सोमवार, 31 मई 2010

हर उत्पाद पर बिकती नारी

सनातन काल से मानव मन सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होता रहा है। व्यक्तित्व को सजाने, संवारने, निखारने, तराशने के पीछे भी यही मनोवैज्ञानिक आसक्तिबोध क्रियाशील रहता है। परंतु आज सौंदर्य केवल सुन्दर देहयष्टि, आकर्षक अंग-प्रत्यंग, वेशभूषा और हेयर स्टाइल की परिधि में सिमट कर रह गया है। कभी सौंदर्य के जबरदस्त मानक रहे सात्विक आधार अब लुप्त प्राय: हो चले हैं और उनका स्थान ले लिया है बौद्धिक तत्परता और चुस्ती-फुर्ती का पयार्य स्मार्टनेस ने। आधुनिक शब्दावली में जो जितना फास्ट है उतना ही स्मार्ट है। व्यावसायिक बाजार में सौंदर्य भी एक उत्कृष्ट उत्पाद की तरह धड़ाधड़ बिक रहा है। अन्य उपयोगी वस्तुओं की तरह यहां भी प्रतियोगिता बहुत तगड़ी है और एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ भी उतनी ही जबरदस्त। सौंदर्य देहधर्म की अपनी सम्पूर्णता में तो लुभावना और मूल्यवान है ही, अलग-अलग टुकड़ों में भी कम महत्वशाली नहीं। यह सारा चमत्कार विज्ञापन के बाजार का है। तेल और शेंपू बनाने वाली कम्पनियां एक के पीछे मधुमक्खी की तरह भागती दिखाई देंगी तो क्रीम और लोशन बनाने वाली कंपनियाँ दूसरी के पीछे। वस्तुओं के साथ अंग-प्रत्यंग की कीमत लग रही है और स्त्री हो या पुरुष समय की नब्ज को बखूबी पहचानते हुए उसका भरपूर लाभ भी ले रहे हैं। विज्ञापन के इस दौर में धड़ाधड़ बिक रहा है यौवन और सौंदर्य। अप्सराओं की मोहकता, स्वप्निलता संजो लेने की प्रतिस्पर्द्धा में नारी ने उम्र की सारी खाइयाँ पाट दी हैं। चाची, मामी, ताई, भाभी जैसे संबोधन अब गाली से प्रतीत होने लगे हैं। रिश्तों ने वजूद खो दिया है। संबंध सूचक संबोधन जैसे व्यक्तित्व पर प्रौढ़ता चिपकाने लगे हैं। श्रृंगार तो युग-युग से नारी की सहज प्रवृत्ति रही है किन्तु आज वह बहुत अधिक आत्मकेन्द्रित हो गयी है। पहले सौन्दर्य के साथ शील शब्द प्राय: समानान्तर रूप से प्रयुक्त होता था, आज वह सौंदर्य की अवधारणा से ही लुप्त हो गया है। सारी परिभाषाओं और अवधारणाओं को ताक पर रख ऊंचे दामों बिक रहा है रूप और यौवन का सौंदर्य। कपड़ों की तरह देह को भी इंच टेप से नाप-तौल कर जांचा जा रहा है। विधाता की सर्वश्रेष्ठ और अनुभूति प्रवण रचना के मूल्यांकन का कैसा स्थूल और संवेदनशून्य तरीका है यह। व्यक्तित्व के स्वाभाविक पहलुओं पर आवरण और मुखौटे चढऩे लगे हैं और चिपकने लगी है होठों पर एक इंच मुस्कान। रूप का आकर्षण चिर यौवन की बलवती आकांक्षा ने बाकी सब सोख लिया है।

मन के जीते जीत

मनुष्य का भाग्य उसके अपने हाथों में ही होता है। हाथ की रेखाओं से भाग्य नहीं बदलता है। उन्हीं हाथों से मेहनत करने से भाग्य बदलता है। जो व्यक्ति ज्योतिषियों के सामने अथवा हस्तरेखा विशेषज्ञों के सामने जाकर अपने भविष्य या अपनी भाग्य रेखाओं के बारे में अत्यंत दीनता पूर्वक पूछता है और कोई पुरुषार्थ नहीं करता, दूसरे के आसरे जीता है, वह कभी भाग्यवान नहीं बन सकता है। हाथ में प्रबल रेखाएं हों भी तो वे काम नहीं आतीं। भाग्यशाली वही है, जो अपने मन, वचन और काया से उद्यम करता है। जो शरीर से मेहनत नहीं करता है, परंतु मन और मस्तिष्क से मेहनत करता है, वह भी कामयाब होता है, क्योंकि मन में ही विश्व के समस्त श्रेष्ठ कार्यों की नींव रखी जाती है। यदि किसी कार्य का शुभारंभ मन से हो, तो समझो कि आधा कार्य संपन्न हो गया। किसी भी कार्य को विभिन्न विघ्न-बाधाओं के बावजूद पूर्ण करना हो तो उसके लिए मनोबल का होना अत्यंत आवश्यक है। कहते हैं, मन के जीते जीत। जो मन से हार जाते हैं, वही लोग कमजोर होकर बैठ जाते हैं। जो मन से मजबूत हैं, वे कठिन परिस्थितियों में भी पुरुषार्थ से नहीं डरते, वे ही अध्यात्म के सच्चे मार्ग पर अग्रसर होते हैं और उस परमेश्वर को प्राप्त कर लेते हैं। वे ब्रह्मापद को प्राप्त करते हैं। पुरुषार्थ के बिना व्यक्ति चलता-फिरता शव है। जो पुरुषार्थ करता है, उसके शरीर में शिव का निवास होता है। शिव अर्थात मंगलमय आत्मा निवास करती है। जो वचन से मेहनत करते हैं, पढ़ाते हैं, उपदेश देते हैं, लोगों का मार्गदर्शन करते हैं, वे भी पुरुषार्थ करते हैं। मन के साथ ही वचन का प्रयोग होता है। मनोबल के साथ वचन बल का महत्व दोगुना हो जाता है। अब कुछ ऐसे लोग हैं, जो शरीर से मेहनत करते हैं, सड़कों पर पत्थर तोड़ते हैं, सड़कें बनाते हैं, भवन निर्माण करते हैं, मंदिर निर्माण करते हैं, यहां तक कि पत्थर को तराश कर भगवान की मूर्ति का निर्माण करते हैं। इसलिए ये लोग भी कामयाब होते हैं। जो पुरुषार्थहीन होते हैं, जो अपने मन, वचन, काया का सदुपयोग नहीं करते हैं, वे लोग दीन-हीन होकर के, दरिद्र हो करके, अपने शरीर की संपत्ति का मूल्य न समझ के भीख मांगते हैं।

खिलौने जासूसी करेंगे चीन के लिए

कनाडा के रिसर्चरों ने चीनी कंप्यूटर - जासूसों अथवा हैकरों की गतिविधियों की पड़ताल करने के बाद शेडोज इन क्लाउड के नाम से एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट के मुताबिक चीन के सिचुआन प्रांत में बैठे हैकरों ने भारतीय प्रतिष्ठानों और विदेशों में भारतीय दूतावासों के कंप्यूटरों को निशाना बनाया है। चीनी हैकरों ने न सिर्फ भारत के मिसाइल कार्यक्रम के बारे में संवेदनशील सूचनाएं एकत्र करने की कोशिश की है, बल्कि मिलिट्री इंजिनियरिंग सर्विसेज के अनेक कार्यालयों के कंप्यूटरों में भी सेंध लगाई है। इससे स्पष्ट है कि हमारा कंप्यूटर रक्षा कवच कितना कमजोर है। सरकार ऊपरी तौर पर भले ही यह कहे कि सब कुछ सुरक्षित है , लेकिन यह सच है कि अभी हम इस तरह की कंप्यूटर सेंधमारी रोकने या उसका माकूल जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। हालांकि हाल में थोड़े बहुत कदम उठाए गए हैं। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में विदेशी चिप लगे होने के कारण हैकर संचार प्रणालियों के कंप्यूटरों में सूराख करने में सफल हो रहे हैं। खतरों को भांपते हुए अब सरकार ने चीन से आयातित होने वाले दूरसंचार उपकरणों पर बंदिशें लगा दी हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन निर्मित खिलौने भी आगामी दिनों में जासूस की भूमिका अदा करेंगे। चीनी खिलौने के प्रति भारत के घर-घर में पैदा मोह को यूं ही नेस्तानाबूद तो नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके प्रति सजग रहने की बेहद आवश्यकता है। आशंकाओं को देखते हुए भारत को अपना सिक्युरिटी सिस्टम और मजबूत करना होगा। साथ ही ऐसे विशेषज्ञ भी तैयार करने होंगे, जो न सिर्फ साइबर हमलों को नाकाम कर सकें, बल्कि जरूरत पडऩे पर जवाबी हमले भी बोल सकें। हाल में कई साइबर हमले देखने में आए। ये हमले या तो सरकारों द्वारा प्रायोजित हैं या कुछ लोग निजी तौर पर इन्हें अंजाम दे रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे संवेदनशील और महत्वपूर्ण सिस्टम नेटवर्क से जुड़ रहे हैं, इन पर हमलों का खतरा भी बढ़ रहा है। इस साइबर मैदान में सिर्फ देशों के बीच ही लड़ाई नहीं होगी, आतंकवादी संगठन, अपराध माफिया और बुरी नीयत वाले लोगों से लेकर उच्च प्रशिक्षित कंप्यूटर के जानकार भी हिस्सा लेंगे। एक इंटरनेट सिक्युरिटी कंपनी मैकाफी ने 2007 में अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अनुमान लगाया था कि कम से कम 120 देश इंटरनेट को हथियार के रूप में विकसित करने के उपाय कर रहे हैं। इनके निशाने पर फाइनैंशल मार्केट, सरकारी कंप्यूटर सिस्टम और महत्वपूर्ण संस्थान हैं। मैकाफी के मुताबिक दुनिया के विभिन्न कॉरपोरेशंस को हर रोज लाखों साइबर हमले झेलने पड़ते हैं। हमारा देश भी इसका शिकार बन रहा है। कुछ समय पहले पीएमओ और विदेश मंत्रालय के कंप्यूटरों पर किए गए हमलों में चीन का हाथ बताया जाता है। पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के. नारायणन ने अपने कार्यालय में हैकिंग की शिकायत की थी। इसका शक भी चीन पर गया था। अमेरिका, ब्रिटेन व जर्मनी के सरकारी और सैनिक नेटवर्कों में भी चीनी हैकरों ने घुसपैठ करने की कोशिश की थी। गत फरवरी में गूगल भी साइबर हमलों का शिकार हुआ था और इसमें भी शक की सूई चीन पर गई। पिछले दिसंबर में दक्षिण कोरिया ने अपने यहां हुए साइबर हमलों की जानकारी दी थी। दक्षिण कोरिया के मुताबिक उत्तरी कोरिया के हैकरों ने गोपनीय सैन्य योजना का ब्यौरा उड़ा लिया था। पिछले साल जुलाई में रूस और चीन के साइबर जासूसों ने जर्मनी के पावरग्रिड और औद्योगिक गोपनीय डेटा को निशाना बनाया था। दुनिया में सबसे नियोजित साइबर हमला 2007 में एस्टोनिया में हुआ था, जब सरकारी, व्यापारिक और मीडिया वेब साइट्स को जाम करने के लिए करीब दस लाख कंप्यूटरों का इस्तेमाल किया गया। इन हमलों के पीछे रूस का हाथ समझा गया था क्योंकि उस वक्त दोनों देशों के बीच जबर्दस्त तनाव चल रहा था। इस हमले में लाखों यूरो का नुकसान हुआ था। दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमेरिका भी साइबर हमलों का शिकार हुआ है। हालांकि उसने खुद भी इस हथियार का इस्तेमाल किया है। 2007 में अज्ञात विदेशी ताकत ने अमेरिका के तमाम हाईटेक और सैनिक संस्थानों के कंप्यूटरों से सूचनाएं उड़ा ली थीं। विशेषज्ञों ने इस हमले को इलेक्ट्रॉनिक पर्ल हार्बर की संज्ञा दी थी। आज अधिकांश सरकारें और राष्ट्रीय रक्षा संस्थान यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि उन पर कब और किसने हमला किया और ऐसे हमलों का समुचित जवाब कैसे दिया जाए। कुछ देशों के पास ऐसे हमलों को समझ पाने की सीमित क्षमता है। साइबर स्पेस में लड़ा जाने वाला युद्ध अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है और विभिन्न देशों के लिए इसके परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं , इसका अंदाजा लोग अभी नहीं लगा पा रहे हैं। भविष्य की किसी लड़ाई में साइबर युद्ध बहुत ही निर्णायक हथियार बन सकता है क्योंकि शत्रु सरकारें अति उन्नत टेक्नॉलजी की आड़ में एक - दूसरे पर ऐसे हमले कर सकती हैं, जो पकड़ में नहीं आ सकते। पारंपरिक और परमाणु हथियारों के प्रयोग के बारे में अंतरराष्ट्रीय संधियों की तरह साइबर हथियारों के प्रयोग के बारे में अभी तक कोई सर्वमान्य संधि न होने के कारण साइबर युद्ध प्रभावित पक्षों पर बहुत भारी पड़ सकता है।

मौत के रनवे पर विदेशी पायलट

मैंगलोर विमान हादसे के एक दिन बाद ब्लैक बॉक्स बरामद कर लिया गया है। नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) की एक टीम ने विमान के मलबे से बॉक्स को बरामद किया। बॉक्स की बरामदगी के बाद अब यह साफ हो सकता है कि आखिर किस वजह से विमान हादसा हुआ। इसमें यह भी पता लग सकता कि लैंडिग के समय पायलट ने किसी के साथ कोई संपर्क करने की कोशिश की थी या नहीं। बताया गया है कि अमेरिकी परिवहन विशेषज्ञों की एक टीम बोइंग के अधिकारियों के साथ मिलकर मैंगलोर विमान हादसे की जांच करेगी। भारत सरकार ने हादसे के बाद अमेरिका के नेशनल ट्रांसपोर्टेशन सेफ्टी बोर्ड (एनटीएबी) से जांच में मदद करने के लिए एक टीम भेजने का अनुरोध किया था। लेकिन सवाल उठ रहा है कि क्या भारतीय कंपनियों ने अपनी उड़ानों की कमान विदेशी पायलटों को सौंप कर मुसाफिरों की जान जोखिम में डाली है? सरकार ऐसा नहीं मानती है, लेकिन विशेषज्ञ सवाल जरूर उठाते हैं। मैंगलोर में दुर्घटनाग्रस्त हुए एयर इंडिया एक्सप्रेस विमान की कमान ब्रिटिश मूल के सर्बियाई कैप्टन जेड ग्लूसिया के हाथों में थी। एसएस अहलूवालिया उनके को-पायलट थे। कहा जा रहा है कि 53 साल के ग्लूसिया के पास दस हजार घंटे विमान उड़ाने का अनुभव था और वह बाजपे हवाईअड्डा (जहां हादसा हुआ) पर पहले भी 16 बार विमान उतार चुके थे। अहलूवालिया के पास भी 3,650 घंटे का अनुभव बताया जा रहा है। ग्लूसिया के पास भले ही अनुभव की कमी नहीं हो, लेकिन भारतीय कंपनियों में विदेशी पायलटों की नियुक्ति पर अनुभव से इतर, दूसरे कारणों से भी सवाल उठते रहे हैं। पायलट एसोसिएशन के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि विदेशी पायलटों को भारत में काम करते हुए संवाद करने में मुश्किल आती है। फिर वे यहां की भौगोलिक परिस्थितियों से भी अंजान होते हैं। अगर भरोसा करें तो एयर ट्रैफिक कंट्रोल से जुड़े एक सूत्र के मुताबिक कई बार विदेशी पायलट हमारे उच्चारण में अंतर के कारण हमारी बात नहीं समझ पाते हैं और निर्देशों का पालन करने से चूक जाते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में पायलटों की भारी कमी के मद्देनजर बड़ी संख्या में विदेशी पायलट रखे गए। तमाम एयरलाइन कंपनियों में इनकी संख्या 560 है। एयर इंडिया के पास 250 विदेशी पायलट हैं। सस्ती विमान सेवा उपलब्ध कराने वाली इसकी सहयोगी कंपनी एयर इंडिया एक्सप्रेस ने भी 125 विदेशी पायलटों की नियुक्ति कर रखी है। सरकार ने भारतीय कंपनियों से विदेशी पायलटों को हटाने के लिए कह रखा है। इसकी समय सीमा भी 31 जुलाई, 2010 तय कर दी गई थी, लेकिन एयरलाइन कंपनियों की मांग पर इसे एक साल आगे बढ़ा दिया गया है। एयर इंडिया के पास और भी समस्याएं हैं, जो यात्रियों पर किसी न किसी रूप में भारी पड़ती हैं। इनमें पुराने पड़ते बेड़े के विमान, लो-कॉस्ट निजी कंपनियों की चुनौती, बढ़ता घाटा, 3.3 अरब रुपये का कर्ज, पायलटों को काम की तुलना में ज्यादा वेतन-सुविधा, पायलटों में अनुशासन की कमी (बीते अक्टूबर में एयर इंडिया का एक पायलट यात्रियों के सामने ही चालक दल के एक सदस्य से भिड़ गया था) आदि तो गिनाई ही जा सकती हैं। बहरहाल, खाक हुए अरमानों से कितने सीख ली जाती है, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि बार-बार समीक्षा के बावजूद सुरक्षा हाशिए पर ही खड़ी नजर आती है। एक और समीक्षा की घड़ी सामने है।

