गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

मनुष्य मनुष्य के लिए भेडिय़ा क्यों

यह जीवन भी कितना अजीब है। आदमी पैदा होता है.... जीवन भर कितने प्रपंचों में लिप्त रहता है। दु:ख-सुख, ईष्या, जलन, द्वंद्व, बडा-छोटा, ऊँच-नीच और हर प्रकार के षडयंत्रों में डुबा हुआ है परन्तु उसे चैन और सन्तुष्टि नसीब नहीं। हर आदमी जानता है कि एक दिन उसे इस दुनिया से जाना है, फिर भी वो उलझनों से मुक्त नहीं हो पाता। वो हर पल अहंकार में जीता है, हर पल अपने को बड़ा व दूसरे को छोटा साबित करने की कोशिशों में लगा रहता है। मनुष्य मनुष्य के लिए भेडिय़ा क्यों बन गया है ? एक जीवन का अंत कितना सहज है। इस दुनिया में कोई अस्तित्व नहीं..... जब हम जीवन को इतना समझते हैं तो क्यों नहीं एसी जीवन बितार्ई जाए, जिस में सुख चैन प्राप्त हो, हृदय संतुष्ट हो। इतिहास गवाह है कि जब जब इंसानों ने नियम बनाया तो कहीं केवल एक देश का ध्यान रखा गया, नतीजा देशों के बीच भयंकर जंग हुई , तो कहीं जात एवं समुदाय का ध्यान रखा गया, नतीजा जातिवाद के भयंकर परिणाम सामने आए और लोगों को विभिन्न जातियों में बांट दिया गया, तो कहीं आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने के लिए जंगलों और गुफाओं में जाकर कठोर परिश्रम को श्रेष्ठ और अच्छा समझा गया। परन्तु इन सब का अंजाम असफल जीवन मिला। यदि आज भी सर्व मनुष्य ईश्वर के आज्ञा तथा नियम का पालन करें और सब एक हो जाएं क्यों कि ईश्वर की नजर में सारे मनुष्य एक सामान है। किसी को भी जाति, वंश, सुन्दरता, देश के आधार पर महानता प्राप्त नहीं हो सकती,बल्कि अपने कर्तव्य , ज्ञान और ईश्वर के आज्ञा के पालन के आधार पर महानता प्राप्त होगी। हर व्यक्ति अपने जीवन का यह लक्ष्य रखे कि वह प्रसन्नता एवं नेमतों का भरपूर आनन्द लेगा।

बुद्धिजीवी दिखना भी एक चस्का

बुद्धिजीवी दिखना भी एक शौक है! यह कोई नया नहीं, बल्कि पुराना शौक है या यूं कहिए कि अब आउटडेटेड हो चला है। कारण कि अब कथित बुद्धिजीवियों की कोई साख नहीं रही समाज में- एक ढूंढ़ो, हजार मिलते हैं, मतलब कौड़ी के तीन! इधर कुछ लोग बुद्धिजीवी बनने में मशगूल रहे और उधर बिना बुद्धिजीवी बने/दिखे ही भाइयों ने अट्टालिकाएं खड़ी कर लीं, अकूत धन-वैभव जुटा लिया ...बुद्धिजीवी बेचारा कंधे पर झोला टांगे पैरों में चमरौधा पनही पहने एक उम्र पार कर गया और कहीं किसी अनजान से कोने में कुत्ते से भी बदतर स्थिति में दम तोड़ गया। दया आती रही है ऐसे बुद्धिजीवियों पर, बेचारों को न खुदा ही मिला न विसाले सनम... कुछ ऐसे ही दोस्त आज भी मिलते हैं तो नजरे चुराकर चुपके से फूट लेना चाहते हैं । जीवन कई कड़वी सच्चाइयों पर टिका हुआ है। यहां थोथे आदर्श के लिए जगह नहीं बन पाई है । एक बात और, वह है- बुद्धिजीवी होने और दिखने में भी बड़ा अंतर है- यहां भी वही द्वैत है- कुछ दिखते हैं मगर होते नहीं और कुछ होते हैं मगर दिखते नहीं... मगर उन लोगों की स्थिति शायद सबसे दयनीय है जो होते तो बिल्कुल नहीं, मगर दिखाना और चाहते हैं- वैसे तो यह बस गदह-पचीसी तक ही अमूमन दिखता है- हां, यह बात दीगर है कि कुछ लोग कालचक्र (क्रोनोलॉजी ) को धता बताकर अधिक उम्र के होने पर भी अपनी गदह-पचीसी बनाए रखते हैं। ब्लॉगजगत में ऐसे कई नौसिखिया बुद्धिजीवी दिख रहे हैं । वैसे भी अब बुद्धिजीवी का वह आकर्षण नहीं रहा। दूर की बात नहीं, अपने थिंक टैंक कहे जाने वाले गोविंदाचार्य जी की हालत देखिए- एक निर्वासित जिंदगी जी रहे हैं, जबकि वे असली वाले/ सचमुच के बुद्धिजीवी हैं। इस पर भी कोई पूछ नहीं है उनकी तो आप किस खेत के मूली हैं। ब्लॉगजगत में कई देवियों-सज्जनों को बुद्धिजीवी दिखने का शौक चढ़ा हुआ है।

