और समझने वालों की संख्या नहीं बढ़ रही है, लेकिन उन लोगों की तुलना में, जो हिंदी समझते-बोलते हैं मगर नागरी लिपि नहीं जानते, यह संख्या बहुत नहीं बड़ी है। यही वजह है कि विज्ञापन जगत का हिंदी प्रेम जाग रहा है। आज अंग्रेजी विज्ञापनों में जितने हिंदी शब्द आ रहे हैं उतने पहले कभी नहीं आए। लेकिन विज्ञापन जगत में हिंदी भाषा का आगमन नागरी लिपि में नहीं बल्कि रोमन लिपि में हो रहा है। हिंदी स्कूलों की स्थिति लगातार गिर रही है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति जनता का उत्साह बढ़ रहा है। हिंदी माध्यम स्कूल अब सिर्फ गरीबों के बच्चों के लिए रह गए हैं जो हिंदी माध्यम में शिक्षा पाकर प्राय: (अपवादों को छोड़ दें) गरीब ही बने रहते हैं। हिंदी में अंग्रेजी की तुलना में न तो अच्छी पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध हैं और न पढऩे-पढ़ाने की विकसित तकनीक ही है। पचास करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी की आज जितनी दुर्दशा है उतनी दुर्दशा पांच और दस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं जैसे पोलिश, चेक, हंगेरियन, फिनिश आदि की भी नहीं है। हिंदी भाषा की इस दुर्दशा की जिम्मेदारी हम दूसरों पर नहीं डाल सकते। इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं, हमारी सरकार जिम्मेदार है। लेकिन बोलने वाले लोगों की संख्या के आधार पर विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा हिंदी ने मीडिया के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किए हैं वे संभवत: अतुलनीय हैं।

नीरा ओ नीरा...

दर्जन भर टेलीकाम कम्पनियों के साथ ही अब दुनिया की सबसे बड़ी महिला दलाल नीरा राडिया पर भी केंद्रीय जांच ब्यूरो का फंदा कसने लगा है। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में कंपनियों के लिए जनसम्पर्क का काम करने वाली नीरा राडिया की भूमिका की जांच होगी। सीबीआई ने कहा है कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में भारी अनियमितता हुई है, जिसका दूसरे देशों तक फैले हैं। हलफनामे में सीबीआई ने इस बात को माना है कि यह मामला काफी बड़ा है। जांच एजेंसी ने कहा कि इस मामले की जांच सिर्फ देश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके तार दूसरे देशों तक हैं। सीबीआई ने उच्चतम न्यायालय को उन कंपनियों की सूची भी दी है, जिनके परिसरों में जांच के दौरान छापेमारी की गई है। इन कंपनियों में यूनिटेक वायरलेस, एस टेल, श्याम टेलीलिंक्स, स्वान टेलीकाम, डाटाकाम साल्यूशन, लूप टेलीकाम, टाटा टेलीसर्विसेज, आलियांज इन्फ्राटेक, स्पाइस कम्युनिकेशन और आइडिया सेल्युलर शामिल हैं। दरअसल, नीरा राडिया सब जगह खबरों में हैं और सबसे नई खबर यह आ रही है कि सिर्फ टाटा घराना नीरा की कंपनियों को साठ करोड़ प्रति वर्ष देता था और टाटा समूह ने अपना जनसंपर्क विभाग हमेशा के लिए बंद कर दिया था। नीरा राडिया का असली नाम है नीरा शर्मा। देखने में उम्र चाहे जो लगती हो लेकिन तीन जवान बच्चों की मां है। पिता जी एक जमाने में केन्या में काम करते थे और बाद में आ कर लंदन बस गए जहां नीरा शर्मा की पढ़ाई हुई। पिता बाद में हवाई जहाजों के इंजन के दलाल बन गए थे। वंश परंपरा सही सलामत है। नीरा की दोस्ती विदेश में ही गुजराती मूल के और फाइनेंस का काम करने वाले जनक राडिया से हुई और इस तरह नीरा शर्मा नीरा राडिया बनी। 