शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

शर्म किसी को नहीं, सिर्फ देश शर्मसार है.....

लोकतंत्र बदनाम हुआ सियासत तेरे लिए

तो क्या मानसूत्र सत्र का धाराप्रवाह हंगामा विपक्ष का सचेत और सुनियोजित कृत्य था? क्या यह संसदीय व्यवस्था पर सीधा हमला ही था? जवाब ढूंढने या किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले पार्श्व में जाना उचित होगा। दिन बुधवार, 11 अगस्त। समय शाम के 6 बजकर 15 मिनट। ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन का ट्वीट आता है, जिसमें वो राज्यसभा के अंदर के माहौल को बयान करते हैं-मोदी के ख़िलाफ़ क्या विपक्ष सचमुच एकजुट हो गया है? जब डेरेक ट्वीट कर रहे थे, उस समय राज्य सभा एक अप्रत्याशित हंगामे का गवाह बन रहा था। विपक्ष के सदस्य जमकर नारेबाज़ी कर रहे थे, काले झंडे दिखा रहे थे और कुछ सदय कागजों को फाड़ते हुए नज़र आ रहे थे। अनेक मूलभूत प्रश्न हैं, ‘राष्ट्र जीवन’ प्रश्न बेचैन है। क्या हमारे जनप्रतिनिधि संवैधानिक शपथ के प्रति निष्ठावान नहीं हैं? क्या वे संसदीय कार्यवाही को राष्ट्रहित का साधन नहीं मानते?  सत्ता और विपक्ष  दोनों ही जनादेश की कोख की ही उपज हैं। सत्ता पक्ष सरकार के माध्यम से नीति कार्यक्रम लागू करता है, तो विपक्ष उसकी निगरानी करता है। संसद चलाने और कार्यवाही को उत्पादक बनाने की जिम्मेदारी भी दोनों की है, लेकिन यहां हद हो गई। इसलिए राष्ट्र जीवन प्रश्न बेचैन है...जवाब कौन देगा,  जवाबदेही कौन लेगा...शायद कोई नहीं। अलबत्ता ठीकरा फोड़ने के लिए सभी अग्रिम पंक्ति में नजर आएंगे...धन्य है यह देश और धन्य इस देश के मतदाता, जो सब कुछ भूल जाने का आदी है और वोट मांगने आने वालों का किसी ‘अतिथि’ की तरह स्वागत करता है...शर्म किसी को नहीं, सिर्फ देश शर्मसार है.....

बना के क्यों बिगाड़ा...

कोरोना की दूसरी लहर से जब देश जूझ रहा था और व्यवस्थाएं चरमराती नजर आ रही थीं तब विपक्ष सरकार से बार-बार मांग कर रहा था कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए, ताकि महामारी से निपटने के उपायों पर चर्चा की जा सके, लेकिन जब संसद के नियमित मानसून सत्र का आयोजन हुआ तो उसे विपक्षी दलों ने चलने नहीं दिया। लोकसभा में 22 प्रतिशत और ऊपरी सदन राज्यसभा में 28 प्रतिशत कामकाज ही हो पाया।

वैसे देखा जाये तो यह संसद का नियमित सत्र जरूर था, लेकिन इसके लिए तैयारियां विशेष रूप से की गई थीं। कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कराते हुए सत्र का आयोजन किया गया था। समन्वय की बात करें तो, सत्र से पहले भारत-चीन तथा अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर विपक्ष के बड़े नेताओं के साथ बैठकें कर केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने उन्हें यथास्थिति की जानकारी दी थी। लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वदलीय बैठकों में भी सभी दलों को यह आश्वासन मिला था कि उनकी बात सुनी जाएगी, लेकिन विपक्ष तो जैसे पहले से ही ठानकर बैठा था कि किसी कीमत पर संसद को काम नहीं करने दिया जाएगा। हालांकि इसी सत्र के दौरान दोनों सदनों में सरकार और विपक्ष के बीच दुर्लभ किस्म की एकजुता भी दिखी। ओबीसी सूची बनाने के राज्यों के अधिकार से जुड़े संविधान संशोधन विधेयक पर दोनों सदनों में पार्टियों का भेद समाप्त हो गया था, लेकिन राज्यसभा में सत्र के आखिरी दिन इसके ठीक बाद जब सरकार इंश्योरेंस बिल लेकर आई तो विपक्ष बौखला उठा। उसका कहना था कि यह बिल लाने की बात तो तय नहीं थी।

ए वतन तेरे लिए...

विपक्ष के तेवर को सरकार भांप चुकी थी, लेकिन पूरी तरह नहीं। फिर भी राज्यसभा में कलुषित बुधवार यानी 11 अगस्त को सुरक्षाकर्मियों की अभूतपूर्व तैनाती की गई थी। इसके बावजूद सदन में विपक्षी सदस्यों ने आसन के समक्ष आकर नारेबाजी की और कागज फाड़कर उछाले। कुछ सदस्य आसन की ओर बढ़ने का प्रयास करते हुए सुरक्षाकर्मियों से उलझे भी। केंद्रीय मंत्रियों ने विपक्षी नेताओं पर मार्शलों के साथ धक्का-मुक्की करने का आरोप लगाया। सरकार की तरफ से आठ केंद्रीय मंत्री विपक्ष के आरोप का जवाब देने के लिए सामने आए। इनमें पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव, मुख्तार अब्बास नकवी, अनुराग ठाकुर, प्रह्लाद जोशी, अर्जुन मेघवाल और वी. मुरलीधरन शामिल थे। इन्होंने संयुक्त प्रेस वार्ता में जवाब दिया। कहा कि मानसून सत्र के दौरान संसद में जो हुआ, उसके लिए विपक्ष को देश से माफी मांगनी चाहिए, क्योंकि मानसून सत्र में विपक्ष का एकमात्र एजेंडा सड़क से लेकर संसद तक अराजकता पैदा करना था।  

झांकी हिंदुस्तान की… 

जवाब में विपक्ष के 11 मुख्य राजनीतिक दलों ने सरकार पर संसद में चर्चा कराने की मांग नहीं मानने का आरोप लगाया और दावा किया कि राज्यसभा में कुछ महिला सदस्यों समेत कई सांसदों से धक्का-मुक्की ऐसे लोगों ने की, जो संसद की सुरक्षा का हिस्सा नहीं थे। विपक्षी दलों के नेताओं ने एक संयुक्त बयान में सरकार के ‘अधिनायकवादी रुख’ और ‘अलोकतांत्रिक कदमों’ की निंदा की और कहा कि राज्यसभा जो कुछ हुआ वह हैरान करने वाला तथा सदन की गरिमा और सदस्यों का अपमान है। उन्होंने सरकार पर चर्चा कराने की मांग नहीं मानने का आरोप लगाया और कहा कि वह पेगासस मामले पर चर्चा करने से भाग रही है। संयुक्त बयान पर राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिाकर्जुन खड़गे, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार, द्रमुक के टीआर बालू समेत 11 दलों के नेताओं के हस्ताक्षर हैं।

पासे सभी पलट गए…

सरकार कह रही है कि विपक्षी सदस्यों ने मार्शलों के साथ मारपीट की, वहीं विपक्ष का आरोप है कि बाहरी लोगों को मार्शल की ड्रेस पहनाकर सदन में भेजा गया और उनसे विपक्षी सांसदों को पिटवाया गया। इस तरह के आरोप सदन में सत्ता पक्ष और विपक्ष ने कभी एक-दूसरे पर नहीं लगाए थे। सचाई स्पष्ट करने के लिए राज्यसभा सचिवालय की ओर से आखिरी घंटे की कार्यवाही का मिनट-दर मिनट ब्योरा विडियो के रूप में पेश किया गया, लेकिन उससे भी बात नहीं बनी। सवाल यह कि आखिर ऐसी नौबत आखिर क्यों और कैसे आ गई कि सदन में मार्शल बुलाने पड़े? निश्चित रूप से विपक्ष को देखना चाहिए कि उसका विरोध कब और कैसे हदों को पार करने लगा। मतलब यह भी नहीं कि इस मामले में सत्ता पक्ष पूरी तरह पाक-साफ है। लोकतंत्र जिद से नहीं चलता। विपक्ष को मना लेने की क्षमता का प्रदर्शन करने में सरकार निश्चित रूप से चूकी है।  

याद करो कुर्बानी…

भारत स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की उमंग में है। सब कुछ तो है भारत के पास। अपने संविधान की सत्ता, अनेक संवैधानिक संस्थाएं, प्रतिष्ठित न्यायपालिका, जिम्मेदार कार्यपालिका और उसे जवाबदेह बनाए रखने वाली विधायिका। विधायिका में केंद्रीय स्तर पर संसद व राज्यों में विधानमंडल हैं। संसद के पास कानून बनाने व संविधान में संशोधन करने की भी शक्ति है, लेकिन हाल के कुछ वर्षों से संसद ने निराश किया है। अध्यक्ष/सभापति का आसन आदरणीय होता है। संसदीय नियमों के अनुसार अध्यक्ष/सभापति के ‘विनिश्चय’ पर आपत्ति नहीं की जा सकती, लेकिन ताजे विवाद में विपक्ष ने इस मर्यादा का उल्लंघन किया। पीठ पर भी आरोप लगाए गए। संसदीय इतिहास में संभवत: पहली बार मार्शल के साथ दुर्व्यवहार हुआ। प्रक्रिया नियमावली तार-तार हो गई। 

जरा आंख में भर लो पानी…

राज्य सभा के अध्यक्ष वेंकैया नायडू का कहना था कि मॉनसून सत्र जिस तरह बाधित होता रहा और इस दौरान विपक्ष का जो आचरण रहा, उसको लेकर वो इतने दु:खी हैं कि रात भर सो भी नहीं पाए। नायडू भावुक भी हुए। लोक सभा अध्यक्ष ओम बिरला का कहना था कि वो इस बात से आहत हैं कि जनसरोकार के मुद्दों को लेकर सदन में चर्चा नहीं हो पाई और सदन ठीक से नहीं चल सका।  राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार का कहना था कि 55 सालों से वो संसद के सदस्य हैं, लेकिन उन्होंने संसद में इस तरह के दृश्य कभी नहीं देखे, तो कांग्रेस पार्टी के मुख्य सचेतक जयराम रमेश का कहना था ये सब कुछ सरकार ने ‘जनरल इंश्योरेंस बिल' को ज़बरदस्ती पारित करवाने के लिए किया था। विपक्ष इस बिल को संसद की सेलेक्ट कमेटी के पास भिजवाने की मांग कर रहा था।

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के… 

संविधान शिल्पी बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा में संसदीय प्रणाली को उचित बताते हुए कहा था कि ‘भारत में पहले भी लोकतंत्र था, लेकिन भारत से यह लोकतांत्रिक व्यवस्था मिट गई। संसद जैसी संस्थाओं को ही तहस-नहस किया जा रहा है। देश आहत और असहाय है। सदन की शक्ति में राष्ट्र की शक्ति अंतर्निहित है। सभा महाभारत काल में भी थी। उसमें एक खंड का नाम ही ‘सभा पर्व’ है। सभा की शक्ति घटी। विमर्श घटा। तब महाभारत हो गया। नि:संदेह महाभारत ही तो था।

नहीं भूलता ‘वह दिन’

भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे तेलंगाना के मुद्दे पर राज्य पुर्नगठन विधेयक पेश करने के लिए उठे, लोकसभा में हंगामा शुरू हो गया। सांसद शिवगोपाल राजगोपाल ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया। वह स्पीकर के माइक का तार नोचने लगे। इतने से भी उन्हें सकून नहीं मिला तो उन्होंने पेपर स्प्रे (नाक और आंखों में जलन मचाने वाला काली मिर्च का स्प्रे) छिड़कना शुरू कर दिया। संसद के बाहर अंगरक्षकों के साथ चलने वाले माननीय सांसद अपने साथी मान्यवर की हरकत से बच नहीं पाए। खांसी और छींकों के साथ कुछ सांसद आंखें मसलने लगे। कुछ सांसदों को तो एंबुलेंस में अस्पताल भेजा गया। कइयों को संसद में ही प्राथमिक उपचार दिया गया। हंगामे के बाद संसद को कुछ देर के लिए स्थगित कर दिया गया। इसके बाद जब फिर कार्रवाई शुरू हुई तो टीडीपी के वेणुगोपाल ने चाकू लहराते हुए हंगामा शुरू कर दिया। 

‘थप्पड़’ मार राजनीति का भूचाल...-थाने पहुंचे राणे

राख में खोज रहे आग, पिक्चर अभी बाकी है...