गुनाहों के देवता बन गए ललित मोदी

ललित मोदी आईपीएल की अपनी पहली पारी हार गए हैं लेकिन अभी बहुत सारे खुलासे होने बाकी है। तीन साल से करतूतों का कारोबार चला रहे ललित मोदी की बहुत सारी गफलतें और पोलें होंगी मगर उनके पास उन पर हमला करने वालों का काफी बड़ा कच्चा चि_ा है। जाहिर है कि ललित मोदी और आईपीएल की यह कहानी खत्म नहीं हुई है, इसमें कई मोड ़ आने बाकी हैं। ललित मोदी का इतिहास गवाह है कि वे जो चाहते है ंवह करने से उनको कोई नहीं रोक सकता। ललित मोदी के खिलाफ गुनाहों की लंबी सूची है मगर वे अपने आपको गुनाहों का देवता साबित करने में जुटे हुए हैं। मोदी की जिंदगी जिद का दूसरा नाम है। एक जिद, एक हठ, एक जुनून का नाम ललित मोदी। तमाम विरोध के बावजूद सपना देखना, उन सपनों में हकीकत के रंग भरने और हर कीमत पर उसे कामयाब बनाने का नाम ललित मोदी। आईपीएल का मंत्र देकर देश को देकर दीवाना बना देने वाले शख्स का नाम ललित मोदी। 20 हजार करोड़ रुपए कम नहीं होते लेकिन जब किसी के साथ ललित मोदी का नाम जुड़ा हो तो एक छोटा सा आइडिया सिर्फ तीन साल में 20 हजार करोड़ रुपए में बदल सकता है। बड़े सपनों के लिए बड़ी जिद जरूरी होती है। जितनी बड़ी जिद, उतना ही बड़ा जोखिम। 46 साल के ललित मोदी ने अपनी जिंदगी में जितनी जिद की उतना ही जोखिम भी उठाया। ललित मोदी ने आज तक जो भी चाहा उसे पाकर ही दम लिया है। अगर वो चीज किसी दूसरे के पास हुई तो उसे छीना भी है। ये ललित मोदी की शख्सियत का ऐसा पहलू है जो दुनिया नहीं जानती। बचपन में ललित मोदी का एक ही सपना था अमेरिका के स्कूल में पढऩा। इस सपने को पूरा करने के लिए ललित मोदी भारत के बड़े-बड़े स्कूलों में जानबूझकर फेल हुए। अपना सपना पूरा करने का ये अजीब तरीका था। शिमला का बिशप कॉटन स्कूल हो या फिर नैनीताल का सेंट जोसफ कॉलेज ललित हर जगह से भागे। उस वक्त मकसद एक ही था अमेरिका में पढ़ाई। थक हारकर घरवाले ललित मोदी को अमेरिका भेजने के लिए तैयार हो गए। ललित मोदी की जिद का एक और सबूत अमेरिका में पढ़ाई के दिनों का है। ये किस्सा एक बाप-बेटे के बीच जिद का है लेकिन उससे बड़ा सबूत खुद मोदी की शख्सियत का है जो ठान लिया वो ठान लिया।मर्सिडीज कार को देखते ही ललित मोदी की आंखों में चमक-सी आ जाती है। ये चमक उस वक्त भी थी जब वो अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रहे थे। ललित के पिता उनसे मिलने अमेरिका गए तो मोदी ने उनके एक मर्सिडीज मांग ली। चार हजार करोड ़का कारोबार करने वाले पिता के लिए मर्सिडीज छोटी-सी बात थी, लेकिन उन्होंने ललित मोदी को 5000 डॉलर देते हुए कहा कि कोई सस्ती कार खरीद लो। अगले ही दिन मोदी ने कार खरीदी लेकिन सस्ती नहीं चमचमाती हुई मर्सिडीज। ललित मोदी 5000 डॉलर से नई कार की पहली किश्त दे आए थे। मोदी खानदान में पहली बार कोई कार किश्तों में खरीदी गई। शायद यही वजह है कि ललित मोदी के पिता कृष्ण कुमार मोदी ने एक बार कहा था कि मेरे बेटे ललित के साथ दिक्कत ये है कि वो कुछ करने के लिए एक बात ठान लेता है तो ठान लेता है। पिता की ये बात बेटे पर आज भी लागू होती है। सपना पूरा करने की जिद चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े। खुद ललित की शादी भी ऐसी ही जिद का नतीजा है। अपनी मां की करीबी दोस्त और उम्र में नौ साल बड़ी मीनल से एक बार शादी का मन कर गया तो पीछे नहीं हटे। नतीजा ये कि मीनल को अपने पहले पति को तलाक देकर मोदी से शादी करनी पड़ी। ललित मोदी ने घरवालों की नाराजगी तक की परवाह नहीं की। मीनल की बिटिया करीमा की शादी पंजाब किंग्स इलेवन के फ्रेंचाइजी मोहित बर्मन के भाई गौरव बर्मन से हुई है। ललित मोदी के बारे में एक बात कही जाती है या तो आप उसके साथ हो या फिर उसके खिलाफ। बीच का कोई रिश्ता ललित मोदी कभी नहीं रखते। मीडिया हो, बीसीसीआई या फिर राजनीति ललित मोदी के दोस्त भी हैं और दुश्मन भी। यही वजह है कि ललित की जिंदगी में लगातार उतार-चढ़ाव आते रहे। ड्यूक यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही 1985 में ललित मोदी पर 400 कोकीन रखने रखने, अपहरण और हमला करने का आरोप लगा। कहा जाता है कि ललित मोदी ने नॉर्थ कैरोलाइना कोर्ट में ये बात कबूल भी की। नतीजा ये कि मोदी को दो साल की सजा हुई। हालांकि उन्हें जुर्म कबूलने के बाद छोड़ दिया गया लेकिन मोदी पर लगा ये दाग आज भी उनका पीछा नहीं छोड ऱहा है। विरोधियों के लिए मोदी की सबसे कमजोर नस है ड्रग्स रखने का आरोप। विवादों के भंवर में फंसने से पहले मोदी ने जो कुछ किया उसका माद्दा हर किसी में नहीं होता। ऐसा नहीं था कि ललित मोदी को क्रिकेट से शुरू से लगाव रहा हो। उनके लिए तो फुटबॉल और टेनिस ही असली खेल थे। शायद टेनिस देखते हुए ही ललित मोदी को पहली बार टी-20 का आइडिया आया। जब टेनिस का मैच तीन घंटे में खत्म हो सकता है तो फिर क्रिकेट पांच दिन या फिर आठ घंटे का क्यों हो। क्रिकेट के रोमांच को तीन घंटे में समेटने के इस आइडिया को ललित मोदी ने बुझने नहीं दिया। मोदी अपना घरेलू कारोबार करने में वैसे भी बहुत इच्छुक नहीं थे। जब 1996 में वॉल्ट डिजनी के साथ मिलकर ललित मोदी ने भारत में ईएसपीएन लॉन्च किया तब तक उनके दिमाग में क्रिकेट पूरी तरह हावी हो चुका था। शुरू में वॉल्ट डिजनी क्रिकेट को लेकर थोड़ी हिचक रही थी। लेकिन मोदी की जिद यहां भी जीती। पहली बार भारत में ईएसपीएन स्टार स्पोर्ट्स पर क्रिकेट मैच का प्रसारण शुरू हुआ। ये वो वक्त था जब ललित मोदी के लिए क्रिकेट ही सब कुछ बन गया। मोदी के दिमाग में हर वक्त एक मंत्र गूंज रहा था। क्रिकेट का एक ऐसा फॉर्मेट जिसमें नतीजा तीन घंटे में निकले, जिसमें रोमांच भी हो, मस्ती भी हो और पैसा भी। ललित मोदी ने इसी साल लिमिटेड ओवर के मैच कराने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया। उस वक्त के कुछ बड़े क्रिकेटर ललित मोदी के फॉर्मूले पर खेलने के लिए तैयार हो गए। खुद ईएसपीएन भी इन मैचों को स्पॉन्सर करने के लिए राजी हो गया। यानी ललित मोदी का सपना 1996 में ही पूरा होने वाला था लेकिन तभी उस वक्त के बीसीसीआई अध्यक्ष जगमोहन डालमिया का ब्रह्मा चला। डालमिया ने मोदी का साथ देने वाले खिलाडिय़ों को सीधी धमकी दी कि अगर दूसरी लीग में खेले तो बीसीसीआई से पत्ता साफ। इस एक धमकी ने मोदी का सपना चकनाचूर कर दिया। खिलाडिय़ों ने अपने पैसे वापस पर मोदी से दूरी बना ली। जो इंसान जिद पर चलता हो वो सपना टूटना बर्दाश्त नहीं कर पाता। ललित मोदी भी पहले वार में पिटने के बाद उस वार की जड़ को ही खत्म करने में जुट गए। जिस बीसीसीआई ने ललित को उनकी जिद नहीं पूरी करने दी, उसी बीसीसीआई में शामिल होना ललित मोदी का एजेंडा बन गया। साल 1999 में ललित ने हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन का हाथ थामा। मोदी ने एसोसिएशन को गर्मियों में मैच खेलने के लिए एक स्टेडियम बनवाने का आइडिया बेच दिया। लेकिन इस बीच कुछ ऐसा हुआ कि ललित मोदी को एचपीसीए का साथ छोडऩा पड़ा। इसके बाद ललित मोदी अगले तीन साल तक किसी ना किसी क्रिकेट एसोसिएशन से जुडऩे की कोशिश करते रहे। लेकिन मोदी की मन की मुराद पूरी हुई दिसंबर 2003 में। वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री बन गईं। बहुत कम ही लोगों को पता है कि ग्वालियर राजघराने के साथ ललित मोदी के पुराने रिश्ते रहे हैं। ललित मोदी की दादी और वसुंधरा राजे की मां बहुत अच्छी दोस्त थीं। बरसों पुरानी वो दोस्ती 2004 में ललित मोदी के काम आई। अपनी जिद पूरा करने की ठान चुके ललित मोदी ने साम-दाम-दंड-भेद- हर तरीके से राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन से जुडऩे की कोशिश की। राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन पर पिछले 40 साल से रूंगटा परिवार का कब्जा था। 32 जिलों से आने वाले एसोसिएशन के सभी 57 सदस्य रूंगटा परिवार से ही जुड़े थे। ऐसे में ललित मोदी के लिए एसोसिएशन में इंट्री आसान नहीं थी। ललित मोदी के पास एक ही रास्ता था राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन से रूंगटा समर्थकों की विदाई। विरोधियों की मानें तो मोदी को इसमें मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का पूरा साथ मिला। अचानक राजस्थान स्पोर्ट्स एक्ट में बदलाव करते हुए क्रिकेट एसोसिएशन से सभी रूंगटा समर्थकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब मोदी के लिए इंट्री का रास्ता साफ हो चुका था। नागौर से ललित मोदी राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के सदस्य बने और फिर उसके अध्यक्ष। अपने सपने को पूरा करने के लिए बीसीसीआई तक पहुंचने की पहली जरूरत ललित मोदी पूरा कर चुके थे। लेकिन शायद ललित मोदी को भी अंदाजा नहीं था कि उनकी जिद को पूरा करने के लिए अब खुद किस्मत कितना बड़ा खेल खेलने जा रही है। शोले फिल्म से ललित मोदी का गहरा रिश्ता है। 25 साल पहले मोदी की देखी हुई ये आखिरी हिंदी फिल्म है। लेकिन शोले के किरदारों की तरह ही सपना देखना और सपना पूरा करने की जिद ललित मोदी में आज तक खत्म नहीं हुई। साल २००५ में ललित मोदी ने पूरी दुनिया के सामने भारतीय क्रिकेट को दो बिलियन डॉलर के कारोबार में बदल डालने का दावा किया। उस वक्त किसी को अंदाजा नहीं था कि ललित मोदी की बात का मतलब क्या है। तभी भारतीय क्रिकेट में एक और जबरदस्त हलचल हुई। मराठा सरकार शरद पवार की नजर बीसीसीआई अध्यक्ष पद की कुर्सी पर पड़ी और जगमोहन डालमिया की कुर्सी हिल गई। पुरानी कहावत है कि जब दुश्मन एक हो तो दो अजनबी भी दोस्त बन जाते हैं। ललित मोदी और शरद पवार ऐसे ही करीब आए और आखिरकार ललित मोदी वो मोहरा बने जिसे चलकर पवार ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर कब्जा कर लिया। ये जीत सिर्फ शरद पवार की ही नहीं ये जीत ललित मोदी की भी थी। लेकिन अध्यक्ष बनने के बाद शरद पवार की सबसे बड़ी चिंता थी टीवी चौनलों से मिलने वाली कमाई थी। जगमोहन डालमिया ने ही क्रिकेट को टीवी से कमाना सिखाया था। सारी जोड़-तोड़, सारी तिकड़म डालमिया के पास दबी थी। ऐसे में ललित मोदी ने फिर पवार का साथ दिया। टीवी कंपनियों के साथ अपना पुराना अनुभव भुनाते हुए ललित मोदी ने डालमिया की कमी पूरी कर दी। यही वो वक्त था जब मोदी ने अपना सपना और अपनी जिद पूरी करने के लिए दांव खेला। ललित मोदी की मानें तो साल 2007 में विंबलडन के दौरान कॉफी पीते हुए उन्हें ये आइडिया आया कि अलग अलग शहरों की टीमें हों। उनमें देसी और विदेशी खिलाड़ी हों और उन पर मालिकाना हक हो फिल्म और उद्योग जगत के बड़े दिग्गजों का। 2008 में मोदी आखिरकार 8 टीमों के साथ मोदी ने अपना सपना पूरा करने की शुरुआत की। आईपीएल ने पहले ही साल 1000 करोड़ रुपए का मुनाफा कमाया। 2009 में ललित मोदी ने एक और चमत्कार दिखाया। सरकार ने साफ कर दिया कि आईपीएल का दूसरा सीजन और आम चुनाव एक साथ नहीं हो सकते। मोदी ने मुश्किल वक्त में किसी से भी भिडऩे की ताकत एक बार फिर दिखाई। सिर्फ तीन हफ्ते के वक्त में मोदी सभी टीमों, सभी स्पॉन्सरों और देश के करोड़ों लोगों की दीवानगी को लेकर दक्षिण अफ्रीका पहुंच गए। उस वक्त हर किसी की जुबान पर एक ही सवाल था कि क्या मोदी इस बार कामयाब हो पाएंगे। इस सवाल का जवाब मोदी की जिद ने दिया। 21 दिन में आईपीएल की तैयारी दूसरे देश में कराना आसान नहीं था। लेकिन ललित मोदी ने अपने पिता की ये बात साबित कर दी कि उनका बेटा जब कुछ ठान लेता है तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे हरा नहीं सकती। आईपीएल दो की कामयाबी भी पूरी दुनिया ने देखी। दूसरे देश में मैच कराने के बावजूद आईपीएल से मुनाफा हुआ 774 करोड ़रुपए। ये वो वक्त था जब बाकी खेलों में मंदी की मार नजर आ रही थी लेकिन मोदी के आगे मंदी भी हार गई। मोदी ने आईपीएल को 2 बिलियन डॉलर के कारोबार में ही बदलकर दम लिया। सीजन तीन में स्पॉन्सर, यू ट्यूब और फिल्म थिएटर के अधिकार बेचकर ही आईपीएल ने 170 करोड़ रुपए कमाए। ब्रॉडकास्टिंग फीस और फ्रैंचाइजी फीस मिला दें तो ये आंकड़ा 634 करोड़ पहुंचता है। किस्मत अचानक बदलती है। जिस शख्स ने बीसीसीआई से मिले 200 करोड़ से आईपीएल को 18 हजार करोड़ के कारोबार में बदल दिया। वो एक झटके में विवादों के तूफान से घिर गया। आईपीएल की दो नई टीमों की हजारों करोड़ में नीलामी ने ललित मोदी को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। लेकिन इसके बाद शुरू हुआ जमीन पर गिरने का सिलसिला। मोदी ने ट्विटर पर कोच्चि टीम के हिस्सेदारों का राज खोल दिया उसमें एक नाम शशि थरूर की दोस्त सुनंदा पुष्कर का भी था। सुनंदा पर आरोप लगा रॉन्देवू से 79 करोड़ की स्वेट इक्विटी हासिल करने का। सवाल उठे कि आखिर क्यों आईपीएल फ्रैंचाइजी के बदले एक केंद्रीय मंत्री की दोस्त को 79 करोड़ का तोहफा दिया गया। इस सवाल ने आखिरकार शशि थरूर की बलि ले ली। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन शशि थरूर का इस्तीफा इस हाई प्रोफाइल ड्रामे का अंत नहीं था। जिस शख्स ने दुनिया को आईपीएल का मंत्र दिया अब बारी उसके खलनायक बनने की थी। शशि थरूर के जाने के बाद अचानक सरकार के तमाम विभाग सक्रिय हो उठे। आयकर विभाग खोज-खोज कर आईपीएल से जुड़ी फाइलें खंगालने लगा। जो गड़बडिय़ां पिछले तीन साल में किसी को नजर नहीं आईं उन पर मोदी से जवाब मांगा जाने लगा। आईपीएल में हवाला की रकम का भी आरोप लगा। कहा ये भी गया कि क्रिकेट को हजारों करोड़ का बना देने वाले ललित मोदी ने भी इसका जमकर फायदा उठाया। तेवर बीसीसीआई और खुद ललित मोदी के गॉडफादर शरद पवार के भी बदल गए। मोदी को आईपीएल थ्री की शुरुआत में अंदाजा भी नहीं होगा कि फाइनल तक पहुंचते-पहुंचते वो खुद क्लीन बोल्ड हो जाएंगे।अपनी जिद के दम पर आईपीएल को खड़ा करने वाला इंसान ऐसे ही हार नहीं मानने वाला। ललित मोदी अब बीसीसीआई से सीधे भिड ़चुके हैं। ललित का साफ कहना है कि पिछले चार साल की मेहनत को वो यू हीं बर्बाद नहीं होने देंगे। तैयारी पूरे मामले को कोर्ट तक ले जाने की है। यहां भी ललित की जिद काम कर रही है।

