गुरुवार, 13 जनवरी 2011

नफरत और कट्टरवाद का शैतान समंदर किनारे

केरल की हरियाली और बेशुमार खूबसूरत तटों की वजह से उसे गॉड्स ओन कंट्री का खिताब दिया गया है लेकिन अब यहां की तस्वीर बदल रही है समंदर के किनारे इस खूबसूरत सूबे में नफरत और कट्टरवाद का शैतान पहुंच चुका है। भगवान के इस देश में नारा गूंज रहा है-नया कारवां, नया हिंदुस्तान। ये नारा है केरल के धार्मिक ढांचे को तोडऩे में जुटी ताकत पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई का। दलितों और कमजोरों के हक की लड़ाई के लिए बना संगठन पीएफआई आज जेहाद की वकालत कर रहा है। अपने सबसे बड़े विरोधी आरएसएस की तर्ज पर उसका अपना काडर है, अपना झंडा और अपना लिबास भी। पीएफआई ने अपनी मौजूदगी का ताजा अहसास कराया कोट्टायम में एक प्रोफेसर का हाथ कलम करके। 4 जुलाई 2010 की सुबह, कोट्टायम जिले का मुवात्ताुपूझा इलाका। न्यूमैन कॉलेज के प्रोफेसर टीजे जोसेफ की कार पर 8 लोगों ने चाकुओं, तलवारों, कुल्हाडिय़ों और देसी बमों से हमला किया और प्रोफेसर का दायां हाथ काटकर पड़ोस के एक घर में फेंक दिया। प्रोफेसर पर आरोप था इम्तिहान के सवाल के जरिए पैगंबर साहब की शान में गुस्ताखी। जोसेफ ने बताया कि उन्होंने ये सवाल एक इन्टर्नल इम्तिहान के लिए डाला था। किसी ने ये पर्चा बाहर लीक कर दिया और ये मुद्दा बन गया। मेरे सवाल को गलत तरीके से पेश किया गया जिसके लिए मुझे बहुत अफसोस है। ये कुछ कट्टरपंथी लोग थे जिन्होंने मुझ पर हमला किया। इतनी नफरत कैसे पनपी उस राज्य में जहां पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार बनी थी और जहां कम्युनिस्टों और कांग्रेस का शासन है। पूरा देश चौंक गया। जाहिर है, कुछ ऐसा चल रहा था जिसकी खबर बाकी मुल्क को नहीं थी। राज्य के डीजीपी जैकब पन्नूस कहते हैं कि मुझे लगता है कि कुछ नौजवान जो कुछ संगठनों से जुड़े हुए हैं, उनको गलत राह दिखाई गई है। दरअसल क्या हुआ है कि कुछ गलत राह चलने वाले नौजवान कुछ आतंकवादी संगठनों से मिल गए हैं। मल्लू लोग पूरे देश में फैले हुए हैं और ऐसे कुछ लोग वो केरल में आतंकी तहरीक शुरू कर रहे हैं। यानी पुलिस को भी पता है कि केरल में आतंकवाद पसर रहा है। कभी हमले करके, तो कभी जबरन शादियां कराकर तो कभी धर्म परिवर्तन के जरिए। प्रोफेसर जोसेफ पर हमले की जांच में सामने आया इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया का नाम जिसके खिलाफ पहले ही केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में सांप्रदायिक दंगों और लव जेहाद के चार केस दर्ज थे। वहां कैमरे पर पहली बार पीएफआई ने कबूला कि प्रोफेसर पर हमला उसी के लोगों ने किया था। प्रो के कोये ने बताया कि हमने 4 लोगों को अपनी पार्टी से सस्पेंड किया है इस मामले को लेकर लेकिन बाकी लोगों के बारे में हम नहीं जानते हैं कि वो लोग भी हमारी पार्टी से जुड़े हैं। ये सिर्फ पुलिस का कहना है अभी तक उनकी पहचान नहीं की गई है। इसका मतलब पीएफआई ही इस हमले की जड़ में था। सवाल ये कि आखिर 91 फीसदी साक्षरता वाले इस सूबे में पीएफआई जैसा संगठन वजूद में कैसे आया। हमने इतिहास खंगाला तो पता चला कि 2006 में जब पीएफआई की नींव पड़ी तो इसका मकसद था दलितों और अल्पसंख्यकों की आवाज बनना लेकिन जैसे-जैसे खाड़ी देशों से पैसे की आमदरफ्त बढ़ी पीएफआई के मकसद बदलने लगे। 2009 में देश को एक नया लफ्ज मिला- लव जेहाद जिसने पूरे केरल में दहशत पैदा कर दी। आरोप था कि पीएफआई गैरमुस्लिम लड़कियों को फांसकर उनसे मुस्लिम नौजवानों की शादियां करा रहा है। इसके एवज में मुस्लिम नौजवानों को लाखों रुपए दिए जा रहे हैं। कोर्ट पहुंची लड़कियों ने भी इस बात पर मुहर लगाई। लड़कियों की शिकायत पर केरल हाईकोर्ट ने रिपोर्ट तलब की मगर पुलिस इसे साबित नहीं कर सकी। डीजीपी जैकब पन्नूस कहते हैं कि अगर ये एक ग्रुप के तौर पर हो रहा हो, तो हम इसके खिलाफ जरूर कार्रवाई करते लेकिन एक-दो केस ये साबित नहीं करते हैं एक इंसान किसी के साथ भी प्यार कर सकता है। दोनों समुदायों के लोगों में लव जेहाद को लेकर आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। लव जेहाद को लोग भूले भी नहीं थे कि प्रोफेसर पर जानलेवा हमले के बाद पुलिस को पीएफआई सदस्यों से कुछ ऐसी चीजें मिलीं जो आतंकियों से उनके ताल्लुकात पर रोशनी डालती हैं इनमें थे-अलकायदा के प्रचार वीडियो, विस्फोटक और हथियार, जाली सिमकार्ड और आईडेंटिटी कार्ड्स मगर पीएफआई खुद को पाकदामन बताता रहा। जेहाद की फसल उगाने की कोशिश कर रही पीएफआई की हमदर्द पीपुल्स डेमोक्रेेटिक पार्टी भी उतनी ही दागदार है। इसके मुखिया अब्दुल नासिर मदनी पर 2008 के बैंगलोर ब्लास्ट, केरल में सांप्रदायिक दंगे और अनवर शैरी मदरसे के जरिए कट्टरवाद फैलाने के केस चल रहे हैं। कोयंबटूर ब्लास्ट केस में सबूतों के अभाव में वो छूट गया था। हाल ही में एक मदरसे में बंगलोर धमाकों के मुख्य आरोपी नजीर से मुलाकात ने उसे फिर जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया। अब्दुल नासिर मदनी कहता है कि नौ साल जेल में रहने के बाद मैं बदल गया हूं। असल में खुफिया सूचनाओं के बावजूद पीडीपी और पीएफआई पर नरम रुख सरकार की मजबूरी रही है क्योंकि मामला मुस्लिम वोटों का है। डीजीपी जैकब पन्नूस कहते हैं कि मैं किसी भी संगठन का नाम नहीं लेना चाहता हूं क्योंकि मैं एक जिम्मेदार कुर्सी पर बैठा हूं। वरिष्ठ बीजेपी नेता पीजी जयेन कहते हैं कि केरल में कट्टरवाद रोकने के लिए सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है। ये सभी लोग कहते हैं क्योंकि पीडीपी और पीएफआई दोनों ही केरल की राजनीति की वजह से मौजूद हैं। दोनों का एलडीएफ और यूडीएफ साथ दे रही हैं। केरल से बाहर भी पीएफआई फैलने की कोशिश में है। यूपी में कई जगह पीएफआई ने काडर तैयार किया। हैदराबाद में सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने वाले पोस्टर लगाए और मुसलमानों का हमदर्द बनकर उभरने की कोशिशें की हैं। पता चला कि मलप्पुरम के चार मुस्लिम नौजवान जेहादी बनकर कश्मीर गए थे और सीमा पार करते हुए पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे। इनमें एक था अब्दुल रहीम सो हम रहीम के घरवालों से मिलने के लिए मलप्पुरम पहुंच गए। रहीम के रिश्तेदार एम यूसुफ ने बताया कि क्या हुआ, किसी को मालूम नहीं है। हम लोगों ने भी सुना है कि पाकिस्तान जाते हुए वो कश्मीर में मारा गया। वो इलेक्ट्रानिक माल बेचने जाता था, इस वक्त भी ऐसे ही गया। फिर आदमी लोग आकर बोले फिर उसकी मां को पता चला। अगर ऐसा पता चलता तो हम उसको जरूर रोकते। साफ है कि मजलूमों के हक की लड़ाई लडऩे का लबादा ओढऩे वाली पीएफआई और पीडीपी के चरित्र में लोकतंत्र और सेक्युलरिज्म के लिए जगह ही नहीं है।

कठघरे में अनुशासन

एक और विवादास्पद पेशी। थल सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह रक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित की जाने वाली कैंटीन में कथित अनियमितताओं के आरोप के संबंध में संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) के समक्ष पेश हुए। सेनाध्यक्ष का पीएसी के समक्ष पेश होने का यह पहला मौका है। दरअसल, सीएजी की गत अगस्त की इस रिपोर्ट में सीएसडी और उसकी यूनिट-रन-कैन्टींस (यूआरसी) के कामकाज के तरीकों और लेखे में पारदर्शिता न होने की आलोचना की गई है। इस पर पीएसी ने रक्षा मंत्रालय ने जवाब मांगा था। मंत्रालय ने सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों से इस बारे में जवाब मांगा था। किसी भी लोकतंत्र के लिए सेना वह प्रमुख स्तंभ है, जो न केवल सरहदों की रक्षा करता है, बल्कि जरूरत पडऩे पर देश की आंतरिक कानून-व्यवस्था बनाए रखने और विभिन्न आपदाओं के समय भी सहयोग करता है। लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न घोटालों के कारण सेना की उस छवि को नुकसान हुआ है। सेना की जिम्मेदारियों और उसके जोखिमों को ध्यान में रखकर ही उसे हर तरह की सुविधाएं प्रदान की गई हैं। सेना के लिए अलग संचार प्रणाली, चिकित्सा, न्याय प्रक्रिया, डाक व्यवस्था और पीडब्ल्यूडी की तरह एमईएस (जो सेना के लिए भवन व सड़क निर्माण का काम करती है) की व्यवस्था की गई है। सेना को अपने काम के लिए सिविल प्रशासन या किसी अन्य संस्था से सहायता लेने के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ता। इसकी एक वजह यह भी है कि सेना अक्सर ऐसी दुर्गम जगहों में रहती है, जहां सिविल प्रशासन की पहुंच नहीं होती। सवाल उठता है कि जब सेना को इतनी सुविधाओं से लैस किया गया है, तो फिर ये घोटाले क्यों होते हैं। कारगिल की लड़ाई का ही अगर विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि यह लड़ाई हमारे ऊपर किसी ने थोपी नहीं थी, बल्कि वह हमारे ही कुछ सैन्य अधिकारियों की गलती का नतीजा थी। कारगिल की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वहां सेना को दो तरह से सरहद की सुरक्षा करनी पड़ती है। गरमी में अलग तरह से और सर्दियों में अलग तरह से। सरदी के मौसम में यह पूरा क्षेत्र बर्फ से पूरी तरह ढक जाता है। इसी का फायदा उठाकर सर्दी के मौसम में पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के रूप में ऊंची पहाडिय़ों पर बंकर बनाकर घुस गए। इसका पता हमारी सेना को जब चला, तब बहुत देर हो चुकी थी। उस समय तक श्रीनगर-लेह राजमार्ग पाक सैनिकों के कब्जे में आ चुका था। इस गलती को सुधारने के क्रम में हमारी सेना को कारगिल की लड़ाई लडऩी पड़ी, जिसमें बहुत से सैनिकों और अफसरों को अपनी जानें गंवानी पड़ी। वह एक असंभव लड़ाई थी, जिसको केवल वीरता के बल पर जीता गया। हमारी सेना ने भले ही एक-एक इंच जमीन वापस ले ली, लेकिन इसमें लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई, यह जनता के सामने कभी नहीं आया। इसी प्रकार सेना के एक बड़े अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश प्रकाश ने सुखना के अंदर सेना की जमीन का एक बड़ा भू-भाग निजी स्कूल चलाने वाले अपने किसी संबंधी को दे दिया। मीडिया में इसकी खबरें काफी दिनों तक सुर्खियों में रहीं। तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल दीपक कपूर इसे दबाने में लगे रहे और न्याय प्रक्रिया में खूब रोड़े अटकाए गए। इसी बीच अवधेश प्रकाश रिटायर हो गए। हालांकि इस मामले में जनरल वी के सिंह की तारीफ करनी होगी, जो हमेशा न्याय के साथ खड़े रहे। इससे उम्मीद बंधी है कि दोषियों को सजा अवश्य मिलेगी। अब बात सबसे चर्चित आदर्श सोसाइटी घोटाले की, जिसने सेना प्रमुख जैसे शीर्ष पद की गरिमा को तार-तार कर दिया। यदि सेना का शीर्ष अधिकारी ही इस तरह के घोटालों में संलिप्त पाया जाता है, तो वह कैसे अपने अधीनस्थों से आदर्श और ईमानदारी की अपेक्षा कर सकता है? सवाल उठता है कि सेना के इन उच्च अधिकारियों के घोटाले में संलिप्तता का जवानों के मनोबल पर क्या असर पड़ेगा। हालांकि ऐसे लोगों की सेना में तादाद कम है, फिर भी इससे सेना की छवि पर तो असर पड़ता ही है। ऐसे में जरूरी है कि सेना आत्ममंथन करे और ऐसे उपाय करे, जिससे कि उस पर दोबारा दाग न लगे। हमारी सेना को एक ऐसी संस्कृति विकसित करनी होगी कि उसके अधिकारी या जवान अपने उद्देश्यों से भटके नहीं। इसके लिए उसे अपनी दंड प्रक्रिया में चुस्ती लानी पड़ेगी और देश का विश्वास हासिल करना पड़ेगा।

