मंगलवार, 30 जुलाई 2013

गरीबों का अनाज खा रहे दुकानदार

शहर युवक कांग्रेस द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों को दिया जानेवाला अनाज दुकानदार ही हजम कर रहे हंै। जो आंकड़े इकट्ठा किए गए हं उस पर नजर डाले तो दुकानदारों ने 50 फीसदी सरकारी अनाज बाजार में ऊंचे दाम पर बेच दिया। बीपीएल कार्डधारक को 20 किलो गेहंू, 15 किलो चावल, 500 ग्राम शक्कर व साढे तीन लीटर केरोसिन मिलना चाहिए।  जिला प्रशासन ने अब तक दुकानदारों पर कार्रवाई करने की जरूरत नहीं समझी।
युवक कांग्रेस ने राशन दुकानों से पूरा अनाज नहीं मिलने की शिकायतें मिलने के बाद पूर्व नागपुर में जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं लेकर लोगों को जागृत करने व उन्हें मिले राशन के बारे में जानकारी इकट्ठा की। लोगों के राशन कार्ड में दर्ज जानकारी का रिकार्ड तैयार किया गया। इसके बाद खाद्यान्न वितरण अधिकारी के कार्यालय से राशन वितरण का रिकार्ड लिया गया। दोनों रिकार्ड में कोई मेल नहीं बैठा। पूर्व नागपुर में 103 राशन दुकानें हैं। बीपीएल, एपीएल, अंत्योदय, अन्नपूर्णा व विधवा बीपीएल ऐसे 77195 राशन कार्ड है। राशन दुकानदारों ने बीपीएल कार्ड धारकों को मई माह में 20 की बजाय 10 किलो गेहंू, 15 की बजाय 8 किलो चावल, साढ़े तीन किलो की बजाय 1 लीटर केरोसिन दिया। इसी तरह साढ़े तीन लीटर केरोसिन सभी कार्ड धारकों को मिलना चाहिए, लेकिन आधे से ज्यादा कार्डधारकों को केरोसिन नहीं दिया गया। आंकड़ों पर गौर करे तो तीन माह में अकेले पूर्व नागपुर में ही ढाई करोड़ के माल की कालाबाजारी हुई है। पूरे शहर में 10 करोड़ से ज्यादा के माल की कालाबाजारी होने की संभावना है।
शहर युवक कांग्रेस के महासचिव बंटी शेलके व जुल्फिकार शानू ने इस संदर्भ जोन अधिकारी व खाद्यान्न वितरण अधिकारी को निवेदन दिया। रिकार्ड भी दिया गया, लेकिन किसी भी दुकानदार पर कार्रवाई नहीं हुई। गरीबों का अनाज डकारनेवाले दुकानदारों पर कार्रवाई करने के बारे में जिला प्रशासन मौन बना हुआ है। बंटी शेलके व जल्फिकार शानू ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में शीघ्र सुधार नहीं होने पर आंदोलन करने की चेतावनी दी।
शहर भर के राशन दुकानों के सामने राशन के लिए लोगों की कतारें लगी रहती हंै। कार्ड धारक राशन नहीं मिलने, राशन कम मिलने, पिछले महीने का राशन खा जाने की शिकायतें करते रहते हैं। दुकानदार इन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते। खाद्यान्न आपूर्ति विभाग औचक निरीक्षण करे तो सच्चाई पता चल सकती है। आपूर्ति विभाग अपने निरीक्षण में दुकानदारों को हर महीने क्लिन चिट देने का काम कर रहे है।




विरोध के स्वर मुखर

बुटीबोरी तिराहे पर प्रस्तावित उड़ानपुल  और जमीनी हकीकत के बीच नए संदर्भ सामने आते जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि स्थानीय लोग वास्तविकता को समझने के बाद फ्लाइओवर बनाने के कतई पक्ष में नहीं।  विरोध के स्वर मुखर होते जा रहे हैं। आंदोलन, धरना-प्रदर्शन एवं अदालती कदम उठाए जाने की चर्चा भी तेज होने लगी है। अचानक एनएचएआई की सक्रियता तेज हुई। सड़क मरम्मत के बहाने सर्वे की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। जन-विरोध को ठेंगा आखिर किस हिम्मत के साथ की गई, यह चिंतन का विषय रहा। रविभवन के कॉटेज-3 की बैठक को दैनिक भास्कर ने गोपनीय चुप्पी करार दिया था। वह चुप्पी बुटीबोरी के स्थानीय लोगों को जीवन भर जहर की घूंटी पिलाने के लिए ही थी। इसलिए कि बैठक के ठीक दूसरे दिन काम में तेजी आ गई।      
रामटेक से सांसद व पूर्व कैबिनेट मंत्री मुकुल वासनिक नागपुर पहुंचे। अधिकारियों से चर्चा की। अपने चुनावी क्षेत्र में ही कई दिनों बाद पहुंचे। एनएचएआई के अधिकारियों से विस्तृत चर्चा भी की, लेकिन बुटीबोरी तिराहे पर प्रस्तावित फ्लाइओवर पर चर्चा की बात एनएचएआई अधिकारी छुपाते रहे। कहा गया कि सड़क भरने की बात हुई। बुटीबोरी प्रस्तावित पुलिया व तिराहे की खबर तीसरे हफ्ते में पहुंच गई और ये कैसे मुमकिन है कि बैठक में उस पर चर्चा तक नहीं हई। ध्यान रहे बुटीबोरी तिराहे पर फ्लाइओवर बनाने के लिए तत्कालीन केंद्रीय सामाजिक न्यायमंत्री मुकुल वासनिक ने वीआईपी पैरवी पत्र मुख्य प्रबंधक (तकनीकी) को भेजा था।  
 महाराष्टï्र मंडल के तत्कालीन मुख्य प्रबंधक (तकनीकी) अनिल कुमार शर्मा द्वारा एनएचएआई के मुख्य प्रबंधन को लिखे पत्र में इस बात का विशेष तौर से उल्लेख किया गया है कि प्रस्तावित बुटीबोरी फ्लाइओवर के लिए कैबिनेट मंत्री मुकुल वासनिक का वीआईपी पैरवी है। पत्र में विस्तृत तौर पर कहा गया है कि बुटीबोरी टी-जंक्शन के मुहाने पर बढ़ते  यातायात के मद्देनजर इसमें सुधार जरूरी है। हालांकि इस सुधार कार्य का तात्पर्य विशेष रूप से फ्लाइओवर को ही लेकर किया जाने लगा।
 सवाल यह है कि स्थानीय जनता की राय के बिना ये कार्य किया जाने लगा। फ्लाइओवर  बनाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर इतनी हड़बड़ी आखिर क्यों दिखाई जा रही है? सवाल कई  हैं जिनका जवाब आना बाकी है। बुटीबोरी की जनता फ्लाइओवर कतई नहीं चाहती।


टोल की मार से होंगे बेजार

बुटीबोरी तिराहे की लड़ाई नई अंगड़ाई लेने को बेताब दिख रही है। या यूं कहें आर-पार की तैयारी कई स्तरों पर शुरू हो गई है। समाजसेवी आंदोलन की धार देने तो अन्य गणमान्य जनहित याचिका दाखिल करने की मंशा जता रहे हैं। एक पूर्व मंत्री तो आपराधिक मामला तक चलाने के लिए यलगार करने वाले हैं। और तो और औद्योगिक परिसर के बड़े अधिकारी खुद अपनी तरफ से शीघ्र ही मजबूरी भरा पहल करने वाले हैं। उनका कहना है कि इस प्रस्तावित पुलिया से मात्र बुटीबोरी या नागपुर ही नहीं, चंद्रपुर औद्योगिक परिसर तक टोल की मार से बेजार होगा।
साफ है कि प्रस्तावित पुलिया को अचंभा मान देखने की ललक कुछ लोगों में हिलोरें मार रही है तो अपेक्षाकृत ज्यादा लोगों में इस ललक से पार पुलिया का खूंखार चेहरा डरा रहा है। दोतरफा मार से बेजार होने की कल्पनामात्र ही सिहरन पैदा कर रही है।  दैनिक भास्कर ने  स्थानीय लोगों से इस बारे में राय ली। समाज के ही अलग-अलग हलकों में अलग-अलग स्तर की तैयारी देखने को मिली। तिराहे पर सिग्नल लगाने की बात होया फ्लाईओवर बनाने का प्रस्ताव या फिर टोल वसूली पुन: शुरू किए जाने का भय-हर मसले पर अपनी-अपनी राय देखने को मिली।
 नाम न छापने की शर्त पर एक पूर्व मंत्री ने भी प्रस्तावित फ्लाइओवर को लेकर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया। उन्होंने कहा कि फ्लाइओवर की उपयोगिता को लेकर पूर्ण रूप से अपनी राय बाद में दूंगा।  पहले इस फिजूलखर्ची तथा पुलिया की उपयोगिता को लेकर चर्चा करूंगा।
 विदर्भ जनांदोलन समिति के मुख्य सचिव एडवोकेट विनोद तिवारी ने कहा कि एनएचएआई एवं राजनैतिक सांठ-गांठ के तहत इस फ्लाइओवर का प्रस्ताव बनाया गया है। यह सीधा जनता के पैसों की लूट का मामला है। यह प्रस्ताव सोची-समझी आपराधिक साजिश है। जनहित के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे।
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बुटीबोरी पुलिया की लड़ाई ने ली नई अंगड़ाई