रसीली बातों को सुनने का चस्का

मंहगाई से जूझ रहे देश में आईपीएल के साथ-साथ फोन टेपिंग गुंजायमान है। नक्सलवाद और आतंकवाद को भी इन दोनों मुद्दों ने गौण कर दिया है। सरकार की बातें भी समझ में नहीं आ रही हैं। गृहमंत्री पी. चिदंबरम नक्सलियों के खिलाफ ग्रीन हंट को बंद नहीं करने की बात करते हैं तो गृह राज्यमंत्री अजय माकन को पता ही नहीं ग्रीन हंट क्या है। उनकी मानें तो भारत सरकार ने 'ग्रीन हंट अभियानÓ नामक कोई कार्रवाई शुरू ही नहीं की है। लोग पसोपेश में हैं। यह सोचकर हैरान हैं कि सरकार के इस दो बयानों के क्या अर्थ हो सकते हैं। दूसरी घटना भी कम हैरतअंगेज नहीं। बिहार से कर्नाटक तक आवाज उठाई गई कि नेताओं की टेलीफोन पर हो रही बातें सुनी जा रही हैं। सरकार फंसने ही वाली थी कि केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने सोमवार को लोकसभा में कहा कि फोन टेपिंग की ही नहीं गई। तब या तो वे झूठे हैं, जो नाहक ही चिल्ला-चिल्लाकर सरकार को बदनाम कर रहे हैं या फिर सरकार झूठी है जो करनी करने के बाद उसकी लीपापोती में लगी है। फिर आडवाणी ने सदन में क्यों कहा कि यह बेहद गंभीर मसला है और सदन प्रधानमंत्री के सिवाय किसी और के जवाब से संतुष्ट नहीं होगा। उन्होंने फोन टेपिंग मामले को एक प्रकार से आपातकाल की वापसी करार देते हुए कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का भी उल्लंघन है। आडवाणी ने तो इस संबंध में नए सिरे से कानून बनाए जाने और प्रधानमंत्री के जवाब की मांग की। अभी अमर सिंह की 'रसीली बातोंÓ वाले फोन टेपिंग के रहस्यों से पर्दा हटा नहीं है । नि:संदेह विपक्षी नेताओं या किसी भी व्यक्ति के निजी जीवन में इस तरह की दखल सरकार की तरफ से होना गंभीर है। अचरज नहीं कि यह मामला और कुछ दिन संसद में छाया रहेगा। जब से यह प्रकरण फूटा है, तब से कभी सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश के पुत्र द्वारा कीमती जायदाद की खरीद, तो कभी गोर्शकोव सौदे में दलाली खाने और दोषी अधिकारी की रूसी महिला के साथ अंतरंग क्षणों वाली तस्वीरें जैसे अनेक प्रसंग सामने आए हैं। स्वयं आईपीएल में भी मोदी बनाम थरूर से शुरू हुए विवाद के तथ्य अब मोदी बनाम पटेल-पवार-वसुंधरा की तरफ मुड़ते लगते हैं। संभव है, फोन टेपिंग के कुछ पुराने प्रसंगों को नए से जोड़कर इसी विवाद को थोड़ा और सक्रिय करने का प्रयास किया जाए। अक्सर कॉरपोरेट लड़ाई में दोनों पक्ष एक-दूसरे की ताकत और कमजोरियों को जानते हैं। वे सिर्फ यह जांचने की कोशिश करते हैं कि दूसरे पक्ष के तरकश में नया तीर तो नहीं आ गया है या वह पक्ष लड़ाई में कहां तक जा सकता है। यह समझ लेने के बाद अक्सर वे थोड़ा झुककर समझौता कर लेते हैं। इसलिए जरूरी है कि आईपीएल की जांच अपनी रफ्तार से चलने दी जाए और फिर टेपिंग तथा निजता के हनन के सवाल को उठाया जाए।

सरकार बचाने बेचे कैसे-कैसे सपने

कटौती प्रस्ताव पर भाजपा को गच्चा देने वाले झामुमो नेता और झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन से भाजपा संसदीय बोर्ड ने समर्थन वापसी की घोषणा कर दी है। भाजपा द्वारा लाए गए कटौती प्रस्ताव पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख शिबू सोरेन द्वारा यूपीए के समर्थन में वोट दिए जाने पर भाजपा ने कड़ी आपत्ति जताई थी। दूसरी तरफ, कांग्रेस ने शिबू सोरन को धर्मनिरपेक्ष नेता बताकर अपनी रणनीति साफ कर द ी है। इसके पहले कटौती प्रस्ताव पर मतदान में भाग लेने शिबू को दिल्ली पहुंचा देख भाजपा उनका मत अपने साथ गिन रही थी, लेकिन उनका मत सरकार के पक्ष में गया देख पार्टी सन्न रह गई । सोरेन झारखंड में भले ही भाजपा का साथ लेकर सरकार चला रहे हों, लेकिन केंद्र में संप्रग के साथ थे। शिबू जिस भाजपा के सहयोग से झारखंड में सरकार चला रहे हैं, उसके नेताओं का मानना है कि उनका कांग्रेस से समझौता हो गया है। उनके मुताबिक समझौता यह हो सकता है कि शिबू अपने बेटे हेमंत सोरेन को झारखंड का उप मुख्यमंत्री बनवा कर खुद केंद्र की राजनीति में लौट जाएंगे। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस और झारखंड विकास मोर्चा-प्रजातांत्रिक, शिबू की झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ मिल कर नई सरकार बनाने का दावा करेंगी। 81 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 14, झारखंड विकास मोर्चा के 11 और शिबू के 18 विधायक हैं। याद रखने वाली बात है कि लोकसभा में मंगलवार को सरकार के खिलाफ कटौती प्रस्ताव के विरोध में मतदान करने के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा ने बुधवार यहां हालात संभालने के इरादे से पहल करते हुए कहा था कि सरकार के पक्ष में मतदान गलती से हुआ। झारखंड में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोई योजना नहीं है। यह बयान शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन ने दिया था। कहा था कि यह मानवीय भूल है जो मतदान के दौरान पैदा हुए भ्रम के चलते हुई। झारखंड में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की अटकलों को हेमंत सोरेन ने खारिज कर दिया था। भाजपा ने पहले दावा किया था कि सोरेन और झामुमो का एक अन्य सांसद कामेश्वर बैठा राजग का साथ देते हुए मतदान करेंगे। बैठा जेल में हैं और वह मंगलवार मतदान के दौरान लोकसभा में नहीं आए। यानि ठगी गई भाजपा। खैर पासा फेंका जा चुका है और रणनीतिकार माथा-पच्ची में लगे हैं लेकिन इतना तो तय है कि महंगाई को लेकर विपक्ष पर द्वारा लाए गए कटौती प्रस्ताव पर बहुमत जुटाने के लिए सरकार ने पूरी कवायद की थी। यहां तक कि एक वोट की अहमियत रखने वाले एक सदस्यीय दलों के सांसदों को विदेश की सैर तक करा दी। सत्रावकाश के बीच इस महीने की शुरुआत में ऐसे सांसदों को गुडविल विजिट के नाम पर फ्रांस और स्विट्जरलैंड की यात्रा कराई गई। इसके जरिए सरकार ने इन सांसदों से समर्थन के आश्वासन भी बटोर लिए। बताते चलें कि सरकार ने एक-एक सदस्य वाली पार्टियों के संसदीय प्रतिनिधमंडल की अगुवाई के लिए संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल और उनके जूनियर नारायण सामी को भेजा था। सांसदों के 28 मार्च से 4 अप्रैल बीच हुए इस विदेश दौरे में एक-एक सदस्य संख्या वाले सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट, केरल कांग्रेस, बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट, नागालैंड पीपुल्स फ्रंट, स्वाभिमानी पक्ष समेत कुल नौ दलों के सांसद शामिल थे। सांसदों के प्रतिनिधमंडल ने फ्रंास और स्विट्जरलैंड में द्विपक्षीय संबंधों में गुडविल के लिए राजनेताओं और स्थानीय लोगों से मुलाकात की। वहीं दोनों देशों की प्राकृतिक खूबसूरती व सांस्कृतिक छटा का भी लुत्फ उठाया। ज्यूरिख स्थित भारतीय दूतावास के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, स्थानीय समुदाय के बीच सांसदों के इस दौरे को खूब सराहा गया। लोगों को पहली बार भारत की छोटी राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों से मुलाकात का मौका मिला। छोटे धड़ों को साधने की कवायद मतदान से पहले तक भी जारी रही। इस कड़ी में सरकार ने भाजपा से अलग हुए जसवंत सिंह और जदयू से बगावत कर निर्दलीय जीते दिग्विजय सिंह समेत पांच सांसदों से भी संपर्क किया। खुद प्रधानमंत्री ने मंगलवार की सुबह जसवंत सिंह से मुलाकात की। सरकार के संकटमोचकों ने सपा से अलग हुई जया प्रदा के अलावा अन्य निर्दलीय सांसदों को भी साधा। सदन की प्रबंधन व्यवस्था में शामिल एक नेता के अनुसार इंतजाम तो समर्थक सांसदों को हेलीकाप्टर से बुलवाने के भी किए गए थे।