1995 में काम की तलाश में नीरा राडिया भारत आईं। उस समय अहमदाबाद में टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक किंशुक नाग याद करते हैं कि नीरा राडिया ने उन्हें पहली मुलाकात में खुद को गुजरात की बहू बताया था। भारत में सबसे पहली नौकरी नीरा को सहारा समूह में मिली और सहारा एयर लाइन के गठन में नीरा ने काफी काम किया। फिर नीरा राडिया सिंगापुर एयर लाइन, केएलएम और यूकेएएल की भारत प्रतिनधि बन गई। पांच साल में इतना पैसा आ गया था कि सन 2000 में बहन करुणा मैनन के साथ मिल कर क्राउन एयर के नाम से विमान सेवा शुरू की। सौ करोड़ रुपए के विदेशी निवेश की अनुमति भी ले ली लेकिन बात कहीं जा कर अटक गई। अगले साल दलाली और जनसंपर्क की कंपनी वैष्णवी कम्युनिकेशंस शुरू की और आखिरकार चार और कंपनियां बना डाली। 1990 में टाटा पर जादू किया और टाटा समूह की सारी 90 कंपनियों का विज्ञापन और जनसंपर्क अकाउंट वैष्णवी और सहयोगी कंपनियों पर आ गया। 2005 में मैजिक एयर के नाम से ललित मोदी की मोदीलुफ्त एयर लाइन खरीदने का सौदा हो चुका था मगर नीरा के पास ब्रिटिश पासपोर्ट था और भारत में विमान सेवा के निवेश के लिए भारतीय नागरिक होना जरूरी था। कम लोग जानते हैं कि बंगाल में जब टाटा नैनो फैक्टरी को ले कर बवाल मचा था तो नरेंद्र मोदी से जुगाड़ कर के यह फैक्टरी नीरा ही गुजरात ले गई थी। नीरा के कई चेहरे हैंं। नेताओं से वे उनके कद और उम्र के हिसाब से बात करती हैं। पत्रकारों और संपादकों से उनकी शैली में बात करती है। कभी वे स्कूल टीचर की मुद्रा में होती हैं तो कभी बहुत ही आत्मीय अपनेपन के तरीकों में, हिंदी में गालियां भी दे देती हैं, अंग्रेजी में व्यापार भी समझा देती है और रतन टाटा के साथ बात करते वक्त लंदन की किसी स्कूल की बच्ची की तरह तोतली हो जाती हैं। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर आयोग के अनुरोध पर नीरा का फोन टेप करने का आदेश तत्कालीन गृह सचिव और शिवराज पाटिल के पालतू अफसर मधुकर गुप्ता ने दिया था। सबको हैरत होती है कि नीरा गुप्ता में ऐसा क्या जादू हैं कि वे इतने बड़े बड़े लोगों से इतने अधिकार से बात कर लेती है। नीरा की शुरूआती सफलता उनके पिता जी भी ने लिखी है जो 2003 तक जिंदा थे। भारत में वैष्णवी और दूसरी कंपनियां बन गई तो हरियाणा के एक बहुत बड़े राजनैतिक परिवार के बेटे धीरज सिंह को पार्टनर बनाया मगर बाद में तब 18 साल के अपने बेटे के अपहरण का इल्जाम भी धीरज पर लगवाया और उन्हें जेल भी भिजवा दिया। करुणा के अलावा नीरा के और किसी भाई बहन के बारे में ज्यादा जाना नहीं जाता मगर करुणा, इकबाल और सायरा मेनन के नाम इंग्लैंड के एक ही पते पर डूब चुकी कंपनियों के