निजी सूचना तंत्र में सेंधमारी

रिपोर्ट आई है कि इंटरनेट से मुफ्त का माल डाउनलोड करने में भारतीय सबसे आगे हैं। कई तरह के सॉफ्टवेयर, वीडियो, संगीत, कंप्यूटर गेम्स, डेस्कटॉप, वॉलपेपर, फोटोग्राफ और ऐसी ही न जाने कितनी आकर्षक चीजें इंटरनेट पर मौजूद हैं, कि बड़े से बड़े संयमी व्यक्ति का मन भी बरबस ही उन्हें डाउनलोड करने का हो जाता है। भले ही डाउनलोड की गई सामग्री को दोबारा कभी देखा जाए या नहीं, सहेज जरूर लिया जाता है। कई लोगों के लिए यह एक लत का रूप ले चुका है जो डाउनलोड करने के नए-नए तरीके सीखने को हमेशा तत्पर रहते हैं। कहीं आप भी तो उन लोगों में से नहीं हैं जो इंटरनेट से अंधाधुंध सामग्री डाउनलोड करते रहते हैं, बिना यह जाने कि उनमें से कुछ सॉफ्टवेयर आपके कंप्यूटर में आने के बाद शायद आपका निजी डेटा इंटरनेट से कनेक्टेड किसी दूरस्थ कंप्यूटर में डाउनलोड कर रहे हों! बहरहाल, डाउनलोड की लत खतरों और चुनौतियों से मुक्त नहीं है। मुफ्त में डाउनलोड करने के लिए जिस श्रेणी के सॉफ्टवेयरों को सबसे ज्यादा खोजा जाता है, उनमें 'एंटी वायरस' सॉफ्टवेयर प्रमुख हैं। क्या आप जानते हैं कि डाउनलोड किए गए तथाकथित 'एंटी वायरसÓ सॉफ्टवेयरों में से ज्यादातर खुद स्पाईवेयर और वायरस होते हैं? इंटरनेट से डाउनलोड किए जाने वाले कुल हानिकारक सॉफ्टवेयरों में से 15 प्रतिशत फर्जी एंटीवायरस और एंटी-स्पाईवेयर सॉफ्टवेयर होते हैं यानी जिसे रक्षक समझा, वही भक्षक निकला! वायरस, स्पाईवेयर और एडवेयर सॉफ्टवेयरों के निर्माता उपभोक्ताओं के मुफ्त डाउनलोड के लालच का फायदा उठाने से नहीं चूकते। इंटरनेट से किसी सॉफ्टवेयर (या वायरस) के स्वत: आपके कंप्यूटर में इस्तेमाल होने के आसार बहुत कम होते हैं क्योंकि इंटरनेट ब्राउजर किसी डाउनलोड या इन्स्टॉलेशन से पहले आपकी अनुमति मांगता है। विंडोज भी इन्स्टॉलेशन के समय ऐसा ही करता है, लेकिन यदि आप एक बार कोई सॉफ्टवेयर डाउनलोड कर बाकायदा इन्स्टाल कर लें तो आप आगे के लिए उसकी हर गतिविधि को अपनी परोक्ष स्वीकृति दे देते हैं। वीडियो, ऑडियो और ईबुक्स के अंधाधुंध डाउनलोड से पहले यह भी देखना जरूरी है कि आप किसी कंपनी के कॉपीराइट का उल्लंघन न कर रहे हों। फिल्मों, गानों आदि की पाइरेसी में इंटरनेट की बहुत बड़ी भूमिका है और ऐसी सामग्री को डाउनलोड करना अवैध है। वह आपको किसी बड़े कानूनी झंझट में भी फंसा सकती है। मतलब यह कि इंटरनेट बेशक सूचना और मनोरंजन का महासमुद्र है और आज युवा इसमें जमकर गोते लगाते हैं, लेकिन इसके कई खतरे हैं। अपनी मनपसंद के गीत और अन्य सामग्री के फ्री डाउनलोड के साथ कई बार ऐसे खतरे भी साथ उतर आते हैं कि वह कंप्यूटर को तो तबाह करते ही हैं, आपके निजी सूचना तंत्र में भी सेंध लगा देते हैं।

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल

सन्मार्ग पर चलने का, परोपकार करने का या अच्छे काम करने का नशा भी कई लोगों को होता है और जिन लोगों को यह नशा होता है, ऐसे ही लोग दुनियां को दिशा देते हैं। मानवता को सिद्ध और सार्थक करते हैं,पर यह नशा जरा दुर्लभ है। सात्विक उन्मादी निश्चित ही विशाल हृदयी ,विनयशील ,पर दुखकातर होते हैं। उनके समस्त प्रयास कल्याणकारी होते हैं। सत्य, धर्म के रक्षार्थ सहज ही प्राणोत्सर्ग को ये तत्पर रहते हैं। करुणा क्षमा ममत्व इनके स्थायी गुण होते हैं। इनकी सोच समझ चिंतन,सब सात्विक और विराट हुआ करते हैं और इसके ठीक विपरीत अभिमानी अपने सुख संतोष और तुष्टि हित ही समस्त उद्यम करते हैं । किसी को अपमानित प्रताडि़त कर ये परमसुख पाते हैं... और तो और यदि कोई इनका अहित करे ,कहीं इनका अहम् आहत हो तो किसीके प्राण लेने में भी ये पल को नहीं झिझकते। संकीर्ण ह्रदय,छोटी सोच का रह वह कभी बड़ा नहीं हो सकता। कितना भी कुशल अभिनेता क्यों न हो, मुखौटा लगा, कुछ समय के लिए व्यक्ति नाम,मान, यश, प्रतिष्ठा यदि कमा भी ले, तो उसे चिरस्थायी नहीं रख सकता। कोई न कोई पल ऐसा आएगा जब अभिमान मद में चूर हो व्यक्ति चूकेगा ही और सारी पोल पट्टी खुलते क्षण न लगेगा ...। अंगुलिमाल जब गंडासा ले भगवान् बुद्ध की हत्या करने को उद्धत हो उनके सामने आ खड़ा हो गया तो भी भगवान् बुद्ध की जो स्थायी प्रवृत्ति क्षमा दया करुणा और शांति थी,वही बनी रही और उनके इसी गुण ने, उनके विराट व्यक्तित्व ने, अंगुलिमाल को भी हत्यारे से योगी बना दिया। यह होता है सात्विक स्वरुप और उसका असर। तुलसीदास जी ने कहा है- कुमति सुमति सबके उर रहहीं... सभी धर्मों, सम्प्रदायों, पंथों ने स्वीकारा है कि मनुष्य के भीतर देव और दानव दोनों ही बसते हैं। बस बात है कि किसे किसने अपने वश में कर रखा है। दानव देव के वश में होगा तो मनुष्य देवतुल्य हो जायेगा और देव दानव के वश में होगा तो मनुष्य असुर सम होगा। महाभारत के महासंग्राम में रथ पर बैठे अर्जुन और सारथि बने कृष्ण कितना कुछ सिखा जाते हैं। जबतक व्यक्ति स्वयं को अपनी वृत्तियों को इस प्रकार निबंधित न करेगा ,वह जीवन संग्राम नहीं जीत सकता। इस रथ में जुटे घोड़े वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी स्वेच्छाचारी घोड़े हैं जो सदैव ही मनुष्य को तीव्र वेग से अपनी अपनी दिशा में भगा ले जाने को उद्धत रहते हैं। परन्तु एक बार जब इनकी लगाम व्यक्ति कुशल सारथी ईश्वर (विवेक) के हाथों सौंप देता है, तो फिर साधन साथ हो न हो,विजयश्री उसे मिलती ही है। दुनिया में इतने सारे लोग जो इस प्रकार विभिन्न व्यसनों में लिप्त हैं, उन्मादित होने को लालायित रहते हैं , ऐसा नहीं है कि प्रमाद /नशा में कोई सुख नहीं। सुख है, और बहुत बहुत सुख है। सुख है तभी तो लोग इसकी ओर इस तरह भागते हैं...पर तय यह करना होगा कि कौन सा सुख किस कीमत पर लेना है। दुनियां में मुफ्त कुछ भी नहीं होता, हर सुख की कोई न कोई कीमत होती है। बस चयन में जो चपलता, बुद्धिमानी दिखायेगा ,वही जय या पराजय पायेगा।

छत्रछाया में विषहीन बने विषधर

अभी-अभी खबरें मिल रही हैं कि मात्र 40 लाख रुपए में चिकित्सक बनाने का धंधा गत दिनों से काफी फल-फूल रहा है। कोफ्त उन पर नहीं जो अर्हता नहीं होने के बावजूद बन गए, अफसोस उन चेहरों को लेकर है, जो बनना था कुछ और बन गए कुछ और। लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं। दोष उनका है जिनकी छत्रछाया में विषहीन विषधर बने हुए हैं। यदि हमारे पास यथेष्ट चरित्र न हो, तो हमारी संस्थायें गुटबंदी के अड्डे बन जायेंगे, कूड़े-कचरे से परिपूर्ण होंगी और कामचोरी का साम्राज्य होगा। नेता अपने नेतृत्व की खरीद-फरोख्त करेंगे, हमारे राजनैतिक दलों में फूट होगी, हमारे पुरोहित दुकानदारों के समान होंगे और व्यवसायी गला काटने में आनन्द का अनुभव करेंगे। युवक और युवतियां असंयमी होंगे, वृद्ध और वृद्धायें उत्तेजक तथा तारुण्यपूर्ण आचरण करेंगे, जिसके फलस्वरूप सरकार को अधिकाधिक पागलखाने खोलने की आवश्यकता होगी। हमारी संस्कृति कामुकता का पर्याय बन जायेगी, हमारी कला धूल में मिल जायेगी और हमारा साहित्य शुद्ध इन्द्रियपरता में परिणत हो जायेगा। समाज में शांति-सामंजस्य, सुख-संयम और सच्चाई-ईमानदारी की तुलना में लड़ाई-झगड़ों, उत्तेजना-उपद्रव, भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद का बोलबाला होगा। धन कमाने के लिये हम निम्न तथा कुरुचिपूर्ण भावों को बढ़ावा देने वाली चीजों को बेच कर, लोगों की और यहां तक अपने बच्चों की अभिरुचि तक को भी भ्रष्ट कर डालेंगे। धर्म निर्जीव अनुष्ठानों तक ही सीमित रह जायेगा, नैतिक मूल्य विकृत होकर विताण्डवाद में परिणत हो जायेंगे, लोकहित आत्मप्रशंसा के हेतु सामाजिक कार्य में, आध्यात्मिकता ऐहिकता में, ऐहिकता सुखवाद में और सुखवाद विनाश में परिणत हो जायेगा। हमारी शक्तियों की बजाय हमारी दुर्बलतायें ही अधिक प्रभावी होंगी, हमारे सौभाग्य की तुलना में हमारा दुर्भाग्य ही अधिक प्रबल होगा, हमारे जीवन में सुख शांति की जगह शोक विषाद की ही बहुतायत होगी और हमारे भविष्य की तुलना में हमारा अतीत ही अधिक गौरवशाली होगा। यदि हमारे पास यथेष्ट चरित्र न हो तो हमारे मित्रों की अपेक्षा हमारे शत्रु ही अधिक सबल होंगे, शांति की तुलना में युद्ध ही अधिक होंगे, मेल मिलाप के स्थान पर हिंसा का ही आधिक्य होगा। हमारे मंदिर व्यवसायिक केन्द्र बन जायेंगे और हमारे शिक्षा केन्द्र कारखाने मात्र बन कर रह जायेंगे। तब हम ऐसे कार्यों को टालेंगे जो हमें पूर्ण बनाते हैं और उत्साह पूर्वक ऐसे कार्य करेंगे जो बर्बादी लाते हैं। यदि यथेष्ट चरित्र न हो तो हमारे बांध बाढ़ को रोक नहीं सकेंगे, हमारे पुल बह जायेंगे और हमारे राजमार्ग जगह-जगह टूट कर जीवन का विनाश करेंगे।