महिला राजनयिक ने पोत दी चेहरे पर कालिख

अपने ही देश के खिलाफ जासूसी कर महिला राजनयिक ने उन तमाम उपमाओं पर कालिख पोत दिया है, जिससे भारतीयता की पहचान है। हालांकि इस जासूसी कांड का खुलासा इसी हफ्ते होने वाले सार्क सम्मेलन में भारत-पाक प्रधानमंत्रियों की संभावित मुलाकात से पहले होना अपने आप में बड़ी सफलता है। संभवत: ऐसा पहली बार है जब विदेश सेवा की किसी महिला अधिकारी को इस्लामाबाद में सेवा के दौरान कथित तौर पर पाक के लिए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। 53 वर्षीय यह महिला अफसर उस समय जांच के घेरे में आई जब इसने अपनी जिम्मेदारी से बाहर के क्षेत्रों में अतिरिक्त रुचि दिखाई। माधुरी के पास से सात अहम दस्तावेज और दो मोबाइल जब्त किए गए हैं। गहन जांच चल रही है। नए नए खुलासे हो रहे हैं। बताया जा रहा है कि इस्लामाबाद में माधुरी अपनी नौकरी से खुश नहीं थी और लगातार पाकिस्तानी अधिकारियों से मुलाकात करती थी। यही नहीं ई-मेल के जरिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को भारत के खिलाफ सूचनाएं भी भेजती थी। इस महिला पर भारत के अफगानिस्तान प्लान को लीक करने का भी आरोप है। अभी तक की जांच के मुताबिक माधुरी ने मुंबई हमले से संबंधित रिपोर्ट भी पाकिस्तान की लीक की है। तीन चार और अधिकारी हैं, जिनपर जांच अधिकारियों को शक है, लेकिन इस बारे की अभी तक कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है। माधुरी और आईएसआई के एजेंट मेजर राणा के ताल्लुकात काफी गहरे बताए जाते हैं, वह इसको सभी सूचनाएं देती थी। राणा इस समय पाक एजेंसी का सबसे महत्वणूर्ण एजेंट है और 2007 से ही आईएसआई की रीढ़ का काम कर रहा है। क्या कारण हो सकते हैं? पूरी तौर पर खुलासा नहीं हुआ है, लेकिन इसके पीछे प्यार और पैसे की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। विदेश मंत्रालय में भारतीय विदेश सेवा ग्रेड बी की 53 वर्षीय अधिकारी माधुरी की गिरफ्तारी चार दिन पहले पूर्वी दिल्ली से हुई थी। माधुरी ने पाकिस्तान के लिए जासूसी करने की बात मान ली है। बताया कि सेना व सुरक्षा से जुड़ी अहम सूचनाएं वह रॉ के इस्लामाबाद केंद्र प्रमुख आरके शर्मा से लेती थी। फिर उन्हें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई तक पहुंचाया जाता था। रणनीतिक मामलों में बेहद रुचि के ने उसकी पोल-खोल कर रख दी। भारत-अमेरिका के बीच सामरिक व रणनीतिक रिश्तों को मजबूत करने के लिए साउथ ब्लाक में तैयार की गई रणनीति के अहम पहलू भी उसी ने आईएसआई तक पहुंचाए थे। हर मुल्क में स्थित भारतीय उच्चायोगों और दूतावासों में तैनात आईएफएस अधिकारियों को संवदेनशील मामलों से जुड़ी ब्रीफिंग की जाती है। किसी भी मामले में उन्हें हर चाही गई जानकारी भी उपलब्ध कराई जाती है। खासकर, पाकिस्तान और चीन जैसे मुल्कों में भारतीय मिशनों के संबंध में वहां तैनात अधिकारियों को अपडेट रखने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। इसी क्रम में गुप्ता को जानकारियां दी जाती रहीं। विदेश मंत्रालय अब अपने स्तर पर सर खपा रहा है कि किस-किस मामले से जुड़ी जानकारी गुप्ता को दी गई थीं। दाग तो लग ही गए हैं, इसे खाज बनने से रोकना होगा क्योंकि अब इंतेहा हो चली है।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

तिलिस्म तार-तार

तेज हवा के झोंकों की तरह आईपीएल विवाद आया और छोड़ गया ढेरों सारे सवाल। विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर की इस विदाई की उम्मीद खुद थरूर को भी नहीं होगी। अब शिकंजा ललित मोदी की इर्द-गिर्द कसते जा रहा है। ललित मोदी से जुड़े गड़े मुर्दे कब्र से एक-एक कर बाहर आने लगे हैं। आईपीएल का छाया सुरूर अपनी रौ में है। थरूर तो डूबे ही, न जाने कितने और डूबेंगे। आईपीएल से मोदी की विदाई भी लगभग तय ही है। समझा जाता है कि आईपीएल का तीसरा सीजन खत्म होते ही मोदी को किनारे लगाने की कार्रवाई शुरू हो जाएगी। सट्टेबाजी और हवाला जैसे मामले उनकी आईपीएल चेयरमैन की कुर्सी छीन सकते हैं। संकट तो थरूर-मोदी विवाद के समय से ही गहराने लगा था, लेकिन लोकसभा में सोमवार को जब विभिन्न राजनीतिक दलों ने आईपीएल में बड़े पैमाने पर काला धन लगने का आरोप लगाते हुए इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की, तो यकायक इस पर पुष्टि की मुहर भी एक तरह से लग गई। राजनीतिक दलों का साफ कहना है कि इस मामले में विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर का इस्तीफा काफी नहीं है, बल्कि आईपीएल पर प्रतिबंध लगाया जाए और इसके धन के स्त्रोतों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाए। टूर्नामेंट के फौरन बाद 26 और 27 अप्रैल को आईपीएल के गवर्निंग काउंसिल की बैठक होने वाली है। इस बैठक से पहले ललित मोदी का विरोधी खेमा मजबूत दिख रहा है। क्रिकेट बोर्ड की कार्यसमिति की बैठक 24 अप्रैल की बजाय दो मई को होगी जिसमें ललित मोदी के खिलाफ लगाए गए आरोपों और कोच्चि फ्रेंचाइजी मसले पर चर्चा होगी। कार्यसमिति की बैठक 25 अप्रैल को आईपीएल खत्म होने के बाद उसकी गवर्निंग काउंसिल की बैठक के पश्चात होगी। ज्यादातर बड़े अधिकारी इस मामले में फौरन कार्रवाई चाहते हैं। सूत्रों के मुताबिक आईपीएल की बैठक में ही ललित मोदी की कमिश्नर और चेयरमैन के पद से छुट्टी हो सकती है। इसके लिए बीसीसीआई को कानून में बदलाव भी करने होंगे। उद्योगपति ललित मोदी ने क्रिकेट को अपने नजरिए से देखा। मोदी की नजर से क्रिकेट देखने वालों की धीरे-धीरे अपनी ही दुनिया बनने लगी। इस जमात ने क्रिकेट का भरपूर दोहन किया और यहां तक कि खिलाडिय़ों तक की बोली लगवा डाली। बाजार सजे, खरीददारों ने बढ़-चढ़ कर बोलियां लगाई। खिलाड़ी अनाडिय़ों की तरह कई फाड़ हो गए। लेकिन कुछ लोग मालामाल हो गए। खुद ललित मोदी आज ऐसी जिंदगी जी रहे हैं कि जिसकी कल्पना करना भी किसी के लिए मुश्किल हो सकता है। उनके पास प्राइवेट जेट, लग्जरी यॉट (नौका), मर्सिडीज एस क्लास की कई कारें और कई बीएमडब्लू कारें हैं। इतनी संपत्ति है कि लोगों की आंखें देखकर पथरा सकती हैं। ज्यादा दिन नहीं, मात्र तीन सालों की ही करामात है यह। इसलिए मोदी सरकार की निगाह में भी काफी दिनों से हैं। खासकर जिस तरह से वह करोड़ों-अरबों रुपये के टूर्नामेंट को आयोजित कर रहे हैं। सदन में भी जिस तरह से वामपंथी दलों, भाजपा, जद यू, राजद और बसपा आदि के सदस्यों ने आईपीएल में स्विस बैंक, दुबई और मारिशस के रास्ते बड़े पैमाने पर काले धन को सफेद बनाकर धन शोधन आरोप लगाया है, उससे मामले की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव सरीखे कई संप्रग से बिफरे नेता मौके की ताक में हैं और वे चाहते हैं कि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) को खत्म करने के साथ ही भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) पर केंद्र को तत्काल अपना नियंत्रण कर लेना चाहिए। बीसीसीआई की अकूत कमाई पर पहले से ही कितनों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। ललित मोदी बीसीसीआई के पूरे समर्थन की बात भले ही कहें लेकिन गत दिनों गर्वनिंग काउंसिल के बाकी सदस्यों की अनौपचारिक मीटिंग में ललित मोदी को शामिल नहीं किया जाना, बहुत कुछ कह गया। उस दौरान बोर्ड अध्यक्ष शशांक मनोहर, राजीव शुक्ला, निरंजन शाह, चिरायु अमीन, अरुण जेटली और बोर्ड सचिव एन.श्रीनिवासन के बीच आईपीएल से जुड़े विवादों और ललित मोदी के बारे में ही चर्चा हुई थी और उसी समय साफ हो गया था कि गर्वनिंग काउंसिल की मीटिंग से पहले मोदी विरोधी गुट एक रणनीति तैयार कर रहा है। मोदी घिर चुके हैं। उनका तिलिस्म तार-तार हो गया है। नि:सेदह क्रिकेट को धर्म-ईमान और खिलाडिय़ों को भगवान मानकर पूजने वाले लोगों का भ्रम टूट की कगार पर है। रही -सही कसर मोदी की गरिमा की आहुति के साथ ही पूरी हो जाएगी, ऐसी संभावना बन रही है।