निदेशकों के तौर पर दर्ज हैं। फिलहाल करुणा सुदेश फाउंडेशन के नाम से एक न्यास भी चलाती है जिसमें सारा पैसा नीरा का है और नीरा न्यासी भी है। फाउंडेशन का ऑफिस बाराखंभा रोड पर गोपालदास टॉवर की पहली मंजिल पर है। इसी इमारत की इसी मंजिल पर टाटा टैली सर्विसेज का ऑफिस भी है और पांचवी मंजिल पर मुकेश अंबानी की रिलायंस के कई ऑफिस हैं। सब कुछ बहुत सुविधा और सहूलियत से है। सुदेश ट्रस्ट जनकल्याण के बहुत काम करता है और एक और ट्रस्ट के साथ मिल कर आयुर्वेदिक कॉलेज और आपदा नियंत्रण प्रबंधक संस्थान भी खोलने जा रहा है। नीरा बहुत जल्दी सफल हुई। अटल बिहारी वाजपेयी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य उनके दोस्त हैं, वाजपेयी सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री रहे अनंत कुमार तो हम दम भी हैं और दोस्त भी। उमा भारती के गुरु और पंजावुर के स्वामी जी के दरबार में तो अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उनकी फोटो मौजूद है। इसलिए 1996 में नीरा ने बहुत बड़ा फॉर्म हाउस दक्षिण दिल्ली में खरीद लिया था। जनसंपर्क की असली पार्टियां यही होती थी। ये पार्टियां पूजा पाठ से शुरू होती थी और शराब की महफिलों में खत्म होती थी। अनंत कुमार से दोस्ती हुई, दोनों लंबी विदेश यात्राओं पर गए और निश्चय ही वहां भागवत पाठ नहीं किया। अनंत कुमार ने मदद करने की पूरी कोशिश भी की। रतन टाटा उन दिनों एयरलाइन खोलना चाहते थे और सिंगापुर एयरलाइन के साथ तालमेल की बात थी जिसकी एजेंट नीरा थी। ऐसे नीरा और टाटा की दोस्ती हुई। जेट एयरवेज के नरेश गोयल ने पहले नीरा को खरीदने की कोशिश की मगर नीरा को नरेश गोयल और टाटा मे किसको चुनना है यह पता था और नरेश गोयल हमेशा के लिए नीरा के दुश्मन बन गए। प्रभु चावला यह सही कहते हैं कि नुस्ली वाडिया ने भी नीरा और टाटा के रिश्ते मजबूत करने का काम किया। जब टाटा की टाइम्स ऑफ इंडिया से आर पार की लड़ाई चल रही थी तो नीरा ही बीच में मध्यस्थ बनी। 2002 में अनंत कुमार ने हुडको वाला घोटाला कर डाला और मामला अब भी सर्वोच्च न्यायालय में हैं। कानून के पंडित और भाजपा के महारथी अरुण जेटली भी नीरा राडिया को कतई पसंद नहीं करते। 2004 में जब भाजपा सरकार से हट गई तो नीरा को नए दोस्तों की जरूरत पड़ी। टाटा टैली सर्विसेज के बहाने नीरा ने राजा से दोस्ती बढ़ाई और कहा जाता है कि जिस दिन राजा ने शपथ ले कर संचार भवन में कदम रखा था उसी दिन उनके पास उपहार का एक नकद बक्सा पहुंचा, जिसे उन्होंने फौरन करुणानिधि तक पहुंचा दिया। मधु कोड़ा से नीरा की दोस्ती थी मगर जब 1500 करोड़ देने का सवाल आया तो नीरा ने अफसरों से सस्ते में काम करवा लिया। उद्धव ठाकरे से भी नीरा की दोस्ती है, नरेंद्र मोदी से तो दोस्ती वे प्रमाणित कर चुकी हैं और कुल मिला कर नीरा राडिया इस बात का प्रतीक हैं कि दलाली के इस खेल में अभियुक्त सिर्फ नीरा नहीं हैं बल्कि भाजपा जैसी चरित्रवान पार्टी और कांग्रेस जैसी आजादी दिलवाने वाली पार्टी दोनों इस जुर्म में बराबर के शरीक है।

असमानता का काहिल दर्द