नतीजा ढाक के तीन पात

मूल्य वृद्धि से जहां आम लोग दो-चार हो रहे हैं, वहीं नीति निर्माताओं की पेशानियों पर भी बल पड़ गए हैं। विपक्षी पार्टियां महंगाई पर नियंत्रण न किए जाने से लगातार सरकार की आलोचना कर रही हैं। लिहाजा प्रधानमंत्री ने महंगाई पर एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई, लेकिन बैठक में कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया। महंगाई घटने तक बैठकों का जोर अवश्य जारी रहेगा। प्रधानमंत्री ने महंगाई और आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में लगातार हो रही वृद्धि की समीक्षा के लिए बैठक बुलाई थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि महंगाई अब यूपीए सरकार के गले की फांस बन गई है। आम आदमी की रसोई में आग लग गई है , मगर चूल्हा है कि ठंडा होता जा रहा है। खाद्य महंगाई दर ने सरकार के दावों की पोल खोल कर रख दी है। महंगाई दर छप्पर फाड़कर 18 फीसदी से ऊपर पहुंच चुकी है। आंकड़ों पर यकीन करें तो दामों में 60 फीसदी का इजाफा हो गया है। कीमतें सरकार की पकड़ से दूर जा चुकी हैं। महंगाई बढ़ाने वाले तीन प्रमुख कारक इधर कुछ सालों में उभरे हैं। एक, होर्डिंग या जमाखोरी, जो बेमौसम बरसात जैसी खबरों से अधिक उग्र हो गई है और जिसके सामने सरकार बिल्कुल बेबस है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण प्याज है, जिसकी बड़ी मात्रा देश में मौजूद होने के बावजूद यह अपनी सामान्य मौसमी कीमत के चार गुने भाव में बिकने लगा था। दो, एक्सपोर्ट, यानी जैसे ही कोई चीज सस्ती होने की संभावना बने, उसे बाहर भेज देना। फिलहाल यह काम चीनी के साथ हो रहा है, जिसके एक्सपोर्ट पर लगी रोक इधर बिना कोई सूचना दिए हटा ली गई है। और तीन, मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज, जिसके वायदा कारोबार ने खान-पान की सारी चीजों का संतुलन बिगाड़ दिया है। सरकार इन तीनों के खिलाफ नीतिगत स्तर पर कुछ नहीं करने जा रही है, लिहाजा बीच-बीच में कुछ राहत भले मिल जाए, पर महंगाई कम होने की अब बात ही बेमानी हो गई है। वायदा कारोबार और निर्यात उसे दोहरी मार से बचा रहे हैं तो यह ठीक ही है। लेकिन सरकारी दलीलों की आड़ लेकर अगर किसान और उपभोक्ता, दोनों का शिकार किया जा रहा है और बिचौलिए मजे लूट रहे हैं तो महंगाई रोकने के तात्कालिक उपायों से ऊपर उठकर सरकार को बीमारी का कोई स्थायी निदान खोजना चाहिए। कृषि एवं खाद्य आपूर्ति मंत्री का कहना है कि वायदा कारोबार के बिना मंडियों को कारगर नहीं बनाया जा सकता और मंडियां मजबूत नहीं हुईं तो नकदी खेती से जुड़े किसानों को राहत नहीं दी जा सकती। मौसम और कीड़ों की मार से लुटा-पिटा किसान फसल अच्छी होने पर अपना माल सस्ता होने की वजह से भी मारा जाए, यह तो सरासर नाइंसाफी है। महंगाई रोकने वाले मौसमी कारकों के सक्रिय होने का समय यही है। खरीफ की फसल बाजार में है। सब्जियां इसी मौसम में सस्ती होती आई हैं। गन्ने की अग्रिम फसल कोल्हुओं और मिलों में पहुंचने लगी है, लिहाजा गुड़-चीनी भी सस्ते होने चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है, खाने-पीने की हर चीज महंगी है तो इसकी कोई प्राकृतिक वजह नहीं है। कुछ सरकारी नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं और उनके चलते आगे भी देश में महंगाई रुकने के आसार नहीं हैं। कृषि उत्पादन और वितरण की व्यवस्था सुधारे बिना इस समस्या से निजात नहीं है। कुछ बड़े सुधारों के लिए अच्छे मानसून वाले इस बरस से अच्छा समय कब मिलेगा? दूसरी हरित क्रांति की बात तो चल रही है, लेकिन उस दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया, बल्कि देश के बड़े हिस्सों में पहली हरित क्रांति ही नहीं पहुंची है। सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की दुर्दशा भी इसके लिए जिम्मेदार है, क्योंकि कीमतों पर नियंत्रण में इस व्यवस्था का योगदान बहुत बड़ा है। अब भी सरकार को इस व्यवस्था को फिर से चुस्त-दुरुस्त बनाकर इस्तेमाल करना चाहिए। लगातार बढ़ती हुई महंगाई न सिर्फ आम जनता के लिए मुसीबत है, बल्कि सरकार और नीति निर्माताओं के लिए भी फिक्र का विषय है। भारत की विकास दर 9 प्रतिशत के पास है, लेकिन इसका असली फायदा तभी है, जब महंगाई की दर चार-पांच प्रतिशत के आसपास बनी रहे। तब बढ़ती विकास दर का असली फायदा लोगों तक पहुंचता है और सरकार विकास दर और ज्यादा बढ़ाने पर जोर दे सकती है।

मन को झंझोड़ती तन की खुश्बू

हर किसी के तन में देह गंध बसी होती है। इसमें खास बात यह है कि यह गंध हर किसी में अलग-अलग होती है। देह गंध ने वैज्ञानिकों को इस हद तक आकर्षित किया है कि उस पर शोध किए गए हैं। इतना ही नहीं जीव विज्ञान में देह गंध पर फीरोमोन नाम से पूरा एक अध्याय बना दिया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि देह गंध पसीने से अलग है। पसीने से जहां दुर्गंध आएगी वहीं देह गंध जरा हट के होगी। जवानी की देह गंध काफी असरदार पाई गई है, जो हर किसी को गुमराह कर देती है। किसी युवती के साथ खड़े भर हो लेना बड़े खजाने के मिल जाने के बराबर होता है और अगर छू लेने का मौका मिल जाए तो कहना ही क्या। वैज्ञानिकों के अनुसार, 'जवानी में जीवधारियों के शरीर में ऐसे स्राव निकलते हैं जो बाद में बनते ही नहीं हैं। यह शरीर में समाई अतिरिक्त ऊर्जा, उत्साह और कई नई शारीरिक क्रियाओं की देन होती है। मानव के अलावा अन्य जीवों में तो यह गंध विपरीत लिंग को आकर्षित करने के लिए खासतौर से निकलती है।Ó विवाह के बाद पति-पत्नी के बीच आकर्षण की कड़ी में देह गंध खास भूमिका निभाती है। महिला और पुरुष दोनों ही शारीरिकि मिलन में देह गंध चरम सीमा प्रदान करती है। शरीर से निकलती यह गंध एक-दूसरे को उत्तेजित करती है। आजकल बाडी स्प्रे यानी परफ्यूम ने यह जगह ले ली है। वैज्ञानिकों की नजर में इन सबके बावजूद भी देह गंध अपना अलग ही प्रभाव छोड़ती है। अन्य जीवों में भी देह गंध अपना असर दिखाती है। बकरी, भेड़, बिल्ली आदि जीव तक देह गंध से अपने बच्चे को पहचानते हैं। बिल्ली के नवजात शिशु को यदि साबुन से नहला दिया जाए तो बिल्ली उसे बराबर सूंघती है, जब तक कि उसे उस की देह गंध न मिल जाए। कई बार गंध न मिल पाने पर वह उसे मार डालती है। नन्हे कीटों में देह गंध का अनोखा संसार है। नर तथा मादा दोनों ही कीट फीरोमोन यानी देह गंध को अपने शरीर से बाहर निकालते हैं। यदि मादा फीरोमोन को निकालती है तो उसी जात का नर उससे प्रभावित होता है। इसी तरह यदि नर फीरोमोन निकालता है तो मादा लपकती है। इसका लाभ मनुष्य ने उठाया है। कीट नियंत्रण के लिए फीरोमोन टैप तैयार किए गए हैं, जिसमें एक जालीदार पिंजड़े में मादा की देह गंध छोड़ दी जाती है, इस से नर कीट आकर्षित होता है और फंस जाता है। कुदरत की देन गंध विपरीत लिंग में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण के लिए है। इसमें दो-राय नहीं कि भविष्य में यह देह गंध किसी बड़े महत्वपूर्ण शोध का रास्ता खोलेगी जो एक-दूसरे को बांधने में सहायक होगी। तब शायद गंध मिलान की नई शाखा पनपे और शादी के लिए जन्मकुंडली के स्थान पर यह देह गंध मिलान आवश्यक हो जाए।

चुनौती बनते चीन की चतुराई

चीनी सैनिकों ने एक बार फिर भारतीय क्षेत्र में घुसकर धमकी दी है। मोटर साइकिल सवार चीनी सैनिक जम्मू-कश्मीर के देमचोक के गोंबिर गांव में पुहंचे। वहां बनाये जा रहे यात्रियों के शेड के कर्मचारियों को धमकी दे डाली और नारे लगाते हुए वापस चले गए। यह घटना सितंबर-अक्टूबर 2010 की है। जो लेह हेडक्वाार्टर से करीब 300 किलोमीटर दूर है। बारतीय सेना ने तुरंत राज्य सरकार को यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश दिया। और नियंत्रण रेखा के करीब 50 किलोमीटर के अंदर कोई भी निर्माण कराने के लिए रक्षा मंत्रालय से अनुमति लेने को कहा। राज्य प्रशासन ने कहा है कि इससे न्योमा और दमचोक के विकास कार्य प्रभावित होगें। राज्य सरकार की इस क्षेत्र में सात लिंक रोड बनाने की योजना थी। अब सवाल असल मुद्दे की। चीन क्यों इस तरह की हिमाकत करता है? चीन आखिर चाहता क्या है और उसकी रणनीति क्या है? हाल के दिनों में चीन की नई-नई गतिविधियां नि:संदेह चिंतित कर रही हैं। कई देशों के लिए चुनौती बनता जा रहा है। वह भारत, जापान, नार्वे, दक्षिण कोरिया जैसे देशों को जब-तब झिड़क देता है और अब अमेरिका के विरुद्ध भी चलने की हिम्मत जुटाने लगा है। बावजूद इसके यह समझ से परे है कि आखिर कोई भी देश चीन के विरुद्ध ठोस कदम क्यों नहीं उठा रहा है। चुनौती बनते चीन की चतुराई भरी गतिविधियों को सहन करना भविष्य के लिए ठीक नहीं है। चीन समय-समय पर आंखें तरेरता रहता है। बताते हैं कि चीन उन देशों के साथ व्यापार कम कर देता है, जो तिब्बत के धर्मगुरु दलाईलामा का स्वागत करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया के उन देशों, जो दलाईलामा की मेजबानी करते हैं, पर चीन अपनी आर्थिक ताकत की धौंस जमाता है। भारत और दलाईलामा के रिश्ते जगजाहिर हैं। एक और कारण है और वह यह कि इस समय चीन बेचैेन है। बैचेनी का कारण भारत की विस्तारवादी विदेश नीति है। इस विदेश नीति के तहत भारत ने उन देशों से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी है, जो देश चीन से किसी न किसी मसले पर भिड़े है। दिलचस्प बात है कि चीन अपनी सारी गतिविधियों को विस्तारवादी बताने के बजाए सहयोगी बताता है पर भारत और अमेरिका की हर गतिविधियों को अलग तरीके से व्याख्या कर रहा है। अब तक ये माना जाता था कि आर्थिक विकास के लिये लोकतंत्र और बाजार व्यवस्था दोनों ही अनिवार्य हैं। चीन में न लोकतंत्र है और न ही पूरी तरह से बाजार व्यवस्था। राजनीति पूरी तरह से तानाशाही के अधीन है तो पश्चिम के लिये दरवाजे खोलने के बावजूद भी सरकार की गहरी नजर लगातार अर्थव्यवस्था पर बनी रहती है और उसकी अनुमति के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता। पर सवाल ये है कि क्या ये विकास स्थाई है? क्योंकि भले ही वो अर्थव्यवस्था के नियम को पलट रहा हो लेकिन पश्चिम से संपर्क ने चीन के समाज में बेचैनी बढ़ा दी है। अल्पसंख्यक तबका परेशान है। मजदूर वर्ग मजदूरी के सवाल पर नाराज है, त्येन आन मन चौक पर छात्र बीस साल पहले ही अपने तेवर दिखा चुका है। ऐसे में सबसे दुनिया में दूसरे नंबर का देश होने के साथ ही उसकी चुनौतियां बढ़ गयी हैं। ये चुनौती बाहर से नहीं अंदर से है। ठीक पाकिस्तान की तरह। पाकिस्तान में जिस तरह छद्म शासन चलाया जा रहा है, वह किसी से छाप हुआ नहीं है। पाकिस्तानी भी रह-रह कर आंखें तरेरता है, चीन भी। भूमि विवाद तो एक बहाना है, असल में भारत को किसी तरह उलझाए रखना है, ताकि दुनिया भर में भारत की गलत प्रस्तुति हो। मगर चीन को उसे अपनी ऐतिहासिक सनक से बाहर आना पड़ेगा और ये काम नंबर दो बनने से ज्यादा मुश्किल है। क्योंकि सनक अगर स्थाईभाव हो जाये तो पागलपन का रूप ले लेती है। आर्थिक रूप से देखें तो पाएंगे कि चीन की व्यापार नीति मुक्त नहीं है। इस कारण उनके व्यापारिक सहयोगी देशों को नुकसान होता है। भारत इसमें से एक है। चीन जिस तरह से पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका को अपने खेमें किया है, उससे भारत की परेशानी बढ़ी है। नेपाल सीमा तक चीन ने तिब्बत स्थित लहासा से रेल लाइन बिछाने का काम शुरू कर चुका है। पहले चरण में लहासा से सिगात्से से तक रेल लाइन बिछाया जाएगा। इसके बाद इसे नेपाल सीमा तक लाया जाएगा। बाद में इसे काठमांडू तक बिछाए जाने की चीनी विस्तारवादी योजना है। इससे भारत काफी नाराज है। लंका में भी हैबेनटोंटा बंदरगाह का विकास चीन कर रहा है। लंका ने भारत-चीन विवाद का फायदा लेते हुए चीन से रक्षा सहयोग पर भी विचार शुरू कर चुका है। भारत चीन समेत अपने पड़ोसी मुल्कों की रणनीति को समझ रहा है। पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल तीनों मुल्क गरीब है। इनकी अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है। चीन इन्हें सहायता देकर अपने खेमें करना चाहते है। हाल ही में नेपाल में भारतीय राजदूत राकेश सूद पर जूता फेंके जाने की घटना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह जूता माओवादियों ने फेंका जिनका नेतृत्व नेपाल के एक पूर्व मंत्री और माओवादी नेता गोपाल कर रहे थे। जबकि उस समय उसी इलाके में गए चीनी राजदूत का जोरदार स्वागत नेपाली माओवादियों ने किया था। संभवत : यही कारण है कि चीन की इस नीति की काट करते हुए भारत ने चीन की इस नीति के विरोध में मजबूत अर्थव्यवस्था वाले मुल्क जापान, दक्षिण कोरिया आदि को अपने पक्ष में करने की नीति पर चल पड़ा है। साथ ही मध्य एशिया में भी चीन को मजबूती से टक्कर देने के खेल में जुट गया है। अफगानिस्तान में भारत पहले ही अपना खेल कर चुका है। इससे चीन पूरी तरह से घबराया हुआ है। पाकिस्तान-चीन की जोड़ी भारत को अफगानिस्तान से निकालना चाहते हैं, पर अभी तक कामयाब नहीं हो पाए है। जबकि पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत स्थित ग्वादर में चीन द्वारा बनाए गए गवादर बंदरगाह का महत्व पहले ही भारत ने अपनी रणनीति से खत्म करवा दिया है। भारत ने ईरान स्थित एक बंदरगाह से तेहरान होते हुए सेंट्रल एशिया के अस्काबाद तक रेल लाइन पहले ही बिछवा दिया। इससे चीन द्वारा पाकिस्तान में बनाए गए ग्वादर बंदरगाह का महत्व खत्म हो गया। इस पराजय को चीन अभी तक भूल नहीं पाया है। हाल ही में भारतीय सेना ने 2017 तक भारत और चीन के बीच जंग होने का अनुमान लगाया है, तो क्या चीन की हर साजिश के पीछे कुछ ऐसी ही चतुराई है?