और कितनी आहुतियां

नक्सलियों द्वारा रेल पटरी पर किए गए विस्फोट से देर रात महाराष्ट्र जा रही ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के 13 डिब्बे पटरी से उतर गए। इन्हें विपरीत दिशा से आ रही एक मालगाड़ी ने जोरदार टक्कर मारी, जिससे 65 यात्रियों की मौत हो गई और 200 अन्य घायल हो गए। दंतेवाड़ा की बात अब पुरानी हो जाएगी। नई कहानी सभी परोसने को आतुर होंगे। मगर ध्यान देने वाली बात है। नक्सली समस्या पर केंद्र और राज्य सरकारों की बड़ी-बड़ी बातें हम कई बार सुन चुके हैं लेकिन इस समस्या का समाधान होने की बजाए पुलिस और सुरक्षा बलों के ज्यादा से ज्यादा कर्मी तथा साथ ही आम नागरिक दिन-ब-दिन इस समस्या की चपेट में आ रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच इस समस्या को लेकर कोई खास समन्वय दिखाई नहीं देता। दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री के बयानों और राज्य सरकारों की कोशिशों की चर्चा तो बहुत होती है लेकिन समस्या और ज्यादा गहरी हो रही है। नक्सलवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। सरकारें इसकी भयावहता का सही अंदाजा लगाने में या तो नाकामयाब रही हैं या फिर सब कुछ पता होते हुए कारगर कदम नहीं उठाए गए हैं। नक्सल समस्या से निबटने के लिए आबंटित धनराशि इतने वर्षों से पानी में बहाई जा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समावेशी विकास की बातें करने वाली सरकारों की कथनी और करनी के अंतर की उचित समीक्षा भी जरूरी है। राज्य सरकारों के सहयोग से केंद्र सरकार को यह पता लगाना होगा कि नक्सलियों के पास इतने उन्नत हथियार कहां से आते हैं, उनके आर्थिक स्रोत क्या हैं और वे देश के सुरक्षा तंत्र को भेदने में हर बार क्यों कामयाब हो जाते हैं? लाशें बिछा दी जाती हैं और फिर तांडव की गाथा चटखारे लेकर परोसी जाती है, आखिर क्यों और कब तक? मासूम लोगों पर नक्सली हमलों की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इन घटनाओं ने भारत के लोगों को झकझोर कर रख दिया है लेकिन शासन की तरफ से नक्सली हिंसा पर लगाम लगाने की ठोस कोशिशें होती नजर नहीं आ रही हैं। सरकार अब भी न चेती तो काफी देर हो जाएगी। अब वक्त आ गया है कि सरकार इस मसले पर सभी दलों को साथ लेकर चले और नक्सल समस्या की कमर तोडऩे के लिए पूरी ताकत झोंक दे।
क्या है नक्सलवाद :
1967 में सशस्त्र क्रंाति के माध्यम से किसानों और मजदूरों को उनका हक दिलाने के लिए पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान पर एक आंदोलन की शुरूआत की गई थी। जिसे उसके स्थान के नाम पर नक्सलवाद आंदोलन कहा गया। इसके सिद्धांत माक्र्सवाद से प्रभावित थे, जबकि तरीके माओवाद से। माओ चीन के सश्सत्र क्रंाति के प्रसिद्ध नेता थे जिनका ऐतिहासिक कथन था राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। इसके अलावा राजनीति रक्तहीन युद्ध है, जबकि युद्ध रक्त से भरी राजनीति। शुरूआत में यह आंदोलन केवल पश्चिम बंगाल में चलाया जा रहा था। लेकिन पिछले कुछ सालों में देश के बाकी भागों में भी यह फैलने लगा। खासकर पूर्वी भारत, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में भी माओवादियों के साथ नक्सलवादी अपने पैर पसारने लगे। 2009 के आंकड़ों के अनुसार, नक्सली देश के 20 राज्यों की 220 जिलों में सक्रिय हैं। वह प्रमुख तौर पर रेड कॉरिडोर कहे जाने वाले क्षेत्रों में सक्रिय हैं। भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के मुताबिक देश में 20000 नक्सली काम कर रहे हैं। फरवरी 2009 में केंद्र सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, माहाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल में जवाबी कार्रवाई के संयुक्त ऑपरेशन की घोषणा की थी।
विकृत होता नक्सलवाद :
अब तो यह साफ हो गया है कि वास्तव में नक्सलवाद भटका हुआ आंदोलन है । यह अधैर्य की उपज है। इसकी बस्ती में मानवता की कोई बयार नहीं बहती। यह पशुयुग की वापसी का उपक्रम है, जिसके मूल में है हिंसा और सिर्फ हिंसा। यह जन के लुटे हुए सत्व के लिए नहीं अपितु हितनिष्ट ताकतों की राजनैतिक सत्ता के लिए संघर्ष मात्र है, जिन्हें वस्तुत: जनता के कल्याण से कोई वास्ता नहीं है । तथाकथित समाजवादी मूल लक्ष्यों की साधना से न अब किसी कमांडर को लेना देना है न वैचारिक सूत्रधारों को। वह पथभ्रष्ट और सिरफिरे लोगों की राक्षसी प्रवृत्तियों और हिंसक गतिविधियों का दूसरा नाम है। रहे होंगे उसके अनुयायी कभी सताये हुए लोगों के देवता, अब तो उनका दामन आदिवासियों, गरीब और अहसाय लोगों के खून से रंग चुका है । उसके मेनोफेस्टो में अब दीन-दुखी, पीडि़त-दलित, मारे-सताये हुए पारंपरिक रूप से शोषित समाज के प्रति न हमदर्दी की इबारत है, न ही समानता मूलक मूल्यों की स्थापना और विषमतावादी प्रवृतियों की समाप्ति के लिए लेशमात्र संकल्प शेष बचा है। वह स्वयं में शोषण का भयानकतम् और नया संस्करण बन चुका है। वह अभावग्रस्त एवं सहज, सरल लोगों के मन-शोषण नहीं बल्कि तन-शोषण का भी जंगली अंधेरा है। एक मतलब में नक्सलवाद शोषितों के खिलाफ हिंसक शोषकों का नहीं दिखाई देने वाला शोषण है।
नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ :
यदि समाजवादी आंदोलन की बुनियाद में मानव प्राण के प्रति सम्मान था तो फिर निरीह, निर्दोष लोगों को खुलेआम कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहाँ से ढूंढ़ निकाली। जैसा कि नक्सली मानते हैं कि वे जनता के अधिकारों के पहरुए हैं और उन्हें शोषण से मुक्त करना ही उनका लक्ष्य है तो वे उसी शोषित जनता की हत्या की राजनीति क्यों चलाते हैं। यहाँ उनकी यह करतूत क्या उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से नहीं जोड़ देती है? नक्सली जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे अंतत: लाभकारी होगा वॉर इंडस्ट्री को। खास कर उन्हें जो हथियारों की चोरी-छिपे भारत में अस्त्र-शस्त्र की आपूर्ति को निरंतर बनाये रखना चाहते हैं । इनकी घोर क्रांतिकारिता जैसे शब्दावली ही बकवास है। उसे मानवीय गरिमा की स्थापना की लड़ाई कहना नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ है अदृश्य किंतु सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि वह सत्ता प्राप्ति का गैर प्रजातांत्रिक और तानाशाही (अ)वैचारिकी का हिंसक संघर्ष है ।
ढोंग और नक्सलवाद की कुटिल चालें :
देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मजदूरों के खिलाफ ठेकेदार,मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। यह भी भूल साबित हो चुका है और इस भूल के शिकार होकर सैकड़ों हजारों असंतुष्ट युवा, बुद्धिजीवी और बेरोजगार इस आंदोलन में अपना जीवन व्यर्थ गवाँ चुके हैं। वे भारी भूल में थे जो यह समझते रहे कि वे मानवीय हित के लिए लड़ रहे हैं या वे समाज के लिए शहीद हो रहे हैं। न उनके आँगन का अंधेरा छंटा न ही गाँव-समाज-देश का । वास्तविकता तो यही है कि जाने कितने गरीब मांओं का आँचल सूना हो चुका है । सैकड़ों असमय वैधव्य झेल रही हैं। हजारों बच्चे आज सामाजिक विस्थापन झेल रहे हैं। एक ओर उन्हें हिंसावादी की संतान मान कर असामाजिक दृष्टि को झेलना पड़ रहा है दूसरी ओर वे असमय आसराविहीन हो रहे हैं। कभी-कभी उनके पिताओं के नाम पर बने किसी स्मृति पत्थर पर जरूर दो-चार जंगली फूल जरूर सजा दिये जाते हैं। वह भी इसलिए कि भावुक और आक्रोशित युवा नक्सलियों को शहीद होने का भ्रम बना रहे । यह सिर्फ ढोंग और नक्सलवाद की कुटिल चालें हैं, और कुछ नहीं । बस्तर और सरगुजा का भी युवजन नक्सलवाद के इसी ढोंग का शिकार हो चुका है। विकास के लिए आरक्षित धनराशि का एक बड़ा हिस्सा पुलिस और सैन्य व्यवस्था के नाम पर व्यय हो रहा है जो अनुत्पादक है । इससे तरह-तरह की नया भ्रष्टाचार भी पनप रहा है। यदि खबरों पर विश्वास करें तो नक्सल प्रभावित लोगों के लिए प्रायोजित राहत के नाम पर फिर से बाजारवादी और लूट-घसोट में विश्वास रखने वाले ठेकेदारों को नई उर्जा मिल रही है ।
इनका लक्ष्य समाज की शुचिता नहीं :
नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो ज्यादा संभव है कि उनका यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर साबित हो। लेकिन खेद है कि यह उनका लक्ष्य कम से कम अब तो वह कतई नहीं रहा । यदि ऐसा होता तो वे भी समाज की, देश की अन्य बुराईयों और दासतावादी मानसिकता के विरूद्ध लड़ते। यदि ऐसा होता तो वे न्याय व्यवस्था में सुधार, न्यूनतम मजदूरी या वेतन, मादा भ्रूण हत्या, सांप्रदायिकता, धर्मांधता और अशिक्षा के विपरीत भी एकजूट होते। यदि ऐसा होता तो ये भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लड़ाई लड़ते जो आज वनांचलों की ही नहीं समूचे भारत की सबसे बड़ी समस्या है। और ऐसी सभी विद्रुपताओं का खात्मा समान उद्देश्यों की सूची में होती। तब कदाचित् देश का अधिसंख्यक समाज भी जो आजादी के इतनी लबीं अवधि के बाद भी बुनियादी स्वप्नों और आंकाक्षाओं को फलित होते नहीं देख सका है, उनके वैचारिक लड़ाई में साथ होता। जाहिर है कि इनका लक्ष्य समाज की शुचिता नहीं।
शर्म, शर्म, शर्म...
नक्सलवादियों के क्रूरतम आक्रोश का जो शिकार हो रहे हैं, जो बमौत मारे जा रहे हैं क्या उनका कोई मानव अधिकार नहीं है ? जो इन नक्सलियों के बलात्कार और लूट-घसोट के स्थायी शिकार होने को बाध्य हैं क्या उनके भी मानव अधिकार निरस्त कर दिये गये हैं पुलिस के उपरले नहीं किन्तु निचले स्तर के जो अकारण सिपाही मारे जा रहे हैं उनके अनाथ बच्चों का कोई मानव अधिकार नहीं? बड़े-बड़े पुलिस अधिकारियों के नक्सली क्षेत्र के दौरों के बहाने वन की सैर-सपाटे और शानो-शौकत में मातहत कर्मचारियों अपने छोटे-छोटे बच्चों के पेट काट कर जो चंदा दे रहे हैं उसमें मानव अधिकार हनन की कोई दुर्गंध नहीं आती? नक्सलियों को कौन-सा ऐसा विशिष्ट मानव अधिकार मिल गया है जो नौनिहालों को पाठशाला से जो वंचित कर रहे हैं ? नक्सलवादी भूगोल की संभावित गरिमा जो छीन रहे हैं वे क्या मानव अधिकार का हनन नहीं कर रहे हैं। आखिर आदिवासी ग्रामों को सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधा से वंचित करके रखने वाले ये नक्सली कौन सा मानव अधिकार का पाठ पढ़ा रहे हैं।
त्रासदी का शिकार कब तक?
आखिर कब तक हम इन नक्सलियों की त्रासदी का शिकार होते रहेंगे। वारदातों का होना लगातार जारी है। मासूम लोग मर रहे हैं और सरकार मुआवजों का ऐलान कर के चुप हो जाती हैं, लेकिन सरकार कोई भी समाधान इस समस्या का निकाल नहीं पा रही है। बैठकों के दौर जारी हैं, चिदंबरम ने नक्सलियों से लडऩे की जिम्मेदारी खुद ले ली है लेकिन फिर भी कोई ठोस कदम उठाए नहीं गए हैं। हम अभी दंतेवाड़ा के घावों से उबर भी नहीं पाये थे कि पं, बंगाल की घटना ने हमारी चोट और दर्द को फिर से हरा कर दिया। आखिर सरकार से चूक कहां हो रही है?
72 फीसदी लोग चाहते हैं, सेना ले लोहा :
एक सर्वे में हमने देश की जनता से सवाल किया गया कि क्या नक्सलियों के खात्मे के लिए हमें सेना की मदद ले लेनी चाहिए? आपको जानकर हैरत होगी कि जनता का जवाब आया कि हां हमें अब नक्सलियों के खात्में के लिए सेना की मदद लेनी चाहिए। देश के 72 प्रतिशत लोगों का मत है कि सरकार को अब नक्सलियों के अंत के लिए भारतीय सेना की मदद ले लेनी चाहिए। इससे साबित होता है कि भारत की आम जनता का भरोसा देश की सुरक्षा बलों से उठ गया है और वो जल्द से जल्द इस आतंक का खात्मा चाहती हैं, और शायद ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि मरता तो एक आम आदमी ही है। देश की सरकार चलाने वाले हमारे पुरोधा केवल एसी कमरों में बैठ कर मुकाबले की रणनीति ही बनाते रहते हैं लेकिन उसे अमल में कब लाया जायेगा ये उन्हें भी पता नहीं है। दंतेवाड़ा की खबर के बाद सेना की मदद का प्रस्ताव रखा गया था और सेना ने नक्सली प्रभावित क्षेत्रों मे उन इलाकों को चिन्हित किया था जहां से नक्सली आग बरसाने का काम करते हैं। लेकिन तब विरोधियों ने ये कह कर इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि इससे आम लोगों को बेहद परेशानी होगी, अब ये तो वो ही जाने कि क्या अभी आम जनता परेशान नहीं हैं। देखना ये होगा कि सरकार पं. बंगाल की त्रासदी के बाद मुआवजे का ऐलान करके चुप हो जाती है या फिर वो जनता के फैसले का सम्मान करती है।
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मर गया आदमी

आरुषि हत्याकांड : एक और नया पैंतरा
आरुषि और हेमराज का कातिल कोई गोल्फर हो सकता है। ये दावा सीबीआई की उस नई तफ्तीश पर आधारित है जिसके मुताबिक देश के सबसे सनसनीखेज हत्याकांड में गोल्फ क्लब यानी गोल्फ खेलने वाली स्टिक का अहम रोल है। अपनी तफ्तीश में सीबीआई की नई टीम ने पाया है कि आरुषि-हेमराज के सिर की हड्डी जिस हथियार से तोड़ी गई, दरअसल वो हथियार नहीं बल्कि गोल्फ क्लब यानी गोल्फ खेलने वाली स्टिक ही है। दरअसल आरुषि-हेमराज हत्याकांड में दो साल की तफ्तीश के बाद सीबीआई के हाथ एक बड़ा सुराग लगा है। ये सुराग कत्ल के तरीके से जुड़ा है, कत्ल के हथियार से जुड़ा है। एक बार फिर उसने इन सवालों पर गौर किया।
- क्या कातिल आरुषि का कोई करीबी है?
- क्या कत्ल का हथियार घर में था या बाहर से लाया गया था?
- क्या कत्ल को एक से ज्यादा लोगों ने अंजाम दिया?
बेहद बारीकी से आरुषि और हेमराज के हर जख्म की फिर से जांच शुरू हुई। हर फॉरेंसिक साक्ष्यों पर भी नजर जमाई गई। आरुषि-हेमराज के कत्ल के तरीके पर फिर से गौर किया गया। इनमें सबसे अहम थे उनके जिस्म पर बने घाव। क्योंकि सीबीआई को इनके जरिए ही आला-ए-कत्ल तक पहुंचने का रास्ता दिखा। नोएडा के जलवायु विहार के फ्लैट नंबर 32 में 15-16 मई की रात आरुषि और हेमराज का कत्ल हुआ था। कत्ल कैसा हुआ इसका खुलासा पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने किया। पहले दोनों के सिर पर किसी भारी चीज से जोरदार वार किया गया जिससे उनके सिर की हड्डी टूट गई। उनकी मौत के लिए ये वार ही काफी था। लेकिन इसके बाद भी कातिल ने दोनों की गर्दन सर्जिकल नाइफ जैसी धारदार चीज से काट डाली। नोएडा पुलिस ने कत्ल के तरीके को ध्यान में रखकर शुरुआती जांच में ही कहा था कि कातिल या तो डॉक्टर है या फिर कसाई। इन सभी बातों को मद्देनजर रखते हुए सीबीआई ने केस को फिर से बुनना शुरू किया। सीबीआई के सामने सबसे बड़ी चुनौती आज भी है आला-ए-कत्ल को तलाशना। यानि उस हथियार या उस चीज का पता लगाना जिसके जरिए कत्ल किया गया। आला-ए-कत्ल की तलाश में सीबीआई ने आरुषि और हेमराज के जख्म की एक बार फिर बेहद बारीकी से जांच की। इसमें सीबीआई की नई टीम ने नए फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स की मदद ली। नए सिरे से हर जख्म का गहन अध्यन किया गया। इस जांच में सीबीआई की टीम इस नतीजे पर पहुंची कि दोनों के सिर पर वार, हथौड़े से नहीं किया गया। जैसा कि नोएडा पुलिस की शुरुआती जांच में कहा जा रहा था। दोनों के सिर पर खुखरी के बट से भी हमला नहीं किया गया। ये सीबीआई की शुरुआती जांच की थ्यौरी थी। अब सीबीआई के सामने ये चैलेंज था कि वो उस हथियार का पता लगाए जिसके जरिए सिर पर वार किया गया। ऐसा वार जिससे एक झटके में ही सिर की हड्डी टूट गई। सीबीआई की नई टीम ने इस घाव का और घाव करने वाले हथियार का राज जान लिया है। सीबीआई ने आरुषि और हेमराज के सिर पर बने जख्मों को मापा। घाव के हिसाब से और जख्म के माप के हिसाब से हर हथियार को उससे जोड़ कर देखा गया। आखिरकार लंबी छानबीन और तफ्तीश के बाद सीबीआई की टीम इस नतीजे पर पहुंची है कि आरुषि और हेमराज के सिर पर गोल्फ क्लब से वार किया गया। गोल्फ क्लब यानि गोल्फ खेलने वाली छड़ी जो लोहे की होती है। अब सवाल ये है कि आखिर कौन था आरुषि के आसपास जो गोल्फ खेलने का शौकीन हो। जाहिर है गोल्फ खेलने का महंगा शौक घरेलू नौकर तो पाल नहीं सकते। सीबीआई की शक की सुई फिर आरुषि के पारिवार के सदस्य और पारिवारिक मित्रों पर ही टिक गई है।
शक के दायरे में गोल्फ का शौकीन :
कहते हैं कि कातिल कितना भी शातिर क्यों न हो मौका-ए-वारदात पर वो कोई न कोई ऐसा निशान छोड़ जाता है जो आखिरकार उसे कानून की गिरफ्त में पहुंचा ही देता है। दो साल बाद ही सही, यही इस केस में भी होता दिख रहा है। केस का कत्ल करने की भरपूर कोशिश हुई। लेकिन नए सुराग के सहारे अब सीबीआई आरुषि के उस करीबी को घेरने में जुटी है जो गोल्फ का शौकीन है। क्या देश के सबसे सनसनीखेज हत्याकांड को एक गोल्फर ने अंजाम दिया? सीबीआई की तफ्तीश अब इसी दिशा में आगे बढ़ रही है। अब सीबीआई की नजर एक बार फिर आरुषि के परिवार और राजेश तलवार के दोस्तों पर टिक गई है। यानि कातिल घर का सदस्य भी हो सकता है या फिर पारिवारिक मित्र भी। इस मामले में सीबीआई ने अब एक बार फिर उन 8 संदिग्ध लोगों से पूछताछ का सिलसिला शुरू कर दिया है। जिनकी सूची नोएडा पुलिस ने बनाई थी। इनमें से आरुषि के माता-पिता से चंद रोज पहले ही सीबीआई ने देहरादून में लंबी पूछताछ की। 8 संदिग्ध लोगों में राजेश और नुपुर तलवार के अलावा उनके दोस्त भी शामिल हैं। सीबीआई सभी से जल्द ही बेहद लंबी पूछताछ करने वाली है। इस दौरान कातिल गोल्फर की तलाश में जुटी सीबीआई को ये जानकारी भी मिल गई है कि आरुषि के परिवार का एक नजदीकी सदस्य गोल्फ का बेहद शौकीन है। ये शख्स नोएडा गोल्फ कोर्स का मेंबर भी है। हर रविवार को ये नोएडा गोल्फ कोर्स में गोल्फ खेलने जाया करता था। यही नहीं, कत्ल से पहले रविवार को अक्सर लंच भी नोएडा गोल्फ कोर्स में ही किया करता था। सूत्रों के मुताबिक इस शख्स के गोल्फ किट से गोल्फ खेलने वाली एक स्टिक गायब है। ये गोल्फ स्टिक बेहद संदिग्ध तरीके से गायब हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस बार भी सीबीआई आला-ए-कत्ल के लिए भटकती रहेगी। या फिर उसे वो उस गोल्फ स्टिक को ढूंढने में कामयाब हो सकेगी। जाहिर है कोई भी कातिल कत्ल का हथियार मौका-ए-वारदात पर नहीं छोड़ेगा। ऐसे में घर से गोल्फ स्टिक का गायब होना कोई हैरत की बात नहीं है। लेकिन चंद बातें हैं जो ये साफ करती हैं कि कातिल बेहद शातिर है। सिर पर वार करने के लिए गोल्फ स्टिक का चुनाव ही इसका प्रमाण है। कोई भी जांच टीम गोल्फ स्टिक के बारे में जल्दी नहीं सोच सकती। सीबीआई को आला-ए-कत्ल का सुराग मिल गया है। अब इंतजार इस बात का है कि ये सुराग सबूत में तब्दील हो। यही सीबीआई की सबसे बड़ी चुनौती होगी। अगर उसने इस सुराग को सबूत बना दिया तो उसपर पिछले दो बरस से लग रही सारी तोहमत धुल जाएगी। सीबीआई की जांच की सूई गोल्फ क्लब यानी गोल्फ स्टिक की तरफ यूं ही नहीं गई। दरअसल सीबीआई की नई टीम ने नोएडा पुलिस की 187 पन्नों की केस डायरी पढ़ी और इस नतीजे पर पहुंची कि कातिल तक पहुंचने का सिर्फ एक ही तरीका है पोस्टमार्टम रिपोर्ट। पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने कत्ल के वहशियाना तरीके का खुलासा किया। आरुषि की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक सिर के बाईं तरफ किसी भारी चीज से वार किया गया था, जिसकी वजह से उसके सिर की हड्डी टूट गई और उसके सिर पर करीब चार इंच गहरा घाव बन गया। यही नहीं, करीब छह इंच का सूजन भी आरुषि के सिर पर था। सूजन की वजह थी चोट के आसपास खून के थक्के का जमना। इसके अलावा आरुषि के सिर पर चोट के और भी दो गहरे घाव थे। आरुषि के सिर पर किया गया वार ही उसकी मौत के लिए काफी था। लेकिन कातिल ने उस भारी चीज से आरुषि के सिर पर चोट करने के बाद उसका गला भी रेत दिया। कत्ल का यही तरीका इस परिवार के घरेलू नौकर हेमराज के साथ भी अपनाया गया। खास बात ये कि दोनों ही मामलों में कातिल ने कत्ल करने से पहले सिर पर वार किया। हेमराज की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक हेमराज के सिर पर भारी चीज से जोरदार वार किया गया था। सिर के पिछले हिस्से में जबर्दस्त वार से सिर की हड्डीटूट गई थी। यही नहीं हेमराज के सिर के अगले हिस्से पर बाईं ओर भी खरोंच के साथ-साथ सूजन मिला था। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की इन जानकारियों की गहन पड़ताल ने अंधेरे में तीर मार रही सीबीआई को कातिल तक पहुंचाने में बेहद अहम रोल निभाया। इस चोट ने ही ये साफ किया कि कातिल ने गोल्फ खेलने वाली स्टिक से दोनों के सिर पर हमला किया। सीबीआई ने इस बात का खुलासा नहीं किया है कि गोल्फ क्लब किस किस्म का था। क्योंकि गोल्फ क्लब यानि गोल्फ खेलने वाली स्टिक दरअसल तीन तरह की होती है। जिसे अलग-अलग शॉट के हिसाब से इस्तेमाल किया जाता है।
1- वुड्स :- यानि वो गोल्फ क्लब या स्टिक जिसका इस्तेमाल लंबे शॉट खेलने में किया जाता है, इसका हेड यानि बॉल को मारने का हिस्सा ज्यादातर स्टील का बना होता है। इसका सिर पर एक वार आदमी का काम तमाम कर सकता है।
2- आयरन :- जैसा कि नाम से जाहिर है ये लोहे का बना होता है। मिड शॉट्स खेलने में इस्तेमाल होता है। काफी मजबूत होता है। सिर पर वार किया जाए तो सिर टूटने में कोई मुश्किल ना आए।
3- पटर :- इसका इस्तेमाल गोल्फ की बॉल को कप यानि छेद तक पहुंचाने में होता है। इसका भी निचला हिस्सा ज्यादातर लोहे से बना होता है। इसका वार भी जानलेवा साबित हो सकता है।
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नागपुर की सेहत सुधारने की कवायद