स्त्री और पुरूष के बीच की असमानता, मर्द की तुलना में उसकी गौण स्थिति उसके उदार रूप-संरचना, स्वभाव, व्यवहार को विकृत कर देती है। वह सभी भूमिकाओं को निभाते हुए अपने प्रति सबसे ज्यादा गैरजिम्मेदार होती है। अनेक प्रकार की भिन्नताओं तथा बहुलताओं के बावजूद वे पितृसत्ताक समाज में पीडि़त, शोषित की एकजुट सहभावना से जुड़ी होती हैं। परम्परागत महिला पुरुष के सामने न केवल अभिनय करने बल्कि झूठ बोलने, आडंबर करने के लिए बाध्य होती है। यही कारण है कि वह अपने ही समान अन्य औरतों से सहभाव महसूस करती है। किंतु इस सहभाव की भी अपनी दिक्कत है जो आदर्श मित्रता के लिए बाधक है। पहली यह कि स्त्री का व्यक्तित्वहीन होना। व्यक्तित्व के अभाव में वे स्वयं को परे रखकर अपने संबंधों का चुनाव और निर्माण करती हैं। व्यक्तित्व एवं वैयक्तिकता का नकार उनमें आपसी समानता तथा सहभाव के बावजूद शत्रुता का सृजन करता है। स्त्रियों में मुश्किल से सह-भाव सच्ची मित्रता में बदलता है। वे पुरूषों से अधिक संलग्नता अनुभव करती हैं। वे सामूहिक रूप से पुरूष-जगत का सामना करती हैं। प्रत्येक स्त्री उस विश्व की कीमत अपनी निजी मान्यता के आधार पर ऑंकना चाहती है। स्त्रियों के संबंध उनके व्यक्तित्व पर आधारित नहीं होते। वे साधारणत: एक-सा ही अनुभव करतीं हैं और इसी कारण शत्रुता के भाव का जन्म होता है। स्त्रियाँ एक-दूसरे को सहजता से समझ लेती हैं इसलिए वे आपस में समानता का अनुभव तो करती हैं, पर इसी कारण वे एक-दूसरे के विरुद्ध भी हो जाती हैं।Ó आवश्यक है कि स्त्री स्त्रीत्व की मान्य पराधीनता से मुक्त हो। उसकी शिक्षा-दीक्षा उसे आत्मनिर्भर, व्यक्तित्व सम्पन्न बनाए ताकि वह निजी अस्मिता एवं स्वतंत्रता के महत्व को समझ सके। वह सालों साथ रहकर भी परिवार और सदस्यों से मित्रवत नहीं हो पाती। विवाह के पश्चात की स्थितियाँ कहीं ज्यादा भयानक और निर्मम हो जातीं हैं। अपनी माँ, बहनों के बाद पति की माँ, बहन, भाभी का लगातार साथ व साहचर्य भी उसे घनिष्ठ मित्रता बोध से वंचित रखता है। औरत निज की अवहेलना पर बनाए संबंधों का खामियाजा वह उम्र भर भुगतती है। उसे स्वयं से प्यार करना सीखना होगा। खुद से द्वेषरत स्त्री किसी से प्रेम नहीं कर पाती। मित्रता नहीं कर पाती। उदासी, खिन्नता से घिरी वह निरन्तर असुरक्षित महसूस करती है। इसलिए उसे खुद की इयत्ता-चेतना से संपन्न होना होगा ताकि वह अपनी शक्ति, नि:स्वार्थ प्रेम की क्षमता को पहचान सके।

10 लाख की गाड़ी में ब्रेक नहीं

मेरी समझ में यह नहीं आता कि दस लाख की गाड़ी चलाने वालों को दस सेकंड रुकना भी भारी क्यों लगता है? वह क्यों अगले दस मिनट के बारे में नहीं सोचते? सड़क पर चलने वाले दस लोगों के बारे में भी वह क्यों नहीं सोचते? लगता है स्टंट करने वाले युवकों को न तो अपने जीवन से प्यार है न ही अपने परिवार के सदस्यों की चिंता। युवावस्था में जोश रहता है, जीवन के प्रति उमंग और उत्साह रहता है। हो सकता है इसकी अभिव्यक्ति युवा तेज गति से गाड़ी चलाकर करते हों। लेकिन इसमें कई बार वे अति कर डालते हैं