बयानों से देश बचाते नेता

नक्सलवाद, अलगाववाद, माओवाद और न जाने कौन कौन से वाद। इन सब समस्याओं से जूझते देश को बचाने के लिए चर्चा का समय नहीं है लेकिन दिल्ली के पाश इलाकों में चौड़ी चौड़ी सड़कों के किनारे बने सुविधा संपन्न सरकारी कोठियों में रहने वाले ये नेता अपने परिजनों को मुफत विमान यात्रा कराने पर मेहनत करते रहे हैं। भारत संघ के सामने इतनी बड़ी बड़ी समस्यायें मुंह खोले बैठी है और यहां के नेता एक दूसरे पर आक्षेप करने से नहीं चूकते। सत्ता में आने के लिए ये किसी भी हद तक चले जाने से नहीं चूकत। वोट बैंक की राजनीति के लिए हर मुददे को भुलाया जा रहा है। बाबा रामदेव ने एक बार कहा था कि कैसे चलेगा यह देश? कैसे नेता हैं यहां के जो कभी रिटायर ही नहीं होते। नौकरी करने वाले लोग एक समय में रिटायर हो जाते हैं लेकिन हमारे मुल्क के माननीय चल नहीं पाने की स्थिति में भी रिटायर नहीं होना चाहते हैं। जनसेवा का ऐसा जज्बा किसी भी मुल्क के नेताओं में नहीं जो व्हील चेयर पर बैठ कर और वैशाखी के सहारे चलते हुए भी लोगों की सेवा के लिए तत्पर रहने का दावा करते हैं। अनाज का भंडार भरा हुआ है। देश में करोड़ों लोग रात को भूखे पेट सो रहे हैं लेकिन सरकार और सरकार के ओहदेदार तथा रहनुमा कभी जागने को तैयार ही नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने जगाने की चेष्टा की तो सरकार के मुखिया ने कह दिया कि हमें मत जगाओ हम पहले से जागे हुए हैं। कैसी विडंबना है कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों के बावजूद सरकार भूखों में अन्न बांटने के लिए तैयार नहीं है। बयानबाजी में माहिर पूर्व गृह मंत्री की तरह बयानबाजी करते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री ने भी कह दिया था कि इतने बड़े देश में लोगों को मुफ्त में अनाज बांटना संभव नहीं है। रहनुमाओं को यह जवाब देना चाहिए कि सड़क पर और फलाइओवरों के नीचे जन्म लेने वाले बच्चों के लिए उनके पास कौन सी नीति है। उन बच्चों की माताओं के लिए वह क्या करते हैं। वातानुकूलित कमरों में बैठ कर मोटा वेतन लेने के लिए जिद करने वाले इन नेताओं के पास चैराहों पर रात गुजारने वाले बच्चों, महिलाओं और अन्य लोगों के लिए क्या व्यवस्था है। देश की समस्याओं से निजात पाने के लिए भी इन रहनुमाओं को एक न एक बार अपने स्वार्थ से उपर उठ कर एक मंच पर आना होगा और उन्हें चीन, पाकिस्तान और आंतरिक आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, माओवाद की समस्या पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के लिए सही दिशा मे प्रयत्न करना होगा तभी देश बचेगा।

मिथकों के बीच महंगाई

एक तरफ वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी राज्यों को खाद्य उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाने के उपाय करने को पत्र लिख रहे हैं। दूसरी तरफ उनकी सरकार आम उपभोक्ताओं को राशन में मिलने वाले रियायती अनाज के दाम बढ़ा रही है। सरकार का यह फैसला महंगाई को भड़काने में एक पलीता बन सकता है। कहने को तो भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन कृषि क्षेत्र की बदहाली बढ़ती जा रही है। हालांकि राज्यों और केंद्र में मुख्यत: किसानों के वोट से सरकारें बनती हैं, लेकिन सत्ता में बैठे लोग उनकी ही अवहेलना करते हैं। धीरे-धीरे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सरकारी मदद पर आश्रित होती जा रही है। इसके विपरीत शहरों की अर्थव्यवस्था काफी कुछ निजी क्षेत्र पर निर्भर हो चुकी है। अब इस पर विचार किया जाना चाहिए कि कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसलिए तो पंगु नहीं हो रही, क्योंकि वह सरकार की बैशाखियों पर टिकी है? कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकारी तंत्र पर निर्भरता के चलते कृषि क्षेत्र अपनी कमजोरी से उबर नहीं पा रहा। चूंकि सरकारी तंत्र पर कृषि क्षेत्र की निर्भरता राजनीतिक दलों को वोट दिलाती है इसलिए वे हालात बदलने के लिए तैयार नहीं। कृषि क्षेत्र पर सरकारी तंत्र की पकड़ बरकरार रहने का एक अन्य कारण घपलों-घोटालों को आसानी से अंजाम देना और उन पर पर्दा डालना भी नजर आता है। खाद्य पदार्थो के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भी एक किस्म में भ्रष्टाचार ही दिखता है। यह आम आदमी की कमर तोडऩे वाली स्थिति है, क्योंकि खाद्य पदार्थों के साथ-साथ घर-गृहस्थी में काम आने वाली करीब-करीब उस प्रत्येक वस्तु के दाम बढ़ गए हैं, जो मध्यम वर्गीय परिवारों की जरूरत में शामिल है। इनमें से कुछ वस्तुएं ऐसी भी हैं जिनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में या तो घट रही हैं या फिर स्थिर हैं। केंद्र सरकार के महंगाई नियंत्रित करने के दावे खोखले ही नही झूठे भी साबित हुए हैं। पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने यह कहकर देश को तगड़ा झटका दिया कि उन्हें इसका भरोसा नहीं कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय हैं। दो बार वित्त मंत्री रह चुके चिदंबरम ने यह भी कहा कि बढ़ती महंगाई अपने आप में एक टैक्स है। महंगाई पर लगाम लगाने के पर्याप्त उपाय न होने की स्वीकारोक्ति कोई सामान्य बात नहीं और वह भी तब जब यह स्वीकारोक्ति केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ एवं अर्थशास्त्री माने जाने वाले एक ऐसे मंत्री की ओर से की गई हो जो पिछले सात वर्ष से सत्ता में हो। इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट होता है कि सरकार महंगाई पर नियंत्रण के मामले में अंधेरे में तीर चला रही है। पिछले वर्ष जब मुद्रास्फीति दर दहाई अंकों पर पहुंची थी तब सरकार ने उस पर जल्द ही काबू पाने का आश्वासन दिया था, लेकिन वह खोखला साबित हुआ। इसके बाद सरकार की ओर से महंगाई बढऩे के तरह-तरह के कारण गिनाए गए। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह तर्क दिया कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि लोगों की आमदनी बढ़ रही है। इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन बाद में इस तरह के वक्तव्य अन्य नेताओं की ओर से भी दिए गए। यदि यह मान लिया जाए कि पिछले कई वर्षो से विकास दर आठ प्रतिशत के आसपास रहने के कारण औसत भारतीयों की आमदनी बढ़ी है और इसके चलते खाने-पीने की वस्तुओं की खपत भी बढ़ गई है तो भी यह कोई ऐसी असामान्य बात नहीं। आखिर उसकी ओर से ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकी, जिससे खाद्य पदार्थो और विशेष रूप से खाद्यान्न एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ता? इसका मतलब है कि कृषि मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ है और उसे इसकी कोई परवाह नहीं कि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े। आम आदमी के दुख-दर्द की तो किसी को परवाह ही नहीं और शायद हमारे राजनेता यह मान बैठे हैं कि मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक रूप से इतने सक्षम हो गए हैं कि वे बढ़ती महंगाई किसी न किसी तरह सहन कर लेंगे। विपक्षी दल महंगाई को लेकर शोर तो बहुत मचा रहें हैं, लेकिन अनेक राज्यों में उनका ही शासन है और वहां भी मूल्यवृद्धि पर कोई अंकुश नहीं। बढ़ती महंगाई के लिए राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं और केंद्र राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है। इससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यह कि कोई भी भ्रष्ट व्यवस्था में दखल देने के लिए तैयार नहीं। शायद इसी में राजनीतिक दलों का हित है यानी उनकी तिजोरियां आसानी से भर सकती हैं। बढ़ी कीमतें चुनौती की तरह खड़ी है। अर्थव्यवस्था ऐसी स्थिति में है जहां राजकोषीय घाटा बढऩे का खतरा भी है। नीति निर्माताओं के लिए यह स्थिति चुनौती भरी है। श्रीगणेश तभी हो सकता है जब पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जाएगा।