नागपुर की सेहत सुधारने की कवायद तेज हो गई है। रंगत दिखी, जब मनपा की विशेष सभा में स्थायी समिति अध्यक्ष संदीप जोशी ने वर्ष 2010-11 का प्रस्तावित बजट 1187.33 करोड़ रु. का पेश किया। खास बात यह कि वर्ष 2010-11 के लिए 375 लाख रु. का चुंगी कर संकलन करने का लक्ष्य रखा गया है। चुंगी चोरी रोकने के लिए प्रमुख मार्गों पर नाकाबंदी, चौकियों का निर्माण व बंदोबस्त में बढ़ोत्तरी की जाएगी। मनपा का यह फैसला अपने आप में महत्वपूर्ण है। उपर से चुंगी विभाग के कर्मचारियों को लक्ष्य पूरा करने पर पुरस्कृत करने की योजना तो और रामबाण है। मगर नीति, नीयत और नियंता को ध्यान में रखने की जरूरत है। महाभारत के पात्र शान्तनु गंगा पर मोहित हुए और उससे विवाह करना चाहते थे। गंगा ने शर्त रखी- तुम मुझसे सवाल नहीं करोगे। जिस दिन सवाल किया, मैं तुम्हे छोड़कर चली जाऊंगी। उसकी सन्तानें होती रहीं और वह हर नवजात को नदी में प्रवाहित करती रही। अन्त में शान्तनु का धीरज छूट गया। अंतिम बच्चे को प्रवाहित करने से पहले शान्तनु ने पूछ ही लिया- तुम ऐसा क्यों कर रही हो? गंगा ने उसी वक्त शान्तनु का साथ छोड़ दिया। कई गंगा प्रवाहित हैं। उनसे सवाल नहीं कर सकते। वे अपनी शर्तो पर साथ होने के आदी हैं। मनपा को भी शर्तों के इस जद से बाहर आना होगा। प्रापर्टी टैक्स एकमुश्त रकम भरने पर विशेष छूट का प्रावधान भी रंग ला सकता है। इसके अलावा विभागीय स्तर पर शिकायत निवारण केंद्र की स्थापना से आम लोगों को काफी राहत मिलेगी। लापरवाही की जिम्मेदारी निश्चित करके विश्वसनीयता पर भारी बल दिया गया समीचिन है। जलापूर्ति योजना की शिकायतों के अंबार से मनपा के विभागीय अधिकारी खुद को असहज महसूस कर रहे हैं। आगामी वर्षों में पानी की संपूर्ण व्यवस्था, स्वच्छता का ध्यान रखा गया है। ऐसा लगता है कि मनपा ने इस क्षेत्र पर विशेष तवज्जो देने का प्रयास किया है। नागपुर की सड़कों की तूती देश में बोलती थी, मगर हाल के वर्षों में अपने हाल पर यह रोने को आमादा है। अब शहर के विकास में गति प्रदान करने के लिए नई बड़ी सड़कें, आरओबी, आरयूबी व फ्लाय ओवर जैसे नये कार्यों को हाथ में लिया गया है, जो नि:संदेह काबिलेतारीफ है। यहां तक कि पं. दीनदयाल उपाध्याय विकास योजना अंतर्गत प्रत्येक वार्डों के आंतरिक सड़कों को सुधारने के लिए 15 लाख. रु. का प्रावधान किया गया है। शहर की यातायात व्यवस्था सुधारने के लिए 10.45 करोड़ तो महापुरुषों के पुतले के निर्माण के लिए 80 लाख रु. का प्रावधान किया गया है। नागपुर दर्शन के लिए अहम योजना बनाई गई है। कुल मिलाकर विकास की बेहतर झांकी का प्रस्ताव फीका तो नहीं, मगर अमल में खलल फीका ही नहीं, इसे कड़वा भी कर सकता है। आम लोगों की हालत पहले से ही काफी पतली है। आधारभूत सविधाओं की बानगी से काम नहीं चलने वाला। घर से कदम निकालने के साथ ही पैसे बटुए से निकलना शुरू हो जाते हैं। घर पहुंचते-पहुंचतेे इनके अवशेष कभी-कभी कभार ही दिख पाते हैं। आवागमन इतना महंगा और बेहिसाब है कि कदम वहीं के वहीं ठिठक जाते हैं। जरूरत है स्वास्थ्य सुविधाओं से लेकर आवागमन को बेहतर और आम बनाने की ताकि लोगों के बीच राहत भरा संदेश जाए और मनपा के प्रयासों की गली-कूचों में भी सराहना हो। जानवर के लिए अपने शरीर से जुड़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करना ही जीने का उद्देश्य बना रहता है। अगर वो पूरी हो रही हों तो उससे ज्यादा की उसे आवश्यकता महसूस नहीं होती, जबकि इंसान के लिए शरीर से जुड़ी हुई आवश्यकताओं का ही पूरा होना पर्याप्त नहीं होता। इंसान को उससे ज्यादा की आवश्यकता महसूस होती है। जैसे स्वयं में विश्वास तथा सम्मान पूर्वक जीने की चाह, सुखपूर्वक जीने की चाह, जीने के हर आयाम में समाधान की चाह, स्वयं में तथा परिवार में समृद्धि की चाह आदि-आदि। मनपा को ध्यान में रखना होगा कि वह बस्ती को इनसान के रहने और जीने के लायक बनाने के प्रति प्रतिबद्ध है। वह कैसे पूरा हो, यह भी मनपा की ही समस्या है।
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चापलूसों की जमात

चापलूसी एक ऐसी बला है, जो किसी को एक बार लग जाती है तो छूटने का नाम ही नहीं लेती। चापलूस दूसरों की बातों को तीसरे के सामने नमक-मिर्च डालकर चमचा बनकर परोसता है। चापलूस एक तरह से डाकिये का काम मुफ्त में कर देता है। फर्क इतना है कि डाकिया पत्र द्वारा दो व्यक्तियों के बीच के संपर्क को, संबंध को बनाए रखता है, तो चापलूस चापलूसी के माध्यम से दो व्यक्तियों के प्रगाढ़ संबंध को भी तोड़कर रख देता है। चापलूसों को चापलूसी में ब्रह्मानंद सहोदर आनंद की प्राप्ति होती है। इस आनंद से, रस से वह इतना अधिक अघा जाते हैं कि उन्हें डकार ले-लेकर जीते रहना पड़ता है। उनका साधारणीकरण हर जगह होता रहता है। ये बाहर-बाहर प्रसन्न व अन्दर ही अन्दर दु:खी रहते हैं। मस्के मारकर बातें करने की अदा इन्हें जन्मजात प्राप्त होती है। ये जिससे किसी की चापलूसी करते हैं, उसे भी इन पर कभी भरोसा नहीं होता, क्योंकि उनसे हम लड़ाई नहीं कर सकते। इसका मतलब तो यही होता होगा कि जो चापलूसों के वश में हो जाते हैं, वे महामूर्ख होते हैं। आज के मस्कापॉलिश युग में चापलूसी करने में माहिर होना अति आवश्यक है। अगर आप किसी को अखाड़े में शारीरिक बल से पछाड़ नहीं सकते हो तो उसे चापलूसी द्वारा आसानी से चित कर सकते हैं। अब तो चारों ओर चापलूसों की जमात खड़ी हो रही है। उनकी यूनियन भी बन गई है। अत: आप किसी भी चापलूस को चापलूसी करने से रोक नहीं सकते। चापलूस जानते हैं कि खुशामद से ही आमद है। बिना किसी की खुशामद किए लाभ नहीं होता। साधारण, निकम्मे लोग केवल खुशामद करके कोई बड़ा पद पा लेते हैं। चापलूसों के चेहरे पर हँसी और आँखों में क्रूरता होती है। इनके दोस्तों की कोई कक्षा ही नहीं होती अर्थात वे अकक्षेय होते हैं। चापलूस इस बात के लिए सदा सजग होते हैं कि उनकी बात कोई अन्य न सुन ले। बात को यकायक रोकने की कला में ये माहिर होते हैं। कान इनके लम्बे और आँखें बड़ी-बड़ी होती हैं। ये जिनकी चापलूसी कर रहे होते हैं, उन्हें कनखियों से ही देखते हैं। ये भीड़ में भी एकांत खोज लेते हैं। चापलूस अपने को कभी भी हीन नहीं मानते फिर भी कभी ऊँचे नहीं उठ सकते। ये हीन को महान और महान को हीन बना देते हैं, नीच को भी ऊँचाई पर पहुँचा देते हैं। चापलूसों का सिर्फ एक ही दोष होता है कि वे चापलूस हैं, ऐसा कभी भी मानने को तैयार नहीं होते।
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सामने वाले में शराफत ही नहीं

देश में मूल रूप से शराफत की दो किस्में पाई जाती हैं। एक अभी वाली, एक पुराने जमाने वाली। पुराने जमाने वाली में एक अतिरिक्त समस्या यह भी थी कि उसे लगातार ओढ़े रहना पड़ता था। लगातार ओढ़े-ओढ़े एक दिन शराफत कवच की तरह शरीर से चिपक जाती थी। फिर आदमी भले ही उसे छोडऩा चाहे, शराफत उसे नहीं छोड़ती थी। तो ऐसे संघर्षो के बाद मजबूरी में आदमी शरीफ मान ही लिया जाता था। हालांकि तब शराफत की परीक्षा कठिन होती थी। बहुत तैयारियां लगती थीं। उच्चस्तरीय प्रयासों के दौरान कई बार मूलभूत शरीफ आदमी तक ऊब जाता था। आखिर कोई शराफत को कब तक ओढ़े रहे, एक दिन तो उसे भी उतारकर फेंकनी होती है। कब तक मुंह को गंभीर किस्म का बनाकर रखे। भई, बड़ा जोर लगता है शराफत को मुंह पर चिपकाकर रखने में, शराफत तक हाथापाई पर उतर आती थी कि कहीं तो खाल से निकलकर औकात पर उतरो। हालांकि तब मामला इस मायने में थोड़ा आसान था कि जरूरत के हिसाब से पावभर या छटांकभर शराफत लेनी होती थी। उसे मुंह पर चिपकाकर ड्राइंगरूम में लगातार बैठना पड़ता था। ड्रइंगरूम खाली न मिला तो दालान में चिपकना होता था, दालान खाली न मिली तो बागीचे में कुर्सी डालने की व्यवस्था जमानी होती थी। सामने वाली टेबल पर कुछ अखबार रखने होते थे। बाजू वाले स्टूल पर शराफत का कुछ अतिरिक्त स्टाक भी रखना होता था। हर तरह की आवाजों के प्रति बहरोचित होने का गुण भी विकसित करना होता था। इतने प्रयासों के बाद जो चीज निकलकर आती थी वो होता था, खालिस शरीफ आदमी। एकदम 24 कैरट का। बाहर से आने वालों से लेकर रास्ते तक से गुजरने वाले इस शराफत को नमन करते हुए गुजरते थे। अब वक्त बदल चुका है। वर्तमान में शराफत की जरूरत थोड़ी अलग तरह की है। अब शरीफ होना-भाई साब अच्छे हैं काम के नहीं हैं-टाइप का है। इसलिए शरीफ दिखना सब चाहते हैं, होना कोई नहीं चाहता। अब तो आदमी जीविका के अलावा दंद-फंद की आजीविका में ही मुख्य रूप से उलझा है। जब नहीं उलझा है, तो उलझने के तरीकों पर मनन कर रहा है। पत्नियां तक श्रीमान को गाहे-बगाहे समझाती रहती हैं-ज्यादा शराफत दिखाने की जरूरत नहीं है, इन पड़ोसियों को अच्छी तरह समझा देना हमें ज्यादा शरीफ समझने की भूल न करें, नहीं तो अच्छा नहीं होगा। फिर थकहार कर हर आदमी शराफत की तलाश में निकल ही जाता है। अंत में जब उसे शराफत मिलती है तो उसे वह अपने लिए नहीं दूसरे के लिए ही चाहिए। दूसरे की चाह भी यही है। अर्थात् अब हर आदमी शराफत को दूसरों में ही देखना चाहता है। अपनी ऐसी फजीहत से ऊबकर ही शराफत कहीं कोने में सिमटी बैठी है। अच्छे दिनों के इंतजार में . .जब उसे फिर से कोई शरीफ अपनाएगा, वापस सम्मान दिलवाएगा।
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विज्ञान ने पैदा की सनसनी