और जीवन को दांव पर लगा देते हैं। पर क्या इसके लिए हम सब भी जिम्मेदार नहीं हैं? जीवन में इस तेज गति का जो नशा उनमें दिख रहा है, वह समाज की ही देन है। वे अपने घर और परिवार में देख रहे हैं कि किस तरह की आतुरता हर किसी में समाई हुई है। महानगरों में खासतौर से यह बात है। एक तो इन शहरों का स्वरूप ही ऐसा है कि जीवन में अपने आप भागदौड़ आ जाती है। लेकिन हम व्यावहारिक वजहों से ही दौड़धूप नहीं कर रहे, गति हमारे जेहन में समा चुकी है। लोग जल्दी से जल्दी सब कुछ पाना चाहते हैं। किसी को रातोंरात समृद्धि चाहिए किसी को प्रसिद्धि चाहिए। एक युवा यह सब अपने तरीके से ग्रहण कर रहा होता है। वह रफ्तार को ही जीवन का निर्णायक तत्व मान लेता है। धीमा चलना उसके लिए पिछड़ेपन का पर्याय बन जाता है। सड़क पर पिछडऩे को वह जीवन में असफलता के रूप में देखने लग जाता है। दिक्कत यह है कि हम युवाओं से संवाद भी नहीं कर रहे हैं। नई पीढ़ी को हम गंभीरता से समझा नहीं पा रहे कि रफ्तार सफलता की अनिवार्य शर्त नहीं है। तेज चलने से ही सब कुछ नहीं हासिल हो जाता। गाड़ी चलाते हुए डर लगने लगा है। कम भीड़-भाड़ वाली सड़क पर पीछे से आ रही एक कार लगभग 100 की स्पीड से बहुत सी गाडिय़ों को बायीं ओर से क्रॉस करती हुई आगे एक टर्न पर अपना बैलेंस खो बैठी और फुटपाथ से जा टकराई। शुक्र है कि कार चलाने वाले युवक को मामूली चोट आई और पास के अस्पताल से ही उसकी मरहम-पट्टी भी हो गई। लेकिन गाड़ी की जो दशा थी उसके लिए युवक का जवाब था- बीमा कंपनी देख लेगी। आखिर यह भावना क्यों घर कर गई है? क्यों नहीं है जीवन से मोह, अपना हो या पराए की।

नोबेल पर चीन की मर्जी के मतलब

आज से ठीक दस साल पहले जब गाओ जिंग्जियान को साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था, तब भी चीन की प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी आज शांति का नोबल पुरस्कार लू श्याबाओ को दिए जाने पर हो रही है। जो नोबल पुरस्कारों का उद्भव, इतिहास और राजनीति जानते-समझते हैं, वे शायद ही चीन के इस विरोध को बहुत गंभीरता से ले रहे होंगे। यहां यह जानना जरूरी है कि सन अस्सी से लेकर अगले दो दशक तक चीन ने नोबल पुरस्कारों के लिए जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया था। परदे के पीछे लॉबिंग की थी। वहां की सरकार अपने लेखकों को स्वीडेन की यात्राएं कराती थी। नोबल पुरस्कार विजेताओं के साहित्य का संग्रह छापने के लिए चीन अनुदान देता था। दरअसल, चीन के कम्युनिस्ट शासन को इस बात की बहुत चिंता रही कि तमाम चीजों का आविष्कार करने के बावजूद उसकी मेधा को नोबल समिति क्यों नहीं मान्यता देती है। यह चिंता कम्युनिस्ट शासन से राजकीय पूंजीवाद में उसके तब्दील होने की प्रक्रिया से उपजी थी, जो खुद की वैश्विक ज्ञान तंत्र के एक हिस्से के रूप में पहचान की आकांक्षा रखती थी। जब 2000 में गाओ जिंग्जियान को साहित्य का नोबल मिला तो चीन की प्रतिक्रिया बेहद ठंडी थी। तब उसने जिंग्जियान की किताबों को प्रतिबंधित कर दिया था। फर्क बस इतना है कि आज लू