देश मांगे जवाब, कहां है हिंदुस्तान

भ्रष्टाचार के मामले में विपक्ष की घेरेबंदी से बाहर निकलने के लिए सरकार लगातार हाथ-पैर मार रही है। दूसरी तरफ विपक्ष की कोशिश लगातार जारी है कि सरकार को चारों खाने चित्त कर दिया जाए। इस राजनीतिक रस्साकशी में कुछ गड़े मुर्दे भी उखाड़े जा रहे हैं। इस खेल में सीबीआई की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता। स्थिति कमोबेश यहां तक तो साफ हो गई है कि आम जनता की सुध छोड़ सत्ता खुद लिए चिंतित हो गई है। उसका साथ देने वे सारे तंत्र खड़े हैं, जिन्हें परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से फायदे दिख रहे हैं। लिहाजा हर कायदा ताक पर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार से लडऩे वाले मोर्चे पर हम बेहद कमजोर होते जा रहे हैं। ऊपर से राजनेताओं, व्यपारियों और नौकरशाहों का एक ऐसा गठजोड़ बनता जा रहा है जिसका एक मात्र मकसद ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना हो गया है। जनसेवा के नाम से जानी जाने वाली राजनीति अब एक कारोबार का रुप लेती जा रही है जो आम आदमी के हित्त में नहीं है। राजनीति और नौकरशाही के स्तर पर बढ़ते भ्रष्टाचार से आम आदमी को जहां उसका वाजिब अधिकार नही मिल पा रहा वही देश की साख पर बट्टा भी लग रहा है। भ्रष्टाचार हमारी रगों में समा गया है और हम उसे निकाल नही पा रहे हैं। भ्रष्टाचार पर व्यापक बहस की जरूरत है कि आर्थिक अपराध करने वाला आखिर क्यों असानी से छूट जाता है? क्यों इसे संगीन अपराध नहीं बनाया जाता? सारा देश देख रहा है कि इतने बड़े बड़े घोटले बाहर आ रहे हैं और सरकार जेसीपी नहीं बनाने पर ही अड़ी हुई है। देश कब तक यह सब बर्दाश्त करता रहे? लंबे अर्से बाद कांग्रेस के खिलाफ पूरा विपक्ष एकजुट खड़ा दिख रहा है और बोफोर्स मामला भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को और मजबूत कर सकता है।देश की राजनीतिक स्थिति बहुत ही गड़बड़ है। 2010 में अपने देश में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़े गए हैं। देश की राजनीति में तिकड़मबाजों और जुगाड़बाजों का बोलबाला चारों तरफ बढ़ चुका है। करोड़ों रुपये के घोटाले हुएहैं। महंगाई डायन अब शेयर बाजारों को भी नेस्तानाबूद करने पर उतारू हो गई है। केंद्र सरकार महंगाई पर अंकुश लगाने में लाचार दिख रही है। सरकार का एक वर्ग भी यह मान रहा है कि महंगाई रोकने के लिए सरकार के स्तर पर बहुत कुछ नहीं हो सकता है। बुधवार को गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कुछ ऐसे ही बयान दिए थे। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि आगामी 25 जनवरी को वार्षिक मौद्रिक नीति की मध्य-तिमाही समीक्षा में रिजर्व बैंक महंगाई पर नियंत्रण करने के लिए अपनी नीतिगत दरों में बढ़ोतरी करेगा। महंगाई पर वार करने के लिए उठाए जाने वाले इस हथियार से विकास दर के पहिए में बाधा पड़ सकती है। निवेशक इसी चिंता में बिकवाली करने में जुटे हुए हैं। गिरावट की एक वजह यह भी है कि इस समय बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआइआई) गायब हैं। बीते साल इन्होंने घरेलू बाजार में जमकर पूंजी झोंकी। बोफोर्स मामले में नये खुलासे के बाद भारतीय जनता पार्टी ने आक्रामक तेवर अपना लिये है ं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और बोफोर्स दलाली पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करने की पूरी तैयारी की गई है। जिस तरह से आयकर पंचाट ने बोफोर्स तोप सौदे में गांधी परिवार के करीबी ओतावियो क्वात्रोच्चि के भी दलाली लिये जाने की पुष्टि की है उसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी एक बार फिर विपक्ष के निशाने पर आ गई हैं और खुद कांग्रेस के लिये बचाव कर पाना मुश्किल हो रहा है। घोटालों को लेकर गर्म हुए राजनीतिक माहौल के बाद पहली बार भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही है। भाजपा और समूचा विपक्ष 2जी स्पेक्ट्रम को लेकर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के गठन की मांग पर अड़ा है। पार्टी को लगता है कि केंद्र सरकार पर हमले तेज करने का यह एक बेहतरीन मौका है। बोफोर्स को लेकर नए खुलासे के बाद पार्टी इस बैठक में सरकार को घेरने के लिए नए सिरे से रणनीति बना सकती है। देश के सबसे बड़े विपक्षी दल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सभाएं करने की योजना बनाई है ताकि संसद के बजट सत्र तक इस मुद्दे को जीवित रखा जा सके। भाजपा ने हाल के दिनों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी हमले तेज किए हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह को अन्य विपक्षी दलों और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल घटकों के साथ रिश्ते मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपे जाने के बाद पार्टी कार्यकारिणी की यह पहली बैठक है। पार्टी तमिलनाडु में आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडग़म, असम में असम गण परिषद, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल और आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी व तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ रिश्ते फिर से सुधारने की कोशिश में है। पहले ये दल राजग के घटक हुआ करते थे। पिछले दिनों बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा- जदयू गठबंधन को मिली बड़ी जीत से भी भाजपा के हौसले बुलंद हैं। अब वह लोकसभा चुनाव से पहले राजग को और मजबूत बनाने के प्रयास में है। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी अपना एक साल पूरा कर लिया है , उनके तेवर और ज्यादा कड़े लग रहे हैं। भाजपा के तेवर दूर संचार मंत्री कपिल सिब्बल के नए तर्को के बाद और तीखे हो गए हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि ए. राजा और सरकार को पाक-साफ करार देकर कांग्रेस नेता बोफोर्स की गलती दोहराने जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सीएजी के खुलासे और सिब्बल के आंकड़े के बाद तो जेपीसी जांच और जरूरी हो जाती है। नए साल में सरकार पर चौतरफा उठ रहे सवालों से उत्साहित भाजपा के नेता रणनीति बनाने गुवाहाटी में जुटे हैं। आतंकवाद के मामले पर असीमानंद के खुलासे से उन्हें थोड़ा झटका जरूर लगा है पर वह इसके कारण भ्रष्टाचार के मुद्दे की धार को कमजोर नहीं होने देना चाहते। सरकार की तरफ सिब्बल ने मोर्चा संभाला तो उनका जवाब जेटली ने दिया। उन्होंने दो टूक कहा कि उन्हें पहले ही आशंका थी कि संप्रग सरकार सच्चाई सामने लाने की बजाय पूरे मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करेगी। बोफोर्स मामले में 23 साल उसने यही किया। सिब्बल ने विकृत आंकड़े पेश कर यह साबित करने की कोशिश की है कि ए. राजा ने नुकसान नहीं, बल्कि लाभ कराया है। यह आंखों में धूल झोंकने जैसा है। जेटली ने कहा कि अगर ऐसा था तो इस्तीफा क्यूं लिया? सीबीआई और पीएसी की जांच का क्या मतलब है? जेटली ने कहा कि 2007 में जब दूर संचार नियामक (ट्राई) ने बाजार दर पर आवंटन देना तय किया था तो 2008 में वर्ष 2001 की दर पर आवंटन कैसे किया गया। वर्ष 2008 में यह दर 9500 करोड़ रुपये थी, जबकि आवंटन 1651 करोड़ रुपये पर किया गया। सीएजी ने चार अलग- अलग तरीके से नुकसान का आकलन किया है। उसने 3जी के भी इसी आधार पर आवंटन किए जाने पर 1.76 लाख करोड़ रुपये के नुकसान की बात कही है। उन्होंने सिब्बल के तर्को पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि उन्होंने सीबीआई, पीएसी और जेपीसी का दायित्व निभाते हुए जिस तरह खुद ही सरकार को पाक-साफ करार दे दिया वह हास्यास्पद है। इसके पहले असीमानंद के आतंकवादी घटना में शामिल होने की स्वीकारोक्ति व संघ के नेताओं पर उंगली उठाने के खुलासे पर टिप्पणी करते हुए भाजपा ने इसे मोड़ दे दिया। पार्टी ने कहा कि आतंकवाद को भगवा रंग देने की साजिश हो रही है। मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि जांच होनी चाहिए, लेकिन यह ध्यान रखा जाए कि वह पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो। उन्होंने कहा कि जो दोषी है उस पर कार्रवाई होनी चाहिए। साथ ही उन्होंने इस तरह की खबरों को लीक किए जाने पर भी चिंता जताई। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से पहले प्रदेश अध्यक्षों व प्रभारियों के साथ पार्टी कार्यक्रमों की समीक्षा करते हुए नितिन गडकरी ने स्पष्ट किया कि बहुत काम करने होंगे। कार्यक्रम अंत्योदय का हो या आजीवन सहयोगी बनाने का, इसे कम कर नहीं आंकना चाहिए। बताते हैं कि गडकरी ने राज्यों को स्पष्ट संकेत दिया कि उनके आपसी मतभेद कुछ भी हों, केंद्रीय नेतृत्व को परिणाम चाहिए। असम में हो रही बैठक का औचित्य स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा की पहुंच से यह क्षेत्र छूटा हुआ है। लिहाजा संभावनाएं भी काफी हैं। दूसरी तरफ 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जेपीसी से कराने को छोड़ कर कांग्रेस तमाम ऐसे उपायों पर विचार कर रही है, जिससे लगे कि वह भ्रष्टाचार से लडऩे को लेकर गंभीर है। अध्यादेश के जरिए प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने का प्रस्ताव इनमें से एक है। इसके जरिए विपक्ष और जनता को यह संदेश दिया जा सकता है कि सरकार प्रधानमंत्री को जांच की आंच से बचाना नहीं चाहती। जेपीसी की मांग न मानने की वजह से सरकार पर यह आरोप लग रहा है कि वह पीएम को बचाने के लिए ही इससे कतरा रही है। लेकिन मंत्रिमंडल में लोकपाल विधेयक को लेकर आम राय नहीं है। कुछ मंत्री नहीं चाहते कि सरकार फिलहाल इस तरह का कोई जोखिम उठाए। वैसे लोकपाल विधेयक को अगर धारदार नहीं बनाया गया, तो इसे लागू करने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। वर्तमान में राज्यों में लोकायुक्तों का क्या हाल हुआ है, यह हम देख रहे हैं। कार्यपालिका और विधायिका ने इस संस्था को खिलवाड़ बना दिया है। इसलिए अगर नख-दंत विहीन लोकपाल ले भी आया जाए तो इससे क्या मकसद पूरा होगा? सरकार तात्कालिक रूप से इसका श्रेय तो ले लेगी, मगर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई अधूरी ही रह जाएगी? भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए गठित ज्यादातर संस्थाएं यहां केवल सजावटी बनकर रह गई हैं। इन्हें स्वतंत्र और शक्तिशाली बनने ही नहीं दिया गया। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के संबंधों का ताना-बाना कुछ इस तरह से बुना गया है कि वे एक-दूसरे पर नजर रख सकें और एक-दूसरे को निरंकुश होने से रोकें। इस संतुलन के गड़बड़ाने से ही सारी समस्याएं पैदा हुई हैं। आज तीनों अंग अपनी श्रेष्ठता कायम करने और अपने लिए विशेषाधिकार की मांग कर रहे हैं। आखिर क्यों प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश किसी भी मूल्यांकन या समीक्षा से परे हों? कांग्रेस पार्टी की राजनीति में सारी ताकत राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान में झोंकी जा रही है। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत पता नहीं कहां दफन हो गए हैं। आलाकमान कल्चर हावी है और सुप्रीम नेता से असहमत होने का रिवाज ही खत्म हो गया है। राजनीतिक जागरूकता के बुनियादी ढांचे में कहीं कुछ भी निवेश नहीं हो रहा है। ठोस बातों की कहीं भी कोई बात नहीं हो रही है। पार्टी के बड़े नेता चापलूसी के सारे रिकार्ड तोड़ रहे हैं और आजादी के बुनियादी सिद्धातों की कोई परवाह न करते हुए अमरीकी पूंजीवाद के कारिंदे के रूप में देश की छवि बन रही है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ हुई पार्टी की कोर ग्रुप की बैठक में तेलंगाना और महंगाई पार्टी के एजेंडे में ऊपर थे। कांग्रेस को तेलंगाना की चिंता तो है, लेकिन छोटे राज्य के पक्ष में आगे बढऩे पर इसी साल दो चुनाव वाले राज्यों में ही संकट खड़ा हो सकता है। पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड तो असम में बोडोलैंड को लेकर भी भावनाएं उफान मारने की आशंका है। इसके अलावा महाराष्ट्र से विदर्भ को अलग करने की मांग भी बहुत पुरानी है। उत्तर प्रदेश को तीन हिस्सों-पूर्वाचल, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड में बांटने की पैरवी भी लगातार होती रही है। इस बात पर सहमति बनी है कि कांग्रेस अपनी तरफ से पत्ते बिल्कुल नहीं खोलेगी। तेलंगाना विरोधी या समर्थक कांग्रेस नेताओं को भी संयम रखने के लिए कहा जाएगा। चूंकि, पार्टी आंध्र में नुकसान तय मान रही है, लिहाजा उसकी कोशिश वहां हिंसा रोक कर दूसरे राज्यों में छोटे प्रदेशों की मांग रोकना प्राथमिकता पर होगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि प्रशासनिक प्रक्रिया में और अधिक पारदर्शिता तथा निगरानी सुनिश्चित करने के लिए चरणबद्ध तरीके से बदलाव लाने के प्रयास जारी हैं। उन्होंने कहा कि इस दिशा में हमने ईमानदारी से काम करने का विचार किया है।ÓÓ सिंह की यह टिप्पणियां इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि सरकार की 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन, राष्ट्रमंडल खेल सहित विभिन्न घोटालों को लेकर आलोचना हो रही है। जनमानस भय और दु:ख से भौचक्का हो रहा है क्योंकि देश का नेतृत्व भ्रष्ट सिद्ध हो गया है। कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका सभी में भ्रष्ट व्यवहार की दुर्गन्ध जनमानस तक पहुंच रही है। यह तो वह कहानियां हैं जो खुल गई, परन्तु इनके खुलने से मन में एक और डर उत्पन्न होता है कि जो खुला नहीं वह कितना विराट और भयंकर होगा? देश की अर्थव्यवस्था में जो धन संचालित है उससे कहीं अधिक धन काले धन्धों में लगा है और उससे भी कहीं अधिक धन भारतीय नागरिकों के नाम से विदेशी बैंकों में जमा है। कुछ विदेशी बैंकों ने जब इस बात के संकेत दिये कि वह अपने यहां भारतीयों के खातों का विवरण देने को तैयार है तो हमारी सरकार मौन रही। कारण स्पष्ट है, अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने वाला शेखचिल्ली कहलाता है। आमजन में विशेषकर आने वाली पीढ़ी में ऐसे संस्कार बन रहे हैं मानो की अनैतिक और भ्रष्ट व्यवहार ही शिष्टाचार है। ऐसा लगने लगा है कि दो नंबर की कमाई करना मान्य है और उसके लिए प्रयास करना वांछित सामाजिक व्यवहार है। नैतिकता का आधार खिसकता हुआ दिख रहा है। आम व्यक्ति स्तब्ध है और नहीं जानता है कि उसे क्या सोचना चाहिए और क्या करना चाहिए। आर्थिक और नैतिक धारणाओं के आधार पर वर्तमान भारतीय समाज को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहला वर्ग सत्ता के गलियारों में स्थित कमरों में बैठने वाला और गलियारों में घूमने वाला है। इसमें अधिकतर राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, बड़े-छोटे व्यापारी व उद्योगपति हैं जिनको दलालों का वर्ग संचालित करता है। दलालों के लिए भी अंग्रेजी के एक प्रतिष्ठित शब्द का प्रयोग हो रहा है-'लॉबिस्टÓ। यह पूरा का पूरा वर्ग मन, वचन और कर्म से भ्रष्ट है। देश को लूटना अपना अधिकार ही नहीं कर्तव्य और धर्म भी मानता है। इनकी मानसिकता उन लुटेरे मुगलों की और ब्रिटिश अधिकारियों की है जिन्होंने उस देश को कंगाल बना दिया, जिस देश की दूध-दही की नदियां बहने वाली व्याख्या की जाती थी। इनके मन में कभी भी अपने कार्य के प्रति शक या पश्चाताप की गुंजाईश नहीं है। ए. राजा, अशोक चव्हाण व राडिया उनके प्रतिनिधि हैं। समाज का दूसरा वर्ग वह है जो ईमानदारी और शिष्टाचार का लबादा ओढ़ कर बैठा है। वह पहले वर्ग के भ्रष्टाचारी लोगों के साथ उठता-बैठता है। कदम मिलाकर चलता है और हम प्याला होता है, परंतु अपनी छवि भ्रष्ट न होने की चेष्ठाएं बनाये रखता है। यह वर्ग भ्रष्ट नहीं है ऐसा विश्वास जनमानस के मन में रहता है। परन्तु यह भ्रष्ट है या नहीं यह शक के दायरे में है। उनके नाक के नीचे भ्रष्टाचार हो रहा है और जिस टोली के वह नेता हैं उस टोली के ही कार्यकर्ता हर किस्म का अपराध कर रहे हैं परन्तु अपने अधीन हो रहे भ्रष्टाचार से वह अपने आपको अलग रखते हैं और कभी-कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार को संरक्षण भी देते हैं। किसी भी भावी जांच के पक्ष में वह नहीं होते और यदि जांच हो भी तो उसे प्रभावित करके भ्रष्टाचारियों को अपने लबादे के अंदर लपेट कर बचा के ले जाते हैं। वर्तमान में प्रशासन के शीर्ष नेता और संगठन के शीर्ष नेता दोनों ही भ्रष्ट प्रणाली के सर्वेसर्वा हैं। निष्क्रिय हैं और मौन हैं। सज्जन व्यक्तित्व का आडंबर भी करते हैं। यह वर्ग छोटा है परन्तु देश और राष्ट्र के लिए सबसे अधिक घातक है। भ्रष्टाचारी, देशद्रोही की तो पहचान है परन्तु जो भेडिय़े बकरी का रूप धारण किए हैं उनसे बचना होगा। समाज का तीसरा वर्ग आम जनता का है। जो नीयत और व्यवहार से देशप्रेमी है, ईमानदार है परन्तु अपने कर्तव्य की पहचान उसे नहीं है। इनमें से एक वर्ग ऐसा है जो मौका मिलते ही पहले या दूसरे वर्ग अर्थात भ्रष्टाचारियों या छद्म शिष्टाचारियों के साथ मिल जाता है। इनकी देशभक्ति के संस्कार दुर्बल हैं और समाज के प्रति समर्पण क्षीण है। परन्तु यदि उचित वातावरण मिले तो यह लोग भी शिष्टाचारी और ईमानदार हो जाते हैं। जैसा अवसर या वातावरण मिलता है उसी में यह ढल जाते हैं।