सड़कों पर न लाओ यूं निगहबानों को

नक्सलियों ने फिर दी है चुनौती। आतंकी हमलों का अंदेशा बरकरार है। जवानों को मुश्तैद रहने के लिए कह दिया गया है। लेकिन कुछ बातें हैं। ये वैसे तथ्य हैं, जिनका सीधा सरोकार तो जवानों से है, मगर आवाम भी उसमें कहीं न कहीं शामिल है। दंतेवाड़ा जैसे खूंखार नक्सलीगढ़ में दोषपूर्ण योजना और घात लगाकर बैठे माओवादियों के औचक हमले के शिकार 75 सीआरपीएफ जवानों की जान गंवाने के बाद उनके प्रशिक्षण और आधुनिक साजो-सामान की किल्लत जैसे मुद्दों पर देशव्यापी बहस फिर से छिड़ी हुई है। यह बात भी बड़े पैमाने पर सामने आ रही है कि नई पीढ़ी के अधिकारी जवानों के साथ आए दिन बदसलूकी कर रहे हैं और अपमानित जवान तनाव और पेट की बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। जवानों के साथ अफसरों ती बद्तमीजी बीएसएफ में सबसे ज्यादा आंकी गई है। कई खबरों को अगर सच मान लें तो प्रशिक्षण प्राप्त जवानों को बड़े पैमाने पर आला अधिकारियों के घरों की डय़ूटी पर लगाया गया है। बल की विभिन्न बटालियनों के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि करीब 22 हजार जवानों को असली डय़ूटी पर तैनाती के बजाय अफसरों के घरों पर खाना बनाने, उनके बीबी-बच्चों के कपड़े धोने, जूते पालिश कराने और उनके कुत्ते घुमाने जैसे कामों में लगा दिया जाता है। अधिकारियों के भ्रष्टाचार के किस्सों से पैरा मिलिटरी में हर स्तर पर कुंठा व निराशा का माहौल छाया है। नक्सल आतंकवाद, सीमा पार से घुसपैठ और इस्लामी आतंकवादियों से लोहा लेने देश के कई हिस्सों में अलगाववादियों की गतिविधियों पर काबू पाने जैसी बड़ी चुनौतियां सुरक्षा बलों पर हैं। खुद सरकार के आंतरिक सूत्र बयान करते हैं कि जवानों पर विषम स्थितियों में डय़ूटी का जर्बदस्त दबाव है। बटालियनों की संख्या में इजाफे के बावजूद जवानों की दुश्वारियों में कमी नहीं आई है। विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार काम के तनाव और अस्थिर जीवनशैली से उनमें फिटनेस का उत्तरोत्तर ह्रास होता है। अब तो सुरक्षा बलों में मानसिक तनाव पर भी शोध शुरू हो गया है। बीएसएफ के जवानों की ड्यूटी काफी दुर्गम स्थानों पर रहती है। बार-बार एक ही तरह की ड्यूटी से जवान तनाव के शिकार तो होते ही हैं,संचार साधनों के बढऩे से भी उनमें तनाव जन्य घटनाएं भी बढ़ी हैं। विशेषज्ञ इसका प्रमुख कारण जवान द्वारा संचार साधनों के माध्यम से हर पल अपने गांव, परिवार की परिस्थितियों एवं घटनाओं से अवगत होते रहना बताते हैं। इससे जवानों पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है और वे तनाव का शिकार हो जाते हैं। इसी संदर्भ में अब बीएसएफ में विशेष अध्ययन एवं शोध का कार्य किया जा रहा है। माना जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के नजदीकी क्षेत्रों में आधुनिक संचार सुविधाओं की वृद्धि सुरक्षाबलों में मानसिक तनाव बढऩे का प्रमुख कारण बनती जा रही है। इसके अलावा जवानों के प्रशिक्षण से जुड़े रहे एक विशेषज्ञ ने स्वीकार किया कि बदलते वक्त की रफ्तार और नई चुनौतियों के लिहाज से प्रशिक्षण सुविधाएं नाकाफी हैं यानी 20 वर्ष पहले आंतक, घुसपैठ या नक्सली इलाकों में काम करने का जो ज्ञान व ट्रेनिंग उन्हें मिले थे, उसी से वे काम चला रहे हैं, जबकि जेहादी, नक्सली और देश के कई भागों में सक्रिय आतंकवादी आक्रामक क्षमताओं व आधुनिक विदेशी हथियारों का इस्तेमाल में काफी पेशेवर तरीके से अभ्यस्त हैं। दूसरी तरफ हर आतंकवादी वारदात के बाद मरने वालों की दर्दनाक कहानियां सामने आती हैं। इसके साथ ही जब भी इस तरह की घटनाएं घटती हैं तो सुरक्षा बलों की क्षमता और योग्यता पर तमाम सवालिया निशान लगा दिए जाते हैं। यह थोड़ा सा अनुचित है क्योंकि हर स्टेशन, हर ढाबे, हर संवेदनशील स्थान पर पैनी निगाह रखना संभव ही नहीं है। देखा जाए तो देश में आए दिन संकट की घड़ी आ ही जाती है। बर्दाश्त करने की सीमा सिकुड़ चुकी है, इसलिए फौरन ही जवानों के नाम फरमान जारी कर दिया जाता है। मगर जवानों के दर्द को सुनने की किसी को फुरसत ही नहीं। हालांकि गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस बार कहा है कि अर्धसैनिक बलों और पुलिस की जरूरतों के लिए मौजूदा वित्त वर्ष में 40 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया जाएगा। बेशक खुशखबर है। आतंकवादी, विभाजनकारी ताकतें और नक्सली गरीबों और खासकर आदिवासियों को अपने जाल में फंसाकर चोरी छिपे हिंसा फैलाने में जुटे हैं। इन तत्वों से निबटने के लिए ऐसा आवंटन बिल्कुल जरूरी है। मगर इससे भी ज्यादा जरूरी है कि हर मौके की नजाकत को समझा जाए और नाजुक परिस्थितियों में ही निगहबानों को याद किया जाए। सत्ता के बदलते गणित व राजनेताओं की कुटिल चाल तथा वोट बैंक की राजनीति और भ्रष्टाचार ने जवानों के हाथ बांध रखें हैं। जब पानी सर से ऊपर बहने लगता है तो कातर स्वर में आर्तनाद सुनाई देने लगती है। क्या इससे चेत जाने की सीख नहीं मिलती। समाज में तेजी से फल-फूल रहे असमाजिक तत्वों की बिषबेल को जड़-समूल समाज ही उखाड़ कर फेंक सकता है। नक्सलियों के खिलाफ वायु सेना के इस्तेमाल की बात को लेकर हायतोबा मची थी। नक्सलियों के सफाए के बाद क्या नक्सलवाद भी मर जाएगा? यह कुंठा है जो बरसों से समाज द्वारा ही सिंचित किया जाता रहा है। विडंबना तो यही है कि समाज खुद भस्मासुर तैयार करता है और जब भस्मासुर उसे मारने दौड़ता है तो सरहदों की सुरक्षा में लगे जवानों को गलियों तक खींच लाया जाता है। बेहतर हो भस्मासुर आबाद न हों, उससे भी बेहतर होगा कि समाज अंगुलिमालों की पौध को पनपने ही न दे। विश्वास मानें हिंदुस्तान कभी लहूलुहान नहीं होगा।