बुटीबोरी टी-प्वाइंट पर प्रस्तावित फ्लाईओवर निर्माण को लेकर भले ही प्रशासनिक तौर पर तकनीकी तैयारियां शुरू कर ली गईं हों,  लेकिन यहां के बाशिंदों ने ही इस प्रस्तावित फ्लाईआवर निर्माण के खिलाफ लामबंद होना शुरू कर दिया है। प्रस्तावित फ्लाईओवर के खिलाफ पहले ही दिन तकरीबन डेढ़ सौ घरों से हस्ताक्षर मुहिम के तहत जनमत जुटाया गया, जिसमें सभी ने एक स्वर में फ्लाईओवर के विरोध में अपने अपने मत रखे। प्रत्येक घर से 3 सदस्य होने के अनुमान को भी यदि आधार बना लिया जाए। तो पहले ही दिन के जनमत से पता चलता है कि अमूमन 450 से भी ज्यादा लोगों ने प्रस्तावित उड़ानपुल को लेकर विरोध जताया है।
 यहां विशेष ध्यान देनेवाली बात है कि जिस जनता की मांग का हवाला देते हुए प्रस्तावित फ्लाईओवर का खाका खींचने में एनएचएआई लगी हुई है। पहले ही दिन के जनमत संग्रह से उनके दावों की कलई खुलती नजर आ रही है। दैनिक भास्कर टीम द्वारा इस प्रस्तावित फ्लाईओवर व टोल नाके के संभावित संबंधों को लेकर श्रृंखला चलाई गई है, जिसमें प्रमुख तौर से एनएचएआई के ही उस केंद्रीय टीम के सुझावों को ही अमल में लाने के लिए चर्चा की गई है। केंद्रीय टीम के प्रस्ताव में तिराहे में सुधार कार्य कर यातायात के बढ़ते घनत्व को कम करने की गुंजाइश तलाशने का सुझाव दिया गया था, लेकिन कुछ स्वार्थी तत्वों की वजह से ये प्रस्ताव किनारे करते हुए राजनीतिक प्रतिनिधियों की आपसी सहमति को जनता की मांग ठहराते हुए इस लूट के पुल का षडयंत्र रचा जाने लगा।
 जनता की आंखों में इस लूट को छिपाने के लिए बुटीबोरी पुलिस थाने के 45 दुर्घटनाओं के आंकड़ों की धूल झोंकी गई, लेकिन सूचना के तहत तिराहे में केवल 2 सड़क दुर्घटनाओं का ही खुलासा होता है और ये दुर्घटना भी शराब के नशे में ट्रक चला रहे ड्राइवर की लापरवाही की वजह से होता है। जाहिर है 60 मीटर चौड़े एमआईडीसी की सड़क, महामार्ग के मुहाने में मुर्गी के गर्दन जैसी केवल 17 मीटर संकरी हो जाती है। जो यहां से गुजरनेवाले वाहनधारकों को सिमटने के लिए विवश करती है।
 बुटीबोरी के भाजपा विधायक विजय घोडमारे ने इस फ्लाईओवर निर्माण को लेकर घोषणा की थी कि 20 करोड़ 60 लाख रुपए की लागत से ये प्रस्तावित फ्लाईओवर निर्माण किया जानेवाला है, लेकिन प्रथम जनमत के तहत जुटनेवाली जनता प्रस्तावित उड़ानपुल के ही खिलाफ स्वर बुलंद करेगी ये राजनीतिक पार्टियों के सोच से भी परे था।
 प्रस्तावित बुटीबोरी फ्लाईओवर के कथित समर्थक और जिन पर पुल बनाने वाली ओरिएंटल कंपनी की सांठगांठ के आरोप भी लग रहे हैं, ने शुक्रवार को समाचार पत्र का विरोध किया। दैनिक भास्कर की खबर जनता के जेहन में घर कर रही है, जिसकी छटपटाहट इन भाजपा कार्यकर्ताओं में साफ दिखाई दे रही है। शुक्रवार को इसी तिराहे पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने विरोध किया। इससे साफ झलकता है कि प्रस्तावित फ्लाईओवर को लेकर राजनीतिक दल जनता की राय पूछने के पक्ष में नहीं हैं। देखना होगा कि फ्लाईओवर जनमत के आगे रुकता है या राजनेताओं के जिद्द के आगे जबरन पूरा करा लिया जाता है।
 

तेज हुई धार, अब आर-पार

स्थानीय बुटीबोरी तिराहे पर प्रस्तावित पुलिया की लड़ाई एक साथ अब तीन स्तरों पर छेड़ी जाएगी। जनविरोध तो पहले से मुखर है, अब उसमें समाजसेवियों के कूद जाने से धार और तेज हो गई है। अदालत में भी शीघ्र ही याचिका दायर होने वाली है। इस बीच, सूत्रों ने बताया कि जाने-माने समाजसेवी अण्णा हजारे के विश्वस्तों ने भी इस सुनियोजित भ्रष्टाचार की जानकारी ली तथा अण्णा को इससे अवगत कराने की बात कही। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, नागपुर शहर के एक जाने-माने समाजसेवी ने दैनिक भास्कर में पुलिया से संबंधित प्रकाशित खबरों पर संज्ञान लेते हुए इसे काफी गंभीर और बेहिसाब लूट का प्रकरण बताया है। भ्रष्टाचार किसी भी स्तर पर हो, क्षम्य नहीं। हम इसका विरोध करते रहेंगे। समाजसेवी ने एनएचएआई को बकायदा लिखित पत्र के माध्यम से पुलिया के प्रस्ताव को निरस्त करने की मांग की है।
सूत्रों ने बताया कि लगभग तैयारी पूरी हो चुकी है और संभवत: एक-दो दिन में अदालत में याचिका दाखिल कर दी जाएगी। सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि प्रस्तावित पुलिया के संबंध में कई याचिकाएं दायर की जा सकती हैं।  दरअसल, बुटीबोरी फ्लाइओवर बनाने की बजाय वहां सिर्फ 2 करोड़ के खर्च से रोड चौड़ा कर सिग्नल की व्यवस्था से काम चल सकता था, लेकिन एक मंत्री की कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए निर्माण खर्च व जनता से टोल वसूली करने के लिए सरकार ऐसे निर्णय ले रही है।
 दरअसल, सरकार की अकर्मण्यता से नागपुर की लंबित परियोजनाओं की फेहरिस्त काफी लंबी होती जा रही है। रामझूला का खर्च दो-तीन गुना करवा दिया तथा 2 साल में पूरे होने वाले इस प्रोजेक्ट को 10-11 साल तक झूला दिया। मिहान को भी 10 सालों से झुलाकर रखा है, पर काम कब तक पूरा होगा? आज भी समय निश्चित नहीं है। गोरेवाड़ा प्रोजेक्ट घोषित होने के बाद 10 सालों से झूल रहा है। जेएनएनयूआरएम के सहयोग से पेंच प्रकल्प से शहर के लिए लाई जाने वाली पाइप लाइन का काम भी 10 सालों से लंबित है। कीमत 3 गुना बढ़ गया है। विदर्भ टैक्स पेयर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष जे.पी.शर्मा के अनुसार,  जब सरकार की कार्यक्षमता और अकर्मण्यता की स्थितियां ऐसी हं तो क्यों नई परियोजनाओं की नींव रखने की बातें कर रही है? महाराष्टर सरकार मेट्रो रिजन 3 सालों से घोषित कर चुकी है, पर कार्यों में कोई भी गति नहीं दिख रही है। अब मेट्रो रेल प्रोजेक्ट की बातें जोरों पर है।  अन्य प्रोजेक्ट के बढ़ते समय और खर्च को देखें तो मेट्रो रेल प्रोजेक्ट को पूरा होने में 30-35 साल लग जाएंगे एवं खर्च 30 हजार करोड़ तक पहुंच जाएगा। शहर के सभी परियोजनाओं की आज तक जो स्थितियां रही हैं, हम देख रहे हैं, लेकिन एक आश्चर्य की बात भी है कि 56 किलोमीटर आउटर रिंग रोड, जो 300 करोड़ में पुलों के साथ पूरा हो सकता था, को सरकार ने ठेकेदार कंपनियों से 1350 करोड़ में, 4 गुना ज्यादा रेट में ठेका देकर 2 साल में पूरा कर दिया। अब इस रोड पर 2 टोल नाकों से 200 करोड़ प्रतिवर्ष के हिसाब से 28 साल तक टोल वसूली भी एक मंत्री की कंपनी करती रहेगी। इस कंपनी को इतने से भी संतोष नहीं हुआ। बुटीबोरी एमआईडीसी जोन रोड पर अनावश्यक फ्लाइओवर बना कर 1400 करोड़ वसूली के लिए एक और टोल नाका लगाने की तैयारी जोरों पर है।


शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

डोंगरगांव टोल नाके पर हलचल तेज

डोंगरगांव टोल नाके पर कुछ दिनों से चहलकदमी तेज है। सधे कदमों की आहट जानकार हालांकि काफी दिनों से महसूस कर रहे थे, मगर बात जुबान पर नहीं आ पा रही थी। बुटीबोरी औद्योगिक परिसर के मुख्य द्वार पर पिछले दिनों हुई दुर्घटना के बाद एक तरह से घोषणा ही हो गई। हिंगणा क्षेत्र के विधायक विजय घोड़मारे ने  बकायदा संवाददाता सम्मेलन में कहा कि दुर्घटना का केंद्र बने बुटीबोरी टी-प्वाइंट पर शीघ्र ही उड़ानपुल का निर्माण होगा। इसके लिए राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने 20 करोड़ 62 लाख रुपए मंजूर किए हैं।
नाक में दम करेगा नाका
खबर जंगल में आग की तरह फैली। औद्योगिक नगरी के भीतर तेज खलबली मची। टी-प्वाइंट कुछ देर के लिए ऐतिहासिक स्थल के रूप में तब्दील हो गया, जहां आकर लोग अपने-अपने ढंग से उड़ानपुल का खाका खिंचते रहे। कुछ आशंकित भी थे। उनका कहना था कि उड़ानपुल बना तो नाका भी रहेगा जो नाक में दम कर देगा। वसूली सालो-साल सालती रहेगी। अपने ही तहसील में पैसे देकर आना-जाना होगा। लिहाजा ग्रामीण क्षेत्र से जाने वाली सब्जियां तक महंगी हो जाएंगी।
राज क्या है
किसी का ध्यान इस तरफ बिल्कुल ही नहीं था कि औद्योगिक परिसर के मुख्य गेट के पास दुर्घटना होने का    कारण क्या हो सकता है?  मुहाने पर जमीन के सिकुडऩे और अंदर फैले होने का राज क्या है?  किसी को इससे लेना-देना नहीं था कि उड़ानपुल बनने के बाद की तस्वीर क्या होगी? क्या उसके बाद वाकई भीड़ छंटेगी? क्या सही में दुर्घटनाओं में कमी आएगी?
सीधे राजमार्ग पहुंच जाते हैं
औद्योगिक परिसर और आस-पास के इलाके में निजी वसाहतों की संख्या बढ़ती जा रही है। नागपुर से बुटीबोरी जाते समय दाहिने ओर चप्पे-चप्पे पर विभिन्न वसाहतों के बोर्ड स्वागत करते मिल जाएंगे। राष्ट्रीय राजमार्ग और रिहायशी/ निजी/ व्यावसायिक संकुलों के बीच की दूरी पाट दी गई है। राजमार्ग पर पहुंचने के लिए लोगों को एमआईडीसी के मुख्य गेट तक आने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ती। वे सीधे राजमार्ग पहुंच जाते हैं।
मुश्किलें और बढ़ेंगी
जानकारों का मानना है कि उड़ानपुल बनने के बाद मुश्किलें और बढ़ेंगी। राजमार्ग प्राधिकरण की नजर से देखें तो दो नजदीकी ऊपरी पुलों के बीच पैचअप नहीं दिया जा सकता। यानि साफ है कि बुटीबोरी औद्योगिक परिसर के मुख्य गेट से नागपुर की तरफ 2-3 किलोमीटर तक के लोगों को नागपुर आने के लिए मुख्य गेट के पास जाना होगा और फिर गंतव्य की ओर। आंकड़े की नजर से देखें तो जितनी आबादी आज सीधे राजमार्ग पर पहुंचती है, वे सभी मुख्य गेट से होकर ही जाएंगी। स्पष्ट है कि लोगों का घनत्व मुख्य गेट पर अधिक होगा और दुर्घटनाओं का अंदेशा अपेक्षाकृत ज्यादा होगा।
दोहरी तस्वीर क्यों
राष्टï्रीय महामार्ग क्र. 6 पर माथनी में टोल नाका बन रहा है। उसे महादूला स्थानांतरित कराने के प्रयास जारी हैं।  पिछले दिनों मौदा-कामठी विधानसभा क्षेत्र के युवक कांगे्रस  ने टोल नाका हटाओ अभियान अंतर्गत रास्ता रोको आंदोलन किया था। राष्टï्रीय महामार्ग क्र. 6 (भंडारा-नागपुर) का फोर लाइन का काम जारी है।  टोल नाका माथनी पर बनने जा रहा है। इससे मौदा तहसील के लोगों को नागपुर जाने के लिए टोल नाका देना होगा। मांग की जा रही है कि यह टोल नाका पुराने जगह महादुला में बने ताकि तहसील के लोगों को नागपुर जाने के दौरान पैसे नहीं लगे।
डोंगरगांव में टोल वसूली की कहानी
गौरतलब है कि डोंगरगांव में टोल वसूली को अनुचित ठहराते हुए उच्च न्यायालय ने वसूली गई राशि वापस लौटाने  के आदेश दिए थे। डोंगरगांव संघर्ष समिति, बुटीबोरी मैन्यूफैक्चर्स एसोसिएशन व नागपुर ट्रकर्स यूनिटी की याचिका पर सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने डोंगरगांव में नाके को अवैध करार दिया था। साथ ही यह आदेश दिया कि जीरो माइल से 36 किमी दूर बोरखेड़ी में देख-रेख नाका शुरू किया जा सकता है। 1995 में ओरियंटल कंपनी ने डोंगरगांव क्षेत्र में ब्राम्हणी से चिंचभुवन तक 27 किमी फोर लेन के निर्माण का ठेका लिया था। केंद्र सरकार ने 80 करोड़ रुपए में यह ठेका दिया था। उस अनुबंध में साफ निर्देश था कि मार्ग निर्माण के एवज में टोल न वसूला जाए। बाद में 2006 में इस मार्ग का उन्नतिकरण हुआ। उसका ठेका डी. पी. जैन कंस्ट्रक्शन कंपनी को दिया गया। 19 करोड़ की लागत से यह कार्य संबंधित कंपनी ने दो साल में पूरा किया। बाद में ओरियंटल कंपनी को बायपास रोड बनाने का ठेका मिला। गोंडखैरी से खवासा तक 117 किमी मार्ग बनाया जाना था, लेकिन ओरियंटल ने केवल 58 किमी का कार्य ही पूरा किया। मनसर के बाद वन क्षेत्र में कानूनी अड़चनें आईं। इस बीच ओरियंटल ने डोंगरगांव व कन्हान नाके पर टोल वसूली शुरू कर दी। साथ ही चेक पोस्ट के नाम पर जामठा व एक अन्य पोस्ट पर भी वसूली शुरू की। यह मामला अदालत में पहुंचा। याचिकाकर्ताओं ने तब अदालत को बताया था कि डोंगरगांव क्षेत्र में जो सड़क ओरियंटल ने बनायी ही नहीं, उस पर भी निर्माता होने का दावा करते हुए टोल वसूला जा रहा है।
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पनाह मांगतीं धरोहरें