सीबीआई की जांच किसके जिम्मे

सीबीआई सिर्फ अपने राजनैतिक मालिकों की सुनती है और सरकार के दूसरे उसी की तरह जिम्मेदार विभाग क्या कह रहे हैं इसका उससे कोई लेना देना नहीं है। सीबीआई सिर्फ बोफोर्स के झमेले में नहीं फंसी। इसरो जासूसी कांड, राजनेताओं को फंसाने के लिए रचे गए हवाला कांड, प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड, निठारी हत्याकांड, दाऊद इब्राहीम को राहत देने वाला कांड, सिस्टर अभया हत्याकांड, सोहराबुद्दीन मुठभेड़ कांड में गीता जौहरी की भूमिका, भोपाल गैस त्रासदी और फिलहाल विवादों में चल रहे आरुषि तलवार हत्याकांड में सीबीआई की भूमिका एकदम वही रही है जो भारतीय दंड विधान की बजाय राजनैतिक डंडा विधान से चलती नजर आती है। ऐसी सीबीआई को हमने आज की तारीख में असंख्य दौलत हजम होने वाले घोटाले सौंप रखे हैं और क्या सीबीआई मे भी कोई कसम खा कर कह सकता है कि सीबीआई में घोटाले नहीं होते। वैसे तो कहा जाता है कि राज्य सरकार जब तक नहीं चाहे तब तक सीबीआई राज्य का कोई मामला जांच के लिए नहीं ले सकती मगर असलियत क्या है । अब तक भ्रष्टाचार के जो रूप हमारे सामने आते रहे है, वे आम तौर पर रिश्वतखोरी और कालाबाजारी के रहे है। लेकिन जबसे इसमें राजनीतिक लोग शामिल होने लगे हैं तब से मामला गंभीर हो गया है। हमारे यहां भ्रष्टाचार किसी संगीन जुर्म में नही आता। इसी लिए यह एक बड़े कारोबार का अकार लेता जा रहा है। बड़े घोटालेबाज अपनी राजनीतिक एवं प्रशासनिक पुहंच के कारण बचे रहते हैं। इनकी जांच करने वाले आयोग और जांच ऐजसियां मामलों को इतना लम्बा चलाती है कि लोग सब भूल जाते हैं, हां छोटे मोटे अपराधियों के लिए न्यायचक्र अपना काम करता रहता है। कृष्ण मेनन से लेकर कृष्णामचारी तक और बोफोर्स और प्रतिभूति घोटालों में आज तक किसी को कोई सजा नही हुई। दरअसल सरकारे खुद भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती रही है और यह समास्या स्वतंत्रता के पूर्व से चली आ रही है। 1937 में बनी कांग्रेसी सरकारों पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप लगे थे, भ्रष्टाराचार के विरोध में गांधी जी ने सत्याग्रह किया था। 1967 में बनी श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार पर भ्रष्टाचार को बढ़वा देने का आरोप भी लगा। 1961 में प्रताप सिंह केरो द्वारा पंजाब में अपने बेटे को सिनेमा हाल बनाने के लिए सरकारी जमीन कोडिय़ों के भाव देने का मामला भी चर्चित रहा है। 1984 में राजीव गांधी की सरकार और 1991 में नरसिंह राव सरकार पर भी ऐसे आरोप रहे हैं।

महंगाई पर छल

केंद्रीय गृहमंत्री और दो बार वित्तमंत्री रह चुके पी. चिदंबरम का यह कहना आघातकारी है कि उन्हें इस पर यकीन नहीं कि उनके अर्थात सरकार के पास खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के लिए सभी तरह के उपाय हैं। इसका एक अर्थ है कि खाद्य पदार्थो की महंगाई पर लगाम लगने के कहीं कोई आसार नहीं। इसका ताजा सबूत यह है कि कुछ सप्ताह पहले जो खाद्य मुद्रास्फीति 14.44 प्रतिशत के रूप में भयावह नजर आने लगी थी वह अब 18.32 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। यह जितना अस्वाभाविक है उतना ही अनुचित भी कि जब महंगाई रौद्र रूप धारण किए हुए है तब आम आदमी के हित की बात करने वाली केंद्र सरकार के नीति-नियंता यह कह कर पल्ला झाड़ रहे हैं कि हमारे पास उससे निपटने के उपाय ही नहीं। अब तो वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी यह कह दिया कि खाद्य महंगाई पर अंकुश लगाने के मामले में सरकार के उपायों की एक सीमा है। आखिर जब सरकार को यह पता ही नहीं कि खाद्य पदार्थो के बढ़ते दामों पर अंकुश कैसे लगाया जाए तब फिर महंगाई से निजात मिलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? यदि केंद्र सरकार के पास खाद्य मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने के उपाय थे ही नहीं जैसा कि चिदंबरम ने कहा तो फिर प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और अन्य अनेक नेता यह झूठा आश्वासन क्यों देने में लगे हुए थे कि महंगाई बस थमने ही वाली है? यह देश के साथ किया जाने वाला छल नहीं तो और क्या है कि महंगाई थामने के मामले में यहां तक कहा गया कि अमुक-अमुक माह तक बढ़ते दामों पर अंकुश लग जाएगा? देश जानना चाहेगा कि पहले बहानेबाजी की जा रही थी या अब नए बहाने ढूंढे जा रहे हैं? केंद्र सरकार के रवैये से तो यह लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब उसकी ओर से यह भी कहा जाएगा कि किसी भी तरह की महंगाई पर रोक लगाना उसके वश की बात नहीं। चूंकि यह पहले से स्पष्ट है कि रिजर्व बैंक की नीतियां खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर काबू पाने में एक हद तक ही कारगर हो सकती हैं इसलिए देश की निरीह जनता के सामने महंगाई से जूझने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। वर्तमान में चिदंबरम भले ही गृहमंत्री के पद पर हों, लेकिन उनकी पहचान एक अर्थशास्त्री के रूप में है और इसीलिए उनका बयान कहीं अधिक हैरान-परेशान करने वाला है। महंगाई और विशेष रूप से खाद्य महंगाई ने देश को पहले भी आक्रांत किया है, लेकिन आजादी के बाद यह पहली बार है जब किसी सरकार की ओर से यह कहा जा रहा है कि वह मूल्य वृद्धि पर लगाम लगाने में नाकाम है। यदि चिदंबरम सही हैं तो इसका मतलब है कि कृषि और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय व्यर्थ में ही अस्तित्व में हैं। आज यदि केंद्र सरकार इस नतीजे पर पहुंच रही है कि उसके पास खाद्य महंगाई से निपटने के तौर-तरीके नहीं रह गए हैं तो इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि न तो कृषि का उत्थान उसके एजेंडे में है और न ही खाद्यान्न के भंडारण और वितरण की समुचित व्यवस्था करना। इसके अनेक सबूत भी सामने आ चुके हैं और सबसे बड़ा सबूत है कृषि और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री शरद पवार की नाकामियां।

देश में तिरंगे पर क्यों कोहराम ?