महाराष्ट्र में अचानक राजनीतिक माहौल गर्मा गया है। केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की गिरफ्तारी के कारण दलीय राजनीतिक विद्वेष से उपजे तनाव ने एक साथ कई लकीरें खींच दी हैं। दोनों ओर ही समर्थकों का रेला है। कानूनी दांव-पेंच के पैरोकारों में भी सरगर्मी बढ़ गई है। इस प्रकरण का हर अध्याय अपने आप में दिलचस्प है, पर जहां से भी शुरू करें अंत शह-मात के खेल पर ही होगा। पूरे मामले को समझने के लिए पार्श्व में ही जाना उचित होगा, लेकिन उसके पहले यह जान लेना जरूरी होगा कि अभी तक सबसे ज्यादा ताजा क्या है? तो जाने लें कि फिलहाल, केंद्रीय कुटीर, लघु और मध्यम उद्योग मंत्री नारायण राणे को नासिक पुलिस ने आठ घंटे हिरासत में रखा और फिर कुछ शर्तों के साथ उन्हें रिहा कर दिया। राणे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए अपशब्द कहे थे। जमानत मिलते ही सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म ट्वीटर पर नारायण राणे ने पहला पोस्ट किया, जिसमें उन्होंने लिखा- सत्यमेव जयते। वैसे राणे के वकील संग्राम देसाई ने जानकारी देते हुए कहा कि उन्हें जमानत देते हुए अदालत ने कुछ शर्तें लगाई हैं। राणे को 31 अगस्त और 13 सितंबर को पुलिस स्टेशन में हाजिर होना होगा और भविष्य में इस तरह के कृत्यों से दूर रहना होगा। अब खबर है कि अब नासिक पुलिस ने राणे को उनके खिलाफ प्राथमिकी के सिलसिले में नोटिस भेजकर दो सितंबर को थाने में पेश होने को कहा है। लिहाजा, सुरक्षा के मद्देजनर मुंबई में केंद्रीय मंत्री नारायण राणे के आवास के बाहर पुलिसकर्मी  तैनात किए गए हैं।  

हद के ऊपर कद

यह तो बुधवार यानी 25 अगस्त को दोपहर 12 बजे तक की बात, लेकिन अब बात वर्षों पीछे की।  नारायण राणे ने 1968 में 16 साल की उम्र में शिवसेना का दामन थामा था। शिवसेना में शामिल होने के बाद नारायण राणे की लोकप्रियता बढ़ती गई। शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे भी नारायण राणे से खासे प्रभावित रहे। इसके चलते उन्होंने राणे को चेंबूर में शिवसेना का शाखा प्रमुख बना दिया। उसके बाद नारायण राणे का कद पार्टी में बढ़ने लगा। 1985 से 1990 तक राणे शिवसेना के कॉर्पोरेटर रहे। 1990 में पहली दफा नारायण राणे शिवसेना से विधायक चुने गए। उनको विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी बना दिया गया। बाद में बालासाहब ठाकरे ने खुद नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाया था। मुख्यमंत्री रहते हुए भी राणे ने कम समय में ही प्रशासन पर अच्छी पकड़ बना ली थी। महाराष्ट्र में उनका दबदबा बढ़ा, लेकिन उद्धव ठाकरे के उदय के साथ शिवसेना का चेहरा बदलने लगा। ऐसा लगने लगा कि पार्टी दोनों गुटों में बंट गई है। दूसरे ग्रुप में नारायण राणे थे। 1999 के विधानसभा चुनाव के लिए घोषित शिवसेना उम्मीदवारों की सूची में 15 नारायण राणे समर्थकों को बाहर कर दिया। यहीं पर नारायण राणे और उद्धव ठाकरे के बीच पहली लड़ाई हुई। राणे ने 2005 में सनसनीखेज आरोप लगाकर महाराष्ट्र की राजनीति में हलचल मचा दी थी कि शिवसेना ने पदों के लिए बाजार बनाया है। कहा जाता है कि यह आरोप शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के खिलाफ नहीं था, बल्कि उद्धव ठाकरे के खिलाफ राणे के गुस्से का विस्फोट था। उसके बाद बालासाहब की बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य संबंधी शिकायतों के चलते उद्धव ठाकरे को पार्टी में सबने स्वीकार कर लिया और राणे का पार्टी से मोहभंग होना शुरू हो गया। जब उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया तो नारायण राणे के सुर बगावती हो गए। राणे ने उद्धव की योग्यता और नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाए। इस पर शिवसेना ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया।

पाटील ने कहा-तमाचा

इसी क्रम में राजनीतिक गलियारों को भी झांकना जरूरी है। राणे को जमानत मिलने पर महाराष्ट्र बीजेपी के अध्यक्ष चंद्रकांत पाटील ने कहा, 'केंद्रीय मंत्री को जमानत राज्य सरकार पर दूसरा तमाचा है, जो पुलिस और गुंडों की मदद से चल रही है। विधानसभा में विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि  हम उद्धव ठाकरे के खिलाफ नारायण राणे के बयान का समर्थन नहीं करते हैं। लेकिन, मैं व्यक्तिगत तौर पर और पार्टी उनके साथ खड़ी है। साथ में यह भी तीर चला दिया कि  शर्जिल उस्मानी ने भारत माता के खिलाफ अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया, लेकिन उसके खिलाफ कोई एफआईआर नहीं हुई, लेकिन राज्य सरकार ने नारायण राणे के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। यह कैसा चलन? मुंबई में शिवसेना और बीजेपी कार्यकर्ताओं में हुई हिंसक झड़प पर फडणवीस ने कहा कि यह एक राज्य प्रायोजित हिंसा है। यह पुलिस ‘जीवी’सरकार है। हिन्दी में एक कहावत है- “सईयां भए कोतवाल तो डर काहे का।  

‘यह’ राज्य का विषय

अब बात कानूनी दांव-पेंट की, तो राज्य सरकार का किसी केंद्रीय मंत्री को गिरफ्तार करने का यह वाकई दिलचस्प मामला है। विगत 20 साल में राणे पहले केंद्रीय मंत्री हैं, जिन्हें गिरफ्तार किया गया है। तो अहम सवाल यह कि क्या राज्य सरकार केंद्रीय मंत्री को गिरफ्तार कर कर सकती है। इस बारे में पूर्व भारतीय सांख्यिकी सेवा अधिकारी ओम प्रकाश गुप्ता कहते हैं कि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है। देश में रहने वाले सभी नागरिक नियम और कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत नियमों का उल्लंघन करने पर राज्य एजेंसी उन्हें गिरफ्तार कर सकती है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज, गवर्नर, राष्ट्रपति, चुनाव आयुक्त, यूपीएससी के चेयनमैन जैसे संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक मामला शुरू नहीं किया जा सकता है। मंत्री इस विशेषाधिकार श्रेणी में नहीं आते हैं। इनकी गिरफ्तारी होने पर संवैधानिक प्रावधानों का हनन नहीं होता है।

‘इस’ चिंगारी से लगी आग

रायगढ़ जिले में सोमवार को जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान  नारायण राणे ने कहा था कि यह शर्मनाक है कि मुख्यमंत्री (उद्धव) को यह नहीं पता कि आजादी को कितने साल हो गए हैं। वह यहीं नहीं रुके। आगे उन्होंने कहा, ''भाषण के दौरान वह पीछे मुड़ कर इस बारे में पूछते नजर आए थे। अगर मैं वहां होता तो उन्हें एक जोरदार थप्पड़ मारता।'' वैसे राणे के खिलाफ यह पहला आपराधिक मामला नहीं है। इससे पहले भी राणे के खिलाफ जोगेश्वरी के मातोश्री क्लब में जून 2002 में पूर्व विधायक पद्माकर वल्वी को अवैध रुप कैद में रखने के मामले में आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। राणे पर अपहरण सहित एट्रासिटी कानून के तहत आरोप लगाए गए थे। यह घटना तब की है जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विलास राव देशमुख के नेतृत्व में चल रही सरकार के विरोध अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। राणे ने राकांपा, शेकाप व कांग्रेस के कई विधायकों को मातोश्री क्लब में रखा था, जिससे तत्कालीन विलासराव देशमुख खतरे में पड़ गई थी।

भूलता नहीं वह ‘चप्पल’ 

केंद्रीय मंत्री नारायण राणे को जिस बात के लिए महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया है, ठीक वैसी ही बात राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के लिए खुलेआम एक रैली में कह चुके हैं।  2018 के मई  में महाराष्ट्र के पालघर में चुनाव प्रचार शुरू था। तब बीजेपी और शिवसेना के रिश्ते में खटास आ चुकी थी। उद्धव ठाकरे ने तब कहा था कि शिवाजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते वक्त योगी आदित्यनाथ ने खड़ाऊं पहन रखे थे, उन्होंने ऐसा करके शिवाजी का अपमान किया। आगे उन्होंने कहा, 'यह योगी तो गैस के गुब्बारे की तरह है, जो सिर्फ हवा में उड़ता रहता है। आया और सीधे चप्पल पहनकर महाराज के पास गया। ऐसा लग रहा है उसी चप्पल से उसे मारूं।' हालांकि ठाकरे के उस बयान पर योगी आदित्यनाथ ने भी प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने कहा था, ‘ मेरे अंदर उनसे कहीं ज्यादा शिष्टाचार है और मैं जानता हूं कि कैसे श्रद्धांजलि दी जाती है। मुझे उनसे कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं है।’

लेकिन राणे तो राणे हैं 

मुंबई महानगरपालिका के नगरसेवक से केंद्रीय मंत्री तक का सफर तय करने वाले नारायण राणे की जिंदगी अपने आप में गजब है।  10 अप्रैल 1952 को जन्मे राणे का परिवार रोजी-रोटी के तलाश में कोंकण से मुंबई आया था।   शुरू से ही राणे की छवि दंबग की रही है। राणे के सियासी करियर ने रफ्तार तब पकड़ी जब छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़ दी। साल 1996 में शिवसेना-भाजपा युति सरकार में नारायण राणे राजस्व मंत्री बनाए गए। 1999 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी को हटा कर 1 फरवरी 1999 को राणे को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया। हालांकि राणे इस पद ज्यादा समय तक नहीं रह सके। राणे 258 दिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे, लेकिन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने जैसे ही अपने बेटे उद्धव ठाकरे को पार्टी का कार्याध्यक्ष बनाया,  राणे बगावती हो गए।  

दिखने लगा ट्रेलर  

मुंबई में केंद्रीय मंत्री नारायण राणे के आवास के पास शिवसेना की युवा शाखा और भाजपा के कार्यकर्ता महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ उनकी टिप्पणी के बाद आपस में भिड़ गए। एक अधिकारी ने बताया कि दोनों ओर से पथराव किया गया, जिसके बाद पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज किया। अधिकारी ने कहा कि शिवसेना कार्यकर्ता राणे के आवास के पास सांताक्रूज (पश्चिम) में जुहू तारा रोड पर बैठ गए और दोनों पक्षों के कार्यकर्ताओं ने एक दूसरे के खिलाफ नारेबाजी की। घटना के बाद सड़क को दो तरफ से जाम कर दिया गया, जिससे इलाके में यातायात बाधित हो गया। 

सामना का अपना आईना

सामना ने संपादकीय में कहा है कि राणे को कुछ लोग टर्र-टर्र करनेवाले मेंढक की भी उपमा देते हैं। राणे मेंढक हों या छेद पड़ा गुब्बारा, लेकिन राणे कौन? ये उन्होंने स्वयं ही घोषित किया, ‘मैं नॉर्मल इंसान नहीं, ऐसा उन्होंने घोषित किया। फिर वे अॅदबनॉर्मल हैं क्या ये जांचना होगा। मोदी की कैबिनेट में राणे अति सूक्ष्म विभाग के लघु उद्योग मंत्री हैं। प्रधानमंत्री स्वयं को अत्यंत ‘नॉर्मल’ इंसान मानते हैं। वे स्वयं को फकीर या प्रधान सेवक मानते हैं। ये उनकी विनम्रता है, लेकिन राणे कहते हैं, ‘मैं नॉर्मल नहीं। इसलिए कोई भी अपराध किया तो मैं कानून के ऊपर हूं।’ राणे व संस्कार का संबंध कभी भी नहीं था। इसलिए केंद्रीय मंत्री पद का चोला ओढ़कर भी राणे ये किसी छपरी गैंगस्टर जैसा बर्ताव कर रहे हैं। राणे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को ‘मारपीट’ करने की बेलगाम भाषा कही है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के संदर्भ में ये भाषा इस्तेमाल करना मतलब 105 हुतात्माओं की भावनाओं को लात मारने जैसा ही है।