थम गया अभियान , नक्सली गायब

एशिया के सबसे बड़े जंगलों में शुमार किए जाने वाले सारंडा जंगल में 3 दिनों तक चले पुलिस के विशेष अभियान को विराम दे दिया गया है। दंतेवाड़ा की घटना के तुरंत बाद झारखंड में नक्सलियों के गढ़ सारंडा के घने जंगलों में पुलिस का घुसना बड़ी चुनौती मानी जा रही थी, किन्तु तीन दिनों तक जंगल का चप्पा-चप्पा छान मारने के बाद भी पुलिस का नक्सलियों ने कहीं मुकाबला नहीं हुआ। हालांकि इस दौरान चार लैंडमाइन को निष्क्रिय किया गया। झारखंड में नक्सलियों के लिए सबसे सुरक्षित समझे जाने वाले इस जंगल में उग्रवादियों की अनुपस्थिति ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। या तो नक्सली कहीं भी पुलिस पर हमला करने का साहस नहीं कर सके, जिसकी संभावना ज्यादा या फिर उन्होंने पुलिस को चकमा दे दिया। अभियान के दौरान पुलिस ने उन क्षेत्रों को रौंद डाला जहां पहले कभी पुलिस नहीं जा सकी थी और जहां हमेशा ही नक्सली प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए जमे रहते थे। इस दौरान पुलिस ने नक्सलियों के पुराने स्थायी कैंप को जरूर ध्वस्त किया। साथ ही पुलिस को फांसने के लिए लगाए गए लैंडमाइंस को भी विस्फोट करके समाप्त कर दिया। सारंडा आपरेशन में 22 कंपनी सीआरपीएफ को लगाया गया था। जो पूरे साजो समान के साथ जंगल गए थे। खुफिया विभाग की यह सूचना भी है कि सारंडा के नक्सली भी गोईलकेरा की ओर जमे हैं। वे बड़ी नक्सली घटना को अंजाम देने की फिराक में हैं। खुफिया सूचना के बाद पुलिस सतर्क है, ताकि नक्सलियों को उनके मंसूबे में सफल न होने दिया जा सके। दंतेवाड़ा की घटना ने ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंक हलचल मचा दी है। इस नरसंहार और उसके बाद उठे चीत्कार के दृश्यों ने नक्सली आंदोलन के वैचारिक समर्थकों को भी सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर किस लिए इतना खून बहाया गया। नक्सली नेता अपनी पीठ थपथपाते हुए ये जरूर कह रहे हैं कि उन्होंने सरकार के आपरेशन ग्रीन हंट का जवाब दिया है। वे धमकी देते हुए नहीं हिचक रहे हैं कि अगर सरकार का रवैया नहीं बदला तो वे शहरी ठिकानों पर भी हमला करेंगे। ऐसी धमकी देते वक्त ये भूल जाते हैं कि अगर अति उत्साह में उन्होंने ऐसा किया भी तो इसके नतीजे उनके लिए ही बुरे होंगे। क्योंकि वैचारिक समाज से उनका समर्थन छीजते देर नहीं लगेगी। याद कीजिए पंजाब को। पंजाब में खालिस्तान आतंकवाद तभी तक पनपता रहा, जब तक उसे आम लोगों की सहानुभूति हासिल रही। लेकिन जैसे ही उन्होंने आम जनता का नाहक खून बहाना शुरू किया, वे सामाजिक मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ते गए और तब के पंजाब पुलिस के प्रमुख केपीएस गिल के लिए उनका सफाया करना आसान हो गया। नक्सली आंदोलन के इतिहास में छह अप्रैल की घटना नक्सलियों के लिए कुछ इसी तरह उभरकर सामने आई है। इस एक हमले से उनसे जनता का भरोसा उठना शुरू हो गया है। अगर ऐसी दो-चार घटनाएं और करने में वे कामयाब रहे तो निश्चित तौर पर सरकारी मशीनरी के लिए उनके सफाए का राह अधिक आसान होगी। नक्सलियों पर भी आरोप है कि वे अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में समानांतर अर्थव्यवस्था चला रहे हैं। जो उद्योगपति और व्यापारी उन्हें लेवी नहीं देता, उसे वे दंडित करते हैं। जाहिर है कि बंदूक की राह से क्रांति का सपना देखने वाले लोगों के हाथ दूध के धुले नहीं हैं। वामपंथी राजनीति और सशस्त्र क्रांति के पैरोकार भगत सिंह और राजगुरू भी रहे हैं। लेकिन जब भी उन्होंने गोली चलाने की जरूरत महसूस की, तब उन्होंने इस बात का जरूर ध्यान रखा कि उनकी गोली किसी बेगुनाह का खून बहाने की वजह नहीं बने। दंतेवाड़ा में पुलिस वालों का जो खून बहाया गया है, देश ने उसे बेगुनाहों के रक्त बहाने के तौर पर ही देखा है। चाहे अपराधी हों या सशस्त्र क्रांति के रोमानी पैरोकार, जब भी वे बेगुनाहों का खून बहाते हैं, दरअसल अराजकता को ही प्रतिस्थापित कर रहे होते हैं। लेकिन ये बात अदना सा समझदार भी मानता है कि क्रांतियां अराजकता के जरिए नहीं होतीं। इसके लिए जनता का भरोसा जीतना होता है। लेकिन दुर्भाग्य ये कि आदर्शवादिता के सहारे नक्सलवाद के नाम पर बराबरी का लक्ष्य हासिल करने का सपना दिखाने वाले यह लोग ऐसा नहीं कर रहे हैं। उनके लिए बेगुनाहों का खून बहाना ही लक्ष्य हासिल करने में मददगार नजर आ रहा है। यह भी सच है कि खून बहाकर कुछ लोगों का समर्थन जरूर हासिल किया जा सकता है, लेकिन व्यापक जनसमुदाय की सहानुभूति नहीं पाई जा सकती। हमारे नक्सली रहनुमा जितनी जल्दी इसे समझ लें, देश के लिए ठीक होगा। समझना आवाम को भी है। इसलिए समझना बेहद जरूरी है कि हर कोहराम पर हम दशकों पीछे ठेल दिए जाते हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है। समाज खुद भस्मासुर तैयार करता है और जब भस्मासुर उसे मारने दौड़ता है तो सरहदों की सुरक्षा में लगे जवानों को गलियों तक खींच लाया जाता है। बेहतर हो भस्मासुर आबाद न हों, उससे भी बेहतर होगा कि समाज अंगुलिमालों की पौध को पनपने ही न दे। विश्वास मानें हिंदुस्तान कभी लहूलुहान नहीं होगा।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

आत्मविश्वास में अति भी ठीक नहीं

बिहार के बारे में बनी हर अवधारणाएं झूठी लगती है। सचमुच करिश्मा हो गया। बिहार में अब वह चुंबकीय आकर्षण पैदा हो गया है जो न सिर्फ बिहारियों व देशवासियों को बल्कि सात समदर पार के भी लोगों को खींचने लगा है। अब यहाँ के वातावरण में सौंदर्य है। विकास के हर पैमाने उध्र्वमुखी हो गए हैं। कारण आधारभूत ढाँचा दुरूस्त हुआ, एक निर्भय वातावरण बना, निवेश का अलख जगाया गया आदि-आदि। ये सारी बातें सपनों की नहीं, एक शिल्पकार की मेहनत का नतीजा है। वह भी उस दौर की कहानी है, जब धारा सिर्फ और सिर्फ प्रतिकूल ही थी और गजब ढा रही थी। बावजूद इसके उस शिल्पकार की आकांक्षाओं पर बिहार अभी खरा नहीं उतरा है। यह उस शिलपकार की महानता नहीं तो और क्या है? बिहार के मुख्यमंत्री की तारीफ अब उनके विरोधी भी अनायास ही करने लगे हैं। लेकिन खुद नीतिश अपने कार्यकाल के दौरान किये गये कार्यों का लेखा-जोखा लेंगे। उन्होंने जनता के नाम संदेश में कह दिया है कि विकास कार्यों की समीक्षा के दौरान काम से संतुष्ट होने पर ही चुनाव में जनता के बीच वोट मांगने जायेंगे। काम से संतुष्ट नहीं हुए तो सार्वजनिक रूप से जनता से माफी मांगेंगे। एक, अणे मार्ग में लगा जनता दरबार। पत्रकारों ने उन्हें साढ़े चार साल पूर्व सरकार गठन के बाद की गई उनकी उस घोषणा का स्मरण दिलाया जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जनता ने पांच साल का मौका दिया है अगर इस दौरान जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेंगे तो दोबारा वोट मांगने नहीं जायेंगे। काम से संतुष्ट नहीं हुए तो जनता से माफी मांगेंगे।Ó इस पर उन्होंने कहा कि उन्हें वह घोषणा आज भी याद है। उस घोषणा के आधार पर ही वे विश्वास यात्रा पर जायेंगे और विकास कार्यों की खुद समीक्षा करेंगे। इसका मतलब है कि इस बार बिहार में सरकार के काम-काज के आधार कर चुनाव होंगे। अच्छी बात है। कोई भी तो है जो डंके की चोट पर कहता है कि यह हम नहीं कह रहे, हमरा काम कह रहा है। सभी राजनीतिक दल के लोगों को और राजनेताओं को सोचना पड़ेगा कि जनता के बीच जाने के लिए वे कौन-कौन से तर्क गढ़ते चले जा रहे हैं। नेताओं के प्रति घृणा पैदा होने के भी संभवत: यही कारण हैं। तभी तो कहा जाता है कि नेता और नेता के वादे दोनों पर ही भरोसा बेमानी है, खासकर आज के दौर में। द्वंद्व जैसी स्थिति है । जिसके लिए जान देते हैं वोट देते हैं, वही मुंह फेर लेता है। आजादी के बाद पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह बिहार में बरौनी, सिंदरी, डीवीसी के रूप में कल-कारखाने दिये लेकिन इसके बाद उनकी टक्कर का कोई मुख्यमंत्री ही नहीं हुआ। फिर लाठी-लठैत की राजनीति होने लगी और बिहार पीछे जाने लगा। बिजली, सड़क, शिक्षा और रोजगार जैसे विषय नेताओं के एजेंडे से गायब हो गये। असली और नकली छवियां आपस में टकराती रहीं। पिछले ढाई-तीन दशकों के दौरान बिहार में भ्रष्टाचार, राजनीतिक उथल-पुथल और हिंसक वारदातों में ज्यादा बढ़ोतरी हुई या यों कहें कि मीडिया में ये चीजें प्रमुखता से दिखाई देने लगीं। लेकिन अब बिहार में बहुत कुछ बदला है। पहले बिहारी कहने पर दूसरे राज्य के लोग लोग मुंह बिचकाते थे लेकिन अब गौर करते हैं। मगर एक जहर बुझा तीर नीतिश को आहत कर सकता है। एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक उनकी सरकार ने राज्य में खर्च हुई विकास राशि का 44 फीसदी हिस्सा अकेले राजधानी पटना में ही खर्च कर डाला है। यह आंकड़ा निश्चित तौर पर उनके विरोधियों के लिए भी संजीवनी साबित होने वाला है जो अब केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के उस आंकड़े से सहमे हुए थे, जिसके मुताबिक राज्य ने उनके शासनकाल में 11.3 फीसदी की वृद्धि दर हासिल करने में कामयाबी हासिल की थी। तो क्या वे ठीक कहते हैं दरअसल नीतीश पटना को चमकाकर रखना चाहते हैं ताकि बाहर से आने वाला हर व्यक्ति यह राय ले कर लौटे कि बिहार में सचमुच विकास हो रहा है। जबकि राजधानी से बाहर कैसा विकास हो रहा है, उसकी गवाही तो ये आंकड़े दे ही रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के 11.3 प्रतिशत वृद्धि दर वाले आंकड़े के सहारे चुनाव जीतने को आश्वस्त दिख रहे नीतीश के गले कहीं यह दूसरा आंकड़ा न पड़ जाए इस बात की आशंका बलवती होने लगी है। 2009-10 के लिए हुए स्टेट इकानामिक सर्वे के मुताबिक अब तक केंद्र सरकार पर उपेक्षा का आरोप लगाने वाले बिहार में आंतरिक स्तर पर क्षेत्रीय असमानता की स्थिति कहीं अधिक गंभीर है। माना नीतिश अपनी आलोचनाओं से बेफिक्र रहने वाले शख्स हैं, लेकिन जब झूठ और सच की घूंटी लगातार पिलाई जाती रहे , तो विश्वास का डगमगाना भी तय है। अनुकरणीय कदमों की छाप तब धूमिल होती जाती है और फिर हाथ मलते वही रह जाता है जो अति विश्वास से लबरेज होता है। लालू प्रसाद यादव चोट खाए सांप की तरह दूर से ही फुंकार रहे हैं। राम विलास पासवान साथ में राम-लखन की भूमिका अदा कर रहे हैं। कांग्रेस अपनी राह दुरूस्त करने में लगी है। वामपंथियों की कदमताल पहले से ही बिगड़ी हुई है। इतनी भ्रांतियों में मौन -मुस्कराहट दम तोड़ सकती है। यह तो रानजनीति का खोल है, पता नहीं कब कौन पास, कब कौन फेल।