श्रीनगर का लालचौक आज खामोश है। पिछले 20 वर्षों में इस चौक पर सीना ताने खड़े घंटा घर ने जितनी शर्मिंदगी अलगाववादियों के कारण नहीं झेली होगी उससे ज्यादा जिल्लत उसे हुकूमत के कारण झेलनी पड़ी। पिछले दो दशकों में लालचौक ने दर्जनों आतंकवादी हमले के दंश सहे, दर्जनों बार पाकिस्तान का झंडा इसके सीने पर लटका दिया गया, लेकिन जब कभी तिरंगा के साथ इस चौक को सजाया जाता तो वह अपने पुराने जख्मो ंको भूल जाता था। अब वह एक चुनौती का सामना कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि वह आगामी 26 जनवरी को श्रीनगर के लाल चौक पर हर हाल में तिरंगा फहरायेगी। भाजपा के इस कदम का विरोध करने वालों से लाल चौक पूछ रहा है कि आखिर मेरा कसूर क्या है? क्या कश्मीर भारतवर्ष का हिस्सा नहीं है? क्या उमर अब्दुल्ला भारतीय नहीं है? फिर देश ने उसे मुख्यमंत्री क्यों बनने दिया? केंद्र ने इस असंवैधानिक कृत्य की आपराधिक उपेक्षा क्यों की? राजनीति के कंधे पर सवार होकर राष्ट्रविरोधी तत्व कहीं पूरे देश को ग्रसते तो नहीं जा रहे? अगर भारतभूमि पर राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान रोक दिया जाए तो यह गंभीर सवाल सामने उठेंगे ही और यह भी कि देशवासी इसे कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं! उमर अब्दुल्ला ने जो अपराध किया है उसके खिलाफ राष्ट्र और संविधान के अपमान का गंभीर मामला चलना चाहिए और कैद या देश निकाला दिया जाना चाहिए। राष्ट्रसम्मान अपमान निषेध कानून-1971 और भारत का ध्वज कोड-2002 जैसे कानून क्या केवल दिखावा हैं? लेकिन कौन उठाए यह आवाज..? ऐसे संवेदनशील मसले पर भी पूरा देश क्यों साधे है मौन..? भारत के किसी भी भूभाग में तिरंगा फहराना किसे अच्छा नहीं लगता। किसे पसंद नहीं कि देश का विजय घोष, संप्रभुता के प्रतीक, सम्मान के प्रतीक और गौरव के प्रतीक अपने प्यारे झंडे को अपनी जमीन पे शान से लहराए, लेकिन ऐसा भी है कि इस देश के कुछ लोग तिरंगे के दुश्मन हैं। श्रीनगर के लाल चौक पे भारतीय झंडा कैसे लहरा सकता है। कैसे देश की जनता उस झंडे को सलामी दे सकती है और अगर ऐसा हो गया तो कैसे राष्ट्रद्रोही अपनी मुराद पूरी कर सकते हैं। अलगाववादियों के बंद और हड़ताल ,आतंकवादियों की धमकी के बीच खाली और सुनसान पड़े श्रीनगर के इस तारीखी चौक पर सिर्फ एक लहराता तिरंगा ही तो है जो अलगाववादियों के मंसूबे को फीका करने की कूबत रखता है। कश्मीर के लाखों लोगों को यह एहसास करा सकता है कि यहाँ की अलगाववादी सियासत कुछ चंद सिरफिरों की सनक है। पिछले कुछ सालों से लालचौक आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बन गया है। बन्दूक के खौफ ने अलगाववादियों को एक सियासी आधार दिया और उनका सियासी ठिकाना लालचौक हो गया। पिछले 20 वर्षों में लालचौक 5 साल बंद रहा। सैकड़ों मासूमों को इस चौक ने अपने आँखों के सामने आतंकवादियों की गोलियों से छलनी होते हुए देखा है। वजह जो भी हो लेकिन लाल चौक शर्मसार है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि यदि लाल चौक पे तिरंगा फहराने की कोशिश की गई तो हिंसा भड़क सकती है और यदि हिंसा भड़की तो उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनेगी। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का ये बयान पूरे भारत देश के लिए चेतावनी है कि वो जम्मू-कश्मीर से अपना दावा छोड़ दे और मान ले देशद्रोहियों की मांगें। कांग्रेसी नीतियों ने देश को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहॉ देश प्रेम या तिरंगे की बात भी लगता है अब गुनाह है। तुष्टिकरण की नीति पर चलते-चलते कांग्रेसियों की बुद्धि पथरा गयी है और उन्हें आसन्न खतरा नजर नहीं आता। उन्हें भारत के सम्मान की चिंता नहीं, भारतीय भूभाग के शत्रुओं के पास चले जाने का गम नहीं, उन्हें तो फिकर है केवल अपने सत्ता सुख की। उमर जैसों को सबक सिखाने की बजाय घनघोर चुप्पी क्या जाहिर करती है। सत्ता लोलुप दलालों के नेतृत्व में ही यह सब संभव है। यहॉ आतंकवादी बिरयानी खाते हैं और देशभक्त जेल में होते हैं, तो फिर सतर्क हो जाइए क्योंकि ये एक चेतावनी नहीं बल्कि प्रत्यक्ष हमला है। आजादी की मांग को लेकर एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में आग लगी हुई है। कुछ भाड़े के कट्टरपंथी पाकिस्तान के इशारे पर सड़क पर उतरकर भारत की संप्रभुता को तार-तार करने में तुल गए हैं। उनमें से कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें इज्जत भरी निगाहों से देखा और सुना जाता है। ये लोग जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं मानते और आजादी की मांग करने लगे हैं, परंतु पहले उन्हें एक माह तक एक आदमी की तरह पाकिस्तान में रहकर देखना चाहिए। उन्हें समझ में आ जाएगा कि जम्मू-कश्मीर की भलाई भारत के साथ रहने में है या स्वतंत्र रहने में। वैसे भी आज जो कश्मीर की हालत है, उसके लिए कट्टरपंथी जिम्मेदार हैं। यदि ये लोग जितनी ताकत जम्मू-कश्मीर को आजाद कराने में लगाते हैं,उससे 50 फीसदी ताकत भी यदि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास में लगाते तो शायद जम्मू-कश्मीर की वादियों में आग नहीं, बल्कि आज सोना बरस रहा होता। कांग्रेस भी अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रही है। यह चिन्तनीय है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस भी पंडित नेहरू के ही नक्शे-कदम पर चल पड़ी है ? सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी आक्रमण के दौरान कश्मीर की जीती हुई लड़ाई को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी। ठीक उसी प्रकार की भूल कांग्रेस भी कर रही है। इतिहास गवाह है कि यदि पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले गए होते तो आज अपने पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारत का ध्वज फहराता और 'पाकिस्तान अधिकृत कश्मीरÓ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं होता। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में अलगाववाद का समर्थन करते हुए जो बयान दिया था, वास्तव में उस बयान के बाद उनको मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उमर ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं बल्कि सशर्त विलय हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र को भारत का अविभाज्य अंग कहना उचित नहीं है। यह मसला बिना पाकिस्तान के हल नहीं किया जा सकता है। उमर के इस प्रकार के बयान से वहां की सरकार और अलगाववादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है। जो मांगे अलगाववादी कर रहे हैं, उन्हीं मांगों को राज्य सरकार के मुखिया उमर भी दुहरा रहे हैं। आखिर, सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में क्या फर्क बचा है ? यदि उमर अब्दुल्ला अलगाववादी भाषा बोलने के बाद भी राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं, तो इसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही अब्दुल्ला सरकार टिकी हुई है। कश्मीर उस सोये हुए ज्वालामुखी के सामान हो गया है ,जो अचानक कभी भी फट पड़ता है और परेशानी इस बात की है कि कोई भी इसकी तीव्रता का अंदाज नहीं लग सकता। कांग्रेस और मुफ्ती सईद की पिछली सरकार के समय ये ज्वालामुखी लगभग शांत सा बना रहा और पर्यटकों ने फिर कश्मीर को अपने कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था, लेकिन कांग्रेस के हिस्से की सरकार के दौरान अमरनाथ यात्रा से उपजे विवाद ने जो माहौल खराब किया, तब से लेकर अब तक दिन-ब -दिन हालात खराब होते जा रहें है और उसे उमर अब्दुल्ला की वर्तमान सरकार भी नहीं सम्हाल पा रही है। इस आग में घी का कम एक लेखिका के बयान ने कर दिया जो सदा ही नक्सलियों और अलगाववादियों के साथ है, इस बयान की ध्वनि और अलगाववादियों के सुर एक से लगते हैं,जो किसी भारतीय को ललकारते से प्रतीत हो रहें है। सर्वदलीय संसदीय दल के दौरे के विफलता के बाद नियुक्त तीन वार्ताकारों से कुछ आस बंधी थी के ये गैर राजनीतिक लोग शायद कुछ कर सके पर अफसोस की ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा। इन नव नियुक्त वार्ताकारों का दल भी असफलता के पथ पर जाते दिख रहा है। भारत में कम्युनिस्ट मांग कर रहें है के कश्मीर के लिए एक विधिवत गठित संसदीय समित हो जो कश्मीर और जम्मू में लोगों से बात करे साथ ही विशेष सेना शक्ती अधिनियम को वापस लिया जाये क्योकि इस अधिनियम की आड़ में सेना कथित रूप से मानव अधिकारों का हनन का करती है, यद्यपि ये अधिनियम उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी लागू हंै। इस तरह से सरकार में शामिल दलों और विपक्षी दलों की सोच भी एकरूप नहीं है। हम एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी बिना नतीजा तक इस समस्या को स्थानान्तरित तो कर ही चुके है। अब तो कोई कड़ा निर्णय ही कश्मीर समस्या का हल दे पायेगा। नहीं तो यह विवाद ऐसे ही धधकता रहेगा और हमारे बहुमूल्य संसाधनों को ईधन के रूप में डकारता रहेगा। भारत पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था और दुनिया में सिर्फ इस विभाजन को छोड़ दे तो सभी जगह भूमि के साथ जनता ने अपने को विभाजित किया है। अब घाटी में मुस्लिम आबादी की अधिकता को देखकर पाकिस्तान इस पर अपने दांत गड़ाये बैठा है ,तो हमारे धर्मनिरपेक्ष स्वरुप के कारण ये हमारे लिए भी प्रतिष्ठा की बात है। सैंतालीस से कारगिल तक और आज भी इस भूमि पर स्वामित्व का संघर्ष जारी है। लेकिन ये प्रतिष्ठा की लड़ाई अब तक ना जाने कितने ही मानव और अर्थ संसाधन लील चुकी है और नतीजा सिफर है। कश्मीर में कानून व्यवस्था राज्य सरकार का जिम्मा है फिर केंद्र सरकारों को भी अपनी पूरी दम -खम का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। जम्मू-कश्मीर के कथित अवाम को उकसाने और अलगाववादियों के भारत विरोध की प्रायोजित योजना का रहस्य समझा जाना चाहिए। फिर जम्मू कश्मीर का असली आवाम तो वे पांच लाख कश्मीरी पंडित हैं जिन्हें जम्मू कश्मीर से खदेड़कर शरणार्थी बना दिया गया है। सियासत के मजहबीकरण के कारण बहकावे अथवा विदेशी दबाव में आकर जम्मू-कश्मीर के बारे में अपनी नीति में तनिक भी नरमी लाने का मतलब लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पायी होगा। भारतीय जनता पार्टी ने देश की राष्ट्रीय अखण्डता, सार्वभौम सत्ता और भारतीय अस्मिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए कहा कि यही समय है, जब भारत को स्पष्ट संदेश देकर अलगाववादियों, पाकिस्तान और अमेरिका से साफ सपाट शब्दों में कह देना चाहिए कि जम्मू -कश्मीर के मामले में कोई भी दबाव अथवा वार्ता कबूल नहीं है। पाकिस्तान से डायलाग का जहां तक सरोकार है, उसे पाक अधिकृत कश्मीर को खाली कर उसे मुक्त करने पर विचार करना चाहिए। आईएसआई ने अपनी रणनीति बदलकर सुरक्षा बलों को उकसाने के लिए पथराव करने वाला फोर्स बना डाला है। जिसे कलेंडर के मुताबिक ट्रकलोड पत्थर उपलब्ध रहते हैं। स्कूल जाने वाले छात्रों के बस्तों में किताबों की जगह पत्थर रखवाये जाते हैं, बुर्काधारी महिलाएं भी पत्थराव में शामिल होती है। सुरक्षा बल निशाना बन रहे हैं। भीड़ में आतंकवादी गोली चलाकर भी सुरक्षा जवानों को मौत की नींद सुला रहे हैं। दरअसल जम्मू-कश्मीर में अवाम के लिए राजनीतिक, आर्थिक कोई समस्या नहीं है। देश के 28 सूबों से सबसे अधिक अधिकार यहां प्राप्त है। अनुच्छेद 370 ने जम्मू कश्मीर को विशिष्ठ राज्य का दर्जा दिया हुआ है। दो निशान, दो प्रधान की व्यवस्था नहीं है। फिर भी दो विधान है। यही कारण है कि राजनेता वोट की राजनीति करके जनता को गुमराह करते हैं। स्वायत्तता का एजेंडा जनता का नहीं है। यह पाकिस्तान के विफल हुक्मरानों का है, जो अलगाववादियों के जरिए पराजय बोध व्यक्त कर भारत को तोडऩे का दंभ भरते हैं। पाकिस्तान ने भारत पर 1948, 1965, 1971 के युद्ध थोपे, बाद में कारगिल पर हमला कर भारत की पीठ में छुरा झोंका और मुंह की खायी। अटल बिहारी वाजपेयी अमन का पैगाम लेकर बस से लाहौर गये लेकिन पाकिस्तान जो मंसूबा युद्ध के मैदान में पूरा नहीं कर पाया, वह आतंकवाद, अलगाववाद के जरिये पूरा करना चाहता है। इसका माकूल जवाब देने के बजाय डा.मनमोहन सिंह सरकार विदेशी दबाव में थ्रेड वेयर बातचीत करने, हीलिंग टच भरने पर राजी होकर अपनी दुर्बलता उजागर कर रहे हैं।

राह आसान नहीं

तेलंगाना के तकदीर की तहरीर बांच श्रीकृष्णा समिति ने देश के अन्य भागों में उठ रही पृथक राज्यों की आवाज को भरसक दबाने का ही प्रयत्न किया है। हिंसक आंदोलनों की धारावाहिक किश्तों ने जहां तेलंगाना को हर पल जीवंत रखने की कोशिश की वहीं नेताओं के आमरण अनशन ने केंद्र को फैसले लेने पर बाध्य किया। लेकिन श्रीकृष्णा समिति ने अपनी रिपोर्ट में तेलंगानावादियों की और से लगभग अस्वीकार प्रस्तावों की झड़ी लगाकर रख दी है। श्रीकृष्णा समिति की रिपोर्ट में 6 विकल्प सुझाये गये हैं-अविभाजित आंध्र प्रदेश बनाया जाए, सीमांध्र और तेलंगाना का बंटवारा, यथास्थिति बनी रहे तथा सीएम या उप मुख्यमंत्री तेलंगाना का हो, हैदराबाद केन्द्र शासित प्रदेश हो, रायल-तेलंगाना और तटीय आंध्र में बंटवारा तथा हैदराबाद रायल-तेलंगाना को मिले। इन विकल्पों में साफ हो गया है कि समिति की रिपोर्ट पूरी तरह केन्द्र सरकार के पक्ष में हैं। तेलंगाना संयुक्त संघर्ष समिति इन प्रस्तावों से सहमत नहीं। उसका साफ कहना है कि अब केवल आंदोलन का रास्ता बचा हुआ है। साफ है कि लगातार आंदोलनों के बाद चिरप्रतीक्षित प्रस्ताव ने जिस तरह से तेलंगानावादियों पर कुठाराघात किया है, उससे तेलंगाना आंदोलन के और हिंसक होने की ही संभावना ज्यादा है। तेलंगाना आंदोलन का गढ़ माने जाने वाला उस्मानिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया है। यहां तक कि तेलंगाना क्षेत्र के अन्य मुख्य केंद्रों वारंगल, निजामाबाद और मेदक में भी तनाव बढ़ गया है और हर जगह लोग श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट पर ही चर्चा कर रहे हैं। उन पर गृहमंत्री पी. चिदंबरम के इस आश्वासन का कोई असर नहीं कि जनवरी के अंत तक इस मसले पर एक और सर्वदलीय बैठक बुलाई जाएगी। तेलंगाना के सरकारी कर्मचारियों की यूनियन के अध्यक्ष स्वामी गौड़ ने तो दो टूक कह दिया है कि सरकारी कर्मचारी अपना काम रोक देंगे और असहयोग के जरिए काम-काज ठप कर दिया जाएगा। मतलब साफ है। अगर तेलंगाना बनता है तो देश के अन्य राज्यों के विरोध नेता भी अपने -अपने राज्य की मांग करेंगे। जिसे मानना बेहद कठिन है। खैर देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में तेलंगाना जन्म लेता है या नहीं। अलग तेलंगाना राज्य की मांग कामरेड वासुपुन्यया ने पहली बार तब उठाई, जब 1956 में तेलंगाना क्षेत्र को भाषा के आधार पर पहले राज्य बने आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया। एक तरफ जहां दोनों की संस्कृति अलग थी, वहीं मदास प्रेजिडेंसी का हिस्सा होने की वजह से आंध्र, तेलंगाना से शिक्षा और आर्थिक दोनों मोर्चों पर आगे था। उस समय इस आंदोलन का उद्देश्य था भूमिहीनों को भूपति बनाना। छह सालों तक यह आंदोलन चला लेकिन बाद में इसकी कमर टूट गई और इसकी कमान नक्सलवादियों के हाथ में आ गई। आज भी इस इलाके में नक्सलवादी सक्रिय हैं। 1969 में इस आंदोलन को फिर हवा दी तेलंगाना प्रजाराज्यम पार्टी के चेन्ना रेड्डी ने, जिन्होंने जय तेलंगाना का नारा दिया, पर जब इंदिरा गांधी ने उन्हें आंध्र के मुख्यमंत्री का पद सौंपा तो उन्होंने खुद को इससे अलग कर लिया। आगे इस आंदोलन की कमान संभाली टीआरएस नेता के. चंद्रशेखर राव ने, जो आज भी इससे जुड़े हैं। दरअसल दोनों इलाकोंं में भारी असमानता है। आंध्र मद्रास प्रेसेडेंसी का हिस्सा था और वहां शिक्षा और विकास का स्तर काफ़ी ऊँचा था जबकि तेलंगाना इन मामलों में पिछड़ा है। तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने आंध्र में विलय का विरोध किया था। उन्हें डर था कि वो नौकरियों के मामले में पिछड़ जाएंगे। अब भी दोनों क्षेत्र में ये अंतर बना हुआ है। साथ ही सांस्कृतिक रूप से भी दोनों क्षेत्रों में अंतर है। तेलंगाना पर गठित श्री कृष्ण समिति ने 11 महीने में राज्य के 23 जिले और 35 गावों में 30 बैठकें कर आम लोगों की राय जानने की कोशिश की। अब इसके सार्वजनिक होने के साथ ही राजनीतिक संघर्ष भी तेज हो गया है। जहां कांग्रेस विधायक उत्तम कुमार रेड्डी ने आंध्र प्रदेश के तेलंगाना और सीमांध्र में बंटवारे और हैदराबाद को तेलंगाना की राजधानी बनाने के विकल्प की वकालत की, वहीं माकपा नेता बीवी राघवुलू ने यथास्थिति बनाए रखने का समर्थन किया। साफ है कि कांग्रेस के लिए यह वक्त सत्ता की अग्निपरीक्षा का है। कांग्रेस की मुश्किल तेलंगाना के पक्ष और विपक्ष दोनों में ही बोलने पर है। अगर कांग्रेस पक्ष में बोलती है तो आंध्र के कांग्रेसी विधायक नाराज हो जाएंगे और विपक्ष में बोलने पर तेलंगाना के। कांग्रेस के लिए तेलंगाना और आंध्र दोनों क्षेत्र के नेताओं को मिलाकर चलना जरूरी है पर राह आसान होती नहीं दिखती।