श्याबाओ की पत्नीं को नजरबंद कर दिया गया है। दलाई लामा को नोबल मिलने पर भी चीन ने यही रवैया दिखाया था, जो प्रत्यक्षत ज्यादा स्वाभाविक था। दरअसल, चीन के इस विरोध को दो स्तरों पर समझने की कोशिश की जानी चाहिए। सर्वप्रथम, इसका आधार हमें वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज की प्रतिक्रिया में मिलता है, जिन्होंने चीन के पक्ष का समर्थन किया है। उनका मानना है कि यह पुरस्कार पिछले साल ओबामा को दिए गए पुरस्कार जैसा ही है। नोबल समिति को उन्होंने परोक्ष रूप से अमरीकी एजेंट करार दिया है। यह बात कुछ हद तक सतह पर और सतह के नीचे सही दिखती है। ओबामा को जब पुरस्कार मिला, तो राष्ट्रपति के रूप में उनका काम किसी ने देखा नहीं था। आज दो साल बाद भी यदि हम उनके काम का मूल्यांकन करने चलें, तो इसके लिए सिर्फ एक कसौटी काफी होगी। वह हैं- अश्वेत पत्रकार मुमिया अबू जमाल, जो पिछले 28 बरस से जेल में हैं। ओबामा के रूप में एक अश्वेत के राष्ट्रपति बनने से कुछ उम्मीद जगी थी कि इस अन्याय विरोधी पत्रकार की रिहाई हो जाएगी। शायद ओबामा ने उन्हें पिछले दो साल में याद तक नहीं किया। ओबामा की ही तरह लू श्याबाओ को 11 साल की कैद की सजा हुए डेढ़ साल हुए हैं। डेढ़ साल का वक्त बहुत नहीं होता नोबल पुरस्कार मिलने के लिए (यदि हम जेल में रहने को ही नोबल पुरस्कार की कई कसौटियों में एक मान लें तो), क्योंकि नेल्सन मंडेला को जब शांति का नोबल पुरस्कार मिला था तो वह 27 साल जेल में बिता चुके थे- तकरीबन उतना ही वक्त जितना अबू जमाल ने बिताया है। तो फिर सवाल उठता है कि आखिर नोबल समिति ने लू को शांति का नोबल इतनी जल्दी क्यों दे दिया, जबकि उसके हकदार मुमिया अबू जमाल भी हो सकते थे। इतना दूर जाने की भी जरूरत नहीं- हमारे यहां मणिपुर की इरोम शर्मिला इसके लिए कमजोर दावेदार तो नहीं ही हैं, जिन्हें सश बल विशेष सुरक्षा अधिनियम के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठे दस साल हो गए। इसका जवाब खोजने के क्रम में आप महात्मा गांधी को याद कर सकते हैं जिन्हें आज तक नोबल पुरस्कार नहीं दिया गया। गांधी की शख्सियत हालांकि किसी भी पुरस्कार से ज्यादा बड़ी है। सवाल यह नहीं है कि नोबल पुरस्कार मिलने या न मिलने से कोई छोटा या बड़ा हो जाता है। नोबल पुरस्कार, खासकर शांति के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार की तो नींव ही शांति का विरोध है क्योंकि यह पुरस्कार उस व्यक्ति अल्फ्रेड नोबल के नाम पर है, जिसने अशांति फैलाने वाले डायनामाइट का आविष्कार किया था। इसलिए बुनियादी सवाल पर बात करना बेमानी है। नोबल पुरस्कार का हालांकि प्रतीकात्मक महत्व जरूर होता है और विज्ञान व साहित्य के क्षेत्र में तो इसकी विश्वसनीयता है ही। अगर विवादों में कोई भी कोटि आती है तो वह है शांति की, क्योंकि वहां सीधे तौर पर वैश्विक राजनीति जुड़ी होती है। लू को पुरस्कार दिए जाने पर चीन का विरोध, शावेज का चीन सरकार का पक्ष लेना और दलाई लामा द्वारा पुरस्कार का स्वागत करना दरअसल एक ऐसी वैश्विक एक ध्रुवीय