‘एक वार्ड, एक सदस्य’ जनता के कितने करीब

आगामी महानगरपालिका चुनाव की रूपरेखा तैयार हो चुकी है। इस बार ‘एक वार्ड, एक सदस्य’ प्रक्रिया को अपनाया जा रहा है। इसके राजनीतिक उद्देश्य चाहे जो हों, सामाजिक उद्देश्य तो यही है कि सरकार के नुमाइंदों की घर-घर तक पहुंच हो। मतलब, इस देश का कोई भी व्यक्ति हाशिये पर न रहे। भारत लगभग 250 वर्ष तक अंग्रेजों की दासता में रहा। आरंभ से ही अंग्रेजों की नीति थी कि शासन का काम, अधिकाधिक राज्य कर्मचारियों के हाथों में ही रहे। इसके परिणामस्वरूप फौजदारी और दीवानी अदालतों की स्थापना, नवीन राजस्व नीति, पुलिस व्यवस्था आदि कारणों से गांवों का स्वावलंबी जीवन और स्थानीय स्वायत्तता धीरे-धीरे समाप्त हो गई। पंचायतें स्थानीय शासन के रूप में कार्य करती थी, परंतु यह कार्य सरकारी नियंत्रण में होता था। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने भी अनुभव किया कि उनकी केंद्रीकरण की नीति से शासन की जटिलता दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही है। सन् 1882 ई. में स्थानीय स्वशासन के विकास में एक नए अध्याय का शुभारंभ हुआ। 1882 ई. में लॉर्ड रिपन द्वारा प्रस्तुत ‘स्थानीय स्वशासन प्रस्ताव’ को भारत में आधुनिक स्थानीय स्वशासन का प्रारंभ माना जाता है। जिसे ‘स्थानीय स्वशासन’ संस्थाओं का ‘मैग्नाकार्टा’ भी कहते हैं।  लार्ड रिपन ने भारत में स्थानीय स्वशासन में को एक नई दिशा दी। इसीलिए लॉर्ड रिपन को आधुनिक स्थानीय स्वशासन का जनक कहा जाता है। बीसवीं सदी के शुभारंभ में भारत शासन अधिनियम 1909, 1919 और 1935 में स्वशासन की व्यवस्था को अपनाते हुए प्रांतों को स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में कई अधिकार दिए गए। 1908 ई. में विकेन्द्रीकरण के लिए गठित ‘राजकीय आयोग’ की रिपोर्ट ने स्थानीय स्वायत शासन के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत की। आयोग ने जिला बोर्ड तथा जिला नगरपालिकाओं के कार्यों को विभाजित करने के लिए ग्राम पंचायत और उपजिला बोर्डों के विकास पर बल दिया और फिर धीरे-धीरे शासन का प्रारूप बदलता हुआ जिला बोर्ड तथा जिला नगरपालिकाओं, ग्राम पंचायत और उपजिला बोर्डों के स्वरूप में आ गया। 

समय के साथ राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण इनमें परिवर्तन भी किया जाता रहा। महाराष्ट्र में ठाकरे सरकार ने सत्ता संभालते ही बहुसदस्यीय प्रभाग पद्धति बदलने का निर्णय लिया था। कारण, प्रभाग पद्धति को लेकर शिकायत थी कि नगरसेवकों के काम की जवाबदेही तय नहीं हो पा रही है। एक वार्ड में 4 सदस्य रहने पर यह तय नहीं हो पा रहा था कि विकास कार्य किसने किया। मगर वार्ड पद्धति के चुनाव से तय होगा कि कौन से वार्ड का कौन नगरसेवक हैं और किस वार्ड में किस नगरसेवक ने सबसे अधिक विकास कार्य किया है।  और अंतत: अटकलों को खत्म करते हुए एकल सदस्यीय पद्धति यानी ‘एक वार्ड, एक सदस्य’ की घोषणा कर दी गई। इस पद्धति का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अब सीधे नगरसेवक की जिम्मेदारी तय होगी। विकास कार्यों को बल मिलेगा, क्योंकि कोई नगरसेवक जिम्मेदारी से हाथ नहीं झटक सकेगा। जनता सीधे उससे जवाब मांगेगी। काम के आधार पर वार्ड स्तर के सामान्य कार्यकर्ता निर्दलीय भी चुनाव जीत पाएंगे। अगर, नागपुर के इतिहास को देखें, तो जून 1952 में मनपा का पहला चुनाव वार्ड पद्धति से हुआ था। शेषराव वानखेड़े पहले महापौर चुने गए थे। इसके बाद 2002 में प्रभाग पद्धति से व 2007 में फिर से वार्ड पद्धति से चुनाव हुआ। फिर 2012 में एक प्रभाग दो सदस्य व 2017 में एक प्रभाग 4 सदस्य पद्धति से चुनाव हुआ। देखा जाए, तो इन सभी बदलावों को सत्ता से ही जोड़कर देखा जाता रहा। कहा जाता रहा कि राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए ऐसा करते रहे।   

उपराजधानी में फिलहाल 55 से 60 हजार जनसंख्या का एक प्रभाग है। एक प्रभाग में चार नगरसेवक हैं। नागपुर में 15 साल से भाजपा की सत्ता है। विरोधियों का लगातार आरोप रहा कि जनता की सुविधाओं पर बहुसदस्यीय प्रभाग पद्धति से चुने गए नगरसेवक ज्यादा उत्तरदायी नहीं रहे, क्योंकि जनता के प्रति उनकी जवाबदेही तय नहीं थी। महाविकास आघाड़ी ने एक सदस्यीय वार्ड पद्धति लागू करने का अच्छा निर्णय लिया है। अब एक वार्ड से एक सदस्य के चुने जाने पर संबंधित नगरसेवक की जिम्मेदारी निश्चित होगी।   दूसरी तरफ, सत्ता पर काबिज भाजपा को अपने आप पर विश्वास है। उसका कहना है कि  15 वर्ष में भाजपा के नेतृत्व में मनपा ने विकास के जो कार्य किए हैं, उनसे नागरिक प्रभावित हैं। केंद्रीय मंत्री नितीन गडकरी व पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के प्रयासों से जन-जन तक विकास कार्य की पहुंच आसान बनाने की कोशिश की गई है। किसी को कोई शिकायत नहीं है।         

यह तो समय ही तय करेगा कि यह व्यवस्था भी जनता के कितने करीब साबित होगी। जमीन से जुड़ाव की बात तो ठीक है, लेकिन चाटूकारों की फौज आसानी से अपनी जड़ें नहीं हिलने देंगी। बहुसदस्यीय व्यवस्था के समय यह तर्क दिया गया था कि विशेष लॉबी अपना हित साध लेती है, इसलिए अधिकार को सीमित करना समीचीन होगा। पर इसकी क्या गारंटी कि एकल प्रणाली के तहत चयनित नगरसेवक सच में सरोकारों को तवज्जो देंगे और उनके अतराफ उल्लू सीधा करने वाली ताकतें नहीं रहेंगी।  एकछत्र अधिकार की कोख से उपजने वाले भ्रष्टाचार को सिरे से तो कतई नकारा नहीं जा सकता। बहरहाल, व्यवस्थाएं तो सभी अच्छी होती हैं। अमल हो तो सुशासन, झटक दिया जाए तो कुशासन…इस ‘शासन’का भी इंतजार है।  

नंबर 1 परमबीर

  ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुझको भी ले डूबेंगे’….

    लगता है परमबीर ने यही ठानी थी



खाकी वर्दी पर इतने न मिटने वाले दाग लगे हैं, जिसे हटना नामुमकिन नहीं, तो आसान भी नहीं  

अभिनेता सुशांत सिंह प्रकरण, ड्रग से संबंधित मामले और फिर उसके बाद एंटीलिया ...। स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस की बराबरी करने वाली मुंबई पुलिस इन दिनों फजीहत के दौर से गुजर रही है। खाकी वर्दी पर इतने न मिटने वाले दाग लगे हैं, जिसे हटना नामुमकिन नहीं, तो आसान भी नहीं।  सचिन वझे की गिरफ्तारी के बाद लगा था कि मुंबई पुलिस बहुत कुछ संभल गई है, लेकिन सबसे बड़ा धक्का लगा, जब तब के बॉस मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने लेटर बम फोड़ा। तब किसी को जरा सा भी इल्म नहीं था कि आगे की कहानी इतनी कलंकित होगी। 

100 करोड़ रुपये का कलेक्शन का ‘लेटर बम’ :

परमबीर सिंह ने पत्र में महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख पर आरोप लगाया कि देशमुख ने सचिन वाजे से हर महीने 100 करोड़ रुपये का कलेक्शन करने को कहा था। परमबीर सिंह ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को  लिखे पत्र में मुंबई पुलिस की सोशल सर्विस ब्रांच के एसीपी संजय पाटील के साथ अपने कुछ वॉट्सएप चैट्स और एसएमएस को सबूत के तौर मुख्यमंत्री को भेजा और कहा कि अनिल देशमुख ने सोशल सर्विस ब्रांच को भी कलेक्शन का यह काम सौंपा था। जो बात अब तक ऑफ रिकॉर्ड थी, परमबीर सिंह के आरोपों के बाद ऑन रिकॉर्ड हो गई कि देश भर में पुलिस की कमाई किस तरह होती है और पुलिस की कमाई से सरकार की कमाई किस तरह होती है।

अदालत ने इशारों में सब कुछ कह दिया :

1988 बैच के आईपीएस अफसर परमबीर सिंह 1990 के दशक के 'एनकाउंटर स्पेशलिस्टों' में शुमार रहे हैं। मुंबई के बचे अंडरवर्ल्ड को खत्म करने का बीड़ा उठाने वाले इस दिलेर अफसर की साफगोई उन्हीं पर भारी पड़ने लगी। ऊपर से बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी कर परमबीर सिंह की मुसीबतें और बढ़ा दीं कि कोई भी प्रशासन प्रमुख यह कहकर बेगुनाही का दावा नहीं कर सकता कि केवल कार्यपालिका के आदेशों का पालन कर रहा था। प्रशासन का मुखिया भी उतना ही जिम्मेदार होता है। हो सकता है, मंत्री ने सचिन वझे को बहाल करने को कहा हो, लेकिन क्या प्रमुख और शीर्ष पद पर बैठा व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन किए बिना आदेशों का पालन कर सकता है? अदालत की यह टिप्पणी यूं तो सीधे-सीधे परमबीर के लिए थी, पर पूरा पुलिस महकमा दायरे में आ गया। 

खुल गई नंबर-वन की पोल :

व्यापारी बिमल अग्रवाल ने तभी एक और खुलासा किया कि वझे ने जिस नंबर-वन का नाम लिया था, वह कोई और नहीं बल्कि परमबीर सिंह थे। अब इस नंबर-वन की कहानी समझने की जरूरत है। बाकायदा अपने स्टेटमेंट में बिमल ने कहा कि बार, रेस्टोरेंट और बुकी के बाद परमबीर का अगला निशाना बीएमसी के कांट्रेक्टर थे। बिमल के अनुसार, वझे को यह पता चला था कि मुंबई महानगर पालिका में कई सारे सिविल ठेकेदार के खिलाफ शिकायत हुई है और मैं बीएमसी में कॉन्ट्रैक्ट लेता हूं। लिहाजा,  उसने मुझे 12 फरवरी को सीआईयू के ऑफिस में बुलाया और इस बारे में पूछा और कहा कि स्वस्तिक कंस्ट्रक्शन के प्रीतेश गोदानी और संजय हिरणी के खिलाफ जो अल्लारखा नाम के शख़्स ने शिकायत की है, क्या इस बारे में मुझे जानकारी है। मैंने वझे से कहा कि बीएमसी ठेकेदारों से मेरा क्या संबंध?  तब कंधे पर हाथ रखकर कहा कि बिमल मेरा एक नंबर है न, उसका ध्यान सब तरफ होता है।  मैंने वझे से पूछा कि यह नंबर-वन कौन है, तो उसने कहा कि “अरे सीपी को बता दिया है के ये बीएमसी ठेकेदार वाला इंफ़ॉरमेशन बिमल ने दिया है और वो अपना आदमी है और बीएमसी ठेकेदार का काम हुआ तो वो मुझे एक नंबर मतलब सीपी से मिलवाएगा। वझे ने कहा कि परमबीर सिंह के कहने पर ही वह ऐसा कर रहा है। इसके बाद यह भी साफ हो गया कि सचिन वझे मुंबई पुलिस में सिर्फ परमबीर सिंह को रिपोर्ट करते थे। नंबर-वन के चेहरे से आखिरकार नकाब उठ चुका था। महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस की तरफ से परमबीर सिंह के खिलाफ कई जांच बैठा दी गईं है।