इतिहास की अजीम विरासतों को संजोने में हम कितने लापरवाह हैं, इसके एक-दो नहीं, कई उदाहरण नागपुर में देखने को मिल जाएंगे। संरक्षित धरोहरों के 'लापताÓ होने अथवा उनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने का उल्लेख तो अक्सर होता तो है, लेकिन सिर्फ कागजों पर। गनीमत है वे महफूज हैं, जिनकी छतों के नीचे सरकारी दफ्तर हैं।  कोतवाली थाना, गांधी गेट, सुयोग, जीपीओ और डिवीजनल कमिश्नर ऑफिस- ये सभी इमारतें प्रदेश सरकार की ओर से घोषित धरोहरों (हेरिटेज) की श्रेणी में आती हैं। विभिन्न विभागों के दफ्तरों के रूप में इस्तेमाल होने से इनकी स्थिति अन्य जर्जर इमारतों जैसी नहीं है। सवाल यह है कि अन्य जर्जर धरोहरों के बारे में इस हद तक लापरवाही और उदासीनता क्यों? नियमों के मुताबिक धरोहरों के सौ मीटर के दायरे में किसी भी तरह के निर्माण-कार्य पर पाबंदी है। लेकिन ऐसे बहुतेरे मामले हैं, जिनमें शहरी विकास और जनहित के नाम पर वैसे निर्माणों की इजाजत धड़ल्ले से दे दी गई। अतिक्रमण से ऐतिहासिक महत्व की कई इमारतें बुरी तरह प्रभावित हैं या उनकी हालत लगातार खराब होती जा रही हैं। कुछ  अवैध कब्जे में हैं तो कुछ का स्वरुप ही बिगड़ गया है। बावजूद इसके  न तो पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का उन पर ध्यान है और न ही राज्य सरकार का। हमारी विरासत, हमारी धरोहरें हमसे ही पनाह मांगने लगी हैं।
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कोतवाली थाना
1755 में बनी यह इमारत भोंसले राज परिवार की रानी बकाबाई के महल का हिस्सा हुआ करती थी। अंग्रेजों के जमाने में इस इमारत में भोंसले शासकों का दरबार लगा करता था, जहां अपराधियों को सजा सुनायी जाती थी।  पहरे पर कोतवाल हुआ करते थे, जिसके चलते इसका धीरे-धीरे कोतवाली पड़ गया। वर्ष 1937 में इस इमारत को राज्य पुलिस को एक रुपए के किराए पर दे दिया गया था। नागपुर उस समय मध्य प्रांत और बेरार की राजधानी हुआ करता था। आज की तारीख में इस इमारत के रख-रखाव का जिम्मा पुलिस महकमे पर है।
गांधी गेट
किसी जमाने में नागपुर शहर का मुख्य द्वार रहा यह दरवाजा आज शहर के बीच में आ चुका है। शुक्रवारी तलाब के निकट होने की वजह से रघुजीराव भोसले और जानोजीराव भोसले के शासनकाल में बने इस दरवाजे का नाम शुक्रवारी दरवाजा पड़ गया था।  1848 में अंग्रेजों और भोसले शासकों के बीच लड़ाई के दौरान अंग्रेजों ने तोप के कई गोले दागे, लेकिन दरवाजे को उड़ा नहीं पाए। वर्तमान में इसकी देखभाल पीडब्ल्यूडी विभाग के जिम्मे है। पीडब्ल्यूडी विभाग के सिद्धार्थ नंदेश्वर पिछले 30 साल से इस दरवाजे के रखरखाव के लिए यहां तैनात हैं।  स्कूल के बच्चों को प्राय: यहां घुमाने के लिए लाया जाता है। हर वर्ष 15 अगस्त और 26 जनवरी को इस दरवाजे पर झंडा वंदन होता है।
सुयोग
 सीपी एंड बेरार के विधायकों का होस्टल रहे इस इमारत में 80 कमरे हैं। आज इस इमारत के पहले तल पर फॉस्ट ट्रैक अदालत लगती है तो शीतकालीन सत्र के दौरान नीचे के 40 कमरों में पत्रकारों को ठहराया जाता है।
जनरल पोस्ट ऑफिस
1916 से 1921 के दौरान बनी विक्टोरियन शैली की यह इमारत देखते ही बनती है। साढ़े नौ एकड़ क्षेत्र में बनी  लाल ईंटों की यह इमारत 12 खंभों पर टिकी है। जीपीओ में उप-डाकपाल रिहाना सयैद बताती हैं कि इस इमारत की दीवारें इतनी मोटी हैं कि गर्मी का एहसास कम होता है।  सौ साल के करीब पहुंची इस इमारत की सुंदरता आज भी बरकरार है।
डिवीजनल कमिश्नर ऑफिस
सीपी एंड बेरार के गठन के मद्देनजर 8 नवंबर 1913 में मध्यप्रदेश विधान परिषद का गठन किया गया। इसी लिहाज से सचिवालय बनाने का कार्य शुरू किया गया।  सचिवालय का निर्माण 1910 से 1916 के दौरान हुआ।  डिवीजिनल कमिश्नर ऑफिस को पुराने सचिवालय के नाम से भी जाना जाता है। अष्टभुजी इस दो मंजिली इमारत को उस समय बनाने में 10,80022 की लागत आई थी। आज यहां डिवीजिनल कमिश्नर कार्यालय के अलावा 20 अन्य विभागों के भी कार्यालय हैं।
 अनेक वीरान
 राजा-महाराजाओं के महल हेरिटेज घोषित किए गए है। इनमें अनेक वीरान पड़े हैं। जहां वंशजों का निवास है, वे आबाद हैं। इस श्रेणी में राजा रघुजी भोंसले का सीनियर भोसला पैलेस माना जा सकता है। हेरिटेज इमारतों में सीनियर भोंसला पैलेस का शुमार है। वर्तमान में उनके वंशज राजे मुधोजी भोंसले सपरिवार यहां रहते हैं। हेरिटेज के दायरे में लेने के बाद भी रख-रखाव पर अनदेखी की जाती रही है।
हेरिटेज नियमों के अनुसार, इन इमारतों के पुराने शिल्प को छेड़ा नहीं जा सकता है। मगर समय के थपेड़े इन्हें आसक्त करते देखे जा रहे हैं। टूट-फूट होने पर भोंसले परिवार द्वारा मांगी गई मरम्मत की अनुमति बमुश्किल दी गई। सारी देख-रेख और व्यवस्था परिवार द्वारा की जाती है, जबकि इस हेरिटेज इमारत का नियमित टैक्स शासन द्वारा वसूला जा रहा है। राजे मुधोजी भोसले के अनुसार सीनियर भोंसला  पैलेस का निर्माण 1818 में किया गया था, जिसे अंग्रेजों ने जला दिया था। 1822-23 में इसका पुनर्निर्माण किया गया। क्षतिग्रस्त हिस्से को जोड़कर मौजूदा महल बनाया गया। मुधोजी ने बताया कि हेरिटेज इमारत का टैक्स हमसे ही लिया जाता है, जबकि इसके व्यवस्थापन की जिम्मेदारी शासन की है।
 गोंड राजा की बुलंद इमारतें
 'खंडहर बता रहे हैं, इमारत कभी बुलंद थीÓ का जुमला शत-प्रतिशत गोंड राजा की पुरानी इमारतों पर लागू होता है। स्वाधीन करने के बाद कभी इनके रंग-रोगन पर ध्यान नहीं दिया गया। वर्ष 1738 से पूर्व गोंड राजाओं का राज था। उस काल की इमारतों को राज्य शासन की सुरक्षा व्यवस्था कभी हासिल नहीं हुई। स्थिति इतनी बिगड़ी कि आज खंडहरों को देखकर भी नहीं लगता कि कभी वहां शासक निवास करते थे।
शब्दों तक सीमित किला
गोंड राजा का किला मात्र शब्दों तक सीमित रह गया है। आज सामान्य मकान के रूप में इसे देखा जाता है। 2003 के पूर्व शासन की उपेक्षा का शिकार बने गोंड किले की जर्जर अवस्था को देखते हुए हेरिटेज सूची से इसे निकाल दिया गया। गोंड राजा के वंशज राजे विरेंद्र शाह यहां परिवार के साथ रहते हैं। इनकी जागीर में आज भी गोंड दरवाजा (पत्थरफोड़ दरवाजा), पत्थर फोड़ मस्जिद, सक्करदरा स्थित कब्रिस्तान की गिनती होती है। समाधियों को कुछ लालची लोगों ने तोड़ दिया। जानकारी के अनुसार, यहां 35 प्राचीन समाधियां थीं।
 शुरू हुआ रघुजी का राज
 आभूषणों की लालच में इसे लोगों ने तोड़ दिया।  दो समाधियां सलामत हैं, जो क्रमश: बुरहान शाह और सुलेमान शाह की हैं। मनपा प्रशासन द्वारा गोंड राजा की तोप की मरम्मत तथा सीढिय़ों को बनाने का काम शुरू किया गया। गोंड किले के दरवाजे को सौंदर्यीकरण की सुची में रखकर मरम्मत की जा रही है। वर्ष 1702 में गोंड राजा बख्त बुलंद शाह ने इसे बनवाया था। 1709 में उनके निधन के बाद गोंड राजा चांद सुल्तान ने अनेक इमारतों का निर्माण किया जो आज खंडहर बन चुके हैं।  1735 में उनके निधन के बाद तख्त के लिए पारिवारिक कलह बढ़ गई। यहां तक कि राजकुंवर की जान चली गई। वर्ष 1735 में विधवा रानी रतन कुंवर ने तत्कालीन रघुजी राजा की मदद से पारिवारिक कलह को शांत किया। रानी रतन कुंवर ने रघुजी राजा को अपना बेटा मान लिया। रियासत के तीन हिस्सों में बुरहान शाह, सुलेमान शाह और राजा रघुजी हिस्सेदार बने। यहां से राजा रघुजी का राज शुरू हुआ। यह 1738 की बात है। उस समय की इमारतों में कुछ सलामत हैं।  
