बुधवार, 15 दिसंबर 2010

लिटमस पर लोकतंत्र

संसद का पूरा शीतकालीन सत्र सत्तापक्ष-विपक्ष के अडिय़ल रवैये का शिकार हो गया। इससे अधिक खेदजनक और क्या हो सकता है कि जो संसद सिर्फ विचार-विमर्श के लिए जानी जाती हो वहां सत्तापक्ष-विपक्ष में संवाद के नाम पर सिर्फ तकरार हुई। शीतकालीन सत्र के आखिरी दिन तो ऐसी स्थिति बनी कि दोनों पक्षों के पास एक-दूसरे के लिए कुछ कहने को ही नहीं था। यह सत्र जिस तरह समाप्त हुआ वह एक प्रकार से संसदीय व्यवस्था की पराजय का सूचक है। संविधान क्या इसकी इजाजत देता है। क्या देश की जनता ने इसी उम्मीद को लेकर जनप्रतिनिधियों को वहां तक पहुंचाया। लोग नहीं बदलना चाहते, सुुविधा के लिए तंत्र को बद देना चाहते हैं। ऐसे लोगों के भरोसे संविधान की गरिमा कब तक अक्षुण्ण है? क्या डॉ. बाबा साहब आंबेडकर द्वारा रचित भारत का संविधान साठ वर्ष उपरान्त इतना कमजोर हो गया है कि उसे पूर्ण कायाकल्प कर बदल दिया जाये? क्या वह संविधान सभा जिसकी अध्यक्षता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे व्यक्तित्व ने की हो आज के राजनेताओं और नौकरशाहों के द्वारा पुनरीक्षण या बदलाव के योग्य है ? आजादी के इतने लंबे समय के बाद देश में कई क्षेत्रों में बदलाव की बयार चली है, जिसमें हमारी संस्कृति, वेश-भूषा, रहन-सहन, पाठन-पठन मे काफी तब्दीली आ चुकी है पर शायद संविधान कोई वस्त्र, भोजन या संस्कृति नहीं है जिसे आसानी से या कठिनाई से बदला जा सके। वस्तुत: हमारा संविधान हमारी आत्मा है जिसने इतनी विषमताओं से जूझने के बाद बड़ी मजबूती से भारत में लोकतन्त्र को जिन्दा रखा है और अब शायद यह लोकतन्त्र परिपक्वहो चुका है। यदि हम अपने लोकतन्त्र की तुलना अपने पड़ोसी देशों के साथ करें। फिर चाहे वह पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका या नेपाल हो, इन सब स्थानों पर लोकतन्त्र में लोक का तन्त्र से संघर्ष सबके सामने है । इस संविधान परिवर्तन की चर्चा में सकारात्मक एवं सार्थक क्या हो सकता है? यदि इस दिशा में सोचा जाये तो बहुत कुछ सम्भव है । ऐसा कहा जाता है कि लोकतन्त्र या गणतन्त्र जनता का, जनता द्वारा एवं जनता के लिये है । सवाल यह है कि क्या सही मायनों में ऐसा ही है? यद्यपि हम विश्व के सबसे सफल गणतान्त्रिक राष्ट्रों में शामिल हैं किन्तु कमी सिर्फ है तो इस गणतन्त्र को पूर्ण रूप से जनहित में बदलने की और यदि कहीं भी किसी बदलाव की आवश्यकता है तो वह इस संविधान को पालन करने और कराने की व्यवस्थाओं में बदलाव की है। जिस भावना और सोच के साथ डॉ. आंबेडकर जैसे विद्वान लोगों ने इसका मसौदा तैयार किया था, वैसी व्यवस्था दुर्भाग्यपूर्णरूप से आज तक इस देश मे नहीं बन पायी है। आज भी इस देश का आदमी रोजी-रोटी और रहने-पहनने की बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है। सबसे पहले परिवर्तन या बदलाव उस व्यवस्था में हो जो आम आदमी के हित का दिखावा कर उसे परेशान कर रही हैं । भ्रष्टाचार आज शिष्टाचार का रूप ले चुका है । वहीं इस लोकतन्त्र पर राजनेता और अफसरशाही सवार हैं, जिन्होंने आम जनता के अधिकारों को कुचल डाला है । और सच यह है जिसे हमें स्वीकार करना चाहिये कि देश का सबसे कमजोर व्यक्ति वह चाहे किसी भी समाज या जाति का हो, इस संविधान से उत्पन्न विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के द्वारा छला एवं ठगा जा रहा है और यह सब उस सड़ी-गली और गन्दी व्यवस्था के मजबूत अंग हैं जो अब भ्रष्ट लोगों के आगे लचर एवं लाचार हो चुकी है । यदि कोई बदलाव करना है तो सबसे पहले उस अफसरशाही पर करें जो आज भी अंग्रेजों की मानसिकता से ग्रसित है और वह अपने आपको इस देश का मालिक मानती है और देश की जनता को गुलामों का दर्जा देकर रखा है। संविधान की जनकल्याण की मूल भावना में सबसे बड़ा रोड़ा यह लालफीताशाही ही है, जिसने कई बार जनता के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भी निकम्मा और नकारा साबित कर दिया है। ऐसा ही कुछ हाल हमारी पुलिस व्यवस्था का भी है जो जनता की रक्षक नहीं भक्षक बन चुकी है । इसी क्रम में हमारी न्यायपालिका भी है । जहां आज कोर्ट में जज के सामने बैठा उसका मातहत कर्मचारी खुलेआम रिश्वत लेकर अगली तारीख देता हो ऐसी न्यायपालिका से इंसाफ की क्या उम्मीद की जा सकती है। ऐसा ही सब कुछ तहसील, नजूल, बिजली, अस्पताल, सिंचाई, सड़क और अनगिनत जगह है । तो हमें देश के इस भ्रष्ट चरित्र को बदलने की आवश्यकता है, ना कि अपने संविधान को।भारतीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभिक वर्षो में विश्व भर में अपनी गहरी होती जड़ों के लिए प्रशंसा प्राप्त की थी। तब स्वतंत्रता सग्राम के तपे और त्यागी व्यक्तित्व के मनीषी राजनीति में प्रवाह की निरंतरता में आए और उन्होंने अपने सिद्धांत तथा मूल्य नहीं बदले। जवाहरलाल नेहरू का इस सबमें महत्वपूर्ण योगदान था। उनके अनेक निर्णयों तथा नीतियों के आलोचक भी इसे स्वीकार करते हैं। उन्होंने प्रधानमत्री पद की गरिमा स्थापित करने में कोई कसर नहीं रखी। इधर वर्तमान प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के अनेक पक्षों की सराहना करने वाले बड़ी दुविधा में रहे हैं। देश की बागडोर हाथ में रखने वाले व्यक्ति की अपनी ईमानदारी ही क्या उसकी श्रेष्ठता का मापदंड बन सकती हैं? क्या वह बड़े-बड़े घोटालों, जनता के कोष का अपव्यय तथा पद के अधिकारों, कर्तव्यों तथा गरिमा से रंच मात्र भी समझौता कर सकता है? आज सविधान के वायदों और निहितार्थो तथा प्रजातंत्र की वास्तविकताओं तथा व्यवहार में जो अंतर भयावह रूप से हर भारतीय के सामने आकर खड़ा हो गया है उससे अब और आख मूंदना देश के लिए घातक होगा। जब देश राष्ट्रमडल खेल, आदर्श सोसाइटी, टेलीकॉम घोटाले पर सारा ध्यान केंद्रित करता है तब वास्तविक राष्ट्रीय प्राथमिकताएं कहीं दूर पीछे छूट जाती हैं। भूखे लोग, कुपोषित बच्चे, कागजों पर चलते स्कूल, जबर्दस्त धन उगाहते प्राइवेट सस्थान आखिर प्राथमिकता सूची में कहां है? 60 प्रतिशत युवा विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आने के आमत्रण दिए जा रहे हैं। हमारे अपने विश्वविद्यालयों की स्थिति में सुधार की केवल घोषणाएं होती हैं। 15-20 प्रतिशत भारतीयों, बच्चों तथा युवाओं के लिए इंडिया शाइनिग, इमर्जिग इंडिया, इकनामिक पावर इंडिया जैसे जुमले सार्थक है। बाकी के लिए योजनाएं, घोषणाएं तथा वायदे हैं। इस स्थिति का घोटालों, भ्रष्टाचार तथा कदाचार से कितना संबंध है या नहीं है, इस पर चर्चा देश भर में आवश्यक है। सवाल है कि क्या सत्ता में बने रहने के लिए प्रजातंत्र के नाम पर सिद्धांतों, मूल्यों तथा सामान्यजन की अपेक्षाओं को नजरअंदाज करना स्वीकार्य हो सकता है? पिछले दशकों में जो कुछ हुआ है उसका प्रभाव कहा-कहा नहीं पड़ा है? उसका प्रभाव व्यवस्था के हर अंग पर पड़ा है, हर व्यक्ति पर पड़ा है और इस सबसे अधिक चिंताजनक है कि इसका प्रभाव स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में बच्चों तथा युवाओं पर पड़ा है। वहा की कार्यसंस्कृति बदल गई है, मानवीय मूल्यों की आवश्यकता पर जोर कम हुआ है। उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों को लोग कई बार अपना नायक मान लेते हैं। जब वे नई पीढ़ी के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन में कोताही बरतते हैं, पद पर अशोभनीय कृत्य करते हैं तब नई पीढ़ी की राह कठिन हो जाती है। उन्हें ऐसा क्षेत्र तथा व्यक्ति ढूंढने में कठिनाई होती जिसको वह अनुकरणीय मानें। वे यह भी जानते हैं कि व्यवस्था में कोई काम कराना हो या उसका अंग बनना हो तो बीच में इतने गति अवरोधक आते हैं कि उन्हें पार करने के लिए उन तत्वों की शरण में जान पड़ता है जहा मानवीयता तथा मानव मूल्यों का कोई महत्व नहीं होता है। आज देश के सामने एक अभूतपूर्व अवसर आया है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध इतना देशव्यापी आक्रोश तथा व्यक्त आक्रोश पहले कभी नहीं देखा गया। इस भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने में कठिन से कठिन कदम उठाने का साहस दिखाने का समय आ गया है। लोग उस व्यक्ति के साथ खड़े होने को उत्सुक तथा तैयार हैं जो यह साहस दिखा सकें।

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