आप तो ऐसे न थे जनाब : 

सवाल यह कि परमबीर सिंह जैसे दिलेर अफसर को आखिर क्यों ऐसा बनना पड़ा। कहा जाता है कि परमबीर एक ऐसे निडर अफसर रहे, जो  सहयोगियों के लिए हमेशा मददगार साबित हुए। राजनीतिक दबाव खुद झेले, पर अपनी टीम पर आंच नहीं आने दी।  जब सिंह मुंबई के डिप्टी पुलिस कमिश्नर रहे, तब 1990 के दशक के आखिर तक मुंबई में दाऊद इब्राहिम, अरुण गवली और छोटा राजन जैसे डॉन के गैंग्स काफी सक्रिय रहे थे। गवली और राजन के गैंग के पीछे सिंह तब तक पड़े रहे, जब तक ये डॉन सलाखों के पीछे नहीं पहुंच गए। दाऊद के भाई इकबाल कासकर की गिरफ्तारी भी सिंह की बड़ी उपलब्धि रही थी।   

हालांकि दामन पूरी तरह बेदाग नहीं रहा : 

चंडीगढ़ में 1962 को जन्मे सिंह ने पंजाब यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र में एमए टॉप किया था। इसके बाद वो पुलिस सेवा में आए। महाराष्ट्र आईपीएस क्रिकेट टीम के कप्तान भी रहे थे। 32 साल के पुलिस करियर में सिंह ने कई अहम भूमिकाएं निभाईं। इनमें एंटी करप्शन ब्यूरो और नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई भी शामिल रही। लेकिन इन तमाम उपलब्धियों के बीच सिंह का दामन पूरी तरह बेदाग नहीं रहा। वर्ष 2018 में एलगार परिषद की जांच के मामले में जब नामी वकीलों और एक्टिविस्टों की गिरफ्तारी हो चुकी थी और केस कोर्ट में था, तब सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कई सबूत मीडिया के सामने रख दिए थे।  इस पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने सख्त ऐतराज़ जताते हुए उन्हें खासी फटकार लगाई थी।

न दौलत की कमी, न शोहरत की : 

परमबीर सिंह के पास दौलत की कमी नहीं। शोहरत भी बड़ी थी। उनकी हरियाणा में कृषि की जमीन है। अभी इसकी वैल्यू 22 लाख रुपए की है। यह जमीन पूरी तरह से इनके नाम पर ही है। इससे सालाना 51 हजार की आय होती है। 2003 में इन्होंने मुंबई के जुहू इलाके में 48.75 लाख रुपए में फ्लैट खरीदा था। इस समय इसकी वैल्यू 4.64 करोड़ रुपए है। यह भी इन्हीं के नाम से है। इससे सालाना आय 24.95 लाख रुपए आती है। जुहू में ही एक और प्रापर्टी है। हालांकि इसकी कीमत इन्होंने नहीं बताई है। परमबीर सिंह की मासिक सैलरी 2.24 लाख रुपए है। इसी तरह नई मुंबई में 3.60 करोड़ रुपए का फ्लैट 2005 में खरीदा है। हालांकि इसकी इस समय की वैल्यू उन्होंने 2.24 करोड़ रुपए बताई है। यह उनके और उनकी पत्नी सविता सिंह के नाम है। इससे उनकी सालाना आय 9.60 लाख रुपए होती है। चंडीगढ़ में इनका घर है, जिसकी कीमत 4 करोड़ रुपए है। यह उनके और दो भाइयों के नाम पर है। यह उनके पिता होशियार सिंह के नाम पर था। हरियाणा के ही फरीदाबाद में इनकी जमीन है। इसकी अभी की कीमत 14 लाख रुपए है। यह परमबीर सिंह के ही नाम पर है। इसे उन्होंने 2019 में खरीदा है।

फिर भी सोने की भूख : 

इतना सब होते हुए भी  आरोप है कि परमबीर सिंह अमीरों को छोड़ देने के लिए पुलिस अधिकारियों पर दबाव डालते थे और दिवाली के गिफ्ट के रूप में सोने की बिस्किट की मांग किया करते थे।  इससे पहले भी पुलिस निरीक्षक अनूप डांगे ने परमबीर सिंह का संबंध अंडरवर्ल्ड से होने का आरोप लगा कर खलबली मचा दी थी। परमबीर सिंह 17 मार्च 2015 से 31 जुलाई 2018 तक ठाणे के पुलिस आयुक्त के तौर पर कार्यरत थे। पुलिस इंस्पेक्टर भीमराज उर्फ भीमराव घाडगे  ने यह आरोप लगाकर सनसनी पैदा कर दी थी कि  जब वे कल्याण के बाजार पेठ पुलिस थाने में पुलिस इंस्पेक्टर के तौर पर कार्यरत थे, तब परमबीर सिंह ने अनेक पैसे वाले अपराधियों को छोड़ देने का दबाव डाला था और जब इन्होंने परमबीर सिंह के इस निर्देश को मानने से इनकार किया तो परमबीर सिंह ने इन्हें कई तरह के झूठे केस में फंसाने का काम किया।  डीजीपी को लिखे अपने पत्र में भीमराज ने इन तमाम शिकायतों का जिक्र किया था। यह भी शिकायत की है कि परमबीर सिंह दिवाली के गिफ्ट के तौर पर प्रत्येक जोन के डीसीपी से 40 तोले सोने की बिस्किट, सहायक पुलिस आयुक्तों में से प्रत्येक से 20 से 30 तोले सोने की बिस्किट और वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक से 30 से 40 तोले सोने की बिस्किट ली है। आरोप यह भी है कि सिंह ने अपनी पत्नी सौ. सविता के नाम से खेतान एंड कंपनी नाम का ऑफिस मुंबई के लोअर परेल की इंडिया बुल नाम की पॉश बिल्डिंग की छठी मंजिल पर शुरू किया था, जो इंडिया बुल की डायरेक्टर में से एक हैं और इंडिया बुल कंपनी में उन्होंने 5000 करोड़ रुपए का निवेश भी किया है।

विवादों ने नहीं छोड़ा पीछा :  

मुंबई पुलिस का जिक्र होता है तो परमबीर सिंह का नाम जरूर आता है। परमबीर सिंह विवादों में खूब रहे। चाहे वो अजित पवार को एरिगेशन स्कैम से बचाए जाने के आरोप हों, या फिर साध्वी प्रज्ञा को कस्टडी में टॉर्चर करने से लेकर 26/11 के दौरान लापरवाही बरतने तक के आरोप। 26 नवंबर 2008 की वो स्याह तारीख को भला कौन भुला सकता है। जब लश्कर ए तैयबा के 10 आतंकियों ने मुंबई को बम और गोलियों की आवाजों से दहला दिया था। इस आतंकी हमले में 160 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई और 300 से ज्यादा लोग घायल हुए।  26/11 आतंकी हमलों के दौरान कथित रूप से कर्तव्य की लापरवाही के आरोप में परमबीर सिंह समेत तीन अन्य अतिरिक्त पुलिस कमिश्नरों के खिलाफ याचिका दायर की गई थी।  जुलाई 2018 में, रिबेरो ने ‘मुंबई पुलिस आयुक्त के पद के लिए लड़ रहे दो पुलिस’ पर एक लेख लिखा था। परमबीर सिंह का नाम लिए बिना, रिबेरो ने ‘अच्छे पुलिस-बुरे पुलिस’ वाले सादृश्य को तैयार किया था, जहां परमबीर सिंह को ‘बुरा पुलिस’ कहा गया। उसी को अपराध मानते हुए, सिंह ने रिबेरो से माफी मांगने के लिए कहा था। इतना ही नहीं, उन्होंने उन पर मुकदमा चलाने की भी धमकी दी थी।  साफ है कि परमबीर सिंह समय के साथ बदलते चले गए और वहां तक जा गिरे, जहां से उठना आसान नहीं। ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुझको भी ले डूबेंगे’….लगता है परमबीर ने यही ठानी थी।  

जनगणना…सभी कर रहे अपने हिस्से की गणना

जन, गण और मन को संतुष्ट कर पाएगी सरकार

 

जनगणना समाज के विकास के लिए और समाज की स्थिति जानने के लिए व्यवस्थाओं हेतु एक महत्वपूर्ण रास्ता रही है। भारत के संदर्भ में यह अच्छी बात है कि यह देश विश्व में उन लोकतांत्रिक देशों में शामिल है, जिनमें जनगणना जैसे महापर्व की प्रथा है। भारत में जनगणना की परम्परा ब्रिटिश राज मे सन 1872 से लेकर आज तक नियमित रूप से समयानुसार होती चली आ रही है।  सन 1881 में नियमित रूप से लॉर्ड रिपन के कार्यकाल में जनगणना की शुरुआत हुई। यह पहली जनगणना थी जो व्यवस्थित एवं सुचारू रूप से शुरू हुई। इसी जनगणना के साथ 1881 में ही जनगणना के लिए एक अलग विभाग बनाया गया, जिसका काम जनगणना का व्यवस्थित रूप से शुरू किया जाना, उसका आधार तैयार करना एवं प्राप्त आंकड़ों पर विश्लेषण करना था। इसके बाद जनगणना की प्रक्रिया में काफी बड़े सुधार किए गए, जिनकी मदद से जनगणना कर्मी के लिए जनगणना करना आसान होता चला गया।  हालांकि समय के अनुसार इस प्रक्रिया में लगातार काफी बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। भारत में होने वाली 2021 की यह जनगणना आजादी के बाद की आठवीं जनगणना होगी और देश की सोलहवीं जनगणना होगी।

मुद्दा जनगणना नहीं, जाति आधारित जनगणना है : 

सवाल यह है कि जनगणना जब इतना ही अपरिहार्य और जरूरी है, तो इस पर हाय-तौबा क्यों? वकालतों का लंबा सिलसिला क्यों? जवाब सिर्फ एक है और वह है राजनीतिक फायदा। मुद्दा जनगणना नहीं, जाति आधारित जनगणना है। जाति आधारित जनगणना की मांग हर जनगणना से पहले होती रही है। ऐसी मांग आमतौर पर ओबीसी और अन्य वंचित वर्गों के नेता करते हैं, जबकि उच्च जातियों के नेता इस विचार का विरोध करते रहे हैं। ये पहला मौका नहीं है जब देश में जाति आधारित जनगणना की मांग उठने लगी है। पिछली जनगणना 2011 के दौरान भी मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं ने ऐसी ही जनगणना की  मांग की थी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठा चुके हैं। जानकार मानते हैं कि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार संघ के रुख के हिसाब से आगे बढ़ना चाहती है।   

हाशिये पर वही, जिसके लिए जनगणना : 

असल बात तो यह है कि जनगणना जिसके फायदे के लिए कराई जाती है, वही हाशिये पर खड़ा नजर आता है। इतिहास इसका गवाह है। सन 1872 से लेकर 1951 से पहले तक भारत में जाति आधारित जनगणना होती थी और होने वाली सभी जनगणनाओं में नागरिकों से जाति से संबंधित आंकड़े पूछे जाते थे, परंतु 1941 की जनगणना के आंकड़े द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण एकत्रित नहीं किए जा सके। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र के पंथनिरपेक्षता के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने जनगणना में जाति से संबंधित आंकड़े एकत्र करना गलत बताया, क्योंकि स्वतंत्र भारत की राजनीति के लिए जातिवाद को समाप्त करना एक बड़ा सपना था।  

इस बार सब डिजिटल : 

2011 की जनगणना में पहली बार नागरिकों से जाति आधारित आंकड़े एकत्रित किए गए। यह स्वतंत्र भारत की सातवीं जनगणना थी। अब 24 दिसंबर 2019 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जनगणना 2021 एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को अपडेट करने की मंजूरी दी है। भारत की यह सोलहवीं (आजादी के बाद की आठवीं) जनगणना कई मायनों में विशेष रहेगी। यह पूरी तरह से डिजिटल जनगणना होगी, जो कि मानवी त्रुटि रहित अर्थात लिपि की त्रुटि नहीं होगी। जनगणना के डिजिटल होने के कारण समय और श्रम की बचत होगी। किसी भी क्षेत्र में होने वाली डिजिटल जनगणना के आंकड़े बटन प्रेस करते ही सीधे दिल्ली पहुंच जाएंगे।  सभी आंकड़े डिजिटल रूप में एकत्रित किए जाएंगे। डिजिटल रूप से जनगणना करने के लिए सरकार के द्वारा एक विशेष मोबाइल ऐप तैयार किया जाएगा। डिजिटल जनगणना के चलते भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।