आईने में दिखा खुरदरा चेहरा

घरेलू हिंसा ने फिर से अपने आप को पारिभाषित किया है। सिकुड़े हुए दायरे को उसने कुछ और बढ़ाया है। नई दिल्ली की एक अदालत में इसे लेकर सुनवाई चल रही थी। अदालत ने इस बार याद दिलाया है कि कि किसी महिला को प्रताडि़त करने की स्थिति में परिवार की महिला सदस्यों पर भी घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत आरोप लगाया जा सकता है। इस बहस के चलते अदालती आदेश का महत्व और बढ़ जाता है कि महिलाओं के कल्याण के लिए लागू किया गया अधिनियम महिलाओं के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता है या नहीं क्योंकि उच्च न्यायालयों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए हैं। वह भी उस समय जब महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे घरेलू हिंसा के मामलों को देखते हुए एक संसदीय समिति ऐसी हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून के क्रियान्वयन के वास्ते निर्धारित नियमों की समीक्षा कर रही है। समिति ने इसके लिए विशेषज्ञों से भी राय मांगी है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नेता नज्मा हेपतुल्ला के नेतृत्व वाली राज्यसभा की अधीनस्थ कानून समिति घरेलू हिंसा से महिलाओं की हिफाजत के लिए बने घरेलू हिंसा नियमों, 2006 की समीक्षा कर रही है। ये नियम महिलाओं की हिफाजत के लिए घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम 2005 लागू करने के वास्ते बनाए गए थे। राज्यसभा सचिवालय से जारी एक अधिसूचना में कहा गया है, घरेलू हिंसा के बढ़ते मामलों और कानून में मौजूद खामियों का फायदा उठाकर बच रहे आरोपियों को देखते हुए इन नियमों की समीक्षा करना आवश्यक हो गया है। समिति ने संगठनों, संस्थाओं, व्यक्तिओं और विशेषज्ञों से इस मामले में सुझाव भी आमंत्रित किया है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाउ ने घरेलू हिंसा अधिनियम-2005 में महिलाओं की रक्षा के प्रावधानों की व्याख्या करते हुए कहा कि कानून में यह प्रावधान है कि एक पत्नी अपने पति और संबंधियों के खिलाफ शिकायत कर सकती है जिसमें पुरुष और महिला, दोनों शामिल हैं। न्यायाधीश ने कहा कि अधिनियम की धारा-2 के खंड (क्यू)के अनुसार पीडि़त पत्नी या महिला जो शादी जैसे संबंधों में रह रही हो पति के रिश्तेदार या पुरुष साथी के खिलाफ शिकायत कर सकती है। प्रावधान के दायरे में महिला और पुरुष दोनों आते हैं। न्यायाधीश ने हालांकि यह उल्लेख भी किया कि विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए हैं कि परिवार की महिला सदस्य घरेलू हिंसा अधिनियम के दायरे में आ सकती हैं या नहीं। अदालत ने कहा कि एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए जो सामंजस्यपूर्ण हो और अधिनियम के उद्देश्य को पूरा करता हो। एक उचित व्याख्या दिए जाने की जरूरत है ताकि सुनिश्चित हो सके कि अधिनियम के उद्देश्य की हार नहीं हुई है। इसने यह भी कहा कि हालांकि प्रावधान उल्लंघन के ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें परिवार के सभी सदस्यों को घसीट लिया जाए जिनका पति पत्नी के बीच वैवाहिक विवादों से कोई संबंध न हो। अदालत ने यह आदेश एक परिवार की कुछ महिला सदस्यों की समीक्षा याचिका को खारिज करते हुए दिया जिन्होंने मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती दी थी। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत दर्ज इन महिला सदस्यों के नाम मामले से हटाने से इनकार कर दिया था। बताने की जरूरत नहीं कि घरेलू हिंसा वर्तमान भारतीय समाज का आईना है तो घरेलू हिंसा कानून महिलाओं के उन मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है, जो उन्हें संविधान द्वारा प्रदान किए गए हैं। इसके तहत घर के अंदर होने वाली शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, यौन संबंधी आदि सभी तरह की हिंसा शामिल है। इसमें सिर्फ शादीशुदा महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की ही बात नहीं की गई है, बल्कि लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिलाएं और घर में रहने वाली अन्य महिला सदस्य जैसे बहन या मां आदि भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इसका उपयोग कर सकती हैं। यह कानून पुरुषों को अपनी पत्नी पर नौकरी करने या छोडऩे के लिए जोर-जबरदस्ती करने पर भी रोक लगाता है। इस कानून में शारीरिक हिंसा के अंतर्गत थप्पड़ मारने से लेकर धक्का देने तक को शामिल किया गया है। वहीं, सेक्सुअल हिंसा में जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाने से लेकर पत्नी को पोर्नोग्राफी देखने के लिए विवश करना और बाल यौन शोषण भी शामिल है। यह कानून ऐसे पुरुषों पर भी शिकंजा कसता है, जो महिलाओं के साथ गाली-गलौज करते हैं। देखा जाए तो भारतीय समाज का सामंती ढांचा व शक्ति का असंतुलन घरेलू हिंसा की जड़ है। इस माहौल में कानून बनाने पर शोषण की प्रवृत्ति बढ़ती ही है। वहीं समाजीकरण की प्रक्रिया में गतिरोध इसके निदान में बाधक है। ऐसे में केवल कोई कानून महिलाओं को अधिकार नहीं दिला सकता है। समझना होगा कि किसी अधिनियम की सफलता समाज से प्रभावी होती है। इसके लिए विधि व समाज के अविन्यासित संबंधों पर विचार करना होगा। महिलाओं को संस्कार व देवी की चाकी में पिसने की बजाय अधिकार के लिए सजग होना होगा। यह सच है कि घरेलू हिंसा कानून की परिभाषा बहुआयामी है लेकिन इसमें विरोधाभास भी है। देश में सामाजिक वातावरण ही ऐसा है कि महिलाएं बात को घर से बाहर तो दूर मायके तक भी नहीं जाने देना चाहती हैं। ऐसे में पास-पड़ोस व समाज के लोगों को जागृत होकर आगे आना होगा। वहीं उत्पीडऩ करने वालों का जब तक समाज बहिष्कार नहीं करेगा कानून कुछ नहीं कर सकता।