जिन पर नाज, उन्हीं पर गाज
नागपुर त्रिशताब्दी महोत्सव का गौरवशाली उत्सव प्रशासनिक और सार्वजनिक स्तर पर बड़े ही धूमधाम से मनाया गया। जिन ऐतिहासिक व वास्तुशाीय धरोहरों ने इस उपलब्धि तक शहर को पहुंचाया, वे धरोहरें खुद उपेक्षा का शिकार बनी हुई है। जिन इमारतों, स्थलों एवं स्मारको ने नए नगर को उंगली पकड़कर शहर कहलाने के पथ पर अग्रसर किया उन्हें ही रखरखाव के अभाव का दंश झेलना पड़ रहा है।
 भारत के राजपत्र में यह स्पष्ट उल्लेख है कि शहर के धरोहर और स्मारकों के संरक्षण के लिए अधिकारियों और जानकारों का 11 सदस्यीय दल होने चाहिए।  इस दल में राज्य के सेवानिवृत्त गृह सचिव, सेवानिवृत्त मनपा आयुक्त, सेवानिवृत्त नासुप्र सभापति अथवा नगर रचना विभाग के सेवानिवृत्त निदेशक हेरिटेज कंजर्वेशन कमेटी (विरासत संरक्षण समिति) के अध्यक्ष रहेंगे। अभियंता (संरचना, अनुभव-10 वर्ष) स्थापत्य कला के जानकार (अनुभव-10 वर्ष), नागपुर संग्रहालय के क्यूरेटर (संग्रहाध्यक्ष), शहर के इतिहासकार (अनुभव-10 वर्ष), राज्य सरकार की ओर से नामांकित व्यक्ति (उदा. सहायक निदेशक, नगर रचना विभाग), नासुप्र के सदस्य व नगर रचना विभाग के सहायक निदेशक आदि का समावेश है। विडंबना है कि न तो आज यह दल अपने सही रूप में है और न ही इसके लिए कोई कार्यालय उपलब्ध है। अस्थायी रुप से नगर रचना विभाग कार्यालय में इनके बैठने की व्यवस्था है।
 राजपत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि शहर के ऐतिहासिक व वास्तुशाीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण, स्थलों एवं स्मारकों के संरक्षण का दायित्व प्रशासन, निजी इमारतों के मालिक आदि पर है। लेकिन हैरिटेज कंजर्वेशन कमेटी की पूर्व अध्यक्ष चिकला जुत्सी ने बताया कि संरक्षण और मरम्मत के लिए अब तक एक भी रुपए नहीं मिले हैं। जबकि वर्ष 2000 में जारी किए गए राजपत्र में यह स्पष्ट उल्लेख है कि मनपा बजट में इस कार्य हेतु निधि का प्रावधान रखा जाना चाहिए, लेकिन मनपा की ओर से ऐसा कोई प्रावधान या फिर कोई उपाय योजना नहीं।   चौंकानेवाली जानकारी स्वयं विरासत संरक्षण समिति की अध्यक्ष चित्कला जुत्सी ने देते हुए बताया कि मुंबई स्थित किसी अन्य संस्थान से मैं जुड़ गई हूं। फिलहाल उस समिति की सदस्य नहीं। अलबत्ता उन्होंने बताया कि संरक्षण के नाम पर उन्हें कोई पैसा नहीं दिया जाता।
 जिले में विरासत के रूप में कुल 155 स्थलों को चिन्हित किया गया है। पहले 138 स्थल रखे गए थे और 66 स्थलों को हटा दिया गया था। बाद में अदालत ने 17 स्थलों को और जोडऩे के आदेश दिए। हैरतअंगेज रुप से इतनी लम्बी सूची होने के बावजूद कोई संरक्षण व संयोजन के उपबंध नहीं। राजपत्र में उल्लेख है कि सूची बद्ध सभी स्थल नागरिकों के लिए खुले रहने चाहिए, लेकिन कुछ स्थलों में ऐसी सुविधा सहज उपलब्ध नहीं हो पाती। राजपत्र में स्पष्ट निर्देश है कि हेरिटेज कंजर्वेशन कमेटी के ग्यारह सदस्यों की हर साल अथवा अधिकतम 40 दिनों के अंतराल में एक बैठक होनी जरूरी है। बैठक में न्यूनतम 50 प्रतिशत सदस्यों की मौजूदगी अनिवार्य है, लेकिन सूत्रों से पता चला है कि ऐसे निर्देशों का पालन नहीं किया जाता। यही कारण है कि धरोहरों के संरक्षण और संयोजन पर चर्चा नहीं हो पाती।  दूसरी तरफ, नगर रचना विभाग ये दावा करता है कि समिति की बैठक नियमपूर्वक होती है। विरासत संरक्षण समिति के कार्य-निर्देशों को लेकर अन्य नियम यह भी है कि धरोहर स्थलों के आसपास ऊंची इमारतें या टावर नहीं बनाए जा सकते। साथ ही हेरिटेज आकृति के किसी भी अंग को क्षतिग्रस्त नहीं किया जा सकता। लेकिन गोंड राजाओं के कब्रगाह, भोसले राजाओं का राजघाट आदि की खस्ता हालत और क्षतिग्रस्त स्थितियों को देखकर समिति व अन्य जिम्मेदार प्रशासनिक कार्यालय की कार्यप्रणाली को साफ तौर से समझा जा सकता है। याद हो कि कुछ वर्षों पूर्व जीरो माइल स्थित माइल स्टोन स्मारक से लगकर पेट्रोल पम्प को इसलिए बंद किया गया, क्योंकि यहां शहीद स्मारक बनाया जाना था। तब से अब तक इस दिशा में कोई पहल देखने को नहीं मिली। राजपत्र में विरासत के संरक्षण के लिए मालिक, सहकारी संस्था, आवास मरम्मत मंडल व अन्य विरासत धारी संस्था मरम्मत की सूची मनपा, जिला नियोजन अन्य जिम्मेदार विभागों को देने का प्रावधान है। लेकिन इस ओर कोई पहल देखने नहीं मिलती। विरासतों व धरोहरों के संरक्षण के लिए धरोहर विकास कोष का प्रावधान है, जो 3 श्रेणियों में विभाक्त है।  पहली श्रेणी में उन धरोहरों का समावेश है जो राष्ट्रीय व ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। इन्हें अत्याधिक संरक्षण योग्य समझा जाता है। दूसरी श्रेणी में वे धरोहर आते हैं जो स्थानीय या क्षेत्रीय महत्व के स्थापत्य व आध्यात्मिक श्रेणी के हैं। इन्हें दुय्यम दर्जा प्राप्त है। तीसरी श्रेणी में उन इमारतों का समावेश है, जो नगर रचना के लिहाज से महत्वपूर्ण समझे जाते हैं।
 प्राचीन ऐतिहासिक स्थल, इमारत या स्मारक देश की सभ्यता व संस्कृति की परिचायक होती हैं। गौरवपूर्ण इतिहास को जानने में इनका बहुत अधिक महत्व है। 19वीं सदी के प्रारंभिक दशक में आए सांस्कृतिक पुनर्जागरण से भारत में ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की नींव पड़ी। सबसे पहले 1810 का बंगाल रेग्युलेशन 19वां एक्ट आया। फिर 1817 का मद्रास रेग्युलेशन सातवां नामक एक्ट आया। इन दोनों के कारण सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ कि वह सार्वजनिक संपत्ति के दुरुपयोग अथव अनैतिक इस्तेमाल होने पर रोक लगा सके। हांलाकि ये दोनों एक्ट इमारतों के निजी मालिकाना हक पर कोई निर्देश नहीं देते थे। फिर 1863 के बीसवें एक्ट ने सरकार को यह शक्ति प्रदान की कि वह किसी इमारत के ऐतिहासिक, प्राचीन महत्व को देखते हुए, व उसकी वास्तुकला के आधार पर उसका संरक्षण करें व दुरुपयोग होने से रोके। इस तरह कह सकते हैं कि ऐतिहासिक धरोहर संरक्षण की कानूनन शुरुआत 1810 से प्रारंभ हो गयी थी। ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में एक नए युग का सूत्रपात हुआ, जब 1904 में प्राचीन स्मारक संरक्षण एक्ट नामक कानून लागू हुआ। 1951 में द एंशिएंट एंड हिस्टॉरिकल मांयूमेंट एंड आर्कियोलॉजिकल साइट्स एंड रिमेंस एक्ट, 1951 प्रभावी हुआ। अब तक एंशिएंट मांयूमेंट प्रोटेक्शन एक्ट 1904 के तहत ऐतिहासिक महत्व की संरक्षित की जाने वाली जिन इमारतों को चिन्हित किया गया था, उन्हें 1951 के इस नए कानून के तहत दोबारा चिन्हित किया गया। देश की ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण व उपरोक्त कानूनों को प्रभावशाली तरीके से लागू करने के लिए 28 अगस्त 1958 को द एन्शिएन्ट मांयूमेंट एंड आर्कियोलॉजिकल साइट्स एंड रिमेंस एक्ट 1958 भी लागू किया गया।प्राचीन स्मारक एवं पुरातत्वीय स्थल तथा अवशेष (संशोधन और विधिमान्यकरण) विधेयक, 2010, के अनुसार,  संरक्षित स्मारकों और स्थलों के सभी दिशाओं में 100 मीटर की एक न्यूनतम क्षेत्र के दायरे में किसी भी प्रयोजन से किया गया कोई भी निर्माण कार्य  निषिध्द होगा।
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दौड़ते वाहन, टूटते नियम