वास्तव में हासिल हो पाएगा ‘अभीष्ट’

किसी भी देश के लिए जनगणना एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है, जो देश के भूतकाल एवं वर्तमान के आधार पर एक सुनहरे भविष्य के लिए योजनाएं बनाने हेतु एक मजबूत आधार का कार्य करती है।  पूर्व में बनाई गई किसी विशेष वर्ग हेतु, विशेष योजनाएं कितनी प्रभावी रही, उन से कितना लाभ हुआ तथा वह कितनी सफल रही इत्यादि की जानकारी जनगणना के माध्यम से सटीकता से प्राप्त होती है, लेकिन पहले से ही कई सवाल अनुत्तरित हैं। पहला यह कि इस जनगणना से हमें क्या हासिल होने वाला है? क्या उन जातियों की पहचान और संख्या सामने आ सकेगी जिनकी अभी तक अलग से कोई सूची उपलब्ध नहीं है? क्या करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद इस जनगणना से प्राप्त आंकड़े जातिगत विविधता प्रधान भारत के गरीबों और पिछड़ों के लिए नीति बनाने में सहायक होंगे? और अन्ततः क्या जात-पात की भेदभाव परक व्यवस्था कमजोर हो सकेगी? इन्हीं सवालों के चलते ‘‘समाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना, 2021’’ की प्रक्रिया, प्रयुक्त माध्यम और परिणाम को लेकर जिज्ञासाएं भी हैं और उहापोह की स्थिति भी।

डर यह कि छलावा न साबित हो : 

यह जनगणना भी छलावा न साबित हो, इसका डर बना हुआ है, क्योंकि इस जनगणना से पिछड़ी और सामन्य जातियों के लोगों के बीच विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। ऐसे में उन जातियों का क्या होगा, जिनका संबंध न तो सामान्य वर्ग से है और न ही अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से। सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना से खाद्य सुरक्षा का सही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर एक-एक करके अन्य नीतियों के क्रियान्वयन में भी इस जनगणना की मदद ली जा सकेगी, ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति और परिवार तक पहुंच सके। तब सरकार जातिगत जनगणना से क्यों डर रही है? ये सवाल विपक्ष लगातार सत्ता पक्ष से पूछ रहा है। उनका साथ एनडीए के कुछ सहयोगी दल भी दे रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है, "जनगणना में आदिवासी और दलितों के बारे में पूछा जाता है, बस ग़ैर दलित और ग़ैर आदिवासियों की जाति नहीं पूछी जाती है। इस वजह से आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के हिसाब से जिन लोगों के लिए सरकार नीतियां बनाती है, उससे पहले सरकार को ये पता होना चाहिए कि आख़िर उनकी जनसंख्या कितनी है। जातिगत जनगणना के अभाव में ये पता लगाना मुश्किल है कि सरकार की नीति और योजनाओं का लाभ सही जाति तक ठीक से पहुंच भी रहा है या नहीं।"

आरक्षण के सिरफुटौव्वल का डर : 

 मान लीजिए जातिगत जनगणना होती है तो अब तक की जानकारी में जो आंकड़े हैं, वो ऊपर नीचे होने की पूरी संभावना है। मान लीजिए ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट कर 40 फ़ीसदी रह जाती है, तो हो सकता है कि राजनीतिक पार्टियों के ओबीसी नेता एकजुट हो कर कहें कि ये आंकड़े सही नहीं है। और मान लीजिए इनका प्रतिशत बढ़ कर 60 हो गया, तो कहा जा सकता है कि और आरक्षण चाहिए। सरकारें शायद इस बात से डरती हैं। चूंकि आदिवासियों और दलितों के आकलन में फ़ेरबदल होगा नहीं, क्योंकि वो हर जनगणना में गिने जाते ही हैं, ऐसे में जातिगत जनगणना में प्रतिशत में बढ़ने घटने की गुंज़ाइश अपर कास्ट और ओबीसी के लिए ही है। कहा जाता है, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'। अगर संख्या एक बार पता चल जाए और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगे, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा? इस तरह के कई सवाल भी खड़े होंगे. ओबीसी और दलितों में ही बहुत सारी छोटी जातियां हैं, उनका कौन ध्यान रखेगा? बड़ी संख्या वाली जातियां आकर मांगेंगी कि 27 प्रतिशत के अंदर हमें 5 फ़ीसदी आरक्षण दे दो, तो बाक़ियों का क्या होगा?  

डर का कारण यह भी  : 

एक दूसरा डर भी है। ओबीसी की लिस्ट केंद्र की अलग है और कुछ राज्यों में अलग लिस्ट है। कुछ जातियां ऐसी हैं जिनकी राज्यों में गिनती ओबीसी में होती है, लेकिन केंद्र की लिस्ट में उनकी गिनती ओबीसी में नहीं होती। जैसे बिहार में बनिया ओबीसी हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में वो अपर कास्ट में आते हैं। वैसे ही जाटों का हाल है. हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर भी ओबीसी लिस्ट अलग है। ऐसे में बवाल बढ़ना तय है और डर का एक कारण यह भी है।  

राज्यों की अपनी चिंता : 

जाति आधारित जनगणना के लिए बिहार विधान मंडल और फिर बाद में बिहार विधानसभा में  सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है। महाराष्ट्र विधानसभा में भी केंद्र सरकार से जाति आधारित जनगणना कराए जाने की मांग के प्रस्ताव को हरी झंडी मिल चुकी है। महाराष्ट्र, ओडिशा, बिहार और यूपी में कई राजनीतिक दलों की मांग है कि जाति आधारित जनगणना कराई जाए।     

कहीं पे निगाहें, कहीं पर निशाना : 

बिहार के मख्यमंत्री नीतीश कुमार ओबीसी को साधन के लिए ही जाति आधारित जनगणना की वकालत कर रहे हैं। नीतीश कुमार का कहना है कि जातिगत जनगणना सभी तबकों के विकास के लिए आवश्यक है। किस इलाके में किस जाति की कितनी संख्या है, जब यह पता चलेगा तभी उनके कल्याण के लिए ठीक ढंग से काम हो सकेगा। जाहिर है, जब किसी इलाके में एक खास जाति के होने का पता चलेगा तभी सियासी पार्टियां उसी हिसाब से मुद्दों और उम्मीदवारों के चयन से लेकर अपनी तमाम रणनीतियां बना सकेंगी। दूसरी तरफ सही संख्या पता चलने से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देने का रास्ता साफ हो सकेगा। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद अभी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है।

इस ‘जाति’ ने लोकतंत्र के हर नब्ज को जकड़ रखा है : 

खींचतान जारी है। दलों की अपनी चिंता है और सरकार की अपनी। जनता ही तमाशबीन बन गई है। इस बार की जनगणना वास्तव में जन, गण और मन को संतुष्ट कर पाती है या नहीं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर इतना तय है कि इसी ‘जाति’ ने लोकतंत्र के हर नब्ज को जकड़ कर रखा है। देश भर से आने वाली दलित उत्पीड़न की खबरें बताती हैं कि दावा चाहे जो भी हो, लेकिन समाज में ऐसी कोई समरसता हो नहीं पाई है।

बुधवार, 18 अगस्त 2021

सावधान, भारत….अमेरिका निकला ‘भगोड़ा’, चीन और पाकिस्तान की छाती चौड़ी, खामोश खड़ा है रूस

      

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान के काबिज हो जाने के बाद अब क्षेत्रीय स्तर पर उभरता नया शक्ति संतुलन न सिर्फ भारत बल्कि अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के लिए चिंता का नया कारण बन सकता है। एशिया महादेश की बात करें तो अब एक ‘नया नक्शा’ नजर आने लगा है। ऐसा नक्शा, जो दुनिया को सावधान करने के लिए काफी है। इस महादेश में चीन और भारत दो बड़े देश हैं, जो नदी के दो पाटों की तरह कभी मिलते नहीं। पाकिस्तान की गिनती वैसे तो इन दोनों देशों के बीच कहीं नहीं होती, लेकिन आतंक की बात जब-जब आती है, पाकिस्तान सबसे आगे खड़ा दिखता है। अब तो अफगानिस्तान आधिकारिक रूप से आतंक का गढ़ बन गया है, इसलिए  चीन का दोगला चरित्र अभी से ही सामने आने लगा है। उसने साफ-साफ कहा है कि वह अपना भविष्य खुद गढ़ने के अफगानी लोगों के अधिकार का सम्मान करता है और उनके साथ दोस्ती और सहयोग के संबंधों का विकास जारी रखना चाहता है। दूसरी तरफ, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद यहां तक कह दिया कि अफगानिस्तान के लोगों ने गुलामी की जंजीरें तोड़ डाली हैं। तालिबान से पाकिस्तान के करीबी संबंधों पर तो खैर पहले भी कोई शक नहीं था। लेकिन इस बीच रूस ने भी तालिबान के प्रतिनिधियों से बातचीत शुरू करने की बात सार्वजनिक रूप से मानी, जो संकेत है कि दोनों पक्षों में सहयोग की जमीन तैयार हो रही है।

ध्यान रहे, पिछली बार तालिबान के शासन को न तो रूस ने मान्यता दी थी और न चीन ने। तब उसे महज तीन देशों- पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई- से मान्यता मिली थी। इस बार चीन, पाकिस्तान, रूस, ईरान और अफगानिस्तान का यह संभावित गठजोड़ अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत जैसे देशों के लिए एक बड़ी कूटनीतिक चुनौती साबित हो सकता है, जो चीन को अपने साझा विरोधी के रूप में देखते हैं।

असल में, तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता में लाने के पीछे चीन और पाकिस्तान की मिलीभगत है। हमें याद रखना होगा कि 10 एक दिन पहले तालिबान नेता मुल्ला बारादर जब एक डेलिगेशन लेकर चीन गए थे तो विदेश मंत्री वांग यी उनसे मिले थे। वांग यी ने तब कहा कि तालिबान शांति, रीडिवेलपमेंट और रीकंस्ट्रक्शन का एक सिंबल है। यह चौंकाने वाला बयान था, क्योंकि इससे पहले किसी ने भी तालिबान को शांति दूत नहीं कहा था। तालिबान को लेकर चीन का रवैया किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है। वह मौकापरस्ती कर रहा है। चीन के ऐसा करने की वजह यह है कि शिनच्यांग में उइगरों के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ है, उससे तालिबान काफी खफा है। तालिबान सुन्नी संगठन है और शिनच्यांग सुन्नी बहुल क्षेत्र। इस लिहाज से उनमें एक भाईचारा है। शिनच्यांग में आजादी के लिए उइगुर लड़ाके आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन उनका ठिकाना पूर्वोत्तर अफगानिस्तान का बदकशान शहर में है। चीन ने तालिबान से यह आश्वासन लिया है, वह चीन के विरोधियों के साथ सहयोग नहीं करेगा।

लेकिन भारत की ओर से तालिबान को मान्यता देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तालिबान 2.O यानी जिसे नया तालिबान कहा जा रहा है, वह अगर रुख को थोड़ा सा भी नरम कर ले तो भारत को उससे बात करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। वैसे, तालिबान ने अभी तक स्पष्ट किया है कि वह भारत के खिलाफ कुछ नहीं करेगा, लेकिन तालिबान पर भरोसा करने से बड़ी कोई गलती नहीं हो सकती।   

कुल मिलाकर कहें कि अब दुनिया ने ये मान लिया है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का राज क़ायम हो गया है। दोहा संवाद के नाटक की उपयोगिता ख़त्म हो चुकी है। इस बातचीत का इकलौता मक़सद यही था कि तालिबान को किसी तरह से अंतरराष्ट्रीय मान्यता और पहचान दिलाई जा सके कि वो बदल गए हैं और हिंसा के बजाय, बातचीत से मसले हल करने में यक़ीन रखने लगे हैं। दोहा में बातचीत के ढोंग का एक फ़ायदा ये भी था कि इससे अमेरिकी और अफ़ग़ान जनता के मुंह बंद किए जा सकें। अशरफ़ ग़नी को सत्ता छोड़ने पर मजबूर करके शायद अमेरिका ने पाकिस्तान को उसके स्वतंत्रता दिवस का तोहफ़ा दिया है। तालिबान की जीत के बाद पाकिस्तान अपनी ख़ुशी छुपा नहीं पा रहा है। ज़ाहिर है, पाकिस्तान में भी बहुत से लोग हैं, जो दोमुंही बातें कर रहे हैं। अपने देश में तो वो तालिबान की जीत का जश्न मना रहे हैं लेकिन, ऊपर से वो दिखावा ये कर रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानीकरण से वो बहुत फ़िक्रमंद हैं। अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानीकरण से लोग जितना ही पाकिस्तान पर बुरे असर की बातें कर रहे हैं, उससे पाकिस्तान का ही फ़ायदा हो रहा है, क्योंकि इससे पाकिस्तान को उस ग़ुस्से और आरोप को कम करने में मदद मिल रही है कि पिछले दो दशक से वो ही तालिबान को समर्थन देता आ रहा है। इससे उसे अपने ऊपर लग रहे सारे आरोपों से पल्ला झाड़ने में भी मदद मिल रही है।