जब से यह खबर आई है कि जीवविज्ञानी क्रेग वेंटर और उनकी टीम ने लैब में सिंथेटिक लाइफ रच दी है। इस अनुसंधान के नतीजों के आधार पर वैज्ञानिक अब जीवन के ऐसे नए रूपों की रचना भी कर सकेंगे, जिनके जीनों को विविध कार्यों को अंजाम देने के लिए पहले से ही निर्देशित कर दिया जाएगा। इन विविध कार्यों में कार्बन-रहित ईंधन का उत्पादन, वायुमंडल में कार्बन डायऑक्साइड सोखना, अपनी जरूरत के हिसाब से दवाओं का निर्माण, खाद्य वस्तुओं की नए रूप और स्वच्छ पानी उपलब्ध करना शामिल है। इस तरह यह कृत्रिम जीवन, बायोटेक्नॉलजी के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला देगा और इस धरती पर मानव जीवन के लिए एक बड़ा वरदान साबित होगा। लेकिन, इस रिसर्च टेक्नॉलजी के गलत हाथों में पडऩे का खतरा भी तो हो सकता है। मसलन नई तकनीक के जरिए जैविक हथियारों का निर्माण किया जा सकता है या जीवन के मौलिक स्वरूप से छेड़छाड़ की जा सकती है। संभव है कोई ऐसे जीवों का निर्माण करने लगे जो जुओं की तरह दुश्मन देश के नागरिकों के सिरों में डाल दिए जाएं और वे अपने जहरीले उत्सर्जन से दिमाग को नष्ट कर दें। क्या डॉ. वेंटर अपने कृत्रिम जीव को नियंत्रित कर पाएंगे? उनके आलोचकों और धार्मिक संगठनों ने नई तकनीक के संभावित दुरुपयोग को लेकर चिंता जाहिर की है। उनको डर है कि कृत्रिम जीवन अनियंत्रित होकर मैदानों में पहुंचकर पर्यावरण में तबाही मचा सकता है। हो सकता है कुछ सैनिक दिमाग नई तकनीक से संहारक जैविक हथियार बनाने के बारे में सोचें। वेंटर मानवता के इतिहास के सबसे राजदार दरवाजे को खोल रहे हैं। एक तरह से वह उसकी नियति में झांकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन हर तरफ इसी की चर्चा हो रही है कि अब इस सिंथेटिक लाइफ से कैसे-कैसे करिश्मे हो सकते हैं। अतिरेक में यह तक कहा जा रहा है कि अब वैज्ञानिक अपने मन-मुताबिक जैसा चाहें, जीव रच सकते हैं और मनचाहा काम कर सकते हैं। इन दावों से ख्याली पुलाव पकाने वालों को सिंथेटिक लाइफ रूपी एक नया हथियार मिल गया है, लेकिन वैज्ञानिक बिरादरी इस खबर को लेकर उतनी उत्साहित नहीं है जितना मीडिया या आम जनता। वहां इस सनसनी से उलट यह बहस जोरों पर है कि क्या सच में वेंटर को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने लैब में सिंथेटिक लाइफ बनाने के सपने को साकार कर दिखाया है। ज्यादातर वैज्ञानिक और यहां तक कि खुद वेंटर कह रहे हैं कि उनका प्रयोग जीवन की रचना के करीब होते हुए भी उससे काफी अलग है। वेंटर के शब्दों में उपलब्धि सिर्फ यह है कि हमने दुनिया का पहला सिंथेटिक सेल (कोशिका) बनाने में सफलता पाई है। सिंथेटिक जीनोम का निर्माण और एक बैक्टीरिया का जीनोम निकालकर दूसरे में ट्रांसप्लांट करना, ये दो काम लैब में वेंटर और उनकी टीम पहले ही कर चुकी है। इस बार उन्होंने ये दोनों काम एक साथ किए और सफलता यह है कि जिस बैक्टीरिया में सिंथेटिक सेल डाला गया, वह अपनी खूबियां छोड़ सिंथेटिक सेल की तरह व्यवहार करते हुए इसकी प्रतिलिपियां बनाने लगा। हालांकि कई जीवविज्ञानी प्राकृतिक और सिंथेटिक बैक्टीरिया में कोई जैविक अंतर नहीं मानते, लिहाजा इस काम को ईश्वर के काम के समकक्ष माना जा सकता है। लेकिन शुद्धतावादी इससे सहमत नहीं। उनकी आपत्ति यह है कि एक बैक्टीरिया भी असली क्यों लिया गया। आश्चर्य नहीं कि यह बहस लंबी खिंच सकती है। विज्ञान के दायरे में होने वाली बहस से कोई ऐतराज भी नहीं। पर मुश्किल यह है कि वैज्ञानिक प्रयोगों और उपलब्धियों की कोई जानकारी आम समाज में आती है तो उसे या तो बहुत महान और ईश्वरीय ठहराने की कोशिश होती है या फिर किसी फिजूल के नैतिक पहलू के आधार पर उसके विरोध का कोई बहाना ढूंढ लिया जाता है। वेंटर को कृत्रिम जीवन के सर्जक के रूप में देखने और वैसी सनसनी खड़ी करने के बजाय यह जानना ज्यादा उपयोगी होगा कि ये सिंथेटिक सेल अजीबोगरीब जीव भले नहीं बना पाएं, पर सिंथेटिक दवाएं और बायो फ्यूल जैसे कई बेहतरीन उत्पाद बनाने में कमाल की भूमिका निभा सकते हैं।
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बुधवार, 5 मई 2010

कुली का दर्द और मर्द का इंकलाब

अमिताभ बच्चन इस उम्र में भी इतनी ज्यादा फिल्में कर रहे हैं कि लोगों को उनके महानायक बने रहने पर आश्चर्य है। लेकिन कम लोग जानते है कि अमिताभ बच्चन को इस शिखर पर बने रहने के लिए एक लंबी लड़ाई लडऩी पड़ रही है और दरअसल यह लड़ाई उन्हें अपने शरीर के साथ लडऩी पड़ रही है जो बीमारियों का घर बन चुका है। इनमें से एक बीमारी तो ऐसी है जो अमिताभ बच्चन को होनी नहीं चाहिए थी। यह बीमारी आम तौर पर शराब पीने वालों को और वह भी बेतहाशा शराब पीने वालों को होती हैं। लीवर सिरोसिस नाम की इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। अमिताभ बच्चन को यह बीमारी तब हुई थी जब पूरी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनके पेट में चोट लग गई थी और उन्हें जो 60 बोतल खून चढ़ाया गया था उनमें से शायद किसी खून में लीवर सिरोसिस के वायरस थे। जी हां, ये बयान है एक अमेरिकी डॉक्टर का। बिग बी की मेडिकल रिपोर्ट देखते ही उसके होश उड़ गए। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये शख्स जिंदा भी हो सकता है। क्या आपको कुली फिल्म का वो शॉट याद है जिसमें बिग बी मेज से टकराते हैं। फिल्म में विलेन पुनीत इस्सर के साथ बिग बी दो दो हाथ कर रहे थे। एक्शन डायरेक्टर ने पूरा फाइट सीक्वेंस पहले से तैयार कर रखा था। बस उससे एक गलती हो गई। गलती ये कि लड़ाई की जगह पर उसने एक मेज रख दी, वो मेज जिसके कोने पर एल्युनियम चढ़ा हुआ था और इस वजह से वो नुकीला हो गया था। जैसे ही पुनीत इस्सर ने पहला घूंसा मारा, अमिताभ लडख़ड़ाए। इसके बाद पुनीत इस्सर के धक्के से अमिताभ मेज पर जा गिरे। बस यहीं वक्त थम गया। फिल्म यूनिट खुशी से चिल्ला पड़ी, ग्रेट शॉट अमित जी। लेकिन ये क्या, अमित जी तो मेज से उठ ही नहीं पाए, उनके चेहरा पर दर्द की लहरें आने लगीं, यहीं से शुरू हुआ अमित जी की जिंदगी का अग्निपथ। सालों पहले का ये वाकया भुलाए नहीं भूलता। एल्युमिनियम की तेज धार अमिताभ के पेट में गहरे चुभ गई थी, उनकी आंत फट गई, काफी खून बह गया था। महानायक मौत के करीब पहुंच गए। मुंबई के ब्रीच कैंडी में उनका ऑपरेशन किया बोतल खून चढ़ाया गया। अस्तपताल में इलाज चलता रहा और बाहर पूरे देश में दुआओं का दौर। लोगों ने व्रत रखे, मन्नत मांगी और अमिताभ ने मौत को मात दे दी, ठीक होकर घर लौटे, लेकिन आंत में लगा वो गहरा घाव आगे भी उन्हें परेशान करने वाला था। फिल्म कूली की शूटिंग के दौरान हुई यह घटना सभी को मालूम हैं लेकिन मैं आपको इस बारे में कुछ व्यक्तिगत बातें बताना चाहता हूं। पंच लगने से या टेबल घंटे बाद भी डॉक्टर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहे थे। सबसे जानलेवा वो गंदगी थी जो पेट में जमा होकर दूसरे अंगों को नुकसान पहुंचा रही थी। हालात बद से बदतर हो रहे थे। ऐसे में जल्द से जल्द सर्जरी की जरूरत थी। जो बिना मुंबई शिफ्ट हुए संभव नहीं था। अमिताभ उस समय बैंगलोर में थे। आनन फानन में उन्हें चार्टड प्लेन से मुंबई लाया गया। मुंबई में पेट में जमा गंदगी को निकालने के लिए पेट में कई छेद किए गए। फिर गंदगी को बाहर निकालने के लिए रबर की कई नलियां लगाई गई। बाद में उस नली को निकाल दिया गया। घाव भर गए लेकिन निशान अभी भी बचे हुए हैं। बिग बी का ऑपरेशन सफल रहा। वो स्वस्थ भी हो गए। लेकिन इस ऑपरेशन की वजह से उनका पूरा शरीर बीमारियों का घर बन गया। अपने ब्लॉग पर अमिताभ लिखते हैं पेट की सर्जरी के बाद हर्निया बढऩे की संभावना कई गुणा बढ़ जाती है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब मैं लंबे समय तक खड़ा रहता हूं, ज्यादा चलता फिरता हूं, डांस या एक्शन सीन की शूटिंग कर राह होता हूं तो मेरे पेट के नीचले हिस्से में असहनीय दर्द होता है। जिसे बेल्ट लगाकर दबाना पड़ता है। बच्चन यानि कि एक मुकम्मल जिंदगी। एक उफान जो लोगों के आंखों के रास्ते दिल में समा गया। लेकिन बिग बी ने हर हालात में। हर दर्द में किरदार को जीने का जज्बा कम नहीं होने दिया। क्या आपको अमिताभ बच्चन का शराबी में एक हाथ जेब में डाले हुए या इंकलाब में एक हाथ रुमाल से ढंके होने वाला स्टाइल याद है। आप जानते हैं कि ऐसा बिग बी ने क्यों किया। क्योंकि बिग बी तकलीफ में थे बिग बी दर्द में थे। एक ऐसे दर्द में थे जिसकी कल्पना करना से भी रुह कांप उठती है। अमिताभ ने अपने ब्लॉग पर ये खुलासा किया है कि किस तरह अपनी चोट छिपाने के लिए उन्होंने इस स्टाइल को अपनाया। दरअसल ये तो अमिताभ का अपनी चोट छिपाने का एक जरिया था, जिसे उनके प्रशंसकों ने उनका स्टाइल बना दिया था। उसके बाद इस सपनों के सौदागर ने इस दौरान जितना भी काम किया, वो हाथ में रुमाल बांध कर किया, जो एक स्टाइल बन गया। शहंशाह आगे लिखते हैं कि हाथ ठीक होने में बहुत लंबा समय लग रहा था। मेरी त्वचा कच्ची थी और उसमें लगातार दर्द था। मेरी अंगुलियां और हथेली ठीक हो रही थी, लेकिन अब भी उन्हें हिलाना मुश्किल था। उसके बाद मेरी एक और फिल्म थी, शराबी। मैं इसके लिए बहुत परेशान था, इसलिए मैंने एक और स्टाइल अपनाया। अपने इस हाथ को मैंने जेब में डाल लिया और पूरी फिल्म ऐसे ही पूरी की। आप ध्यान से देखोगे तो आपको पता चलेगा कि मेरा बायां हाथ पूरी फिल्म में जेब में ही है। बॉलीवुड के इस जादूगर ने मर्द की तरह इस फिल्म की शूटिंग को पूरा किया। एक गाने के दौरान अमिताभ को ये सीन फिल्माना था जब वो घुंघरू बजाने लगते हैं और जयाप्रदा को डाँस करना होता है। क्या आप जानते हैं कि उसी जख्मी हाथों से बिग बी ने वो घुंघरु बजाए और उस दौरान निकला खून भी बिलकुल असली था। आप ये जानकार हैरान रह जाएंगे की बिग के इस हाथ को ठीक होने में महीनों लगे। बीमारियां अपनी जगह हैं, अमिताभ बच्चन का हौसला अपनी जगह। ये वो ध्रुव तारा है जो सत्तर के दशक से देश के सिनेमा पर चमक रहा है। पहले एंग्री यंग मैन था, अब वाइज ओल्ड मैन। उम्र के मुताबिक अमिताभ बच्चन ने अपने किरदार बदले, अपना अंदाज बदला। इसीलिए उन्हें सदी का महानायक कहा जाता है। वो सितारा जो उम्र से परे है। बिग बी की निजी जिंदगी से रोमांच उनकी फिल्मों की ही तरह कभी खत्म नहीं होता। हम तो बस यही कहेंगे कि सलामत रहो शहंशाह।

नारको की नारको जांच हुई

उच्चतम न्यायालय ने जबरन नारको टेस्ट किए जाने को असंवैधानिक करार दिया है। अदालत का मानना है कि यह अभियुक्त के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। हालांकि न्यायालय ने कहा कि बहुत ज्यादा जरुरी होने पर ही जांच एजेंसियां नार्को एवं अन्य परीक्षण कर सकती हैं लेकिन इसके लिए अभियुक्त की लिखित सहमति अपरिहार्य है। दरअसल गुजरात में गॉड मदर के नाम से चर्चित संतोख बेन जडेजा एवं करीब दस अन्य याचिकाकर्ताओं ने इन याचिकाओं के जरिए ब्रेन मैपिंग, मशीन के जरिए झूठ का पता लगाने और नारको जांच जैसी जांच तकनीकों को खास तौर पर उन मामलों में अवैध तथा असंवैधानिक बताते हुए चुनौती दी थी। इन जांच तकनीकों के इस्तेमाल को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले लोगों में गुजरात में संतोख बेन शारमनभाई जडेजा के अलावा तमिल फिल्म निर्माता के वेंकेटेश्वर राव, जाली स्टाम्प पेपर घोटाले के आरोपी दिलीप कामथ और महाराष्ट्र के निर्दलीय विधायक अनिल गोटे शामिल हैं। उनकी अलग-अलग याचिकाओं का एक साथ निपटारा करते हुए खंडपीठ ने यह ऐतिहासिक फैसला दिया। न्यायालय ने 23 अक्टूबर 2007 को संतोख बेन के नार्को परीक्षण पर अंतरिम रोक लगा दी थी। इसके बाद से यह माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट का इस संदर्भ में फैसला आने तक अन्य अभियुक्तों का नार्को परीक्षण नहीं किया जाएगा लेकिन बाद में भी विभिन्न मामलों में जांच एजेंसियों ने इस तरह के परीक्षण कराए। न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या किसी अभियुक्त को उसकी लिखित सहमति के बगैर नार्को परीक्षण के लिए बाध्य किया जा सकता है। मनुष्य के शरीर में दो मन होते हैं - जाग्रत मन और अंतर्मन। जाग्रत मन सच-झूट, छल-कपट आदि सब जानता है और इसमें तर्कशक्ति होती है. अंतर्मन सीधा-सच्चा होता है। यह छल-कपट, जालसाजी, चालबाजी, चार सौ बीसी, धूर्तता जैसी बातों को नहीं जानता। इसमें तर्कशक्ति का अभाव होता है। किसी अभियुक्त से सम्बंधित घटना के बारे में सही स्थिति जानने के लिए नारको टेस्ट किया जाता है। अभियुक्त को एक विशेष रसायन का इंजेक्शन दिया जाता है। जिससे उसका जाग्रत मन सो जाता है, जबकि उसका अंतर्मन जागता रहता है। यह स्थिति मोह निद्रा जैसी होती है। इसके बाद जांचकर्ता अभियुक्त से तरह-तरह के प्रश्न पूंछकर घटना के बारे में सही जानकारी प्राप्त करता है। नार्को एनालिसिस मूलत : नार्कोटिक्स से बना है। नार्कोटिक्स यानि नशीले पदार्थ। सन् 1922 में एक अमेरिकन चिकित्सक रोबर्ट हाउस ने पता लगाया कि यदि कुछ खास रसायनों का मनुष्य द्वारा सेवन किया जाता है, तो कुछ समय के लिए उसकी कल्पना शक्ति और विचार शक्ति खत्म हो सकती है। इस प्रकार वह व्यक्ति कुछ भी सोचने और समझने की हालत में नहीं रहता है और फिर वह वही कहता है जो सच होता है अथवा जो उसके दिमाग में होता है। जिस व्यक्ति पर नारको किया जाता है वह व्यक्ति जो भी बोलता है वह अनायास ही बोलता है यानि कि कुछ भी सोच समझकर नहीं बोलता। हालांकि कई उदाहरण ऐसे भी हैं जब यह पाया गया कि व्यक्ति ने नारको टेस्ट के दौरान भी झूठ बोला है। वस्तुत: नारको टेस्ट में व्यक्ति की मानसिक क्षमता और भावनात्मक दृढ़ता पर ही सब कुछ निर्भर करता है। नारको टेस्ट कानूनी रूप से सबूत के तौर पर तो नहीं लिए जाते हैं, परंतु विभिन्न अपराधों की जांच में बहुत उपयोगी साबित होते रहे हैं। अब उच्चतम न्यायालय का कहना कि किसी व्यक्ति को इस तरह की प्रक्रिया से गुजारना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखलंदाजी होगी। न्यायालय ने कहा कि पॉलीग्राफी जांच के दौरान जांच एजेंसियों को मानवाधिकार आयोग के दिशा निर्देशों का सख्ती से पालन करना होगा। स्टाम्प घोटाला, आरूषि मर्डर केस, मुंबई बम ब्लास्ट, मालेगांव ब्लास्ट, निठारी कांड ये कुछ प्रमुख मामले हैं, जिनमें आरोपियों नारको टेस्ट किया गया है। सवाल यह उठता है कि पेचीदगी भरे मामलों को में अक्सर नारको जांच की मांग का क्या होगा? तय है कि इससे जांच की दिशा प्रभावित होगी। इस जांच को मुख्य अधिकार मान कर चलने वाली एजेंसियों के समक्ष दोहरी परेशानी होगी, आरोपी का नारको किया जाए तो अदालत की अवमानना, न किया जाए तो शातिरपन के आगे बेबसी। जांच एजेंसियों के लिए मंथन का वक्त है।