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

ऊंगलियां हर और उठेंगी

विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर को अंडरवल्र्ड सरगना दाऊद इब्राहिम की तरफ से जान से मारने की धमकी मिली है। डी कंपनी ने एसएमएस के जरिए दी गई अपनी धमकी में थरूर को आईपीएल से दूर रहने को कहा है। इस धमकी के बाद थरूर की सुरक्षा बढ़ा दी गई है। मगर एक बात साफ हो गया है कि करोड़ों के वारे-न्यारे वाले इस खेल पर ताली पीटने का नहीं, सर पीटने का वक्त है। वैसे तो आईपीएल कोच्चि को लेकर आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी के साथ उनका विवाद पहले से ही जारी है। जिसमें थरूर पर आरोप है कि उन्होंने ललित मोदी को फोन कर आईपीएल कोच्चि के लिए पैरवी की थी। जिसके बाद थरूर के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए सरकार पर भारी दवाब है। परंतु ऐसा लगता है कि जड़े काफी गहरें तक गड़ी हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि इसमें डी कंपनी कब और कैसे आ गया। सूची के अनुसार तो रिलायंस समूह के चेयरमैन मुकेश अंबानी की पत्नी नीता मुंबई इंडियंस की मालिक हैं, शराब के सबसे बडे विक्रेता विजय माल्या रॉयल चैलंजर्स के मालिक हैं, डेकन क्रोनिकल प्रकाशन डेक्कन चार्जर्स का मालिक है, इंडिया सीमेंट कंपनी चेन्नई सुपर किंग्स की मालिक है, देश भर में हवाई अड्डे और मेट्रो के ठेके लेने वाल जीएमआर दिल्ली डेयर डेविल्स की मालिक है, पंजाब किंग्स इलेवेन के मालिक नेस वाडिया, प्रीति जिंटा, डॉबर के मोहित वर्मन और एपीजेके करण पॉल हैं। कोलकाता नाईट राइडर्स की मालिक रेड चिलि एंटरटेनमेंट हैं जिसमें शाहरूख के अलावा उनकी पत्नी गौरी खान, मित्र जूही चावला और जय मेहता शामिल है। राजस्थान रायल्स में स्टार समूह के मरडोक परिवार का पैसा लगा है। इसके अलावा अल्ट्राटेक सीमेंट, शिल्पा शेटी और राज कुंद्रा भी मालिकों में से हैं। हो सकता आमदनी के लिहाज से वह इसमें सीधे शरीक हो गया हो। वरना इस धमकी का एक और आशय यह हो सकता है कि घाटे वाले के सर पर उसका वरद हस्त हो। एक और बात ध्यान देने वाली है। शशि थरूर के विवादों में घिरने से खुद को अलग रखते हुए कांग्रेस ने कहा कि सभी तथ्यों का पता लगने का बाद वह अपना विचार व्यक्त करेगी। पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने मंगलवार को कहा था कि पार्टी को विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा था कि उन्हें सफाई देने दीजिए। दूसरों को व्याख्या करने दीजिए कि सच्चाई क्या है। जबकि भाजपा ने उसी समय उनके इस्तीफे की मांग की थी। यानि खेल का राजनीतिकरण। वैसे देखा जाए तो कुल मिला कर आईपीएल को सिर्फ इन टीमों से नौ लाख करोड़ रुपए की आमदनी हुई है। इसके अलावा टेलीविजन प्रसारण अधिकारों से अगले पांच सालों में लगभग डेढ़ अरब डॉलर की कमाई का खाका तैयार है। आईपीएल ने विजय माल्या की किंग फिशर एयरलाइंस को आईपीएल की आधिकारिक एयर लाइन बनने के बदले मुफ्त टिकटों के अलावा 106 करोड़ रुपए अलग से वसूल किए हैं। इस साल से गूगल की यू ट्यूब कंपनी पर भी आईपीएल के मैच लाइव दिखाने का प्रयोग किया गया है जिसके बदले यू ट्यूब ने आईपीएल को 18 हजार करोड़ रुपए दिए हैं। विवादों के लेकर सुनंदा भी बिफरी हुई हैं। सुनंदा का कहना है कि उनकी व्यक्तिगत परिसंपत्तियां और व्यापारिक हित किसी फ्रेंचाइजी टीम में हिस्सेदारी के लिए काफी हैं। इस लिहाज से हिस्सेदारी के सिलसिले में मेरा नाम थरूर के साथ जोड़ा जाना एक तरह से तौहीन है। बकौल सुनंदा, मेरा व्यक्तिगत जीवन किसी के अधीन नहीं है। मैं जल्द ही शादी करने वाली हूं। इस संबंध में मैं खुद ही घोषणा करुंगी। इस संबंध में घोषणा का अधिकार अपरिचितों को नहीं है। मैं मीडिया से अनुरोध करती हूं कि वह मेरी निजता का सम्मान करे। अगर सभी पाक-साफ ही हैं तो तो सवाल उठता है कि डी कंपनी का आविर्भाव इस नाटक में आखिर क्यों कर हुआ। ऐसा तो नहीं कि डी कंपनी फिर से भारत लौटने की तैयारी में है। सूत्र बताते हैं कि दाऊद कुछ बरसों में भारत लौटने की योजना बना रहा है। दरअसल दुबई में भी दाऊद के लिए स्थितियां अब ज्यादा अनुकूल नहीं रह गई हैं। जब से अमेरिका ने उसे वैश्कि आतंकी घोषित किया है, उसकी मुसीबतें बढ़ गई हैं। ऐसे में वह भारत को अपने लिए ज्यादा सुरक्षित मानने लगा है। तब तो जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। बात राजनीतिक गलियारों से निकलकर आगे सरहद के उस पार तक पहुंचती दिख रही है। लिहाजा, जनता से जबरदस्ती ताली पिटवाने वाली इन कंपनियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे गठजोड़ का खुलासा करें, वरना यह भी याद रखें कि शक का दायरा कभी संकुचित नहीं होता। फिर तो ऊंगलियां हर और उठेंगी-क्या प्रायोजक, क्या खिलाड़ी और क्या बिचौलिए। अह तो ऐसा ही लगता है कि संभ्रांतों के बीच से क्रिकेट का आज समूल अपहरण किया जा चुका है और वह कसमसाती हुई माफियाओं की महफिल में ठुमके लगाने विवश है।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

कबूल है, कबूल है, कबूल है...

आखिरकार सानिया मिर्जा और शोएब मलिक का निकाह हो ही गया। अंतिम क्षणों तक गोपनीय बनाकर रखा गया शोएब मलिक और सानिया मिर्जा का निकाह विगतकाल सोमवार को दोपहर 1 बजे हैदराबाद के होटल ताज कृष्णा में पढ़ा गया। मेहर की रकम 61 लाख रुपये रखी गई। कई नाटकीय मोड़ को पार करने के बाद नाटकीय ढंग से ही निकाह की घड़ी अचानक आ धमकी। भारत में इस शादी को सिर्फ मीडिया वालों ने परोसा। हफ्ते भर से लोगों को घूंटी पिलाई जाती रही। नागवार गुजरता रहा, लेकिन लोग अगली जानकारी के बारे में बेताब रहे। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान में हर कोई खुश देखा गया। गोया ऐसा लग रहा था कि वे शादी की दुआएं नहीं कर रहे थे, जंग में भारत को पटखनी दे रहे पाक की हौसलाआफजाई कर रहे थे। पाक मीडिया ने तो नए शब्द का ईजाद भी कर लिया-शोएनिया, शोएनिया, शोएनिया...। मतलब आधा सानिया, आधा शोएब। यह सच है कि प्यार सरहदों की परवाह नहीं करता। सरहद ही क्या वह किसी भी हद की परवाह नहीं करता। चूंकि मामला भारत और पाकिस्तान के साथ जुड़ा था, इसलिए सट्टेबाजों की भी पौ-बारह रही। इसी क्रम में एक और शादी की बात। चर्चा है कि विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर अपनी दूसरी पत्नी से तलाक मिलते ही तीसरी शादी रचाएंगे। उनकी भावी पत्नी का नाम सुनंदा है और वे एक कश्मीरी परिवार से हैं। दुबई में रहने वाली सुनंदा पेशे से ब्यूटीशियन हैं और एक स्पा चलाती हैं। थरूर के जीवन में आई नई महिला के बारे में दिल्ली के गलियारों में जोरों पर चर्चाएं हैं। मगर हम भारतवासियों को इसकी जानकारी मिलने के बाद कितनी उत्सुकता बढ़ रही है? मामला भी ऐरे गैरे का नहीं, एक मंत्री का है और वह भी काफी विद्वान मंत्री का। कोई प्रतिक्रिया नहीं। शायद गम भी नहीं, खुशी भी नहीं। इसलिए कि इसमें कहीं पाकिस्तान का नाम नहीं है और होता भी तो परवाह नहीं होती। भारतीय परंपरा में अक्सर देखा जाता कि लड़के की शादी नापसंद भी हो तो कालांतर में घाव भर जाता है। लड़कियों की शादी नापसंद हो तो पीढिय़ां ताने-उलाहने सुनती हैं। और संभवत: यही कारण है कि करोड़ों भारतीय दिलों पर राज करने वाली सानिया को आशीर्वाद देने वाले हाथों की कमी हो गई। पाकिस्तान लबरेज है। उसे अनचाही मुराद मिल गई। खेल जगत के इन दो सितारों के मिलन से पाकिस्तान का जनसंख्या कल्याण विभाग तो इतना खुश है कि अभी से ही भावी उम्मीदें पाले हुए है। विभाग चाहता है कि सानिया और शोएब की यह जोड़ी पाकिस्तान में फैमिली प्लानिंग प्रोग्राम के प्रचार-प्रसार का हिस्सा बने। उनकी यह ग्लैमरस बहू मुल्क की बढ़ती आबादी को रोकने में मदद करे। पाकिस्तान में जनसंख्या विभाग के अधिकारी तो इस बारे में खुलकर अपनी राय जाहिर कर रहे हैं। स्थानीय अखबार डॉन के अनुसार जनसंख्या कल्याण मंत्री फिरदौस आशिक अवान ने सानिया और शोएब के सामने फैमिली प्लानिंग प्रोग्राम का ब्रैंड एम्बैसडर बनने का प्रस्ताव भी दे दिया है। अब इन दोनों पर है कि वे इस प्रोग्राम का हिस्सा बनते हैं या नहीं। खास बात यह है कि अवान भी सियालकोट से आती हैं जहां के रहने वाले शोएब हैं। अवान ने कहा, अगर ये दोनों स्टार इस प्रोग्राम का हिस्सा बनते हैं तो पाकिस्तान में फैमिली प्लानिंग प्रोग्राम को बहुत फायदा होगा। पाकिस्तान की जनसंख्या कल्याण मंत्री फिरदौस आशिक अवान ने तो यहां तक कह दिया कि वह शादी के बाद शोएब और सानिया मिर्जा को यहां पहुंचने पर सोने का मुकुट गिफ्ट स्वरूप प्रदान करेंगी। सानिया ने एक बार कहा था, टेनिस खिलाडिय़ों का करियर बहुत लंबा नहीं होता है। हमारा करियर 24-25 साल पर खत्म होने लगता है। 21-22 की उम्र आपको ऊंचाई पर ले जाने वाली होती है। उनके पूर्व में दिए इस बयान पर गौर करें तो पाएंगे कि सानिया का शुरू से ही बहुत आगे तक खेलने का इरादा नहीं था। इसीलिए तो इसी वर्ष पहले सोहराब से सगाई और जब सगाई टूटी तो शोएब से निकाह करने का उन्होंने फैसला किया। उनके ही शब्दों में, मैंने स्टेफी ग्राफ के बारे में खूब सुना था। उनकी कथा परिकथा-सी लगती है। मैं भी ऐसा ही बनना चाहती हूं। यही वजह है कि जाने-अनजाने सानिया स्टेफी के ही नक्शे-कदम पर परिवार बसाने के लिए चल पड़ी हैं। फरवरी में सानिया व शोएब की मुलाकात दुबई में हुई। दोनों आएशा के जरिए पहले ही मिल चुके थे इसलिए दोनों का दुबई में अच्छा वक्त बीता। सानिया-शोएब के बीच वहीं प्यार पनपा और दोनों ने निकाह करने का फैसला कर लिया। दुबई से आने के बाद दोनों ने अपने-अपने परिवारों को अपना फैसला सुनाया। बाद में दोनों के परिवार ने आपसी बातचीत में निकाह पक्की कर दी। अब शादी के बाद दोनों का इरादा दुबई में ही रहने का है। दुबई में शोएब का एक मकान है। दोनों का दिल टूटा हुआ था इसलिए साथ ने दोनों के लिए मरहम का काम किया। दो देशों की आबोहवा में घुटन पैदा हो गई है। दिल तो कब का टूटा हुआ है। दोनों की जोड़ी सरहद के इस पार व उस पार के दिलों के लिए भी मरहम का काम कर जाए तो किसी आतंक की परवाह नहीं। इस पार से उस पार सिर्फ प्यार ही प्यार। बरसों से बिछड़े दो मुल्कों के लिए शायद इससे बड़ी सौगात कुछ नहीं।