निश्चित तौर पर अफगानियों के साथ एक क्रूर मजाक हुआ है, उनके साथ धोखा हुआ है। दुनिया ने अफगानियों को तालिबान के रहमोकरम पर छोड़ दिया है।  अफगानिस्तान में आज जो हालात हैं, उसके लिए अमेरिका सबसे ज्यादा दोषी है। उसने अपनी सेना वापस बुलाने के लिए पहले तो तालिबान से बातचीत शुरू की और फिर अचानक अफगानिस्तान से निकलने का फैसला कर लिया।       

अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर आतंक का अड्डा बन जाएगा। वहां इस क्षेत्र ही नहीं पूरी दुनिया के इस्लामिक आतंकी संगठनों को पनाह मिलेगी।   क्या आगे चलकर तालिबान इन इस्लामिक आतंकी संगठनों के अपना एजेंडा चलाने पर लगाम लगाएगा? इस सवाल का जवाब ही बाक़ी दुनिया और ख़ास तौर से अन्य क्षेत्रीय ताक़तों से तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते तय करेगा। अभी भारत को लंबी लड़ाई के लिए तैयारी करनी चाहिए। इसमें अफ़ग़ानिस्तान में अपने दोस्तों को भारत में शरण देकर मदद करना शामिल है। अफ़ग़ानिस्तान में हालात बदले तो वो हमारे सबसे दमदार साथी होंगे। अफ़ग़ान दोस्तों की मदद करना सिर्फ़ जज़्बाती प्रतिक्रिया नहीं है। ये एक सामरिक क़दम भी है। 1990 के दशक में भारत ने जिन अफ़ग़ान नागरिकों की मदद की थी, वो पिछले 20 वर्षों में हमारे सबसे पक्के साथी साबित हुए।  इस समय भी भारत फूंक-फूंक कर कदम उठा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल में हुई बैठक में संकेत दिया है कि अफगान के लोगों की  भारत मदद करेगा।  उन सिख और हिंदू अल्पसंख्यकों को  शरण दी जाएगी, जो भारत आना चाहते हैं। लेकिन भारत के साथ अजीबोगरीब विडंबना है कि जहां सरकार तालिबान के खिलाफ नजर आ रही है, वहीं कुछ मुस्लिम संगठन तालिबान को बधाई देते नहीं थक रहे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना सज्जाद नोमानी ने  वीडियो मैसेज जारी कर कहा है कि  गरीब और निहत्थी कौम ने दुनिया की सबसे मजबूत फौज को शिकस्त दी, आपकी हिम्मत को सलाम।  15 अगस्त 2021 की तारीख इतिहास बन गई। अफगानिस्तान की सरजमीं पर एक निहत्थी और गरीब कौम, जिसके पास न साइंस, न टेक्नोलॉजी, न दौलत, न हथियार और न तादाद थी, उसने पूरी दुनिया की सबसे ज्यादा मजबूत फौजों की शिकस्त दी और काबुल के सरकारी महल में वो दाखिल हुए। उनके दाखिले का अंदाज जो दुनिया ने देखा, उसमें गुरूर और बड़े बोल नहीं नजर आए। नजर आया तो वो नौजवान, जो काबुल की सरजमीं को चूम रहे हैं और अपने मालिक का शुक्र अदा कर रहे हैं। जिन नौजवानों ने हर मुसीबत के बावजूद एक बार फिर ये दुनिया को बता दिया संख्या और हथियार नहीं, कौमी इरादा और कुर्बानी सबसे ऊपर है। जो कौम मरने के लिए तैयार हो जाए, उसे दुनिया में कोई शिकस्त नहीं दे सकता है। तालिबान को मुबारक हो। आपका दूर बैठा हुआ ये हिंदी मुसलमान आपको सलाम करता है, आपके गर्व और आपकी हिम्मत को सलाम करता है।  अब पूरे एशिया में अमन, इंसाफ, खुशहाली और तरक्की फैलेगी।

अंदाजा सहज है कि भारत में अफगानिस्तान और तालिबान को लेकर सब कुछ ठीक नहीं। सरकार सच जानती है, इसलिए आतंक का साथ नहीं दे सकती और सरकार को कटघरे में खड़ा रखने की विपक्षी फितरत तालिबान को महान बताने से नहीं चुकेंगी। समाजवादी पार्टी ने शुरूआत कर दी है। तालिबान को आतंक के लिए बस यही साथ चाहिए….।


सोमवार, 2 अगस्त 2021

लूटे गए शहर के 2 बड़े व्यापारी


 

एक को ‘अपनों’ ने लूटा, दूसरे को साइबर लुटेरों ने 

व्यापार में नफा-नुकसान होता ही है, मगर भाव में उतार-चढ़ाव के कारण। इसे व्यापारी सह लेते हैं, क्योंकि उनकी उम्मीदें जिंदा होती हैं। व्यापार चलता रहता है, पर हाल के दो मामले ऐसे हैं, जिसमें दो व्यापारियों की गाढ़ी कमाई दांव पर लगी है। 8 करोड़ से भी ज्यादा की चोट पहुंची है। 

ताजा मामला  शहर के एक दाल मिल कारोबारी से जुड़ा हुआ है। उसके साथ शहर के कुछ व्यापारियों ने सोची-समझी साजिश के तहत षडयंत्र किया और  4 करोड़ 11 लाख की चपत लगा दी। कारोबारी दिलीप शांतिलाल जैन  की शिकायत पर कलमना थाने में 6 आरोपियों पर मामला दर्ज किया गया है। आरोप है कि आरोपियों ने दिलीप जैन को शक्कर ट्रेडिंग के कारोबार में मुनाफा होने का लालच देकर उनके साथ ठगी की। 

दूसरा मामला,  3.48 करोड़ रुपए की ठगी से जुड़ा हुआ है।  बाजार पेठ में चावल की निर्यात करने वाले कंपनी का ई-मेल हैक कर इस घटना को अंजाम दिया गया। देशपांडे ले-आउट स्थित वर्धमान नगर निवासी व्यापारी मोहित रोहित अग्रवाल के साथ यह घटना हुई है। 

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शहर के दाल मिल कारोबारी गांधीबाग निवासी  दिलीप जैन यहीं के कुछ कारोबारियों की नजर में चढ़ गए। उन्होंने पहले मेल-मिलाप बढ़ाई और बाद में षड्यंत्र पर उतर गए। कलमना थाने में दर्ज धोखाधड़ी की   शिकायत के अनुसार, चिखली ले आउट  में सुप्रीम पल्स मिलिंग इंडस्ट्रीज कार्यालय से दिलीप जैन  दाल मिल का कारोबार करते हैं। लगभग डेढ़ साल पहले की बात है। उनके पास गोकुल सुगर इंडस्ट्रीज के प्रबंध निदेशक दत्ता शिंदे, मोहनदास छत्ताराम फर्म के पंकज सोमैया, तुलसीदास सोमैया, उमेश सोमैया, शामसुंदर सोमैया व अमर खनवानी पहुंचे और व्यापार के सिलसिले में बातचीत की। फिर मिलने का सिलसिला चल पड़ा। 1 दिसंबर 2019 से 19 जुलाई 2021 के दरमियान वे कई बार मिले। हर बार मुनाफे की बात पर दिलीप जैन को आकर्षित किया। बताया कि शक्कर ट्रेडिंग कारोबार में मुनाफा अधिक है। आप भी इस कारोबार में शामिल हो जाइए और हमारे साथ काम कीजिए। यह भी लालच दिया कि वह शक्कर खरीदी करके खुद बेचेंगे और पैसे आपको देंगे। दिलीप जैन को लगा कि व्यवहार काफी अच्छा है। मेहनत कम और पैसे अधिक। घाटे का सौदा तो कहीं दिख नहीं रहा। आरोपियों ने शुरूआत में  100 टन शक्कर की ट्रेडिंग की और उससे हुआ फायदा दिलीप को दिया। दिलीप बाग-बाग हो उठे। अगली बार 500 टन शक्कर देने की बात हुई।  कीमत करीब 1 करोड़ 64 लाख रुपए बताई गई। दिलीप ने यह रकम उनके बताए खाते में जमा कर दी। इसी प्रकार और भी ट्रेडिंग के लिए उन्होंने रुपए दिए। कुछ दिन तक सबकुछ सामान्य चलता रहा, लेकिन कहीं से रुपए नहीं मिले तो दिलीप को शक हुआ। उन्होंने पूछताछ की तो आरोपी टालमटोल करने लगे। अंत में मामला थाने पहुंचा। अब पुलिस इसकी जांच कर रही है।    

दूसरा मामला श्री साईनाथ एग्रो इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड का है। देशपांडे ले-आउट स्थित वर्धमान नगर निवासी व्यापारी मोहित रोहित अग्रवाल  रूस स्थित सेंट पिटर्सबर्ग कंपनी को चावल निर्यात करते हैं। मालूम हो कि सेंट पीटर्सबर्ग नेवा नदी के तट पर स्थित रूस का, मॉस्को के बाद दूसरा सबसे आबादी वाला एक प्रसिद्ध नगर है। सोवियत संघ के समय में इसका नाम बदलकर लेनिनग्राद कर दिया गया था। सोवियत संघ के पतन के बाद पुन: बदलकर सेंट पीटर्सबर्ग कर दिया गया है। सेंट पीटर्सबर्ग को रूस की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है। कई विदेशी वाणिज्य दूतावास, अंतरराष्ट्रीय निगमों, बैंकों और व्यवसायों के सेंट पीटर्सबर्ग में कार्यालय हैं।

माल भेजने के कुछ दिन बाद नियमानुसार चावल की रकम व्यापारी मोहित रोहित अग्रवाल  के खाते में जमा की जाती रही थी। हमेशा की तरह मोहित ने आर्डर के मुताबिक चावल भेजा था, लेकिन इस बार हैकर्स की नजर उनकी कारोबार पर पड़ गई। खाते में रकम जमा नहीं हुई, तो उन्होंने संबंधित कंपनी से पूछताछ की। यह जानकर आवाक रह गए कि रकम तो उनके बताए खाते में जमा कर दी गई है।  कंपनी का कहना था कि मोहित की ई-मेल आईडी से उन्हें मेल आया था, जिसमें लिखा गया था कि उसका पुराना बैंक खाता बदल गया है। इसलिए नए खाते में रकम जमा करें। लिहाजा कंपनी ने उस नए खाते में 3 करोड़ 48 लाख 61 हजार 025 रुपए जमा कर दिए हैं। यह वाकया 30 मार्च से 15 अप्रैल 2021 के बीच घटित हुआ। अब मोहित थाने में फरियाद लेकर पहुंचे हैं कि उन्होंने खाता नंबर बदलने संबंधी कोई मेल नहीं किया ही नहीं।  

पुलिस मानकर चल रही है कि संभवत: किसी हैकर ने बीच में खेल किया है। उसने मोहित की ई-मेल आईडी हैक कर खुद का खाता नंबर दिया होगा।  मामला थाने पहुंचा है।  साइबर टीम की मदद से प्रकरण को सुलझाने का प्रयास जारी है। 

ऑनलाइन व्यापार का चलन है। प्रक्रिया में तेजी व्यापारियों को आकर्षित कर रही है, लेकिन बड़े पैमाने पर चपत भी लग रही है। हम आपको सावधान कर रहे हैं। कोई आपका पासवर्ड चुरा कर आपके अकाउंट से पैसे निकाल सकता है तो कोई फिशिंग के जरिये आपको नुकसान पहुंचा सकता हैं। हैकर्स बड़े-बड़े संस्थानों पर हमला बोलते हैं तो अलग-अलग किस्म के साइबर ठग अपना उल्लू सीधा करने के लिए जाल बुनते हैं। ऐसे में आपका सावधान रहना बेहद जरूरी है। सरकार भी इस मामल में बेहद सजग है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ऑनलाइन फ्रॉड या साइबर क्राइम की शिकायत दर्ज कराने के लिए एक नेशनल हेल्पलाइन नंबर जारी किया है. यह नंबर है -155260। अगर आप ऐसे किसी हादसे या अपराध के शिकार होते हैं तो इस नंबर तुरंत कॉल करें। आप धोखाधड़ी की शिकायत इस नंबर पर दर्ज करा सकते हैं। शिकायत मिलते ही गृह मंत्रालय के तहत काम करने वाला इंडियन साइबर-क्राइम को-ऑर्डिनेशन सेंटर  सेंटर सक्रिय हो जाएगा। यहां से आरबीआई से जुड़े बैंकों और ऑनलाइन पेमेंट प्लेटफॉर्म पर तुरंत सूचना पहुंच जाएगी। इससे तुरंत धोखाधड़ी का पता चल जाएगा और समस्या का जल्दी समाधान हो पाएगा।