ढाई आखर न पढ़े सो अनपढ़

आजसारे पंडित, प्रकांड पंडित प्रेम की भाषा पढऩे के बजाए 143 के जरिये देह का भूगोल पढ़ रहे हैं। इनका प्रेम शरीरी है जो इस देह से शुरू होकर इसी देह पर खत्म हो जाता है। आज के दौर में प्रेम विवाह भी बहुतायत में होने लगें हैं, लेकिन मजे की बात यह है कि प्रेम विवाह के बाद भी इन्सान प्रेम की तलाश में जुटा हुआ है। कबीरदास जी ने कहा था- ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय , लेकिन आज अपने आसपास नजर डालें तो पायेंगे की इन ढाई अक्षरों को कोई नहीं पढ़ रहा। वे ढाई अक्षर अब बड़े रेलवे स्टेशनों के बाहर खडे स्टीम इंजनों की तरह हो गए हैं। जिन्हे ंअब उपयोग में नहीं लिया जाता, वे सिर्फ दर्शनीय हो गयें हैं। अंदर की पटरियों पर तो 143 की मेट्रो ट्रेनें धकाधक दौड़ रही हैं। 143 मतलब आई लव यू । इस भागदौड़ के समय में इतना धैर्र्य किसके पास है जो आई लव यू जैसा लंबा जुमला उछाले, इसलिए इसे अंकगणित में बदल दिया गया और यह हो गया 143 । इधर से 143 तो उधर से 143 बस हो गया प्रेम। इसलिए शरीर के तल पर किये गये सारे प्रेम असफल हो जाते हों, तो आश्चर्य नहीं। जिसके साथ एक होना चाहा था, वह पास तो आ गया, लेकिन एक नहीं हो पाये। प्रेम शरीर के तल पर नहीं खोजा जा सकता, इसका स्मरण नहीं आता। प्रेमी एक-दूसरे के मालिक हो जाना चाहते हैं। मु_ी पूरी कस लेना चाहते हैं। दीवाल पूरी बना लेना चाहते हैं कि कहीं दूर न हो जाये, दूसरे मार्ग पर न चला जाये, किसी और के प्रेम में संलग्न न हो जाये। उन्हें पता नहीं कि प्रेम कभी मालिक नहीं होता। जितनी मिल्कियत की कोशिश होती हैं, उतना फासला बड़ा होता चला जाता है, उतनी दूरी बढ़ती चली जाती है, क्योंकि प्रेम हिंसा नहीं है, मालकियत हिंसा है, मालकियत शत्रुता है। प्रेम भयभीत होता है कि कहीं मेरा फासला बड़ा न हो जाये, इसलिए निकट, और निकट, और सब तरह से सुरक्षित कर लूं ताकि प्रेम का फासला नष्ट हो जाये, दूरी नष्ट हो जाये। जितनी यह चेष्टा चलती है दूरी नष्ट करने की, दूरी उतनी बड़ी होती चली जाती है। विफलता हाथ लगती है, दुख हाथ लगता है, चिंता हाथ लगती है। आजकल की पीढ़ी प्रेम जैसी धीर-गंभीर पोथी को शार्टकट में पढना चाहते हैं। नए गीतकारों ने यू तो हमारी युवा पीढ़ी को हजारों संदेश दिए हैं। इनमें कम्बख्त इश्क या इश्क कमीना जैसे नकारात्मक संदेश भी आए, जो प्रेमियों को प्रभावित नहीं कर सके। एक जमाना वो था जब आदमी एक ही औरत से 50-60 सालों तक प्रेम किया करता था, अब हालात बदल गए हैं।

जय हो रक्तपिपासु जोंक महाराज की

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गए सबके दाता राम।राम सबके दाता हैं - अजगर के भी, पंछी के भी और आज के हालात में अधिकारियों के भी। वह पराए माल पर ही मस्त रह सकता है। पराया माल खाए बिना उसके पेट में मरोड़ शुरू हो जाती है। जिस पतल में वह खाता है, उसमें छेद करना वह बेहतर जानता है। रहमदिल तो वह हो ही नहीं सकता। वह जब चाहे जहाँ चाहे जिस समय खड़े-खड़े देश को बेच सकता है। इस पर तीर-तुक्के चलाने की जरूरत नहीं। भला वह नहीं खाएगा तो क्या किसी मन्दिर में बैठकर शंख बजाएगा? अपना खाकर वह जिन्दा नहीं रह सकता! निहायत परजीवी है वह। गाल बजाना और लोगों की बजाते रहना कोई उससे सीखे। वह बेसिर -पैर की बात करता है, बेसिर-पैर के काम करता है। लोग जब उसकी करतूतों से दु:खी होकर कपड़े फाडऩे, बाल नोंचने को मजबूर होने लगते हैं, उस समय वह वातानुकूलित कक्ष में बैठकर मेज पर पैर रखकर आराम करता है। संवेदना से उसका कोई लेना-देना नहीं होता है। अगर वह द्रवित हो जाएगा तो ग्लेशियर की तरह पिघलकर विलीन हो जाएगा। उसके द्वारा खरीदी बुलेट्प्रुफ जैकेट से अगर गोली भी पार हो जाए तो उसकी सेहत पर असर नहीं पड़ता क्योंकि जिसको मरना है, वह तो तो मरेगा ही, चाहे दुश्मन की गोली से मरे चाहे डॉक्टर द्वारा दी गई दवाई की नकली गोली से। जनता पर उसका उसी तरह का अधिकार होता है, जिस तरह गरीब की जोरू पर सभी पड़ोसियों का अधिकार होता है। अधीनस्थ कर्मचारी उसे यूज एण्ड थ्रो से ज्यादा अहमियत नहीं रखते। भला वह अधिकारी ही किस काम का जो दूसरों के सिर-दर्द का ताज खुद पहनकर घूमता फिरे। सच्चा अधिकारी तो वह है जो सिर-दर्द को मन्दिर के प्रसाद की तरह सब मातहतों में बाँटता रहता है। माकूल अधिकारी वही है, जिसमें दृष्टि का अभाव हो। अधिकारी अगर हर बात को तुरन्त समझने की मशक्कत करेगा, तो सक्रिय होना पड़ेगा। सक्रियता से अफसरशाही पर बट्टा लगता है। हर काम को पेचीदा बनाकर इतना उलझा दो कि कोई माई का लाल उसे सुलझाने की हिमाकत न करे, जो कोशिश करे वह भी उसी में फँसा रह जाए। फँसे हुए लोग ही अधिकारी के पास आते हैं। जो फँसते नहीं वे अधिकारी के दिल में बसते नहीं। बड़े बाबू को कोई सलाम क्यों करेगा? छोटे बाबू तो बेचारे वैसे ही कम पाते हैं। इनके पेट पर लाठी मारना भला कहाँ का न्याय है? भूखे लोगों के चेहरे की आभा महीने भर में खत्म हो जाती है। अपना पैसा खाने से चेहरे की सारी रौनक चली जाती है। सो जय हो परजीवी की। जय हो रक्तपिपासु जोंक महाराज की। जय हो आपको पालने की हिम्मतवालों की। राम-राम जपना, पराया माल अपना। खाए जाओ, खाए जाओ।

जब थिरकने लगे जिंदगी

हमारी सांस्कृतिक परम्परा में साहित्य एवं कला के साथ-साथ संगीत भी मनुष्य की श्रेष्ठताओं में एक है। संगीत का सीधा सम्बन्ध हमारी आत्मा से है। ह्रदय से नि:स्सृत शब्द जब भावनापूर्ण अवस्था में मुख से नि:स्सृत होते हैं तो संगीत का रूप धारण करते हैं। संगीत आन्तरिक संवेदनाओं एवं वैश्विक सम्प्रेषणाओं के संयोग से उद्भुद् होता है। संगीत का हमारी अन्त:चेतना से सीधा संबंध है। वह सीधा हमारी अन्त:चेतना से नि:स्सृत होता है। जब किसी संवेदनशील व्यक्ति का हृदय हर्ष, शोक, करुणा के भावों से भर जाता है, तो वे ही भाव कविता, भजन, गीत, गजल आदि के रूप में फूट पड़ते हैं। चूँकि ये शब्द हमारे हृदय की गहराई से आते हैं इसीलिये कविता, भजन, गीत आदि हमारे मन या हमारी सत्ता के केन्द्र को गहराई तक छू जाते हैं। हम अवश से हुए अनायास ही एक प्रकार की गहन संवेदनशीलता की ओर बहे चले जाते हैं। यह गहन संवेदनशीलता की ओर बह जाना हमें स्वत: ही आन्तरिक रूप से रूपान्तरित करने लगता है और हम पशुत्व से मनुष्यत्व की ओर आरोहण करने लगते हैं। आज के आधुनिक युग में हमारा जीवन बहुत यांत्रिक होते जा रहा है और हमें ऐसी बातों के लिए न तो वक्त है और ना ही उनकी कदर ! इसके कारण जीवन में और समाज में स्वार्थ-केन्द्रितता, क्लेश, अशांति तथा अस्थिरता बढ़ते दिख रहे हैं । लय और ताल पर जिंदगी थिरकने को बेताब हो तो मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि शारीरिक और मानसिक परेशानियों पर थोड़ी बहुत अंकुश लगाने में तो हम अवश्य सफल हुए हैं। तब सहसा मन की अभिलाषाओं को बल मिलता दिखाई देता है, दूर दीवार के पीछे से कोई झांकता दिखाई देता है। समझने की बात है, जिन मंजिलों के इंतजार में जिंदगी तिरोहित हो जाता है वो मेरे अन्दर ही थी पर अब तक मैं उन को पहचान ना सका।

रेंकने में कोई कोताही नहीं

बियाबान में यह कैसा शोर? हल्ला मचाने से कुछ नहीं होगा। वही होगा जो मंजूर-ए-खुदा होगा। तुरुप का पता हाथ में होने का भ्रम सभी पाल बैठे हैं। चाल पर चाल। कमाल। अकड़ ऐसी कि पूरा आसमां इन्हीं के सर पर है। दिमाग अति शातिर। सुपर बॉस को खुश कैसे किया जाए, इसमें इन्हें खास महारत होती है। यह इनके एक दिन की नहीं, महीनों-बरसों की साधन ा होती है। पास में बैठ दिल की बात उगलवा लेते हैं, फिर दुलत्ती दे बैठते। वैसे यह नस्लीय पहचान में शामिल है। रेंकने में कोई कोताही नहीं। अपना उल्लू सीधा करने इतने उल्लू के पट्ठे अगल-बगल जुट जाते हैं। सलाम के मायने बदल जाते हैं। चुगलखोर चुगली में जुट जाते हैं। कोई झुककर पांव छुता है तो कोई हाथ जोड़कर चेहरा निहारने में लग जाता है। तो कोई आनंद में आकंठ डूबे होने का स्वांग रचता है। यह है कार्यालयों की सच्चाई। निजी दफ्तरों में तो सच को सच साबित करना काफी मुश्किल है। क्योंकि, सच पर यदि अडिग हुए तो नौकरी तक चली जाएगी? सवाल यह भी कि यदि सच बॉस को बताया जाए तो क्या वे मानेंगे? जवाब यही होगा कतई नहीं? वजह साफ है-काम करने वाला व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि सही में वह कार्यों के प्रति सजग है? कहे भी तो क्यों? उसे यह अभिमान रहता है कि वह मेहनती और अपने कार्य के प्रति ईमानदार है। फिर वह सबूत क्यों दे, परंतु यह कलयुग है। यहां हर चीज का सबूत चाहिए। बॉस को भी सबूत चाहिए। हालांकि कुछ बॉस ऐसे भी होते हैं, जो ज्यादा आगे-पीछे करने वालों को तुरंत भांप लेते हैं और उन्हें दरकिनार कर देते हैं। परंतु इसमें थोड़ा वक्त लग जाता है। तब तक कई कामचोर, देहचोर और चुगलखोर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। हालांकि इनकी कलई भी जल्द ही खुल जाती है और वे कहीं के नहीं रहते हैं। इसलिए संस्थान के प्रति ईमानदार रहें न कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रति। काम करने वाला हर बॉस अपने साथियों से यही उम्मीद करता है।

लंबी नहीं खिंचेगी कसाब की कहानी

मुंबई के 26/11 के आतंकी हमलों को अंजाम देने के सभी आरोपों में दोषी ठहराए गए आतंकवादी कसाब को फांसी देने की मांग की गई है। यह तो तय है कि अफजल गुरू जैसे अन्य आतंकियों की तरह कसाब ज्यादा दिन तक बच भी नहीं पाएगा। क्योंकि इस बार सरकार जनता के गुस्से की अनदेखी नहीं कर सकती। उसके गले में फांसी का फंदा कसने में सरकारी तंत्र हीला-हवाली करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन इसके बावजूद कसाब की कहानी लंबी नहीं खिंचेगी। सरकारी वकील ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि कसाब किलिंग मशीन है, मौत का सौदागर है। उसे जहरीला सांप कहा जाए, जंगली जानवर कहा जाए तो भी उसका असली चेहरा सामने नहीं आता। उनके शब्दकोश में ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे कसाब की तुलना की जा सके। बेशक, कसाब के अपराधों के अनुसार उसे उम्रकैद से फांसी तक की सजा मिल सकती है। अदालत ने सोमवार को उसे कई अपराधों का दोषी ठहराया था, जिनमें सामूहिक हत्याएं और देश के खिलाफ जंग छेडऩे का आरोप भी शामिल है। अहम बात जो ध्यान देने वाली है कि पाक प्रशिक्षित आतंकियों की घुसपैठ और मुठभेड़ों में मौत के बावजूद आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला पाकिस्तान जैसा मुल्क कभी उस तरह परेशान नहीं हुआ, जैसा कसाब के कुबूलनामे से। वैसे कसाब ने भी किसी शातिर अपराधी की तरह कई बार अपने बयान बदले, पाकिस्तान सरकार ने उसकी मानसिकता पर सवाल उठाने से लेकर उसके मां-बाप को पर्दे के पीछे डालने जैसे अनेक प्रयास किए। पर यह सचाई छिपी नहीं रह सकी कि कसाब कौन है और उसके पीछे कौन लोग हैं। यह कसाब का जीवित पकड़ा जाना और अपराध कुबूलना ही था, जिसने पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा कर दिया और सारी दुनिया के आगे उसे यह कुबूल करने पर मजबूर किया कि उसके पूर्ववर्ती शासकों की 'गलतÓ नीतियों ने आतंकवाद को बढ़ावा दिया था। देश में कुछ लोग कसाब की सुरक्षा पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने को सरकारी धन की बर्बादी बताते हुए उसे जल्द से जल्द फांसी पर लटका देने को उतावले हो रहे हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि कसाब के जिंदा रहने से भारत को जितना कूटनीतिक फायदा और पाकिस्तान को जितना नुकसान हुआ है, उसके लिए उसे हीरों से तौलना भी सस्ता पड़ेगा। कसाब का मुकदमा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ भारतीय लोकतंत्र की लड़ाई का एक अहम हिस्सा है और हमें उसको इतनी ही गंभीरता से लेना होगा। अजमल आमिर कसाब को विशेष अदालत द्वारा अपराधी घोषित करने का अर्थ हमारे मुल्क के कानून और हम-आप के लिए जितना भी बड़ा हो, पर दुनिया के लिए इसका मतलब उससे भी बड़ा है। एक विदेशी को सीधे-सीधे आतंकी हमले की जगह से गिरफ्तार करना, कानून की दृष्टि से जरूरी सारी औपचारिकताएं पूरी करना, उसे उसकी सफाई का अवसर देना और उसकी स्वीकारोक्ति तथा तथ्यों के आधार पर उसको दोषी ठहराकर हमारी न्याय व्यवस्था ने पूरी दुनिया में अपना झंडा बुलंद किया है।

मंगलवार, 4 मई 2010

चरण चुंबन ही चमचों की श्रद्धा

जमाना हमेशा से ही चमचों का गुलाम रहा है। चमचे सर्वकार्यसिद्धि मंत्र में विशेषज्ञ होते हैं। सबसे पहले वे लोगों की बीच पैठ बनाते हैं और उनके अंतर्मन को झांक लेते हैं। कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना इनका मूल मंत्र होता है। इनका लक्ष्य हमेशा ही छुपा हुआ है। दिल थाम कर ये समय का इंतजार करते हैं। कमजोरियों का फायदा उठाना कोई इनसे सीखे। धंधा बड़े जोरों पर चल रहा है। ये पहले भी थे, आज भी हैं, आगे भी रहेंगे। रंग बदलते है, रुप बदलते हैं, बदलते रहेंगे। इनके कद्रदान इन्हें हमेशा प्रश्रय देते रहेंगे। और ये ऐसे ही फलते फूलते रहेंगे। आज के चमचों की खासियत यह है कि समाज में अपना बरतन ये स्वयं ढूंढ़ते हैं, और ये उस बरतन के लिए कितने उपयोगी हो सकते हैं, ये भी स्वयं ही बताते हैं। जैसे ही इन्हें अपनी पसंद का बरतन मिलता है, ये उसकी पैंदी से जोंक की तरह चिपक जाते हैं। ये चमचे ऐसा बरतन ढूंढ़ते हैं, जिसमें इनकी पांचों उंगलियां घी में रहें और मुंह दूध मलाई में। चरण चुबंन में इनकी बहुत श्रद्धा है। समाज का कोई कोना इनसे बचा नहीं है। चमचे वो 'कैक्टसÓ हैं, जो कहीं भी फल-फूल जाते हैं, पर अपने आसपास के फूलों की खुशबू निचोड़कर उन्हें रंग और गंधहीन बना देते हैं। कर्म से इन्हें कोई मतलब नहीं होता। इनकी निगाह तो बस निशाना बींधने पर ही रहती है। काम कैसे होना है, किस तरह होना है, से इन्हें कोई मतलब नहीं, काम होना चाहिए उसके लिए कोई भी हद इनके लिए बहुत मामूली होती है। कर्म नहीं, धर्म नहीं और कोई ईमान नहीं मूलमंत्र है एक 'या चमचागिरी तेरा ही आसराÓ। चमड़ी इतना मोटी कि किसी बात काअसर तक नहीं होता, पर ये पूरा असरदार होते हैं। संस्थान के मालिक को बेवकूफ बनाने में इन्हें महारत हासिल होती है। मालिक धृतराष्ट्र को ये संजय बन दूर की सुझाते रहते हैं। जब तक मालि को पता चलता है कि साम्राज्य खतरे में है, ये धीरे से टसक लेते हैं। इनका सबसे बड़ा गुण अपने कुनबे को बनाए रखना होता है। मालिक इन्हें पहचान ले तो ही भलाई वर्ना...।

