शनिवार, 26 मार्च 2011

अलग-अलग तराजू क्यों

आजकल पूरा देश बेहिसाब भ्रष्टाचार से रूबरू है। सीजन की शुरुआत कॉमनवेल्थ गेम्स से हुई। इसके बाद 2 जी स्पेक्ट्रम, कर्नाटक का नाटक, आदर्श सोसायटी विवाद और अब एकदम ताजा विवाद चीफ विजिलेंस कमिश्नर थॉमस की नियुक्ति का है। अगर इन मुद्दों को एक साथ देखा जाए, तो साफ दिखता है कि समाज के हर वर्ग के लोग-राजनेता, ब्यूरोक्रेट्स, न्यूज मीडिया, जुडिशरी और उद्योगपति कमजोरियों से ग्रस्त हैं। टीका-टिप्पणी, आलोचना और बहसबाजी से पहले यह तय कर लिया जाए कि हम इस दौरान पक्षपात नहीं करेंगे। देखा यह जाता है कि हम अलग-अलग प्रफेशन के लोगों के लिए अलग-अलग नैतिक मूल्य निर्धारित करते हैं और उन्हें उसी हिसाब से अलग-अलग तराजू में तौलते हैं। हमारे तंत्र में पारदर्शिता लाने की राह में न केवल यह सबसे बड़ा रोड़ा है बल्कि हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए भी यह बेहद खतरनाक है। पीजे थॉमस की नियुक्ति पर विवाद के विश्लेषण के समय एक अघोषित नियम जो देखा गया, वह था 'तब तक दोषी जब तक कि निर्दोष सिद्ध न हो।' इसी तरह सुरेश कलमाड़ी को भी लगातार राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर 'स्कैमस्टर' कहा जाता रहा, वह भी तब जबकि उन पर आरोप साबित नहीं हुए थे। सामाजिक जीवन में होने के नाते मैं यह मानता हूं कि दूसरों के मुकाबले हमारे प्रफेशन के लोगों से हाई मोरल वैल्यू की अपेक्षा की जाती है। दुनिया भर में यही होता है। लेकिन, जब 2 जी स्कैम में सरकारी खजाने को लाखों करोड़ों का चूना लगाने वाले बड़े बिजनेस हाउसों की जांच हो रही है, तो उन्हीं न्यूज चैनलों ने नैतिकता के दूसरे मानदंड अपनाए - 'तब तक निर्दोष जब तक कि दोष साबित न हो।' 2 जी के परिप्रेक्ष्य में देखें तो एक लॉबिस्ट की टेलिफोनिक बातचीत के सरकारी रेकॉर्ड के जाहिर होने से पता चला कि अनेक जर्नलिस्ट और संपादक उद्योगपति और राजनेताओं की तरह ही हैं। इससे ऐसे व्यवसाय की क्रेडिबिलिटी कम हुई जिससे निष्पक्ष होकर काम करने की अपेक्षा की जाती है। इस मुद्दे को उठाकर इसे एक सही नतीजे तक लाना मीडिया की जिम्मेदारी थी, लेकिन उन चैनलों ने मुद्दे को हलका बना दिया और धीरे-धीरे यह आम जनता के जेहन से उतर गया। हाल में दुनिया के अग्रणी बिजनेस कंसल्टेंट और मैकिंजे एंड मैकिंजे के पूर्व प्रमुख रजत गुप्ता को इनसाइडर ट्रेडिंग का आरोपी पाया गया। इस मुद्दे पर कॉरपोरेट जगत ने गुप्ता को नैतिक मूल्यों के अलग तराजू में तौलकर उनका बचाव किया और उन्हें निर्दोष घोषित किया जबकि जांच अभी जारी है। 2 जी स्कैम में फंसे कुछ उद्योगपतियों के मामले में भी कॉरपोरेट जगत का रवैया कुछ ऐसा था - ' सीबीआई जांच से भारत का व्यावसायिक वातावरण खराब हो रहा है। ' मैं जनता का पैसा हड़पने वाले किसी राजनेता या बाबू का बचाव नहीं कर रहा , लेकिन मुझे शिकायत है कि प्राइवेट सेक्टर और मीडिया ( जो कि स्वयं प्राइवेट सेक्टर का हिस्सा है ) भ्रष्टाचार के विश्लेषण के लिए अलग - अलग मानदंड रखता है। एक देश होने के नाते , अगर हम भ्रष्टाचार से लड़ने और इसका खात्मा करने के प्रति वास्तव में गंभीर हैं तो हमें अपने आप से यह वादा करना होगा कि हम अपनी आलोचना , जांच और अंतत : सजा में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करेंगे। कंगारू कोर्ट और ' बनाना रिपब्लिक ' जैसे जुमले असफल संस्थानों ( कई बार देशों के लिए भी ) के लिए प्रयोग किए जाते रहे हैं , जहां के कानून और नियम वहां के ताकतवर लोग अपने हिसाब से तय करते हैं। लेकिन हम उनसे अलग हैं। हममें से हर एक के पास वह ताकत है जो रोजमर्रा की जिंदगी में घुस आए भ्रष्टाचार से लड़ सके। घूस देना या ' चलता है ' का भाव रखना एक देश की सामूहिक जिम्मेदारी से पलायन करना है। भारत को हमेशा सिद्धांतों और न्याय का देश माना जाता रहा है। यह हमारे हित में है कि हम देश की जड़ों में बसे इन मूल्यों का ह्रास न होने दें।