रहस्य खोलना भी एक धंधा

कुछ रहस्य खुलने के लिए बनाए जाते हैं। कुछ खुलने के बाद और ज्यादा रहस्यमय वातावरण बनाकर चले जाते हैं। रहस्यों का होना इतना रहस्यमय है, कि जो चाहे वह रहस्यमय ढंग से साधारण चीज को भी रहस्य में बदल सकता है। महान चीजों को सरल ढंग से प्रस्तुत करने के पीछे रहस्य यह होता है कि सरलता अपने आप में एक मूल्य होती है। जैसे आपको पता चल जाए कि वक्त जरूरत टाटा टैक्सी में सफर करते हैं, अंबानी लोकल में जाते हैं, राहुल पैदल निकल पड़ते हैं या अमिताभ बच्चन चौपाटी पर बैठे गोलगप्पे खाते हैं, तो ये अद्भुत रहस्य की तरह लिए जाएंगे, क्योंकि यह सरलता उन्हें महान बना देती है। लेकिन, इसके उलट कुछ टुच्चे रहस्य भी होते हैं। जैसे हाल में रहस्य खुलने का एक लंबा सिलसिला चला। इनमें महान लोगों को टुच्चे कामों में लिप्त दिखाया गया था। कुछ इमारतें, जमीन, फ्लैट, खेल, स्पैक्ट्रम आदि के मामले में साधारण कागजी रहस्यों के शिकार हो गए। देश नहीं हिला, पार्लियामेंट में हंगामा अलबत्ता होता रहा। इस हंगामे का भी कोई मतलब नहीं था, क्योंकि सरकार को जो बिल निकलवाने थे, वह वैसे भी निकाल ले गई। क्रमश: हटाने, निकालने, इस्तीफा दिलवाने की अद्भुत परंपरा के बीच घोषणा हुई कि सबकी निगरानी करने के लिए बने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त भी दागी हैं। सतर्कता आयुक्त महोदय के पास हर आरोप का एक ही रहस्यमय जवाब था, सरकार ने मुझे नियुक्त किया है और मैं काम करता रहूंगा। यानी, सरकार को पता होता है कि कौन क्या है, फिर भी वह इसे रहस्य खुलने की अखंड परंपरा के तहत तब तक चलाती रहती है, जब तक कि कोई अंतत: यह रहस्य खोल ही न दे। क्योंकि, उसे अगर खुले रहस्यों के भरोसे सरकार चलानी पड़े, तो वह एक दिन भी नहीं चल सकता। इसलिए, रहस्य खोलना भी एक धंधा है। इसकी अपनी टाइमिंग होती है। जब सरकार को खुलवाना हो, वह खुल जाता है। बदकिस्मती से जब उसके चाहे बिना खुल जाता है, तो जवाबी रहस्यों का इंतजाम करना पड़ता है। जिसे सब जानते हैं, वह सुबूतों के ठप्पे से महान सच की तरह प्रकट होता है। पर अब जब खुला है, तो रहस्य ही जानिए! विकिलीक्स का पत्रकारिता या सामाजिक कल्याण से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन हम गदगद हैं कि उसने रहस्य खोला कि अमेरिका सोचता है। हम काबुल में एक आतंकी को छोड़कर आते हैं, वह लाहौर में भाषण देता है, पर पाकिस्तान से आतंक का रिश्ता क्या है यह रहस्य खोलने के लिए विकिलीक्स चाहिए।

पारदर्शिता के कड़वे सच

बात सौ टक्के सही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को पारदर्शी बनाने की प्रक्रिया तेजी पर है, लेकिन बात यह भी है कि पारदर्शिता का दावा करने वाली हर नियमों को राजनीतिक गलियारों में या तो मसल दिया जाता है या फिर उसका मुंह काला कर छोड़ दिया जाता है। गुजरे वर्ष के दौरान तो घोटालों की बाढ़ सी आई। देश के कई भाग इस सैलाब में अंदर तक डूब गए। सूचना के अधिकार का अमोघ शस्त्र लगातार संधान किया जाता रहा है। जानकारी से पता चला है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री, एवं मंत्रियों को शपथ लेेने के बाद भले ही अपनी संपत्ति घोषित करने की बाध्यता हो, मगर 1995 से आज तक किसी भी मंत्री ने ऐसा करने की जहमत नहीं उठाई है। यह खुलासा आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली द्वारा प्राप्त सूचना से पता चला है। उन्होंने अपने सवाल में 1995 से मौजूदा कार्यकाल तक मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री, एवं मंत्री ने अपनी घोषित की हुई संपत्ति की जानकारी मांगी थी। सामान्य प्रशासन विभाग के अवर सचिव एवं सूचना अधिकारी डी. ए. शिंदे ने अपने जवाब में स्पष्ट किया है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा केंद्र और राज्य सरकार के मंत्रियों के लिए बनाई गई आचार संहिता में यह प्रावधान किया है कि शपथ लेने के पूर्व एवं मंत्री पद का कार्यभार ग्रहण करने के दो महीने के भीतर प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री अपने तथा अपने परिवार के सदस्यों की संपत्ति के साथ-साथ उनके व्यावसायिक हित-संबंध प्रकट करेंगेे, लेकिन इसका पालन करने की बाध्यता नहीं बताई गई है। हाल ही में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों को पत्र लिखकर उन्हें अपनी संपत्ति घोषित करने का आदेश जारी किया है। इससे पहले विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और अशोक चव्हाण भी ऐसा ही पत्र लिखकर अपने काबीना के लोगों से उनकी संपत्ति घोषित करने का आदेश दिया था। मगर सभी मुख्यमंत्रियों के आदेश सिर्फ रवायत भर के रह गए और किसी भी मंत्री ने ऐसा नहीं किया। ऐसे में यह देखना है कि हाल ही पृथ्वीराज चव्हाण जिन्हेें क्लीन गवर्नेंस के नाम पर यहां लाया गया है, वो अपने मंत्रियों से उनकी संपत्ति की घोषणा करा पाते हैं या नहीं। आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली का कहना है कि महाराष्ट्र सरकार को बिहार की सरकार से कुछ सबक लेना चाहिए, जहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मौखिक आदेश पर ही सभी मंत्रियों ने अपनी संपत्ति की घोषणा कर दी और उसकी सूचना वेबसाइट पर दे दी। अब मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को चाहिए कि वो खुद मिसाल कायम करें और सबसे पहले अपनी संपत्ति को सार्वजनिक करें। इससे दूसरे मंत्रियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ेगा और उन्हें अपनी मिल्कियत बतानी ही पड़ेगी। दरअसल, बिहार में जब से पारदर्शिता की वकालत शुरू हुई है, तब से राजधानी सहित देश के कई भागों में इसकी तोता रट जारी है। बिहार को पिछड़ी नजर से देखने वाले महाराष्ट्र सरीखे प्रदेश के मंत्रियों की लापरवाही ने उन्हें आत्मपरीक्षण का मौका दिया है। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के सामने यह किसी चुनौती से कम नहीं। इसे इस नजर से भी देखने की जरूरत है कि आखिर इतने वर्षों के दौरान क्यों नहीं कड़े संज्ञान लिए गए? अथवा जनप्रतिनिधि कहलाने पर गर्व करने वाले चेहरे खुद आगे क्यों नहीं आए? 15 साल की अवधि कम नहीं होती और इस दौरान की संपति का ब्यौरा फिर किस एजेंसी के द्वारा मुहैय्या कराया जाएगा। सवाल अनुतरित है, जवाब चाहिए।

सामाजिक चोरों की नई जमात

आजकल सामाजिक चोरों की एक नई जमात समाज में फैलती जा रही है। ये चोर रूपए-पैसे की जगह आपके दोस्त और सामाजिक परिचय को चुराते हैं। ये लोग आपके दोस्तों को आप से दूर कर देते हैं। ऐसे लोगों की नजर रसूखदार या पहुंच वाले लोगों पर होती है। जब आप इनको अपने ऐसे दोस्त से मिलाते हैं तो वे धीरे-धीरे उनसे नजदीकीयां बढ़ा लेते हैं। ऐसे लोग तुरंत पहचान लेते हैं कि कौन सा व्यक्ति उनके काम आ सकता है। सिर्फ पुरूष ही नहीं महिलाएं भी सामाजिक चोर होती हैं। महिलाएं भी इस तरह का संपर्क बनाने में माहिर होती हैं। सामाजिक चोरों को आसानी से नहीं पहचाना जा सकता। ये लोग सूरत से इतने मासूम होते हैं कि इन पर शक नहीं होता। ऐसे लोग नजरें बचा कर अपने काम को अंजाम देते हैं। ऐसी महिलाएं किसी पड़ोसिन के साथ यदि उनके किसी रसूखदार रिश्तेदार से मिलेगी तो रिश्तेदार से इतनी दोस्ती कर लेंगी कि आपसे पहले उन्हें आपके रिश्तेदारों की खबर मिल जाएगी। यदि आप लापरवाह स्वभाव के हैं तो ऐसे लोग आपके दोस्त ही नहीं बल्कि आपके सामाजिक जीवन को भी चुरा लेंगी। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसे लोग आगे बढऩे के लिए ऐसा करते हैं। सामाजिक चोर कोई मौका नहीं छोडऩा चाहते जो उन्हें फायदा पहुंचा सकता है। नियम से काम कराने में धैर्य और समय दोनों की जरूरत होती है और जान-पहचान होने से काम आसानी से हो जाते हैं। इससे सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। ऐसे लोग सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर लोगों से संपर्क बनाने की तलाश में रहते हैं। लोकप्रिय होने की इच्छा ऐसे लोगों में इतनी बढ़ जाती है कि ये लोग दूसरों के मोबाइल से नंबर तक चुरा लेते हैं। ऐसे लोग रसूखदारों से दोस्ती की तलाश में रहते हैं। कुछ लोगों का स्वभाव ही इतना दोस्ताना, मिलनसार और मजाकिया होता है कि कि दोस्ती अपने आप होती जाती है लेकिन एक अच्छे दोस्त को चाहिए कि वह कडी के रूप में अपने दोस्त को पीछे धकेल कर किसी से दोस्ती ना करे। फैशन जगत में यह आम आदत हैं। ऐसे लोगों की दोस्ती करने की रफ्तार बहुत तेज होती है। हर व्यक्ति ऐसे से दोस्ती करना चाहता है जो उसके लिए फायदेमंद होता है। सामाजिक चोर ऐसे लोगों से रिश्तों बनाने की जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं। ऐसे लोग कई बार अच्छे दोस्तों में गलतफहमी पैदा कर आपको अपने दोस्त से दूर कर देते हैं। सामाजिक चोर आपके अच्छे और रसूखदार लोगों को आपसे दूर कर खुद उनके नजदीक आ जाते हैं। इसलिए ऐसे लोगों से सावधान रहिए जो आपके दोस्त आप से चुरा लेते हैं।