नैतिकता दुहाई दे रही है

देश अजीबोगरीब मोड़ पर खड़ा है। नैतिकता दुहाई दे रही है। आवाम हैरान है कि कैसे-कैसे चरित्र हमारे लोकतंत्र को महिमामंडित कर रहे हैं। राजनीतिक गलियारा लाल गलियारे से भी ज्यादा अमर्यादित और हैवान हो गया है। चोरों, अपराधियों की फेहरिस्त तो पहले से ही लंबी है, अब व्याभिचारियों की भी बाढ़ से आ गई है। नेताओं के संस्कारों में भी परिवर्तन आता जा रहा है। आज का नेता स्वयं को देश के सेवक के रूप में स्थापित करने के बजाए स्वयं को दहशत फैलाने वाले एक नेता के रूप में स्थापित करने में अधिक दिलचस्पी रखता हुआ जान पड़ता है, क्योंकि वह दंभी हो चला है। उसे किसी की भी परवाह नहीं, देश की भी नहीं। एक और मंत्री की हैरतअंगेज दास्तां। हैवानियत की कहानी शर्मसार कर देने के लिए काफी है। बात हो रही है कर्नाटक के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री हरतलु हलप्पा की। इन्होंने इस्तीफा दे दिया है। मित्र की पत्नी के साथ अश्लील हरकतें और बदसलूकी करने के आरोप में फंसने के बाद इन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा है। घटना चार महीने पहले की है । हरतलु हलप्पा अपने नजदीकी दोस्त के यहां रात के खाने पर गए थे। कर्नाटक के मीडिया में छपी खबरों के मुताबिक हलप्पा के मित्र की गिनती प्रमुख फाइनेंसरों में होती है। डिनर के बाद मंत्री ने अपने मित्र से कहा कि वह रात में उनके घर में ही ठहरना चाहते हैं। खबरों के मुताबिक मंत्री हलप्पा को उनके मित्र ने अपने घर के पहले तले पर बने बेडरूम में भेज दिया। आधी रात के वक्त हलप्पा के सीने में दर्द उठी और उसने चिल्लाना शुरू कर दिया। सभी लोग जाग गए। यहां तक तो ठीक थी। मगर दर्द तो एक बहना था। मंत्री ने फायनेंसर से बताया कि उन्हें ब्लड प्रेशर समेत कई अन्य बीमारियां हैं और दवाएं डाक बंगले में ठहरे उनके बॉडीगार्ड के पास है। मंत्री ने अपने धर्म का निर्वाह किया और दवाओं को लाने डाक बंगले पर जा पहुंचे। वहां उन्हें मंत्री का बॉडीगार्ड नहीं मिला। वापस लौटे और घर में जो दृश्य देखा उससे सन्न रह गए। उन्होंने देखा कि मंत्री आपत्तिजनक हालत में है और उनकी पत्नी रो रही हैं। पत्नी ने बताया कि मंत्री ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया। यह सुनकर फाइनेंसर ने मंत्री की जमकर धुनाई की। मंत्री वहां से अपनी जान बचाकर भागे। ऐसा लगता है कि आज भारतीय लोकतन्त्र की द्रौपदी को राजनीतिक दु:शासनों ने सरेआम नंगा करने की ठान ली है। आर्तनाद से इनका दिल नहीं पसीजता। हर चित्कार पर ये अट्ठाहास करने के आदी हो चले हैं। सामाजिक बहिष्कार के साथ हमेशा के लिए इन्हें अयोग्य करार देना ही उचित होगा।

नई बिरादरी के उल्लुओं की पहचान

जंगलों में उल्लू कम हो रहे हैं। फिर गए कहां? उल्लू के पट्ठे आए कहां से। क्यों बात-बात पर कोई कह देता है-उल्लू के पट्ठे। बात चिन्ता की है। मुद्दा गंभीर है। सवाल है कि जंगल से पलायन कर उल्लू कहां सिधार रहे हैं? कहीं शहरों में तो नहीं आ रहे? क्या इसीलिए शायर फरमा गए - 'हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ? पेड़ शहीद हो रहे हैं। घरों में कतई जगह नहीं है। हां, दफ्तर जरूर तरक्की पर हैं। रोज नए जो खुल रहे हैं। क्या वहां समाएंगे उल्लू? बिल्कुल सही, नए नस्ल के ये उल्लू हैं। खुद हैं भी और बनाते भी हैं। सरकार और उल्लू में समानता है। दोनों जनता की फरियाद गौर से सुनते हैं। यहां तक कि सुनते-सुनते सो जाते हैं। फरियादी को भ्रम होता है कि जिसने इतनी देर कान दिए, वह ध्यान भी देगा। उसे क्या पता कि सरकार बहरी है, उल्लू अंधा। नमूना हर कहीं उपलब्ध है। सरकारी अस्पतालों में दवा है तो डॉक्टर नहीं हैं, और डॉक्टर है तो दवा गायब है। पुराने कार्यालयों में जगह नहीं है, और नयों में कर्मचारी नहीं। अच्छे-अच्छे संस्थानों में काम है पर योग्य कर्मचारी नहीं। अधिकारी हैं तो निर्णय की क्षमता नहीं और क्षमता जिनके पास है उन्हें निर्णय का अधिकार नहीं। उल्लू की मेहरबानी। आकाओं की पौ-बारह है। अधिक पैसे उन्हें दिलवाते हैं, जिन्हें काम कम, गुणगान ज्यादा आती है। उल्लुओं की फौज कायम है। सर्वत्र है। चोला बदल गया है। आसपास अपने बिरादरी वालों की मेला है। अपनों को पुचकार, दूसरों को दुत्कार, नई बिरादरी के उल्लुओं की पहचान है। इनका अगर डीएनए टेस्ट कराया जाए तो नि:संदेह साबित हो जाएगा कि यहां 'हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?Ó