 घर से स्कूल तक बच्चों की सुरक्षा राम भरोसे है। कहीं साजिश की बू तो कहीं नकारेपन की हद। ख्वाब आंखों में सजाए माता-पिता उन्हें तब तक अपलक निहारते रहते हैं, जब तक उनका वाहन नजरों से ओझल नहीं होता। वापसी के दौरान घड़ी की सूइयों की टिक-टिक और दिल की धड़कन साथ-साथ हो जाती हैं। उन्हें मालूम है कि बेपरवाह रिक्शा चालक बच्चों को किस कदर रिक्शों में ठूंस कर ले जाते हैं। इससे भी वाकिफ हैं कि खस्ताहाल स्कूली बसें कैसे मासूमों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रही हैं। नहीं भूलते वे क्षण जब दाखिला लेेने गए थे। मोटी फीस बटोरने के लिए खीसें निपोरते हुए बड़ी-बड़ी सुविधाओं का दावा किया गया था।  प्रवेश हो चुका है। घटिया वाहन व अनुभवहीन चालक, यही हकीकत है। सरकार ने भौंहें तानी तो वाहन चालक संगठनों ने आस्तीनें चढ़ा लीं। कानून सख्त हुआ तो पस्त हुए, लेकिन समय बीतने के साथ फिर मस्त हो गए। दो माह का समय मांगा था। आरटीओ के मापदंडों के अनुसार केवल १२७ बसें तैयार हैं। साफ है-नियम कागजों पर, वाहन सड़कों पर और भविष्य दांव पर...।
 मुख्याध्यापक के लिए निर्देश
1. विद्यार्थियों के सुरक्षित यात्रा की जिम्मेदारी विद्यालय के मुख्याध्यापक की है
2. प्रत्येक विद्यार्थी के आवाजाही पर विशेष ध्यान हो
3.  विद्यार्थी सुरक्षित घर पहुंचे, इसकी यातायात पुलिस से विचार-विमर्श करें। यातायात नियमन के लिए आवश्यकता अनुसार यातायात रक्षक की नियुक्ति करें
4. स्थानीय प्रशासन नगरपलिका या महानगर पालिका की सहायता से विद्यालय परिसर के आस-पास आवश्यक चिन्ह लगाए जाएं
5. नेत्ररोग तज्ञ व वैद्यकीय अधिकारी से वाहन चालकों को वैद्यकीय प्रमाणपत्र दिए गए हैं या नहीं, इसकी जांच करें
6. वाहन चालक ने यदि वैद्यकीय प्रमाणपत्र हासिल नहीं किया तो प्रतिबंध लगाएं
8. वाहन चालक के पास वाहन चलाने का पांच वर्ष का अनुभव, अनुज्ञप्ति की वैधता व सार्वजनिक बिल्ला आदि की जांच हो
9. वाहन में नियुक्त महिला सहायक व सहवर्ती का पहचान पत्र जांचे
10. नया सत्र शुरू होने से पहले साल में दो बार प्रथमोपचार की प्रक्रिया क्रि यान्वित की जाए
11. अग्निशमन यंत्र की जांच करें
12. बस की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दे
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स्कूल बस विद्यार्थियों को पालन करने के नियम
1. अपना पास हमेशा साथ रखें
2. स्थानक पर बस आने के पूर्व विद्यार्थी पहुंचें
3. बस से उतरते व चढ़ते समय अनुशासन का पालन करें
4. बस शुरू होने से पूर्व अपने स्थान पर बैठें। चलती बस में खड़े न हों
5. बड़े विद्यार्थी पीछे बैठें
6. दो सीट पर तीन व तीन सीट पर चार विद्यार्थी बैठ सकते हैं
7. शांति बनाए रखें। शोरगुल से वाहन चालक का ध्यान भटक सकता है और दुर्घटना घट सकती है।
8. शरीर का कोई भी भाग वाहन से बाहर न निकालें
9. धक्का-मुक्की न करें
10. गैरव्यवहार करनेवाले विद्यार्थियों की बस की मान्यता रद्द की जा सकती है
11. बस में पेट्रोल, डीजल, गॅस, स्टोव, फटाके जैसे ज्वलनशील पदार्थ दिखाई देने पर प्राचार्य को इसकी जानकारी दें।
12. बस चालते समय यदि बस चालक मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहें हो तो इसकी जानकारी प्राचार्य को दें
13. संशयात्मक घटना की जानकारी प्राचार्य को दें।
14. अपनी वस्तुएं स्वयं संभालें
15. बस में स्वच्छता रखी जाए
16. बस स्थानक बदलने की जानकारी 24 घंटे पूर्व विद्यालय व वाहन चालक को बताएं
17. बस का नुकसान करने पर प्राचार्य को जानकारी दें
18. बस में प्राप्त वस्तु विद्यालय में जमा कराएं
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बस चालक की पात्रता व कर्तव्य
1. वाहन चलाने का पांच वर्ष का अनुभव हो
2. प्रवासी सेवा का बिल्ला लगा होना अनिवार्य
3. स्वच्छ गणवेश पहने व व्यक्तिक स्वच्छता रखें
4. धुम्रपान न करें। मोबाइल का उपयोग न करें। हेडफोन कान में न लगाएं, रेडियो या टेपरिकार्डर का उपयोग न करें
5. बार बार ब्रेक न लगाए, गति नियंत्रित रखें
6. विद्यार्थियों चढ़ते व उतरते समय वाहन स्थिर रखें
7. वाहन शुरू होने पर दरवाजे बंद हो
8. वाहन में कर्कश हॉर्न का उपयोग न करें
9. इलेक्ट्रिक वायरिंग की समय-समय पर जांच क रें
10. विद्यार्थियों के लिए अपशब्दों का प्रयोग न करें और न ही व्यक्तिगत स्तर पर कोई सजा दें
11. परमिट, फिटनेस, इंश्योरेंस, टैक्स, पीयूसी, लाइसेंस आदि दस्तावेजों की वैधता नियमित जांचें
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हंगामा है यूं बरपा
 शहर और शहर से बाहर के इलाकों में आरटीओ के नियमों को ताक पर रख कर स्कूल बसें और वैन चल रही हैं।  कार्रवाई के बावजूद वे बाज नहीं आ रहे हैं।  मार्च में जब आरटीओ ने इन बसों पर कार्रवाई शुरू की थी, तब बच्चों की परीक्षा होने की दुहाई देकर इन्होंने २ माह का समय मांगा था। उस समय सभी  ४५२ बसों को आरटीओ के मापदंडों के अनुसार तैयार करने का आश्वासन दिया था। दो माह बीत गए, किंतु अब तक केवल १२७ बसें ही पूरी तरह से तैयार हैं। उस समय तो राजनेताओं के हस्तक्षेप के बाद कार्रवाई रोक दी गई, किंतु अब आरटीओ सख्त दिखाई दे रहा है। स्कूल शुरू होते ही कार्रवाई भी शुरू कर दी गई है। पहले दिन कुल २०० बसों की जांच की गई, जिनमें से ६९ बसों के खिलाफ कार्रवाई की गई। गुरुवार को कार्रवाई में  १०० बसों की जांच की गई, जिसमें से ५१ पर कार्रवाई हुई।  २८ बसों को डिटेन किया गया है और अन्य से दंड वसूला गया।वर्ष भर का आंकड़ा देखा जाए तो मार्च २०१३ तक आरटीओ ने ९०६ बसों की जांच की थी, जिनमें से ३४१ बसें आरटीओ के मापदंडों के अनुसार नहीं थी।  इन बस चालकों से २१ लाख ९३ हजार रुपए का जुर्माना वसूला गया। अप्रैल माह में भी ९४ बसों की जांच की गई थी, जिनमें से ३० बसें से २१००० रुपए जुर्माना वसूला गया।
विधायकों ने की थी मध्यस्थता
आरटीओ जब सख्ती से कार्रवाई कर जुर्माना लगा रहा था उस समय शहर के तीन विधायकों ने स्कूल बस और वैन चालकों की ओर से मध्यस्थता की थी। चालक-मालक के हवाले से उन्होंने कार्रवाई की समय सीमा बढ़ाने की मांग की थी, किंतु दो माह का समय बीतने पर भी स्कूल बसें पूरी तरह तैयार नहीं हुई है।
 बच्चे हैं, पार्सल नहीं
विद्यार्थी परिवहन के लिए आसन (बैठने) क्षमता निश्चित है। सामान्यत: तीन और छह आसनी ऑटो-रिक्शा का उपयोग किया जाता है, लेकिन उसमें क्षमता से अधिक विद्यार्थियों को ठूंसा जाता है। बच्चे ठीक से बैठ भी नहीं पाते हैं। कभी सिर बाहर निकलता है तो कभी हाथ। कुछ बच्चे तो मानते हैं कि दम भी घुटता है। ऐसा लगता है मानों हम बच्चें नहीं, रेलवे का पार्सल हैं।
बस्ते और डिब्बे बाहर
बच्चों को ऑटो में तो ठूंस दिया जाता है, लेकिन उनके  बस्ते और डिब्बे की जगह नहीं रहती। ऑटो-रिक्शा के बाहर दोनों झूलते रहते हैं।  गिर गए तो बच्चे उतरकर वापस रखते हैं। ऐसे में दुर्घटनाओं का अधिक डर बना रहता है।
बसों की दयनीय अवस्था
ऑटो से ज्यादा स्कूल बसों को महफूज माना जाता है। स्कूल प्रशासन ने इन्हें अधिकृत भी किया है, किन्तु इनकी स्थिति  देखकर पालक दूरी बना लेते हैं। फटी सीटें, टपकता पानी इन बसों की कहानी है। लोहे के टूटे रॉड अलग खामी बताते हैं।  अतिरिक्त विद्यार्थियों को बैठा लेना तो जैसे फितरत में शामिल है।  चालक गाड़ी चलाने में व्यस्त रहता है पर बच्चों पर ध्यान देने वाला कोई नहीं रहता। दुर्घटना की आशंका इसके कारण भी रहती है।