शहर में घूम रहे ‘भेड़िये’, देहरी के अंदर भी हैं देह झांकने वाले

  


बलात्कार किसी महिला या युवती की जिंदगी का सबसे दु:खद पहलू है। पीड़िता को शारीरिक और मानसिक कष्ट ही नहीं, सामाजिक लांछन भी सहना पड़ता है। यह भयानक प्रताड़ना है, इसलिए मजबूरी में अक्सर ये चुपचाप सह लिया जाता है। पहले महिलाएं परदे में और चारदिवारी में कैद थीं, इसलिए बलात्कार की घटनाएं सिसकियों के साथ वहीं दफन हो जाती थीं, पर अब मौन टूट रहा है, इसलिए मामले सामने भी आ रहे हैं। 

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शुक्रवार की रात शहर शर्मसार हुआ। स्मार्टसिटी नागपुर का दिल कहे जाने वाले सीताबर्डी और शहर के उपनगरीय इलाके दृग्धामना में हैवानियत हद पर उतर आई थी। शहर में लोहापुल आटो स्टैंड से 17 वर्षीया नाबालिग को अगवा कर 6 आरोपियों ने उसके साथ दुष्कर्म किया। इसके बाद शनिवार की दोपहर पीड़िता को रेलवे स्टेशन के पास छोड़कर फरार हो गए। इस वारदात में 4 आटो चालक व 2 कुलियों के शामिल होने की जानकारी मिली है। जीआरपी थाने में आरोपियों ने साथियों के साथ दुष्कर्म की वारदात को अंजाम देने की बात कबूली है। इस घटना में और कई आरोपियों के शामिल होने की आशंका है। लोहमार्ग पुलिस ने 4 आरोपियों को गिरफ्तार कर उन्हें सीताबर्डी पुलिस के हवाले किया है। सीताबर्डी पुलिस मामले की जांच कर रही है। 

समाज के लिए इस तरह की घटनाएं खबरें मात्र ही रहीं शायद, लेकिन क्यों? आदमी-औरत के बीच का रिश्ता शरीर पर आकर ही क्यों रुकता है? अकेली लड़की या औरत क्यों अपने शरीर की कीमत चुकाती है?  ऐसी घटनाओं के उपरान्त स्त्री-पुरुष की चर्चा होती है, तो दोनों पक्ष अपनी-अपनी आंखों पर पूर्वाग्रह का चश्मा चढ़ा लेते हैं, उसके बाद बहस में भाग लेते हैं। इस तरह की बहस से किसी प्रकार का परिणाम तो प्राप्त होता नहीं। हां, आपसी मतभेद और सामाजिक विसंगतियां बुरी तरह निकल कर जरूर सामने आ जाती हैं। गिरफ्तार आरोपियों के साथ भी ऐसा ही होने वाला है। एक धड़ा उनकी बचाव के लिए खड़ा होगा, तो दूसरा नाबालिग को कुलटा साबित करेगा। बहरहाल, आटो चालक शहनवाज उर्फ साना मोहम्मद रशीद, मोहम्मद तौसिफ मोहम्मद युसुफ और मोहम्मद मुशीर गिरफ्त में आ चुके हैं। सभी मोमिनपुरा निवासी हैं। प्रकरण में दो कुलियों की तलाश की जा रही है। कहा जा रहा है कि इस वारदात में वे भी साथ थे। 

जानकारी के अनुसार, गुरुवार की रात इमामवाड़ा निवासी उक्त नाबालिग को लोहापुल के पास अकेली अवस्था देखकर ऑटो चालक शहनवाज की नीयत खराब हो गई। उसने उसके पास ऑटो रोक कर पूछा कि कहां जाना है। परिजनों से विवाद कर गुस्से में घर से भागी नाबालिग ने उसे सच बता दी। शहनवाज अगर चाहता तो उसे समझाकर वापस घर की ओर भी ला सकता था, प्रशंसा का पात्र भी बनता, लेकिन वह निकला वहशी। दो मीठे बोल बोल कर उसने उसे ऑटो में बिठा तो लिया और रफ्तार तेज गई। पीड़िता तब तक परिवार के साथ घटित घटनाओं के उधेड़बुन में खोई थी। अचानक आवाज आई-उतरो। चलो, चलें। वह उतर गई। इधर-उधर देखी, तो जगह अनजान लगा। पूछने पर शहनवाज ने बताया कि थोड़ी देर रुककर तुम्हारे घर पर चलते हैं। शायद गुस्से में लोग होंगे। दोनों एक घर में पहुंचे। वहां 3 ओर लोग थे, जिन्हें शहनवाज ने घरवालों के रूप में परिचय दिया। बात-बात में उसने कोई पेय पदार्थ उसे पीने को दिया। पीने के बाद मदहोशी जैसी स्थिति में वह न जाने क्या-क्या बकती जा रही थी, और दूसरी ओर उसके शरीर के साथ छेड़छाड़ शुरू हो गई।  दरअसल, यह शाहनवाज के एक मित्र का घर था, जो टिमकी में रहता है। फोन करके उसने दो और दोस्तों को बुला लिया था। शराब का दौर चलता रहा और वे नाबालिग को रौंदते रहे। रात बीत जाने के बाद आरोपी उसे लेकर मेयो अस्पताल के पास पहुंचे। वहां उनके और दो दोस्त मिले। मेयो अस्पताल के सामने मेट्रो रेलवे ब्रिज के नीचे खड़े आटो रिक्शा में ही पीड़िता की आबरु उन दोनों ने फिर लूटी। शनिवार की दोपहर लगभग 3 बजे पीड़िता को रेलवे स्टेशन के पास आरोपी छोड़कर फरार हो गए।

बदहवास स्थिति में नाबालिग नागपुर रेलवे स्टेशन परिसर में पड़ी थी। अचानक एक चाइल्ड लाइन वर्कर की उस पर नजर पड़ी। उसने अपने साथियों को बुलाया और नाबालिग को लोगमार्ग पुलिस के हवाले कर दिया।  पीड़िता का मेडिकल व कोराना टेस्ट कराया गया। उसके बाद बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष के आदेश पर उसे आशा किरण बाल गृह भेज दिया गया। पीड़िता ने बालगृह अधीक्षक को आपबीती सुनाई। नाबालिग के साथ दुष्कर्म की जानकारी मिलते ही लोहमार्ग पुलिस ने बालगृह पहुंचकर पीड़िता का बयान दर्ज किया और आरोपियों की तलाश में जुट गई। संदेह के आधार पर शहनवाज उर्फ साना, मो. तौसिफ व मो. मुशीर को धर दबोचा गया। 

बलात्कार किसी भी स्थिति में हुआ हो वह एक महिला के शरीर से, उसके मानसिक और सामाजिक स्तर से छेड़छाड़ की स्थिति है, इसे किसी भी कीमत पर स्वीकारा नहीं जाना चाहिए। घर के बाहर तो ‘भेड़िये’ हैं ही, देहरी के अंदर भी देह के अंदर झांकने की कोशिश होती है। वाड़ी पुलिस स्टेशन क्षेत्र अंतर्गत दृग्धमना गांव में एक व्यक्ति ने 7 साल की भतीजी के साथ दुष्कर्म का प्रयास किया। बच्ची के चिल्लाने की आवाज सुनकर कुछ महिलाएं दौड़ी तो सन्न रह गईं। गांव के लोगों की सहायता से उन्होंने उसे नग्न अवस्था में ही पकड़ लिया और वाड़ी पुलिस के हवाले किया। कहा जाता है कि आरोपी गांव की बच्चियों और महिलाओं के साथ गंदी हरकतें करता था। चार-पांच पकड़ा भी गया, लेकिन लोगों ने मामले को संभाल लिया। हालांकि उसकी खूब पिटाई भी हुई। शराब के नशे में वह हरकतें करता था।  रविवार को उसने अपनी ही 7 साल की भतीजी को हवस का शिकार बनाने की कोशिश की, तो लोग भड़क उठे। उसे पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया।   

दोनों ही मामले अब पुलिस के पास हैं। कानूनी प्रक्रिया शुरू हो गई है। त्वरित फैसले की व्यवस्था नहीं होने के कारण अंजाम पर पहुंचने के पहले ही लोग दोनों ही घटनाओं के भूलने लगेंगे। बस, यादें ताजा होंगी। और खासकर तब, जब ऐसी ही घटनाएं दोहराई जाएंगी। पत्थरों की बस्ती में अबला तो पिसेगी ही, चाहे कहीं भी जाए, तस्वीर बदलकर भेड़िये फिर आएंगे…और किसी की इज्जत तार-तार होगी।


शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

ट्रेन ला सकती है तीसरी लहर

 

नागपुर रेलवे स्टेशन पर रोजाना 5 हजार से अधिक यात्रियों का आना-जाना होता है। कोरोना की तीसरी लहर की आशंका व्यक्त की जा रही है। सतर्कता बरतने की सलाह दी जा रही है, लेकिन दिख रही  है सिर्फ लापरवाही। रेल यात्रियों को आरटीपीसीआर टेस्ट रिपोर्ट साथ रखना अनिवार्य है। राज्य शासन का आदेश है कि रेलवे स्टेशन पर उतरने वाले सभी यात्रियों की आरटीपीसीआर रिपोर्ट की जांच की जाए, मगर  नागपुर रेलवे स्टेशन पर ऐसा नहीं हो रहा है। रेलवे स्टेशन के मुख्य द्वार पर तैनात एक अधिकारी ने अंदर की बात बताते हुए कहा कि कहा कि वरिष्ठों के आदेश के बाद रेलवे स्टेशन पर यात्रियों की आरटी-पीसीआर रिपोर्ट की जांच  जांच बंद कर दी गई है। दूसरी ओर, नागपुर रेलवे स्टेशन पर ही मनपा की टीम आरटी-पीसीआर जांच के लिए नमूने एकत्र कर रही है, मगर यह टीम सुबह 10 से दोपहर 2 बजे तक ही मौजूद रहती है। यहां तैनात डॉ. अतिक खान ने बताया कि रेलवे अधिकारियों द्वारा जिन यात्रियों को उन तक पहुंचाया जा रहा है, उनका आरटी-पीसीआर टेस्ट किया जा रहा है। टीम के जाने के बाद आरटी-पीसीआर जांच के लिए नमूने इकट्ठा नहीं हो पा रहे। ऐसे में शहर में कोराना संक्रमितों के दाखिल होने का खतरा बढ़ गया है। रोजाना हजारों यात्री बगैर आरटी-पीसीआर रिपोर्ट के शहर में दाखिल हो रहे हैं। यह लापरवाही खतरनाक साबित हो सकती है। हालात यही रहे, तो कोरोना की तीसरी लहर कोहराम मचा सकती है।

कोरोना की दो लहरों का नतीजा हम भुगत चुके हैं। तीसरी लहर की आशंका व्यक्त की जा रही है। इसमें विशेष रूप से बच्चों के प्रभावित होने की आशंका जताई जा रही है। केरल में संक्रमण के लगातार सामने आ रहे मामलों में तेजी से उछाल आया है। स्थिति की गंभीरता को भांप केंद्र ने तत्काल उच्च स्तरीय टीम को वहां रवाना किया है। यह टीम अपनी पूरी रिपोर्ट राज्य और केंद्र सरकार दोनों के साथ साझा करेगी। केरल में बढ़ते कोरोना संक्रमण का असर अन्य राज्यों में भी मामूली रूप से दिखाई पड़ रहा है।  महाराष्ट्र में उतार-चढ़ाव जारी है। उत्तर प्रदेश और मणिपुर सहित कुछ राज्यों में भी नए मामले बढ़े हैं। स्वास्थ्य डाटा विशेषज्ञ प्रो. रिजो एम जॉन के अनुसार हालात ऐसे हैं कि पिछले 51 दिन से देश में औसतन 40 हजार से अधिक दैनिक मामले सामने आ रहे हैं। इससे साफ पता चलता है कि दूसरी लहर से बाहर आने के बाद भी देश में रोजाना संक्रमित मरीजों की संख्या एक पैमाने पर आकर रुक सी गई है, जिसमें कभी भी उछाल आ सकती है। 