राजनीति से जुड़ी चीजें हैं, जिनका हिस्सा नोबल समिति भी है। वह चाह कर भी उससे अलग नहीं हो सकती। शांति के नोबल पुरस्कारों के संदर्भ में विशेष तौर पर इस राजनीति को समझने के लिए हमें पुरस्कार विजेताओं की फेहरिस्त पर भौगोलिक आधार पर भी नजर दौड़ानी होगी। आप पाएंगे कि जहां कहीं अधिनायकवादी सत्ता तंत्र मौजूद रहा है, उन जगहों पर लगभग उन्हीं व्यक्तियों को साहित्य या शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया है, जिन्होंने अधिनायकवाद का विरोध किया है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि मुमिया अबू जमाल अगर अफ्रीका में होते तो शायद उन्हें अब तक यह पुरस्कार मिल गया होता, या फिर इरोम शर्मिला को शायद आने वाले वर्षों में यह पुरस्कार मिल सकता है, जबकि भारत में लोकतंत्र का चरित्र अधिनायकवादी होता जा रहा है (हालांकि यह चीजों का सरलीकरण ही है)। एक वक्त था जब सर्वाधिक नोबल पुरस्कार जर्मनी के नागरिकों को मिलते थे, लेकिन उत्तर-नाजीवादी जर्मनी में यह संख्या घटकर आधी रह गई। जितने यहूदियों को नोबल मिला, वे अधिकांश पश्चिमी देशों के नागरिक थे। चीन के मामले में लू को मिला यह पहला पुरस्कार है जो किसी चीनी नागरिक को मिला है, वरना अब तक चीनी मूल के नौ लोगों को यह पुरस्कार मिल चुका है, जिनकी नागरिकता कहीं और की थी। जिंग्जियान को जब नोबल मिला था, तो वह फ्रांस के नागरिक थे। यही स्थिति अरब देशों की है। वहां जिन पांच व्यक्तियों को अब तक विज्ञान का नोबल मिला है, उनमें तीन ईसाई थे और दो अरब-अमरीकी मुस्लिम। जैसा कि चीनियों के मामले में होता रहा है, वही बात अरब देशों के लिए भी लागू होती है कि जब तक कोई अरबी मूल का व्यक्ति अरब-अमरीकी या गैर-मुस्लिम न रहा हो, उसे नोबल नहीं मिलता। यानी सवा अरब की आबादी वाला चीन उन्हीं वजहों से नोबल नहीं जीत पाया, जिन वजहों से अरब के किसी नागरिक को नोबल नहीं मिला। जहां तक साहित्य के लिए मिलने वाले नोबल की बात है, तो चीन और अरब देशों में एक समानता यह है कि पुरस्कार विजेता लेखक को उसके ही देश में असम्मान से देखा जाता रहा है। इस तरह चीन एक दर्दनाक द्वैत में फंसा हुआ है- वह मानता है कि उसकी संस्कृति अद्वितीय है और साथ ही इस दावे की स्वीकारोक्ति पश्चिम की ओर से चाहता है। लोवेल के लिए यह द्वैत दरअसल बौद्धिक स्वतंत्रता और तानाशाही के बीच का संघर्ष है। मौजूदा अध्याय को समझने के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। जहां तक लू श्याबाओ को शांति का पुरस्कार मिलने पर तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का सवाल है, तो यह समझने के लिए बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी कि इससे न तो चीन की राजसत्ता का चरित्र बदलने जा रहा है, न ही लू जेल से रिहा होने जा रहे हैं। लू को पुरस्कार मिलने का विरोध करने के पीछे यदि चीन और शावेज के राजनीतिक-आर्थिक हित जुड़े हैं, तो उसका समर्थन करने वालों के उससे भी सूक्ष्मतर राजनीतिक आग्रह हैं, जो जाने-अनजाने साम्राज्यवादी हितों का पोषण करते हैं।