काफिला कहा लुटा"...

आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ. सुषमा जी ने प्रधानमंत्री की तरफ निशाना साधते हुए मन को मोहने वाले मनमोहन सिंह से कुछ शायराना अंदाज़ में मुखातिब हुईं....और .और एक सवालिया शेर मनमोहन की तरफ उछल दिया. मजमून कुछ इस तरह का था "तू इधर-उधर की ना बात कर, बता की काफिला कहा लुटा"...और बहस का सिलसिला आगे बढ़ चला...एक-एक वक्‍तव्‍यों पर हमारे टीवी चैनल ब्रेकिंग न्यूज़ की बड़ी बड़ी प्लेट चला रहे थे. हर वक्‍तव्‍य पर मीडिया कुछ इस तरह रियेक्‍ट कर रही थी जैसे आरोप-प्रत्यारोप के बदले संसद में मिसाइल चल रहे हों.
खैर, ये तो मीडिया वालों की मजबूरी है. टीआरपी लानी है, चैनल के मालिक को दिखाना है की जी हम नंबर 1 हैं. खैर बहस का सिलसिला आगे बढ़ता गया और बारी आई देश के सबसे भोले भाले सरदार की, जिन्हें कुछ पता नहीं होता. आज वो भी कुछ रंग में थे. मिजाज़ उनका भी शायराना था. सुषमा जी तरफ मुखातिब होते हुए उन्होंने ने भी कुछ इस तरह एक शेर दगा... माना की तेरी दीद के काबिल नहीं हूँ मैं....पर तू मेरा शौख देख, मेरा इंतज़ार तो कर... इकबाल की लिखी ये पंक्तियां शायद मनमोहन जी को किसी ने लिख कर दिया होगा. खूब तालियाँ बजी. हर खबरिया चैनल में जैसे भूचाल आ गया. भागम दौड़ मच गई, संपादक से ले कर ट्रेनी तक सरदार की पढ़ी इस शेर पर अपने विचार और उदगार व्यक्त करने लगे.
देश की भोली भाली जनता को इस शेर के मायने समझाने लगे. भोली-भली जनता टीवी से नज़र गड़ाए टीवी पर ज्ञान बांटते तथाकथित पत्रकारों के ज्ञान सुनती रही और टीवी वालों को टीआरपी मिलती रही. पूरे दिन हंगामा चलता रहा पर किसी भी देशभक्त चैनल को ये याद नहीं आया कि आज शहीद दिवस है और आज के ही दिन आज़ादी के दीवाने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने देश पर अपनी जान कुर्बान कर दी थी, लेकिन आज उसी देश में अपने को पत्रकार और विद्वान कहलाने वाले बेशर्मी की हदें पार कर रहे थे. जहां बेहूदे शेरो-शायरी के लिए उनके पास वक़्त ही वक़्त था, वहीं आज़ादी के दीवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए उन के पास चंद लम्हें भी नहीं थे. शर्म आती है इस देश के नेताओं और चमचे पत्रकारों पर