बीते मार्च, अप्रैल और मई में कोरोना महामारी की दूसरी लहर आई थी। 10 मई को इसका पीक गुजरने के बाद नई लहर को लेकर कयास लगाए जा रहे थे। आईसीएमआर का अनुमान था कि अगस्त में तीसरी लहर दिखाई दे सकती है, जबकि केंद्र सरकार के ही सुपर मॉडल के अनुसार तीसरी लहर अक्टूबर से नवंबर के बीच देखने को मिल सकती है। इसलिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सतर्क रहने पर लगातार जोर दे रहे हैं। मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग की दुहाई दे रहे हैं, लेकिन लापरवाही बरतने वाले मान नहीं रहे हैं। कोरोना नियंत्रण के लिए जारी की गई गाइड लाइन का रेलवे स्टेशन परिसर में जिस तरह से खुलेआम उल्लंघन हो रहा है, उससे ही इन आशंकाओं को बल मिलता है। यात्री बगैर मास्क के नजर आते हैं। सामाजिक दूरी के नियम का पालन भी नहीं हो रहा। कई यात्री स्टेशन परिसर में झुंड के रूप में दिखाई देते हैं। इन लोगों को नियम का पालन करने की समझाइश देने वाले भी कहीं नजर नहीं आते। इसका परिणाम घातक हो सकता है।

साफ है कि भारतीय रेलवे के कोरोना नियमों का यहां साफ उल्लंघन हो रहा है। रेलवे स्टेशनों पर लोगों के मास्क पहनने को लेकर खास गाइडलाइंस जारी की गई हैं। रेलवे परिसर में या फिर ट्रेन के अंदर मास्क न पहनने पर जुर्माने का प्रावधान भी किया गया है, जो 500 रुपये तक हो सकता है। जुर्माना का प्रावधान सिर्फ मास्क को लेकर नहीं है, बल्कि यहां-वहां थूकने या गंदगी फैलाने को लेकर भी है। अगर आप रेलवे स्टेशन या ट्रेन के अंदर यहां-वहां थूकते हैं या फिर गंदगी फैलाते हैं तो भी आप पर 500 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। रेलवे का कहना है कि बिना मास्क के स्टेशन परिसर या ट्रेन में घूमना और यहां-वहां थूकने से स्टेशन परिसर और ट्रेन में गंदगी रहेगी। गंदगी की वजह से लोगों को तमाम तरह की बीमारियां हो सकती हैं और अभी कोरोना काल में तो साफ-सफाई न रखने की वजह से कोरोना वायरस भी फैल सकता है, पर सुनने वाला कोई नहीं और उन्हें गलतियों पर समझाने वाला भी नहीं। इसलिए कोरोना के तीसरी लहर को शहर में आने से रोकना सहज नहीं। 

कई प्रदेशों में कोरोना के मामलों में तेजी दर्ज की जा रही है। ऐसे में ट्रेनों से आने-जाने वालों पर सख्ती बरतना ही एकमात्र उपाय है। नियमों में ढील देने का मतलब कोरोना को आमंत्रण देने जैसा ही है। बेहतर होगा कि यात्रियों के लिए बनाए गए नियमों का सख्ती से पालन कराया जाए। लोग चोर-दरवाजे से भागने की कोशिश न करें, शहर की सेहत पर इसका असर पड़ सकता है।

आया चुनावी मौसम, छटपटाने लगे नगरसेवक

 

यह सच है कि राजनीति में कुछ भी निश्चित नहीं होता, लेकिन इरादे सच्चे हों तो राजनीति में करियर बनाकर आप देशवासियों की सेवा कर सकते हैं। राजनीति में आने के बाद बेहद जरूरी कामों में है एक है चुनाव लड़ना। प्राथमिक पाठशाला हैं निकाय चुनाव। यह सामान्य लोगों के लिए पहला पायदान होता है। इसके लिए सबसे पहले जनता से जुड़ना होता है। कोरोनाकाल में जनता से सीधे जुड़ने का मौका तो नहीं मिला, लेकिन डिजिटल प्लेटफार्म सहारा है। अगले साल फरवरी महीने में नागपुर महानगरपालिका के चुनाव होने जा रहे हैं।  नगरसेवक अभी से काफी सक्रिय हो गए हैं। सोशल मीडिया पर भूमिपूजन, उद्घाटन आदि कार्यक्रम के फोटो अपलोड़ किए जा रहे हैं। हालांकि, अचानक सक्रिय हुए नगरसेवकों से जनता भी सवाल कर रही है।  जवाब देना उनके लिए बहुत मश्किल भी हो रहा है। बहुत से नगरसेवकों को कड़वे अनुभव मिल रहे हैं। चूंकि बात करियर की है, इसलिए कड़वे बोल वे नहीं बोल सकते। महानगरपालिका के 151 नगरसेवक हैं। इनमें से लगभग 90 फीसदी से ज्यादा सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। जो नहीं हैं, उन्हें उनके चाहने वालों ने सक्रिय कर दिया है। कोरोनाकाल में अमूमन सभी काम ठप रहे। नगरसेवक चाहकर भी बहुत ज्यादा हाथ-पैर नहीं मार सके। इसलिए बेचैन हैं। अपनी उपस्थिति जनता तक दर्ज कराने की जुगत में लगे हुए हैं। फिलहाल नागपुर मनपा में भाजपा की सत्ता है। करार के अनुसार, ढाई साल के कार्यकाल के बाद महापौर संदीप जोशी ने पद छोड़ा और वरिष्ठ नेता दयाशंकर तिवारी महापौर पद पर काबिज हुए। संदीप जोशी के समय तुकाराम मुंढ़े जैसे तेजतर्रार मनपा आयुक्त से नगरसेवकों को पाला पड़ा। अब राधाकृष्णन, बी. आयुक्त हैं। नगरसेवकों की कुछ पूछ-परख तो बढ़ी है, लेकिन उतनी नहीं, जितनी उन्हें उम्मीद थी। इसलिए नगरसेवक छटपटा रहे हैं। वे जानते हैं कि अगले साल मैदान में उन्हें खुद के भरोसे उतरना है और गिनाने के लिए किए गए कामों की कोई लंबी फेहरिस्त नहीं है। जो भी है, वह पार्टी के उधार का चेहरा है और भाजपा का वास्ता देकर ही जीत का ख्वाब देखना है।

राज्य में नागपुर सहित 5 महानगरपालिकाओं के लिए 2022 में चुनाव होंगे। नागपुर महानगरपालिका का चुनाव वार्ड पद्धति से कराने की घोषणा राज्य सरकार कर चुकी है। वार्ड पद्धति से चुनाव की तैयारी के संबंध में आवश्यक प्रक्रिया शुरू भी कर दी गई थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण राज्य सरकार चुनाव तैयारी के संबंध में अधिक काम नहीं कर पाई। लिहाजा वार्ड पद्धति से चुनाव कराने को लेकर विपक्ष ही नहीं, महाविकास आघाड़ी के नेताओं मं। भी असमंजस की स्थिति बन रही है। 

देखा जाए तो नागपुर मनपा का पहला चुनाव एक वार्ड एक सदस्य पद्धति से हुआ था। वर्ष 2002 में प्रभाग पद्धति लागू कर 3 सदस्यों का प्रभाग बनाया गया। वर्ष 2007 में इसे रद्द कर फिर एक सदस्य पद्धति लागू की गई। इसके बाद वर्ष 2012 में दो सदस्यों का प्रभाग बनाया गया। वर्ष 2017 में इससे भी आगे जाकर एक प्रभाग में 4 वार्ड जोड़कर 4 सदस्यों का निर्वाचन किया गया। अब पुन: एक वार्ड एक सदस्य चुनाव पद्धति लागू कर दी गई है। नागपुर में प्रभाग पद्धति में 38 प्रभाग हैं। एक प्रभाग का 4 नगरसेवक प्रतिनिधित्व करते हैं। वार्ड पद्धति में 151 वार्ड रहेंगे।  18 से 20 हजार जनसंख्या पर एक वार्ड बनेगा।  जनंसख्या के आधार पर मनपा सीटों का आरक्षण तय किया जाएगा। इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी और महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित रखी जाएंगी।

यह तो रही प्रशासनिक तैयारी, लेकिन जमीनी लड़ाई भी तेज हो चुकी है। सोशल मीडिया पर नगरसेवकों की सक्रियता देखते ही बन रही है। धड़ाधड़ पोस्ट डाले जा रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी टीम है। इस टीम में ज्यादातर युवा हैं। बेहद सफाई से वे अपनेनेताकी तस्वीर को चमका रहे हैं। चुनाव करीब होता जा रहा है, इसलिए स्पीड भी तेज है। अब तक नहीं दिखाई देने वाले चेहरे भी अक्सर सामने आने लगे हैं। सोशल मीडिया विश्लेषकों  की मानें तो  अभी कुछ विकास कार्यों पर ब्रेक लगा हुआ है। सभागृह में मंजूर 75 ऑक्सीजन जोन, 75 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। विकास बंद होने के कारण अब वे परिसर का मुआयना, भूमिपूजन आदि के फोटो सोशल मीडिया पर शेयर किए जा रहे हैं। लेकिन सोशल मीडिया पर हाईटेक प्रचार करते समय मतदाताओं के प्रश्नों के समाधानकारक उत्तर देना भी आवश्यक है। अन्यथा नगरसेवकों के राजनीतिक भविष्य पर विपरीत परिणाम होने की आशंका रहती है, क्योंकि मोहभंग घटना नहीं, प्रक्रिया है। होते होते होता है। ऐसा नहीं होता कि सुबह सो कर उठे और बीती रात की किसी घटना की वजह से मोहभंग हो गया। समाज अलग ही मिट्टी का बना है। राजनीतिक दल ये बात अच्छी तरह समझते हैं। सांप्रदायिक सद्भाव तब भी मुद्दा था और आज भी है, लेकिन महंगाई और गरीबी उसमें जुड़ गई हैं। कोरोना किसी के लिए बहाना बना है, तो किसी के लिए अवसर।

मनपा के अधिकतर नगरसेवक इस कोरोना को कोस भी रहे हैं और पकड़े हुए भी हैं। कोई दूसरी लहर के समय संकट में साथ देने की दुहाई दे रहा है, तो कोई कहते सुना जा रहा है कि कोरोना ने सब काम रोक दिए हैं, वर्ना हम तो काम के थे। अब बाजी जनता के हाथ में है, कि वह किसे कितना नंबर दने के मूड में है।

प्रदेश स्तर पर देखा जाए तो अजीबोगरीब समीकरण बने हुए हैं। शिवसेना की सरकार में राष्ट्रवादी और कांग्रेस शामिल हैं, पर निकाय चुनाव में अलग ताल ठोंकने पर आमादा हैं। वैसे देखा जाए तो शिवसेना-भाजपा की युति काफी वर्षों तक लोगों के जेहन पर छाई रही। 1989 से दोनों साथ-साथ रहे, इसलिए दिमाग से इन्हें जुदा करना आसान नहीं रहा। इस युति के शिल्पकार बालासाहब ठाकरे एवं प्रमोद महाजन थे। आज ये दोनों नेता नहीं हैं। तब और आज की राजनीतिक स्थिति में भी जमीन-आसमान का अंतर गया है।   बालासाहब ठाकरे के निधन के बाद महाराष्ट्र में राजनीतिक समीकरण तेजी से बदलने लगे।  

अपने बलबूते लड़ने के जिस तरह कुछ लाभ होते हैं, उसी तरह कुछ हानियां भी होती हैं। लाभ यह कि मतदाताओं में अपनी ताकत कितनी है, इसका सही अनुमान आता है। अन्यथा युति की जीत में अपना हिस्सा कितना है और मित्र दल का कितना है, इस बारे में भ्रम उत्पन्न होता है। मार्केटिंग की भाषा में इसेप्वाइंट ऑफ परचेसकहते हैं। जब ग्राहक दुकान में वस्तु खरीदी के लिए जाता है तब उसके मन पर प्रभाव डालने का माध्यम यहीप्वाइंट ऑफ परचेसहोता है। इसी माध्यम का भाजपा ने प्रभावी रूप से इस्तेमाल किया, पिछली बार अनेक नगरनिगमों में अभूतपूर्व सफलता हासिल की।  अब असली परीक्षा की तैयारी है, और नंबर देने की जनता की बारी है।

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