स्कूल वैन की हालत भी समान
स्कूल वैन की हालत भी ऑटो रिक्शा और स्कूल बस की ही तरह है। क्षमता से अधिक विद्यार्थी, असुविधा होने से  खतरा बना रहता है। दूसरी ओर अप्रशिक्षित चालक, परिवहन नियमों की जानकारी नहीं होने से अनेक बार नियमों का उल्लंघन करते हैं। इससे भी दुर्घटनाओं का डर बना रहता है।
मुंह में दबा रहता खर्रा-पान
इन वाहनों के चालकों के मुंह में खर्रा-पान दबा रहता है। कई बार तो बच्चे शिकायत यह भी करते हैं कि वाहन रोककर ये अपनी आदतों को पूरा करते हैं। अविकसित मन-मस्तिष्क पर इसका भी बुरा असर पड़ता है।
गैस-कीट पर धड़ल्ले की दौड़
अनेक मामलों में खुलासा हुआ कि वैन में रसोई गैस का धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है। निकृष्ट दर्जे की गैस-कीट होने से विद्यार्थियों की जान दांव पर लगी रहती है। आरटीओ द्वारा शहर में अधिकृत 79 वैन गैस-कीट पर दौड़ रही हैं। लेकिन जानकार गैस-कीट पर दौडऩे वाले वाहनों का आंकड़ा हजारों में बता रहे है। इन पर आरटीओ का कोई अंकुश नहीं। आरटीओ में अधिकृत नहीं होने से नियमों का भी यह धड़ल्ले से उल्लंघन करते हैं। इसके अलावा बच्चों के लिए यह वाहन और मायने में भी घातक बन गए हैं। वैन का कांच खुला रहने पर बच्चे हाथ-सिर बाहर निकालते हैं। उतरते समय अनेक बार पैर फिसल जाता है और चालक वैन शुरू कर आगे निकलता रहता है।
कर रहे हैं नजरअंदाज
स्कूल बस, ऑटो रिक्शा और स्कूल वैन के अवैध परिवहन पर रोक लगाने की जिम्मेदारी यातायात पुलिस और प्रादेशिक परिवहन अधिकारी (आरटीओ) कार्यालय की है। लेकिन दोनों इसे नजरअंदाज कर रहे हैं। मिलीभगत के कारण कार्रवाई की आवश्यकता महसूस नहीं होती।
डेढ़ हजार से अधिक स्कूलों में समिति नहीं
स्कूल बस और स्कूल वैन पर नियंत्रण और निगरानी रखने के लिए जिलास्तरीय और शालास्तरीय समिति बनायी गई है। पुलिस आयुक्त जिलास्तरीय समिति के अध्यक्ष हैं। समिति में शिक्षणाधिकारी, उप-आरटीओ, एसटी के जिला नियंत्रक शामिल हैं। शाला में मुख्याध्यापक, पालक प्रतिनिधि और परिवहन शाखा के पुलिस निरीक्षक शामिल हैं, लेकिन शाला समिति को लेकर उदासीनता बरती जा रही है। लगभग 400 स्कूलों में समिति गठित होने की जानकारी है। डेढ़ हजार से अधिक शालाओं में समिति का गठन नहीं हुआ है। शिक्षणाधिकारी माध्यमिक शाला के श्री ठमके ने बताया कि विभाग ने समिति गठन को लेकर सभी स्कूलों को निदेशित किया है लेकिन कई स्कूल इसे लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं। जल्दी ही विभाग ऐसी स्कूलों को नोटिस जारी कर कार्रवाई करने की तैयारी में है। सीबीएसई स्कूलों के लिए कार्रवाई करने का मामला उपनिदेशक के पास भेजेंगे। उन्होंने यह भी दोहराया कि नियमों का पालन नहीं करनेवाले स्कूलों की मान्यता रद्द भी की जा सकते हैं।
 प्रमाणपत्र देने में उदासीनता
आरटीओ की नियमावली में स्कूल द्वारा परिवहन प्रमाणपत्र देने की शर्त जोड़ी गई है। लेकिन, जिन स्कूलों से विद्यार्थियों का परिवहन स्कूल बस, स्कूल वैन और ऑटो रिक्शा से होता है, उन्हें स्कूल व्यवस्थापन और प्राचार्य ने प्रमाणपत्र देने से इनकार किया है। पालक भी उदासीन हैं। बच्चा स्कूल में सुरक्षित जा रहा है या नहीं? इसकी कभी चिंता नहीं करते। शाला समिति के लिए पालक प्रतिनिधि का अभाव या नहीं मिलना भी बड़ा सवाल बना हुआ है। इस कारण शाला समिति बनाने में दिक्कतें आने की जानकारी मिल रही है।
प्रश्न फिर भी खड़ा
 अधिकृत स्कूल बस, स्कूल वैन और ऑटो रिक्शा कैसे चलाएं, यह प्रश्न खड़ा हो रहा है। शहर की नामी स्कूलों से ऐसे प्रमाणपत्र नहीं मिलने से चालक संगठित हो रहे हैं। दो हजार स्कूल बसों में से आधे में सभी सुविधा हैं, मगर आरटीओ एनओसी देने के लिए तैयार नहीं है।
नियमावली स्पष्ट नहीं
फिलहाल स्कूल वैन या बसों के लिए नियमावली स्पष्ट नहीं है। संगठनों ने अनेक बार मांग की है कि स्कूल वैन के लिए स्वतंत्र नियमावली हो। किन्तु इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
 नियमों की फेहरिस्त लंबी, व्यवस्था ठिगनी
 स्कूल बस वैन, आटो संचालकों ने नए नियमों के अनुरूप  कमर कस ली है, प्रशासन ने भी मुस्तैदी का मुखौटा पहन लिया है।  हाल में हुई दुर्घटनाओं के आलोक में जिन नियमों का खाका राज्य सरकार ने परिपत्रक में खींचा है, उसे अमलीजामा पहनाने की तैयारी आधी अधूरी है। स्कूली छात्रों की सुरक्षा को लेकर  राजपत्र में प्रशासनिक स्तर से लेकर स्कूल संचालकों व स्कूल बस, वैन व आटो संचालकों तक की भूमिकाएं स्पष्टï की गई हैं। लेकिन सारा ध्यान स्कूल बस और आटो वैन चालकों के खिलाफ कार्रवाई पर लाकर टिका दिया जा रहा है।
आरटीओ का वाहन जांच जिम्मा
 सरकार के परिपत्रक में सकूल वाहनों के लिए सुरक्षा नियमों और मानकों को लेकर क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय को प्रमुख जिम्मेदारियां दी गई हैं। आरटीओ ने बीते वर्ष नकेल भी कसी, जिसके खिलाफ स्कूल वाहन धारकों ने विरोध प्रदर्शन, धरना एवं घेराव का सहारा लिया। देखते-देखते पिछला शिक्षा सत्र विरोध और खींचतान की भेंट चढ़ गया। गर्मियों की छुट्टिïयां लगने के बाद स्कूल बस धारकों और आरअीओ ने चैन की सांस ली।  इस वर्ष स्कूल शुरू होने के साथ आरटीओ द्वारा विशेष जांच मुहिम चलाया जाना कई सवालों को जन्म दे रहा है।
नियमों की अनदेखी करते आटोरिक्शा
 स्कूल बसों के मुकाबले आटो रिक्शा की संख्या दोगुनी है, मगर सुरक्षा अनिवार्य उपकरणों की अनदेखी साफ झलकती है।  ये निरीक्षण का विषय भी हो सकता है कि स्कूली आटो में कितने आटो के इंडिकेटर, लाइट, हार्न, दाहिना हिस्सा बंद, फस्र्ट एड बाक्स की जांच-पड़ताल की गई है या इनकी अनदेखी की जा रही है। रोड सेफ्टी स्वयंसेवी संस्था के तुषार मंडलेकर ने कहा कि आरटीओ को कितने ओवर सीट व खराब स्थिति वाले आटो को परमिट दे चुका है, इसकी जांच करनी चाहिए। परिपत्रक को अमलीजामा पहनाने वाली अधिकृत एजेंसियों की ढिलाई सुरक्षा में सेंध लग रही है।  
  दिखते नहीं स्कूल बस स्टॉप
 राजपत्र में निर्देश हैं कि सभी स्कूलों के स्कूल वाहन धारकों को छात्रों के मार्ग के अनुसार स्कूल बस स्थानक चिन्हित कर उसकी व्यवस्था करना चाहिए। लेकिन ऐसे स्कूली बस स्थानक  दिखाई नहीं देते। शहर में डेढ़ हजार से अधिक स्कूले हैं। प्रशासन स्कूली छात्रों की सुरक्षा को लेकर संजीदा भी है, लेकिन आंखें भी बंद है।
घटी वैनों की संख्या
नागपुर शहर स्कूल बस संचालक एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेंद्रसिंह चौहान ने कहा कि सभी स्कूल बस संचालक व अन्य वाहनधारक कड़ाई से नियमों का पालन कर रहे हैं। एसोसिएशन नियमों की अनदेखी करनेवाले स्कूल वाहनधारकों पर कार्रवाई के पक्ष में है। वैनों पर बरती जा रही कड़ाई से इस वर्ष कई वैनों की संख्या घटी है।  लिहाजा पालक अधूरे नियमों की स्थिति में अपने बच्चों को स्कूल भेजने पर मजबूर हैं।
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सर्वशिक्षा यहां शर्मसार

