दुर्लभ बीमारियों की समस्या अक्सर पर्दे के पीछे छिपी रहती है। दुनिया भर में 7 हज़ार से ज़्यादा किस्म की बीमारियों को दुर्लभ रोगों की श्रेणी में रखा गया है। विश्व के करीब 35 करोड़ लोग इन बीमारियों की चपेट में हैं। इनमें से करीब 20 प्रतिशत मरीज़ अकेले हिंदुस्तान में हैं। मतलब, दुनियाभर में दुर्लभ रोगों से पीड़ित मरीज़ों की कुल संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका की आबादी से भी ज़्यादा है। इसके बावजूद इन रोगों की ठीक से पहचान करने और उनका उचित इलाज करने को लेकर गंभीर प्रयासों का अभाव दिखाई देता है। वह भी तब जब करीब 7 हज़ार दुर्लभ बीमारियों में से 5 फ़ीसदी से कम के इलाज मौजूद हैं। और अगर थोड़ी राहत मिलने की संभावना भी है, तो चिकित्सा प्रक्रियाएं बेहद महंगी हैं। नतीजतन कुछ मुट्ठी भर लोग ही अपना इलाज करवा पाते हैं और बाक़ियों को तो किसी भी तरह की चिकित्सा मुहैया ही नहीं हो पाती।
दुर्लभ बीमारियों से ग्रस्त मरीज़ों के परिजनों ने 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। इस पर संज्ञान लेते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को 31 मार्च 2021 तक दुर्लभ बीमारियों के बारे में नई राष्ट्रीय नीति को अंतिम रूप देकर उसे लागू करने को कहा था।
दुनिया भर में एक साल की उम्र तक के बच्चों की मृत्यु के 35 फ़ीसदी मामलों के पीछे इन्हीं दुर्लभ बीमारियों का हाथ होता है। असामान्य बीमारियों से ग्रस्त करीब 30 प्रतिशत बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन मनाने से पहले ही काल के गाल में समा जाते हैं। भारत में भी कमोबेश हालात ऐसे ही हैं या फिर कुछ मामलों में इससे भी बदतर हैं। बाल मृत्यु दर पर इन दुर्लभ बीमारियों के गंभीर प्रभावों के बावजूद इनसे जुड़े सरकारी मसौदे में कोई नई सोच दिखाई नहीं देती। मसलन इन दुर्लभ बीमारियों को सरकार की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना से जोड़ने का प्रयास मसौदे से पूरी तरह ग़ायब है।
दुर्लभ बीमारियों से ग्रस्त किसी भी मरीज़ का सफ़र बीमारी की पहचान से शुरू होता है। अमेरिका में ऐसे मरीज़ों के लिए अपनी बीमारी का सही निदान पाने में 8 वर्षों तक का समय लग सकता है। भारत में तो ये इंतज़ार और भी लंबा होता है। इसके पीछे टेस्टिंग का अभाव और दुर्लभ बीमारियों की समझ रखने वाले विशेषज्ञों तक सीमित पहुंच जैसी वजहें शामिल हैं। इतना ही नहीं मरीज़ के जीवन की गुणवत्ता पर दुर्लभ बीमारियों के प्रभाव को लेकर भी आम समझ बेहद कम है।
दुर्लभ किस्म की कुछ बीमारियों के इलाज का सालाना ख़र्च 10 लाख से लेकर 1 करोड़ रुपए तक हो सकता है। कई मामलों में ये इलाज आजीवन चलते और मरीज़ की उम्र के हिसाब से इनका ख़र्च बढ़ता जाता है। इलाज के ख़र्चे के अलावा कई तरह के ऊपरी ख़र्चे भी होते हैं। इनमें थेरेपी से जुड़ा ख़र्च, तीमारदारी करने वाले व्यक्ति के रोज़गार का नुक़सान, इलाज के लिए आने-जाने का ख़र्चा और मरीज़ के खान-पान की विशेष ज़रूरतें शामिल हैं। इलाज की कुल लागत में इनको भी शामिल करना ज़रूरी है। कुल मिलाकर ये ख़र्च इतना अधिक है कि दुर्लभ बीमारियों का इलाज करवा पाना एक औसत भारतीय परिवार की हैसियत के बाहर हो जाता है।
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