सोमवार, 20 दिसंबर 2010
पेट्रोल की असली आग बाकी है
पांचवीं बार पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी की गई है। यह बढ़ोतरी तेल कंपनियों को हो रहे घाटे की भरपाई के उद्देश्य से की गई है, हालांकि इन कंपनियों का कहना है कि अब भी प्रति लीटर करीब सवा रुपये का नुकसान उन्हें उठाना पड़ेगा। सरकार कह रही है कि उसने जनहित में तेल कंपनियों को पूरी कीमत वसूलने की छूट अभी नहीं दी है। पर जिस तरह से तेल कंपनियों के घाटे और अंतरराष्ट्रीय कीमतों का लगातार संतुलन बिठाया जा रहा है, उसमें सारा बोझ उपभोक्ता के सिर आना तय है। मुद्दा यह नहीं है कि कार-स्कूटर वालों से तेल की वही कीमत क्यों न ली जाए जो तेल कंपनियों को चुकानी पड़ती है। बल्कि मुद्दा यह है कि सरकार को ऑयल मार्केटिंग कंपनियों (ओएमसी) को हो रहे घाटे की तो फिक्र है, लेकिन महंगाई से त्रस्त जनता की नहीं। ओएमसी के घाटे की पूर्ति के लिए सरकार हमेशा ऑयल बॉन्ड जारी नहीं कर सकती। तेल कंपनियां दिवालिया ना हो जाएं, इसके लिए उन्हें ग्राहक से पूरी कीमत लेने की छूट देनी होगी। पर यदि सरकार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें तय करने में तेल कंपनियों की बात मानती है तो जनता को राहत देने के लिए उसे इन कीमतों में शामिल उन टैक्सों के बारे में सोचना होगा जिनका हिस्सा अलग-अलग राज्यों में पेट्रोल की खुदरा कीमत के आधे से ज्यादा है। सरकार कहती है कि पेट्रो पदार्थों पर लग रहे टैक्स के बिना शायद उसका काम नहीं चल पाए, लेकिन सर्विस टैक्स के रूप में आमदनी के नए स्रोत उसने शायद इसी मकसद से बनाए हैं। अगर पेट्रोलियम पदार्थों पर करों का बोझ पहले की तरह बनाए रखा जाता है, तो इन नए टैक्सों का क्या अर्थ है। सरकार पेट्रोल की डीकंट्रोलिंग के फैसले को बेशक ना पलटे, लेकिन इस पर तो गौर करे कि इस वजह से महंगाई कितनी बढ़ सकती है। अजीब बात है कि एक तरफ वह डीकंट्रोलिंग करती है, पर दूसरी तरफ तेल कंपनियों की सब्सिडी रोना भी रोती है।
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