शिक्षा स्तर में सुधार की बात तो बहुत होती है पर वे सभी जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं। उपराजधानी में कई स्कूलों पर लगा ग्रहण आसानी से देखा जा सकता है।  राज्य सरकार ने 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए 'बालकांचा मोफ्त व सक्तीच्या शिक्षणाचा अधिकार अधिनियम-2009 को 31 मार्च 2013 से पूरी तरह अमल में लाने निर्णय लिया है। इसमें महानगरपालिकाओं के अंतर्गत आने वाले स्कूल भी शामिल हैं।  विडंबना ही है कि विद्यार्थियों की कमी के चलते महानगरपालिका की कई स्कूलें बंद तक कर दी गईं। सुविधाओं की घोषणा के बावजूद पालक मनपा शालाओं का रूख नहीं करते, लेकिन शहरी आबादी के बीच कुछ ऐसे भी परिवार हैं, जिनके बच्चे महानगरपालिका और जिला परिषद की स्कूलों में पढ़ते हैं पर उन स्कूलों की हालत बेहद खराब है। छतें बारिश की बूंदों को संभाल नहीं पाती। कई शालाओं में तो छात्र-छात्राओं के लिए एक ही प्रसाधनगृह है। बानगी के तौर पर पूर्व नागपुर के मिनी माता नगर मनपा शाला, संजयनगर मनपा शाला, कुंदनलाल गुप्ता मनपा शाला जैसी अनेक स्कूलों को रेखांकित किया जा सकता है।  इनकी हालात देखकर यह कहीं से नहीं कहा जा सकता है कि यह किसी 1400 करोड़ रुपए के सालाना बजट वाली महानगरपालिका के स्कूल हैं। शाला के आस पास का परिसर तो कूड़ा घर बन चुका है।  भयंकर बदबू रहती है। शाला के आस-पास मवेशी घूमते नजर आते हैं।  संभवत: यही कारण है कि इन स्कूलों को देखने का नजरिया भी बदल गया है और बौनी मानसिकता के बूते आसमान छूने की बात बेमानी ही है...।
  मिनी मातानगर मनपा शाला
इस शाला की इमारत में हिंदी तथा मराठी की 1 से 4 तथा 4 से 7 तक की कक्षाएं लगती हैं। दोपहर की हिंदी प्राथमिक शाला में 129 छात्र तथा 150 छात्राएं अध्ययनरत हैं। सुबह तथा शाम के सत्रों में अलग-अलग शालाएं संचालित की जाती हैं। प्रसाधनगृह के अभाव में विशेष रूप से छात्राओं को आस-पड़ोस के मकानों में शरण लेनी पड़ती है। शिक्षकों ने आपस में चंदा जमा कर छात्राओं के लिए एक प्रसाधनगृह बनवाया। छात्रों को सुरक्षा दीवार का सहारा लेते देखा जा सकता है। मजबूरी में छात्र-छात्राएं एक ही प्रसाधनगृह का उपयोग करते देखे जाते हैं।
 संजयनगर हिंदी मनपा शाला
मनपा द्वारा संचालित वृहद शाला में संजयनगर हिंदी शाला का शुमार होता है। यहां पहली से दसवीं तक की पढ़ाई होती है।  विद्यार्थियों की संख्या को देखते हुए यहां सुबह तथा दोपहर, दो  सत्र में पढ़ाई होती है।  सुबह की शाला में 6 शाखाएं हैं। छत्तीसगढ़ी मजदूर बहुल इस क्षेत्र में छात्र-छात्राओं की संख्या ज्यादा है। मनपा प्रशासन द्वारा ऐसी शालाओं की व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, जबकि यहां कुछ गज के परिसर को मैदान का रूप दिया गया है। शाला में कुल 6 से 8 हजार विद्यार्थी हैं पर प्रसाधनगृह की उचित व्यवस्था नहीं। पेयजल का नल सिर्फ आधे दिन शुरू रहता है। शौचालय गंदगी से भरे पड़े हैं। बारिश में दूसरे माले की कक्षाओं में छत से पानी टपकने लगता है। मनपा प्रशासन द्वारा विद्यार्थियों को किताब, कॉपियां, बरसाती, बस्ते, साइकिल, जूते, मोजे, टाई, बेल्ट तथा भोजन की व्यवस्था पर बड़ी धनराशि खर्च की जाती है, जबकि दैनंदिन आवश्यकताओं की अनदेखी की जाती है। प्रभाग 33 के सरिता ईश्वर कावरे तथा जगतराम सिन्हा के क्षेत्र में यह शाला स्थित है। पेयजल की व्यवस्था के लिए लगाई गई पानी टंकी टूटी-फूटी अवस्था में है। उचित नियोजन के अभाव में प्रशासन की बड़ी धनराशि यहां व्यर्थ पाई जा रही है।
 कुंदनलाल गुप्ता मनपा शाला
देश के विख्यात क्रांतिकारी कुंदनलाल गुप्त के नाम पर चल रही मनपा शाला के विद्यार्थी कुंदनलाल गुप्ता के इतिहास से अनभिज्ञ हैं। शाला में कहीं भी कुंदनलाल गुप्ता का छायाचित्र नहीं। करीब 9 हजार छात्र-छात्राएं यहां शिक्षणरत हैं। प्यास बुझाने के लिए इन्हें शाला से बाहर जाना पड़ता है। पहली से चौथी तक के छात्र-छात्राओं के लिए एक ही प्रसाधनगृह है। बारिश होते ही परिसर तालाब में तब्दील हो जाता है। सुबह तथा दोपहर, दो सत्रों में  स्कूल चलता है। प्रभाग क्र. 14 के नगरसेवक पूर्व महापौर किशोर डोरले तथा सिंधु उईके के क्षेत्र में यह शाला है।
 निजी स्कूलों को मिल रहा फायदा
इन सभी क्षेत्रों की शालाओं में व्याप्त असुविधाओं का पूरा लाभ निजी शालाएं उठा रही हैं। मई-जून माह में इनके एजेंट प्रलोभन देकर शाला के आसपास की बस्तियों से छात्र-छात्राओं को 'हथिया लेते हैं। उचित नियोजन व्यवस्था अपनाकर प्रशासन द्वारा खर्च की जा रही राशि की सार्थकता निश्चित की जा सकती है। प्रत्येक शालाओं को मिलने वाले विभिन्न अनुदान से भी छोटी-मोटी समस्याएं दूर की जा सकती हैं। सभी शालाओं में पालक समिति  है। प्रभाग के नगरसेवक तथा शाला के मुख्याध्यापक, पालक समिति के अध्यक्ष तथा सचिव होते हैं। व्यवस्थापन समिति, पालक समिति तथा प्रशासन के उचित तालमेल से  इन असुविधाओं को दूर करने के लिए अनुकूल स्थिति बनाई जा सकती है।
गुहार से नहीं, सुधार से बनेगी बात
नागपुर विभाग में पहली से बारहवीं कक्षा तक कुल मिलाकर 3 हजार 928 विद्यालय हैं। इसमें 9 लाख 13 हजार 159 विद्यार्थी हैं। इनके भविष्य की बागडोर 31 हजार 568 शिक्षकों पर है। पहली से आठवीं कक्षा में 6 लाख 47 हजार 92 विद्यार्थी और लगभग 22 हजार 990 शिक्षक हैं। विद्यालयों की संख्या के हिसाब से मुख्याध्यापकों की संख्या काफी कम यानी 1 हजार 985 हैं। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिहाज से नागपुर जिले को 13 ब्लॉक व 5 यूआरसी में विभाजित किया गया है।
यह है नियम
शिक्षा का अधिकार नियम (आरटीई) के अनुसार पहली से चौथी कक्षा तक 30 विद्यार्थियों पर 1 शिक्षक होना चाहिए। इसके माध्यमिक यानी पहली से सातवीं तक 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक होना चाहिए।
विद्यालयों की संख्या
नागपुर विभाग में जिला परिषद की 1 हजार 528, महानगरपालिका के 209, नगर परिषद के 75, राज्य सरकार द्वारा संचालित 19 विद्यालय हैं। निजी अनुदानित 1 हजार 118 व बिना अनुदानित 873 विद्यालय हैं।
शालेय पोषण आहार व मध्याह्न भोजन
पहली से पांचवीं कक्षा तक विद्यार्थियों को दी जानेवाली खिचड़ी को शालेय पोषण आहार नाम दिया गया है। इसमें प्रति विद्यार्थी के हिसाब से 3.2 पैसे सरकार प्रदान करती है। छठवीं से आठवीं कक्षा को दी जानेवाली खिचड़ी को मध्यान भोजन कहते हैं। इसमें प्रति विद्यार्थी  4.47 पैसे सरकार देती है। ग्रामीण भागों में अनाज रखने के लिए कोठियां प्रदान की गई हैं। शालेय पोषण आहार व मध्याह्न भोजन की व्यवस्था सरकारी व अनुदानित विद्यालयों के लिए ही की गई है। समय-समय पर अधीक्षक विद्यालयों का दौरा करते हैं। भोजन बनाने वाले स्थान  और प्रयुक्त बर्तनों की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना होता है। सर्वशिक्षा अभियान के तहत शिक्षा व विद्यालयों की स्थिति सुधारने के लिए राज्य सरकार भले ही करोड़ों रुपये खर्च कर रही हो लेकिन इसका सही तरीके से नियोजन नहीं होने से कई विद्यालय नवीनीकरण के इंतजार में हैं।
न्यायालय जा सकते हैं पालक
पहली से आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों का मूल्य मापन करना शिक्षकों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं रह गया है। शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास के साथ ही विषयों से जुड़ी विद्यार्थी की हर समस्या का समाधान जरुरी हो चुका है। पहली कक्षा का विद्यार्थी आगे की कक्षा में जाता है और यदि वहां वह लिखने पढऩे में असमर्थ होता है, तो पालक संबंधित शिक्षक व शाला प्रशासन की कार्यपद्ïधति पर सवाल उठा सकते है। इतना ही नहीं वे न्यायालय में इसकी शिकायत भी दर्ज करवा सकते हैं। नियमानुसार शिक्षकों की विद्यार्थी के प्रति जिम्मेदारी बढ़ गई है। कमजोर विद्यार्थी को महज कमजोर मानकर छोड़ा नहीं जा सकता है। कमजोर विद्यार्थियों को सामान्य श्रेणी में लाने के लिए शिक्षकों को काफी मेहनत करना जरूरी हो गया। इसके लिए शाला प्रशासन को विद्यार्थी का मूल्य मापन करते समय विशेष ध्यान देने की जरुरत होगी।
शिक्षकों की संख्या कम
विद्यार्थियों की संख्या के लिहाज से शिक्षकों की संख्या काफी कम है। सरकार ने भले ही कक्षाओं को बढ़ाने के निर्देश जारी किए हैं, लेकिन इसे जल्दी से अमल में लाना मुश्किल है। अध्यापन कार्य के अलावा शिक्षकों को  जनगणना, मतदाता सूची बनाने, पल्स पोलियो अभियान जैसे कई शासकीय कार्यों में लगाया जाता है।  साफ है कि विद्यार्थियों की गुणवत्ता बढ़ाने की बात तो होती है, लेकिन अध्यापन की गुणवत्ता व शिक्षकों की संख्या बढ़ाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
शिक्षक व विद्यार्थी के बीच खाई
सरकार ने अनेक नियमों में शिक्षकों के हाथ बांध दिए हैं। वे विद्यार्थियों को न  सजा दे सकते हैं और न ही ऊं ची आवाज में डांट सकते है। ऐसे में विद्यार्थियों में अब शिक्षकों का खौफ नहीं रह गया है। शिक्षकों से बदतमीजी भी आम हो गई है। शिक्षक  के नाराज होने पर सीधे पालक को बुला लिया जाता है। ऐसे में शिक्षक व विद्यार्थी के बीच खाई गहरी होती जा रही है।
औपचारिकता बना शालेय परिपाठ
राज्य के सभी विद्यालयों में विद्यार्थियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए शालेय परिपाठ को सम्मिलित तो किया गया है, लेकिन वर्तमान में यह केवल औपचारिकता बन कर रह गया है। नैतिक गुणों के विकास के साथ ही विद्यार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए इसे पाठ्ïयक्रम का हिस्सा बनाया गया था। मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के कार्यकाल में शालेय परिपाठ को 5 से 9 वीं कक्षा तक 20 मिनट के लिए प्रार्थना सभा के दौरान अनिवार्य किया गया था। इसके तहत प्रार्थना, राष्टï्रगीत, प्रतिज्ञा, प्रोत्साहित करनेवाली कहानी, विचार, दैनिक खबरों की हेडलाइन जैसे महत्वपूर्ण अंग शामिल हैं। इसके माध्यम से विद्यार्थियों में नैतिक मूल्यों को बढ़ाने के साथ-साथ उन्हें रोजमर्रा की घटनाओं से आद्यतन करना है।
विद्यालय विकास समिति
राज्य शिक्षा मंडल की ओर से शालाओं में लोकल एनक्वायरी कमेटी (एलईसी) में पालकों व विद्यार्थी की भूमिका पर अधिक जोर दिया जा रहा है, लेकिन विद्यालय प्रशासन की मानें तो विद्यालय द्वारा आयोजित बैठकों में पालकों की भूमिका गौण दिखाई पड़ती है। सरकारी व अनुदानित विद्यालयों में पढऩेवाले बच्चे मध्यम वर्ग या गरीबी रेखा सीमा से नीचे वाले होते हैं। ऐसे अभिभावक बच्चों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते हैं। विद्यालयों में विद्यालय विकास समिति होती है, इसमें पार्षद, प्राचार्य, उपप्राचार्य, शिक्षक, पालक, विद्यार्थी, एससी-एसटी सदस्यों का समावेश है। इसमें भी 33 प्रतिशत महिलाएं होनी चाहिए। कमेटी की बैठक में अक्सर पालकों की गैरमौजूदगी देखी जाती है। इससे बैठकों में तथ्यपूर्ण हल निकलकर नहीं आता है।
यू डायस में ली जा रही जानकारी
शिक्षा का अधिकार (आरटीई) के तहत शालाओं की सटीक जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें यूनीफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफारमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (यू डायस) के तहत ला दिया गया है। इसमें पहली से बारहवीं कक्षा को एक ही श्रेणी में लाया गया है। सीबीएसई, जिला परिषद, मनपा, राज्य सरकार व अन्य प्रकार की सभी विद्यालयों को शाला में उपलब्ध संसाधनों की जानकारी उपलब्ध करानी होगी। इसमें विद्यालयों में शिक्षकों, गैरशिक्षक कर्मचारियों, विद्यार्थियों की संख्या शौचालय, खेल का मैदान, पीने का पानी जैसी सुविधाओं की जानकारी देनी है।
स्थिति में बदलाव की संभावना कम
वर्ष 2011-12 में जांच के बाद पाया गया था कि 96 विद्यालय ही शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत बने नियमों पर खरी उतरी थीं। 83 विद्यालयों में एक ही शिक्षक थे। 781 शालाओं में 2 से 100 विद्यार्थी ही पाए गए थे। वर्ष 2012-13 की नई रिपोर्ट अभी तैयार नहीं हुई है। जानकारों की मानें तो उक्त आंकड़ों में ज्यादा बदलाव की उम्मीद नहीं है। वर्ष 2011 में विद्यालयों की हुई जांच के बाद नए शिक्षकों की नियुक्ति पर वैसे ही रोक लगा दी गई थी। ऐसे में शिक्षकों की संख्या में कमी की ही संभावना है।
सुविधाओं का अभाव
विद्यालयों में बिजली, पानी, फर्निचर व ढांचागत सुविधाओं का अभाव है। कुछ स्कूलें तो बंद भी हो चुकी है और कुछ बंद होने की कगार पर है। हिंदी व मराठी शालाओं में विद्यार्थियों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही है। राज्य मंडल का पाठ्ïयक्रम चला रही अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में भी विद्यार्थियों की कमी देखी जा रही है। पालकों की रूचि अपने बच्चे को सीबीएसई शालाओं में पढ़ाने की ओर बढ़ी है।
शिक्षक नहीं ले रहे रूचि
सूत्र से मिली जानकारी के मुताबिक, कक्षा में इक्का-दुक्का विद्यार्थी होने से शिक्षक उत्साहपूर्वक नहीं पढ़ाते हैं। ऐसी स्थिति ज्यादातर नगर परिषद, जिला परिषद व महानगरपालिका की शालाओं में देखी जा रही है।  विद्यार्थी संख्या कम देखकर कई बार शिक्षक कक्षा लेने ही नहीं पहुंचते हैं। जो आते हैं वे विद्यालय के अलावा दूसरे कार्यो में व्यस्त रहते हैं। कई बार तो शिक्षक बाहरी कार्यों के लिए बीच में ही पलायन कर जाते हैं। ऐसे में बच्चों में शिक्षा के प्रति अरुचि निर्माण होती है। जहां एक ही शिक्षक हैं, ऐसे विद्याालय में शिक्षक के अवकाश पर होने से शाला ही बंद पड़ जाती है।
 साफ है कि शिक्षा हक अभियान लक्ष्य से भटक गया है।  हर समाज के अंतिम बच्चे तक शिक्षा मिले, यह लक्ष्य खंडित हो कर रह गया है। आरटीआई के नियमों की तराजू पर मनपा के स्कूलों का आंकलन किया जाए तो चंद ही स्कूल होंगे जो सभी औपचारिकताएं पूरी करते हैं। केवल शिक्षा का अधिकार लाने से बच्चे शिक्षित नहीं होंगे, प्रशासन को इसके लिए औपचारिकताएं भी पूरी करनी होंगी।
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