राहतों के दांवपेंच में बोफोर्स

बोफोर्स की कहानी फिर हिंदुस्तान की राजनीति में हंगामा मचा सकती है। महंगाई और घोटालों से जूझ रही सरकार के लिए बोफोर्स के जिन्न का बोतल से बाहर आना किसी बम फटने से कम नहीं। विपक्ष अपनी आस्तीन पहले से ही चढ़ा चुका है, ताल ठोंकने के दौरान उसे एक और टॉनिक मिल गया है। आयकर अपीलीय ट्रिब्यूनल ने अपने महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि इस मामले में स्वर्गीय विन चड्ढा और इटली के व्यापारी ओटावियो क्वात्रोच्चि को 41 करोड़ रुपए की दलाली दी गई थी। लिहाजा, इस आय पर भारत में कर चुकाना उनका या वारिस का दायित्व बनता है। सालों में भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे मशहूर रहे कांड का नाम बोफोर्स कांड है। इस कांड ने राजीव गांधी सरकार को दोबारा सत्ता में नहीं आने दिया। वी. पी. सिंह की सरकार इस केस को जल्दी नहीं सुलझा पाई और लोगों को लगा कि उन्होंने चुनाव में बोफोर्स का नाम केवल जीतने के लिए लिया था। कांग्रेस ने इस स्थिति का फायदा उठाया और देश से कहा बोफोर्स कुछ था ही नहीं, यदि होता तो वी. पी. की सिंह सरकार उसे जनता के समक्ष अवश्य लाती। सीबीआई की फाइलों में इस केस का नंबर है-आर.सी. 1(ए)/90 ए.सी.यू.-आई.वी.एस.पी.ई.,सी.बी.आई., नई दिल्ली। सीबीआई ने 22.01.1990 को इस केस को दर्ज किया था, ताकि वह इसकी जांच कर सच्चाई का पता लगा सके। इस केस को दर्ज करने के लिए सीबीआई के आधार सूत्र थे- कुछ तथ्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य, मीडिया, रिपोट्र्स, स्वीडिश नेशनल ब्यूरो के ऑडिट रिपोर्ट, ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी की रिपोर्ट में आए कुछ तथ्य और कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट। यद्यपि 1987 के बाद से ही देश में बोफोर्स सौदे को लेकर काफी बहसें और शंकाएं खड़ीं कर दी गईं थीं और इस सवाल को राजनीतिक सवाल भी बना दिया गया था। मामला इतना गंभीर बन गया था कि संसद को संयुक्त संसदीय समिति बनानी पड़ी, लेकिन सरकार ने अपनी जांच एजेंसी को इसकी जांच नहीं सौंपी। जब 1989 में सरकार बदली तब यह निर्णय हुआ कि इसकी जांच कराई जाए, तभी सीबीआई ने इसकी एफआईआर लिखी। सीबीआई ने जब उपरोक्त रिपोर्ट का अध्ययन किया, तब उसे लगा कि 1982 से 1987 के बीच कुछ लोक सेवकों ने कुछ खास असरदार व्यक्तियों के साथ मिलकर आपराधिक षड्यंत्र किया और रिश्वत लेने और देने का अपराध किया है। ये व्यक्ति देश व विदेश से संबंध रखते थे। सीबीआई ने यह भी नतीजा निकाला कि ये सारे लोग धोखाधड़ी, चीटिंग और फोर्जरी के भी अपराधी हैं। यह सब उसी कांट्रैक्ट के सिलसिले में हुआ, जो 24.3.1986 को भारत सरकार और स्वीडन की कंपनी ए.बी. बोफोर्स के बीच संपन्न हुआ था। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। उन्होंने लोकसभा को आश्वस्त किया कि बोफोर्स मामले में कोई बिचौलिया नहीं था और किसी को कोई दलाली नहीं दी गई। घोटाले के खुलासे का असर यह हुआ कि 1989 में कांग्रेस की सरकार को हार का मुंह देखना पड़ा । काफी समय तक राजीव गांधी का नाम भी इस मामले के अभियुक्तों की सूची में शामिल रहा लेकिन उनकी मौत के बाद नाम फाइल से हटा दिया गया। सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी गयी लेकिन सरकारें बदलने के साथ ही सीबीआई की जांच की दिशा भी लगातार बदलती रही। एक दौर था, जब जोगिन्दर सिंह सीबीआई चीफ थे तो एजेंसी स्वीडन से महत्वपूर्ण दस्तावेज लाने में सफल हो गयी थी। जोगिन्दर सिंह ने तब दावा किया था कि केस सुलझा लिया गया है। बस, देरी है तो क्वात्रोच्चि को प्रत्यर्पण कर भारत लाकर अदालत में पेश करने की। उनके हटने के बाद सीबीआई की चाल ही बदल गयी। इस बीच कई ऐसे दांवपेंच खेले गये कि क्वात्रोच्चि को राहत मिलती गयी। दिल्ली की एक अदालत ने हिंदुजा बंधुओं को रिहा किया तो सीबीआई ने लंदन की अदालत से कह दिया कि क्वात्रोच्चि के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं हैं। अदालत ने क्वात्रोच्चि के सील खातों को खोलने के आदेश जारी कर दिये। नतीजतन क्वात्रोच्चि ने रातों-रात उन खातों से पैसा निकाल लिया। बहरहाल, 80 के दशक में भारतीय राजनीति में तूफान लाने वाले बोफोर्स मुद्दे की आज दशकों बाद भी जांच पूरी नहीं हो पाई है, लेकिन यह मुद्दा सरकार के गिरने और बनने की वजह बन चुका है। बोफोर्स का यह मुद्दा ढाई दशकों से राजनैतिक रूप से अहम बना हुआ है। इस मामले से जुड़ी जब भी कोई नई बात सामने आती है यह मुद्दा बोतल से जिन्न की तरह बाहर निकलता है, जिसका इस्तेमाल पार्टियां अपने सियासी मकसद साधने के लिए करती हैं। एक तरफ सीबीआई क्वात्रोच्चि को बोफोर्स मामले में दलाली खाने के मामले में क्लीन चिट देती है तो दूसरे तरफ आयकर ट्रिब्यूनल कुछ और ही कहानी बयां कर रहा है। खैर, इसमें कोई दो राय नहीं कि क्वात्रोच्चि ने इस सौदे को कराने में भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों पर दबाव डाला और सौदा बोफोर्स के पक्ष में कराया। उसने पैसा कहां, कैसे, किन तारीखों में और किन अकाउंटों में ट्रांसफर किया यह एक अलग कहानी है। इतना ही नहीं, उसके भारत के सर्वोच्च राजनीतिक ताकतों और सर्वोच्च नौकरशाहों से कैसे संबंध थे और उन पर कैसा दबाव था, यह भी रहस्यमयी दास्तान है।

नींव में साम्यवादी ईंट

लोगों को मौत के बारे में बातें करते सुना है, बड़ी शान से कहते है कि मौत जीवन का सत्य है। एक दिन तो वह जरूर आएगी। माना कि वह एक दिन आएगी जरूर। पर क्या जरूरी है कि हंसती-मुस्कराती जिंदगी में मौत की चर्चा करना। अगर मौत से इतना ही प्यार है तो फिर इतनी मारा-मारी क्यों? जब एक ना एक दिन सबको मौत ने अपने साथ ले ही जाना है, तो फिर क्यों ये महल, चौबारे, पैसे के पीछे अंधी दौड़ । आजकल यह भी देखा जाता है कि लोग जान-बूझ कर जीवन से खिलवाड़ कर रहे है। मौत को समय से पहले आने का निमंत्रण दे रहे हैं। अजीब सा डर मन में बैठा रहता है कि घर से निकल तो जरूर रहे है, पर क्या वापस घर लौट पाएंगे? हर तरफ दहशत का माहौल बना हुआ है। सामाजिक व्यवस्थाओं को सुचारू ढंग से चलाने वाले अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को कब ईमानदारी से निभाएंगे? यह सवाल हमेशा मन को परेशान रखता है और इसी परेशानी में समय गुजरता जा रहा है? क्या कभी यह सब ठीक हो पाएगा या फिर ऐसे ही...? आज नक्सलवाद देश के लिए विध्वंसक साबित हो रहा है। इन कथित क्रांतिकारियों की गतिविधियों से देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। सुरक्षाबल और पुलिस के सैंकड़ों जवानों सहित अनगिनत निर्दोष लोग; इस कथित आंदोलन के शिकार हुए हैं। इन्हीं खूनी नक्सलियों का समर्थन करने वाले व उनकी गतिविधियों में सहायक की भूमिका निभाने के आरोप में डॉ. विनायक सेन को छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने 24 दिसम्बर को देशद्रोही करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। डॉ. सेन के साथ प्रतिबंधित नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यवसायी पीयूष गुहा को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। विदित हो कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चलाए गए सलवा जुडूम नामक अभियान के खिलाफ डॉ. सेन काफी मुखर रहे हैं। यह अभियान नक्सलियों के सफाए के लिए चलाया गया था। उन्होंने इस अभियान के खिलाफ धरती-आसमान एक कर दिया था। डॉ. सेन पेशे से चिकित्सक एवं 'पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबरटीजÓ की छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव हैं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में ज्यादा चर्चित हैं। इस बात की भी प्रबल संभावना है कि डॉ. सेन ने चिकित्सा की आड़ में भोले-भाले गरीब आदिवासी व वनवासियों को नक्सली आंदोलन से जोडऩे में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने जेल में बंद नक्सली नेता नारायण सान्याल के लिए व्यक्तिगत पोस्टमैन की भूमिका अदा की और जेल अधिकारियों के पूछने पर उनका उत्तर रहता था कि मैं तो सान्याल के घर का हूं, उनका हालचाल जानने आया हूं। लेकिन यह झूठी सूचना ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। डॉ. सेन के संदर्भ में वामपंथी वुद्धिजीवियों और अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग को अदालत का यह फैसला नागवार गुजरा है। इन्हीं वुद्धिजीवियों में से कुछ ने सोमवार को नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया और उनकी रिहाई की मांग की। वामपंथी प्रदर्शनकारियों का कहना था कि डॉ. सेन को जबरन फंसाया गया है। वे यह कतई मानने को तैयार नहीं है कि यह अदालत का फैसला है और इसके बाद अभी ऊपरी अदालतों का निर्णय आना शेष है। आखिर सत्र न्यायालय के फैसले के आधार पर ही सेन साहब को दोषी कैसे मानलिया जाए ? तो फिर ये वामपंथी चिंतक इतने अधीर क्यों हैं ? उनको धैर्य पूर्वक शीर्ष अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए। जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता, सेन साहब सचमुच निर्दोष हैं। वामपंथी बुद्धिजीवियों को भारतीय न्यायिक प्रणाली के तहत अब तक हुए निर्णयों पर भी ध्यान देना चाहिए। भारतीय न्याय प्रणाली की एक बहुत बड़ी विशेषता है और यही विशेषता उसकी रीढ़ है। भले ही न्याय देर से क्यों न मिले लेकिन इस देरी के पीछे मुख्य कारण यह है कि कोई निरपराध व्यक्ति न्यायालय की तेजी का शिकार न हो जाए। उनको न्याय प्रणाली पर भरोसा रखना चाहिए। उनको यह भी विश्वास करना चाहिए कि यदि वास्तव में डॉ. सेन ने देशहित का कार्य किया है तो अंतिम न्यायालय का निर्णय अन्यायपूर्ण नहीं होगा। लेकिन जिस प्रकार वामपंथी वुद्धिजीवियों ने कानून का उपहास किया और फैसले पर आपत्ति की है, वह स्वस्थ परम्परा का द्योतक नहीं कहा जा सकता है। कानून का उपहास करना और न्यायप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना देश की सम्प्रभुता के खिलाफ माना जाना चाहिए। धीरे-धीरे यही कदम देश की सम्प्रभुता के समक्ष मजबूत चुनौती पेश कर सकती है। इसलिए खतरनाक है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी स्थितियां आती हैं कि पुत्र जब ज्यादा बिगड़ जाता है तो पिता लोक-लाज के भय से उसको अपना मानने से ही इन्कार कर देता है। ठीक वैसी ही स्थिति साम्यवाद और नक्सलवाद के साथ है। साम्यवाद का बिगड़ैल पुत्र है नक्सलवाद! साम्यवाद के कर्ता-धर्ता भले ही इससे इन्कार करें, लेकिन सत्य भी यही है। नक्सलवाद की नींव में साम्यवादी ईंट का जमकर प्रयोग हुआ है। यही कारण है कि साम्यवाद एक कृत्रिम विचारधारा के सदृश्य प्रतीत होती है। सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक; कोई भी विचारधारा रही हो, उसका सदा-सर्वदा से यही कार्य रहा है कि वह समाजधारा को अपने अनुकूल करे। लेकिन यह कार्य बड़ा कठिन है या यूं कहें कि यह तपस्या के सदृश है। इस कठिन तपस्या के डर से लोग शार्ट-कट अपनाते हैं। दुनिया की कोई भी विचारधारा हो, यदि वह समग्र चिंतन पर आधारित है और उसमें मनुष्य व जीव-जंतुओं सहित सभी प्राणियों का कल्याण निहित है; तो उसको गलत कैसे ठहराया जा सकता है।

पीढ़ी पर लानत क्यों

कौन बिगड़ रहा है , इसका फैसला किस बात से होता है ? हम कितनी बार बड़ों के पैर छूते हैं , या इस बात से कि हम बस में अपनी सीट किसी बुजुर्ग महिला को दे देते हैं , किसी नेत्रहीन का हाथ पकड़ कर सड़क पार करने में उसकी मदद कर देते हैं ? शायद अपनी जिद पर अड़ जाना , या शायद घर - परिवार की परेशानियों में शिरकत करने के बजाय अपनी धुन में मस्त रहना। क्या खुश रहना गलत है , बेवजह हंसना गलत है , या अपनी सोच को साबित करने की ललक गलत है आज बच्चे पंद्रह साल की उम्र में ही तय कर लेते हैं कि उन्हें क्या करना है , उन्हें जिंदगी से क्या चाहिए। सूचना तकनीक ने आज के युवाओं को सब कुछ एक साथ संभालना सिखा दिया है। दौड़ इतनी तेज है कि सब भाग - भाग के हलकान हो रहे हैं। रुकने का वक्त नहीं है। सड़कों पर मटरगश्ती करने के लिए , सिनेमा हॉल में सीटियां बजाने के लिए। और तो और , बेधड़क ऊंची आवाज में गाने - बजाने के लिए भी। टीवी के सामने बैठे चाचा जी हेलेन का - पिया तू अब तो आ जा - देखते हुए कहते हैं , आजकल के बच्चे सिर्फ नाच - गाने की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। जाहिर है , जोश तेज - तर्रार होगा। कभी - कभार वह आपे से बाहर भी हो सकता है। फिर यह शिकायत आज ही क्यों यह तेजी तो आज से बीस साल पहले के युवाओं ने भी महसूस की होगी और उन्हें भी अपने बड़ों से रास्ता भटकने के ताने ही सुनने पड़े होंगे। घर की पुश्तैनी जमींदारी और पिता की दुकान पर बैठने की जगह खुद अपना काम शुरू करने से लेकर सरकारी नौकरी के लिए कदम बढ़ाने तक सारे ही काम उस पीढ़ी के लिए बिल्कुल नए रहे होंगे। और अगर बात की जाए उससे भी पहले की , यानी साठ - सत्तर बरस पहले वाली पीढ़ी की तो उस वक्त युवा पीढ़ी ने अंग्रेजों की सत्ता को स्वीकार करने की जगह अपनी आजादी और अपनी पहचान के लिए हथियार उठाए थे। जवानी बदनाम थी , बदनाम रहेगी। अभी की पीढ़ी पर लानतें भेजते वक्त लोग अपने दिन भूल क्यों जाते हैं ? क्या इसलिए कि यह पीढ़ी पहले की तरह अपने आदर्शों का ढिंढोरा नहीं पीटती? आज की पीढ़ी मंदिर में हाथ भी जोड़ लेती है और गुरुद्वारे में मत्था भी टेक लेती है। यही नहीं , दोस्तों के साथ चर्च जाकर मोमबत्ती जला आने में भी कोई आपत्ति नजर नहीं आती। जब - तब मजारों पर जाकर इस जेनरेशन के लड़के - लड़कियां अपनी ख्वाहिशों के धागे भी बांध आते हैं।