अज्ञात ठिकानों पर बिताती थी रातें

भारतीय विदेश सेवा की दूसरे दर्जे के अधिकारी माधुरी गुप्ता ने पाकिस्तान में रह कर भारत के खिलाफ पाकिस्तान के लिए जासूसी कर के जो शर्मनाक हरकत की है उसके लिए माफी मिलना संभव भी नहीं है और उचित भी नहीं है। लेकिन इस कथा की शुरूआत करते हैं झूठ बोलने के लिए कुख्यात दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल से। स्पेशल सेल से बयान आया है कि माधुरी गुप्ता को पूर्वी दिल्ली में मयूर विहार के उसके घर से गिरफ्तार किया गया। जबकि विदेश मंत्रालय, रॉ के अधिकारी और सारे सरकारी सूत्र सरेआम कह रहे हैं कि माधुरी गुप्ता के आचरण पर शक होने के कारण इस्लामाबाद में ही उसकी निगरानी की गई और जब शक यकीन में बदल गया तो उसे भूटान में होने वाले सार्क देशों के सम्मेलन की तैयारी के बहाने दिल्ली बुलाया गया और इंदिरा गांधी अंतरारष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़ लिया गया। इस झूठ के बारे में जब अधिकारियों से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हवाई अड्डे से हिरासत में ले कर माधुरी गुप्ता को घर ले जाया गया था, तीन दिन तक पूछताछ चली थी और इसके बाद गिरफ्तारी दिखाई गई थी। चलिए स्पेशल का यह झूठ भी सामने आ गया कि बगैर थाना कचहरी के वह लोगों को बंद रख सकती है। बहुत सारे कश्मीरी दिल्ली में सेफ हाउसों में बंद है। मगर माधुरी गुप्ता ने जो किया वह अक्षम्य है। माधुरी गुप्ता 2006 और 2007 के बीच इंडियन काउंसिल ऑफ वल्र्ड अफेयर्स में सहायक निदेशक के तौर पर काम करती थी। दिल्ली में बाराखंभा रोड पर सप्रू हाउस में यह ऑफिस हैं। माधुरी गुप्ता ने उर्दू सीखी और बार बार आग्रह किया कि वह पाकिस्तान जाना चाहती है। उसने कहा कि वह पाकिस्तान जा कर देश की सेवा करेगी। अधिकारियों ने भरोसा किया और माधुरी गुप्ता को इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायोग में द्वितीय सचिव के पद पर तैनात कर दिया। माधुरी गुप्ता ने सबको अपना परिचय प्रेस और सूचना विभाग में उर्दू अनुवादक के तौर पर दिया था। माधुरी गुप्ता अक्सर रातें अपने घर में नहीं बल्कि अज्ञात ठिकानों पर बिताती थी और यहीं से उस पर शक होना शुरू हुआ। उच्चायोग में तैनात रॉ के अधिकारियों ने माधुरी गुप्ता का पीछा किया और उसके फोन टेप करने शुरू किए। उसके पास दो मोबाइल थे और लैपटॉप से वह जो ई मेल भेजती या प्राप्त करती थी उनकी भी निगरानी की गई। किए पर अफसोस नहीं :पता चला कि भारतीय राजनयिक माधुरी गुप्ता आईएसआई के दो उन अधिकारियों के संपर्क में थी जो भारत विरोधी प्रकोष्ठ में काम करते थे। रॉ ने विदेश मंत्रालय को जो रिपोर्ट दी है उसके अनुसार माधुरी गुप्ता इन अधिकारियों के साथ रातें भी बिताती थी और भारत स्थित उसके खाते में पैसा भी जमा होता रहता था। अब इन खातों की जांच पड़ताल की जा रही है। अपने ही देश की खुफिया जानकारी आईएसआई को मुहैया कराने के आरोप में गिरफ्तार विदेश मंत्रालय की अधिकारी माधुरी गुप्ता को अपने किए पर जरा भी अफसोस नहीं है। उसे पता था कि वह गलत काम कर रही है और एक दिन गिरफ्तार हो जाएगी। जांच अधिकारियों के सवालों के बेबाकी से जवाब देते हुए माधुरी ने कहा कि उसे उम्मीद थी कि भारतीय खुफिया विभाग जल्द ही उस तक पहुंच जाएगा, मगर उसेपहुंचने में दो साल लग गए। पकड़े जाने पर उसने भारतीय खुफिया विभाग के काम करने के तरीके पर भी सवाल उठाए। दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि बृहस्पतिवार को माधुरी को भारत बुलाया गया था। इसके बाद उसे नार्थ ब्लॉक स्थित मंत्रालय में बुलाया गया। यहां मंत्रालय और आईबी अफसरों ने उससे पूछताछ की। बाद में उसे दिल्ली पुलिस के हवाले कर दिया गया। पूछताछ करने वाले एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार माधुरी ने सभी सवालों के जवाब बिना लाग-लपेट के दिए। ऐसा नहीं लगा कि उसके मन में कोई भय या पश्चाताप है। एक अन्य अफसर का कहना है कि जिस तरह माधुरी सवालों का जवाब दे रही थी, उससे उसके दिमागी संतुलन पर शक होता है। हो सकता है, उसका स्वभाव ही ऐसा हो। पुलिस अधिकारी इस मामले में रॉ व मंत्रालय के अधिकारियों से भी पूछताछ की संभावना जता रहे हैं। शर्मा के साथ अंतरंग संबंध :दिल्ली में माधुरी गुप्ता के जानने वालों का कहना है कि वह असल में भारतीय सूचना सेवा से भारतीय विदेश सेवा में आई थी और रॉ के इस्लामाबाद में ही मौजूद एक अधिकारी आर के शर्मा के साथ उसके संदिग्ध होने की हद तक अंतरंग संबंध थे। ये शर्मा जी भी अब शक के दायरे में हैं और हो सकता है कि पूछताछ के लिए उन्हें भी हिरासत में लिया जाए। माधुरी गुप्ता को जब अदालत में पेश करने के बाद जेल भेजा गया तो उसकी ख्याति पहले ही वहां पहुंच चुकी थी। कैदियों ने उस पर हमला बोल दिया। जेल अधिकारियों ने पिटती हुई माधुरी को जल्दी से एक हाई सिक्योरिटी वार्ड में भेज दिया। माधुरी गुप्ता का दिल्ली के मयूर विहार में जो घर है वहां से भी बहुत कीमती चीजें बरामद हुई हैं। तीन कमरों में तीन एयर कंडीशनर लगे हुए हैं, पूरे घर में कीमती कालीन बिछे हुए हैं, दो कमरों में प्लाज्मा टीवी हैं और कई सिम कार्ड माधुरी के पर्स और घर की दराजों से निकले हैं। इनमें से कुछ सिम कार्ड तो सिंगापुर और दुबई के हैं। दिल्ली में जब उसे पकड़ा गया तो उसके पास दो मोबाइल मिले और उनमें से एक में पाकिस्तान की एक मोबाइल कंपनी का सिम कार्ड था। यह कार्ड उसे सरकारी तौर पर उच्चायोग की तरफ से दिया गया था और इसका इस्तेमाल उसे सिर्फ उर्दू अखबारों के पत्रकारों से संपर्क करने के लिए था। अपनी धुन में ही रहती रही माधुरी : माधुरी गुप्ता सिर्फ अपने लिए ही जीती रही है। अंतर्मुखी स्वभाव की माधुरी न तो किसी से अपना सुख-दुख बांटती है और न ही दूसरों के सुख-दुख में शामिल होती है। आलम यह है कि दिल्ली के विकासपुरी के जिस पुश्तैनी मकान में माधुरी के जीवन का बड़ा हिस्सा गुजरा है, उसके अगल-बगल में रहने वाले पड़ोसी तक माधुरी के बारे में ज्यादा नहीं जानते। सी-7, न्यू कृष्णा पार्क, विकासपुरी स्थित जिस 400 गज के मकान में माधुरी बचपन से रहती आई है, आज सुनसान पड़ा है। माधुरी के माता- पिता का देहांत हो चुका है। हालांकि आज भी घर के बाहर लगे नेमप्लेट पर माधुरी के पिता एसबी गुप्ता का ही नाम दर्ज है। माधुरी का इकलौता भाई पेशे से इंजीनियर है और अमेरिका में रहता है। लिहाजा, माधुरी इस घर में अकेले ही रह रही थी। माधुरी कई-कई महीनों बाद इस मकान में आती और दो-चार दिन घर में रहकर लौट जाती थी। वह पड़ोसियों से कोई मतलब नहीं रखती थी। माधुरी के बारे में पूछने पर उसके पड़ोस में रहने वाले गुप्ता परिवार के सदस्य कहते हैं जो किसी से मतलब ही नहीं रखती, उसके बारे में हम क्या बता सकते हैं? हमें उसके बारे में कुछ नहीं पता बताया जाता है कि माधुरी का बचपन यहीं बीता है, उसने अपनी शिक्षा भी दिल्ली से ही पूरी की है। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा लेने के बाद उसका चयन भारतीय विदेश सेवा के लिए हो गया था। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल से जुड़े सूत्रों के मुताबिक माधुरी घर में अकेले ही रहती थी। वह यहां कभी-कभार आती और कुछ दिन रहकर चली जाती थी। वह गाड़ी भी खुद ही ड्राइव करती थी। घर की देखभाल के लिए एक चौकीदार था, लेकिन अब वह भी जा चुका है। भारत की जासूसी के लिए अलग ई-मेल : माधुरी गुप्ता ने पूछताछ में कई अहम खुलासे कर सबको चौंका दिया है। उसने एक ईमेल का पूरा कच्चा चि_ा खोल दिया है। पता चला है कि आईएसआई के एक नहीं बल्कि चार चार गॉडफादर इस गद्दार को मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। माधुरी गुप्ता एक ईमेल का इस्तेमाल किया करती थी। ये ईमेल है द्वड्डस्रह्यद्वद्बद्यद्गह्यञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्वपूछताछ की जा रही है कि आखिर इस नाम का ये ई-मेल क्यों बनाया गया। पता चला है कि इसी ईमेल के जरिए माधुरी आईएसआई के जासूसों को भारत से जुड़ी जानकारियां भेजा करती थी। माना जा रहा है कि ये ईमेल माधुरी के लिए आईएसआई एजेंट राणा ने ही बनाया था। कोशिश की जा रही है वो सब कुछ खंगालने की जो इस ईमेल से भेजा गया। शक की सुइयां क्या सिर्फ माधुरी गुप्ता पर ही है या फिर कुछ और भी लोग घेरे में हैं। खबरें आ रही हैं कि दरअसल माधुरी तो धोखे में पकड़ में आ गईं लेकिन जांच एजेंसियों को शक इस्लामाबाद में भारतीय दूतावास के एक दूसरे चेहरे पर था। इस चेहरे की कई दिनों से निगरानी की जा रही थी। उस निगरानी के दौरान ही कुछ ऐसा हुआ कि शक माधुरी पर चला गया। शक की वजह माधुरी गुप्ता का इस्लामाबाद के जिन्ना सुपरमार्केट में अक्सर जाना बना। माधुरी इस बाजार में जाती और उसके एक खास रेस्तरां में ही बैठती। बताया जा रहा है कि जांच एजेंसियों ने खुफिया कैमरे से माधुरी की रिकॉर्डिंग करनी शुरू कर दी। जगह थी सुपरमार्केट का कैफे ईफ्फी बताया जा रहा है कि इसी रेस्तरां में वो आईएसआई के हैंडलर्स यानि अपने गॉडफादर से मिलती थी। सूत्रों के मुताबिक माधुरी आईएसआई ने सिर्फ राणा से ही नहीं बल्कि आईएसआई के 4 एजेंट्स से संपर्क साध लिया था इनमें से दो के नाम हैं मुदस्सिर राणा और जमशेद। माधुरी के मुताबिक राणा से उसकी मुलाकात पाकिस्तान के एक पत्रकार ने करवाई। सूत्रों के मुताबिक माधुरी ने दूतावास के बाहर भी कुछ मौकों पर राणा से मुलाकात की। सबूतों की तलाश जोर पकड़ रही है। जांच एजेंसियों ने माधुरी गुप्ता के इस्लामाबाद के घर से कई चीजें बरामद की। 2 मोबाइल फोन, एक कंप्यूटर और कुछ कागजात। कंप्युटर के हार्ड डिस्क की फॉरेंसिक जांच होनी है। माधुरी गुप्ता के बैंक खाते भी खंगाले जा रहे हैं, बेनामी बैंक अकाउंट का भी पता लगाया जा रहा है लेकिन जांच में एक और अहम जानकारी हाथ लगी है। ये हैं 2 इंटरनेशनल सिम कार्ड। सूत्रों के मुताबिक ये दोनों नंबर पाकिस्तान के दो पत्रकारों के हैं। इनके चेहरे साफ हुए तो मुमकिन है देश की इस गद्दार के गॉडफादर का चेहरा भी साफ हो जाए। क्योंकि पाकिस्तान के ये पत्रकार ही माधुरी को आईएसआई के करीब लाए। माधुरी गुप्ता की राणा से मुलाकात करवाई दो पाकिस्तानी पत्रकारों ने। राणा ने बना दिया गद्दार : राणा से उसकी पहली मुलाकात 2008 के मई-जून में इस्लामाबाद में ही हुई थी। एक पत्रकार के घर पर जहां राणा भी खुद पत्रकार के भेस में माधुरी से मिला था। राणा के बहकावे में आई माधुरी जल्द ही अपने ही विभाग की गुप्त सूचनाएं लीक करने लगी। पुलिस पूछताछ में पता चला है कि माधुरी और राणा में करीब 2-3 महीने में मुलाकात होती थी। राणा से मिलने के लिए कई बार माधुरी ने उच्चायोग से बाहर जाने के लिए विशेष अनुमति भी लिया था। अनुमति लेकर जब वो बाहर निकलती थी तब राणा बाहर ही गाड़ी लेकर उसका इंतजार किया करता था। इसके अलावा उनकी बातचीत ईमेल के माध्यम से होती थी। जांच से मिली खबर के मुताबिक माधुरी गुप्ता हो सकता है कि पाकिस्तान आने से पहले ही आईएसआई से संपर्क में हो। जांच एजेंसीज को शक है कि माधुरी गुप्ता को बगदाद के बाद क्वालालंपुर पोस्टिंग के दौरान ही आईएसआई ने अपने फंदे में लिया। इसके बाद इस्लामाबाद पोस्टिंग के लिए ही उसे साल 2007 में दिल्ली में उर्दू कोर्स कराया गया और फिर पाकिस्तान पोस्टिंग के लिए दबाव बनाया गया। लेकिन एक सवाल बेहद अहम है और भारतीय विदेश विभाग और जांच एजेंसी को परेशान करने वाला है। सवाल है कि आखिर कैसे माधुरी गुप्ता की पोस्टिंग इस्लामाबाद मिशन में हुई क्योंकि बिना शादीशुदा लोगों को इस्लामाबाद मिशन नहीं मिलता, हालांकि ये कानून नहीं लेकिन कानून से कम भी नहीं। जाहिर है ये सवाल बेहद अहम है और विदेश मंत्रालय के लिए परेशानी का सबब भी। सैन्य अड्डों की रेकी तो नहीं : माधुरी गुप्ता के राजौरी दौरे पर खुफिया एजेंसियों की नजर है। 29 मार्च से पहली अप्रैल तक माधुरी सुंदरबनी आकर डॉक्टर खेमराज और उनकी पत्नी चंपा शर्मा के साथ रही। इस दौरान उसके साथ डॉ.प्रेमलता भी थी। डा.प्रेमलता के बारे में शर्मा दंपति का कहना है की माधुरी से पहली बार मुलाकात उसी ने कराई थी। उन दिनों वह डॉ चंपा के साथ दिल्ली मेडिकल कालेज में एमबीबीएस कर रही थी। जांच एजेंसियों ने प्राथमिक जांच में पाया कि माधुरी के डॉ.खेमराज और उनकी पत्नी चंपा शर्मा के साथ संबंध तीन दशक से भी ज्यादा पुराने हैं। 1979 में लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज दिल्ली में शर्मा दंपति की माधुरी से पहली मुलाकात हुई थी। इसके बाद अगली मुलाकात 1985 में रामबन में हुई। खुफिया एजेंसियां सकते में हैं कि आखिर वे कौन से कारण हैं, जिनके चलते 25 साल बाद अचानक माधुरी को डॉक्टर दंपति की याद आई। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि बाघा बॉर्डर होते हुए माधुरी इसलामाबाद से खुद ही कार ड्राइव करते हुए आई थी। एजेंसियां यह भी छानबीन कर रही हैं कि महिला अधिकारी बगैर ड्राइवर के इसलामाबाद से सुदंरबनी तक अकेले क्यों आई? माधुरी के पास वीडियो कैमरा भी था। खास बात है कि अमृतसर से लेकर सुंदरबनी तक आर्मी के छह प्रमुख शिविर भी पड़ते हैं। क्या महिला अधिकारी ने इनकी तस्वीरें ली हैं। पठानकोट में मामून कैंट, सांबा आर्मी डिवीजन, कालूचक्क सैन्य शिविर, टाइगर डिवीजन, अखनूर आर्मी मुख्यालय और सुंदरबनी आर्मी ब्रिगेड की तस्वीरें लेने का संदेह है। जांच एजेंसियों को संदेह है कि महिला अधिकारी कोई कंसाइनमेंट लेकर भी आई हुई हो सकती है। मुमकिन है कि इसी वजह से उसने अकेले इतना लंबा सफर तय किया हो। 31 मार्च को माधुरी डॉ. खेमराज की कार लेकर जम्मू गई थी। जांच एजेंसियां उन लोगों का पता लगा रही हैं, जिनसे माधुरी ने जम्मू में मुलाकात की। इस्लाम से प्यार :माधुरी गुप्ता ने जेएनयू से मध्यकालीन भारतीय इतिहास की पढाई की। मध्यकालीन भारत में एमफिल करने के दौरान ही उसे इस्लाम से इस कदर प्यार हो गया कि वह इस्लाम की कई बातें मानने लगी थी। माधुरी ने अपने जीवन का शुरूआती दौर लखनऊ में जाफरी परिवार के साथ गुजारा था जहां उसे इस्लामी मूल्य पसंद आते थे। डॉक्टर दंपति की सफाई : हालांकि इस डॉक्टर दंपति ने ये सफाई दी है कि पिछले महीने माधुरी गुप्ता उनसे मिलने आई थी। माधुरी अपनी कार से 29 मार्च को उनके घर आई थी और दो दिनों तक थी। माधुरी गुप्ता उनके एक पारिवारिक दोस्त की खास दोस्त है। उनका माधुरी गुप्ता से सीधा कोई संपर्क नहीं है। जितने दिन भी माधुरी गुप्ता उनके घर पर रही उसने किसी से मुलाकात नहीं की। डॉक्टर पति ने बताया कि 32 साल की सरकारी नौकरी के बाद मैंने रिटायरमेंट ले ली है और मैं अपना नर्सिंग होम चला रहा हूं। मेरी पत्नी की दोस्त हैं डॉक्टर प्रेमलता। दोनों इक_ी पढ़ी हैं। प्रेमलता की प्री-नर्सरी दोस्त रही है माधुरी गुप्ता। मेडिकल के दौरान भी बीच-बीच में माधुरी गुप्ता डॉक्टर प्रेमलता से मिलने आती थी। फिर मेरी पत्नी ने जम्मू में पोस्टिंग ले ली और फिर मुलाकात नहीं हो पाई। आज से 25 साल पहले एक बार प्रेमलता हमारा पता लेकर गई थी। पिछले महीने प्रेमलता का फोन आया था कि कई साल हो गये मिले हुए और माधुरी गुप्ता भी कह रही है कि उसकी 2-3 दिन की छुट्टी है तो वो घूमने आना चाहती हैं। प्रेमलता और माधुरी गुप्ता अलग-अलग आये थे। माधुरी गुप्ता अपनी कार से आई थी। माधुरी गुप्ता 29 मार्च को दो दिन के लिये रुकी थी जबकि प्रेमलता एक दिन ज्यादा रुकी थी। 2 दिन में उनसे कोई मिलने भी नहीं आया और हमें भी ऐसा कुछ नजर नहीं आया। मेरे बेटी-बेटा पढ़ाई कर रहे हैं। माधुरी आजतक मेरे बच्चों तक से नहीं मिली। हमारे परिवार को बेवजह इसमें खींचा जा रहा है। अदा ऐसी जो हर किसी को भा जाए :एजेंसियों की मानें तो पाकिस्तान में ही माधुरी गुप्ता अपनी दुनिया बनाने में लगी थी। उसकी एक और बात चौंकाती है-'मैं बहुत थक गई हूं। जब आप भारत में होते हैं तो आराम करने का वक्त ही नहीं मिलता। पाकिस्तान आकर ऐसा लगता है कि मैं घर आ गई हूं।' एजेंसियों की मानें तो माधुरी गुप्ता बहुत आसानी से किसी को भी अपना दोस्त बना लेती थी। बातों में वो किसी से भी कम नहीं थी। कपड़ा हो, हेयर स्टाइल हो या फिर पाकिस्तानी मीडिया। वो हर बारे में सभी से खुलकर बात करती। माधुरी को जानने वालों का कहना है कि वो हमेशा सलीकेदार कपड़ों में रहती। माधुरी गुप्ता को तेज रफ्तार में गाडिय़ां चलाने का बहुत शौक था। वो पाकिस्तान के दोस्तों को अपने तेज रफ्तार ड्राइविंग के किस्से सुनाया करती। लेकिन उसकी ये बातें उस हालात से थोड़ी अलग हैं जिसका अनुभव भारतीय राजनीयिक अक्सर करते हैं। पाकिस्तान में भारतीय राजनयिकों की पोस्टिंग को काफी मुश्किल माना जाता है। हर वक्त आप आईएसआई की निगाह में रहते हैं। बाजार भी जाना हो तो बख्तरबंद गाडिय़ों में जाइए। घर से निकलना हो तो भी पहरे में। आप समझ सकते हैं ऐसे हालात में माधुरी गुप्ता अगर पाकिस्तान को अपना घर समझ रही थी तो क्यों। उसकी बातों से साफ है कि पाकिस्तान में उसे बेरोकटोक कही भी जाने की आजादी क्यों मिल गई थी। गद्दारी का ये पहला मामला नहीं :जासूसी की दुनिया ही ऐसी होती है कि खुद आपका जासूस भी आपसे दगा कर सकता है। दुनिया भर में भारत के लिए जासूसी करने वाले रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के अफसर भी कई बार पलट जाते हैं। उन्हें भारत के लिए जासूसी करने भेजा जाता है लेकिन वो भारत की ही जानकारी दूसरे देश को देने लगते हैं। नॉर्थ ब्लॉक, देश की सबसे इमारतों में से एक यहीं से चलता है देश का वित्त मंत्रालय। बजट हो या फिर तमाम वित्तीय फैसले यहीं पर लिए जाते हैं। जरा सोचिए, इन मजबूत दीवारों में छिपी फाइल की एक फोटो कॉपी दूसरी जगह पर पहुंच जाए तो क्या-क्या हो सकता है। हैरानी की बात नहीं लेकिन ऐसा हो चुका है। 17 जनवरी 1985 को कुमार नारायण नाम के एक शख्स को गिरफ्तार किया गया। वो वित्त विभाग का पूर्व अफसर था और नौकरी छोडऩे के बाद उसने मरीन इंजन बनाने वाली एक कंपनी ज्वाइन कर ली थी। कहा जाता है कि वित्ता मंत्रालय में अहम फैसलों से जुड़ी फाइलों की फोटो कॉपी कराकर वो हर जानकारी अपने कंट्रोलर तक पहुंचा देता था। इस मामले का खुलासा होने के बाद वित्ता विभाग के कई अफसरों की गिरफ्तारी हुई। पिछले साल जिस न्यूक्लियर सबमरीन अरिहंत ने देश के लोगों का माथा गर्व से ऊंचा कर दिया। वो भी जासूसी से जाल में फंसने से बाल-बाल बची। भारत ने 18 साल तक पूरे खुफिया तरीके से अरिहंत प्रोजेक्ट पर काम किया। लेकिन सुब्बा राव नाम का एक नेवल साइंटिस्ट इस पूरी मेहनत को बर्बाद कर सकता था। उसने इस प्रोजेक्ट की जानकारी पश्चिमी देशों को बेचने की कोशिश की थी। सुब्बा राव की समय रहते गिरफ्तारी के चलते ही दुनिया 18 साल तक इस बात से अनजान रही कि भारत न्यूक्लियर सबमरीन पर काम कर रहा है। इसके अलावा भी भारत में कई बार देसी या विदेशी जासूसों को लेकर हड़कंप मच चुका है। भारतीय स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन यानि इसरो तो जासूसों के रडार में सबसे ऊपर रहा है। आखिर दुश्मन हो या दोस्त इसरो हर दूसरे देश के लिए चुनौती है। देश को ना जाने कितनी सैटेलाइट और लॉचिंग सिस्टम का तोहफा इसरो ने दिया है। लेकिन मालदीव की दो लड़कियों की खूबसूरती के फेर में इसरो के कई अहम प्रोजेक्ट लीक होते-होते बचे। अपनी खूबसूरती के दम पर इन्होंने इसरो के कई वैज्ञानिक पुलिस और यहां तक की सेना के अफसरों तक को साध लिया था। ये दोनों औरतें आईएसआई के लिए जासूसी कर रही थीं। भारत के गद्दारों में सबसे बड़ा नाम है रविंदर सिंह का। भारतीय खुफिया एजेंसी के लिए काम करने वाले रविंदर सिंह को एजेंसी से जुड़े अहम दस्तावेज की फोटो खींचते हुए कैमरे पर देखा गया था। जब तक रॉ अपने ही अफसर पर हाथ डाल पाती वो 14 मई 2004 को गायब हो गया। रविंद्र सिंह रॉ में ज्वाइट सेकेट्री स्तर का अफसर था। माना जाता है कि रविंदर सिंह ने रॉ से जुड़ी तमाम जानकारियां अपने अमेरिकी कंट्रोलर तक पहुंचाई थी। कानून की नजर में इस वक्त रविंदर सिंह भगोड़ा है। रविंदर की तरह की कुछ और अफसर जासूसी के फेर में पड़ चुके हैं। मई 2008 में बीजिंग में तैनात रॉ के अफसर मनमोहन शर्मा पर जासूसी का आरोप लगा। कहा गया कि चीनी लड़की के प्यार में पड़कर शर्मा ने तमाम खुफिया जानकारी उगल दी। अक्टूबर 2007 में भी रॉ के एक और अफसर रवि नायर को हाँगकाँग से वापस बुला लिया गया। रवि नायर पर भी चीन की लड़की के प्यार में खुफिया जानकारी चीन को देने का आरोप लगा। वैसे लड़कियों के फेर में जासूसी को मजबूर करने का भारत से जुड़ा सबसे पुराना केस है जवाहरलाल नेहरू के वक्त का। तब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मॉस्को की यात्रा पर थे और रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी ने उनके साथ गए एक अफसर को ही फंसा लिया था। लड़की के साथ खींची गई फोटो दिखाकर उसे ब्लैकमेल किया जाने लगा तो उसने ये बात खुद नेहरू से उगल दी। जवाहरलाल नेहरू के पास तब विदेश मंत्रालय का भी जिम्मा था। उन्होंने तब ये बात हंसकर उड़ा दी थी। लेकिन बदलते वक्त के साथ जासूसी इतना खतरनाक खेल हो गया है। जिसमें देश की अहम योजनाओं की बर्बादी से लेकर मौत तक सब कुछ है।