बुधवार, 15 दिसंबर 2010
गिद्धदृष्टिके बाद कागदृष्टि
अमेरिकी राष्ट्रपति के बाद अब चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत यात्रा पर हैं। ओबामा से देश ने क्या पाया, क्यों खोया अभी तक मालूम नहीं हो सका है। जियाबाओ के बाद भी कुछ पता नहीं चलने वाला है। अलबत्ता, कयास जरूर लगाए जासकते हैं। जियाबाओ की यात्रा से एक दिन पहले कराए गए एक सर्वे में साफ कहा गया है कि चीन के प्रधानमंत्री केवल अपने हित साधने के मकसद से आ रहे हैं, न कि भारत के हितों की चिंता करने। मालूम हो कि भारत तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था वाला देश है। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, लेकिन बढ़ती महंगाई से वहां लोगों का हाल बुरा है। इन परिस्थितियों में चीन अपने लिए भारत में बड़ी संभावना, खास कर आर्थिक मोर्चे पर, देखता है। साफ है कि चीन की नजर भारत के बाजार पर है और वेन इसी संभावना को भुनाने के मकसद से आ रहे हैं। इसका पता इसी से चलता है कि उनके साथ अब तक का सबसे बड़ा व्यावसायिक प्रतिनिधिमंडल आ रहा है। दोनों देशों के बीच 20 अरब डॉलर (करीब 88 करोड़ रुपए) के 30 से भी ज्यादा के करार होने हैं। मगर वेन के दौरे से वे सारी बातें गायब हैं, जिसे लेकर भारत-चीन के बीच कड़वाहट घुली हुई है। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद काफी पुराना है। जम्मू-कश्मीर के लोगों को चीन अलग पन्ने पर नत्थी कर वीजा देता है। अरुणाचल प्रदेश के लोगों को अपना नागरिक मानते हुए वह वीजा देने से इनकार करता है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चीन काफी निवेश कर रहा है। आज से लगभग 100 वर्षों पूर्व किसी को भी भास तक नहीं रहा होगा, वैश्विक मंच पर भारत तथा चीन इतनी बड़ी शक्ति बन कर उभरेंगे। उस समय ब्रिटिश साम्राज्य ढलान पर था तथा जापान, जर्मनी तथा अमेरिका अपनी ताकत बढ़ाने के लिए जोर आजमाइश कर रहे थे। नये-नये ऐतिहासिक परिवर्तन जोरों पर थे। आज उन सबको पीछे छोड़ चीन अत्यधिक धनवान तथा ताकतवर राष्ट्र बनकर उभरा है। चीन महाशक्ति बनने की जुगत में है, जिससे भारत को चिन्तित होना लाजमी है, उसकी ताकत निश्चित ही भारत को हानि पहुँचाएगी। लगातार चीनी सेना नई शक्तियों से लैस हो रही है। पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में समुद्र के अन्दर अपने अड्डे बनाकर वह अपनी भारत के प्रति दूषित मानसिकता दर्शा रहा हैं। देखा जाए तो इस समय चीन बेचैन है और उसका कारण भारत की विस्तारवादी विदेश नीति है। चीन अब भारत की विदेश नीति को हल्के में नहीं ले रहा है। चीन के सरकारी अखबार पीपुल्स डेली में यह लिखा जाना कि जापान को भारत ने अपने पाले में लिया है, साधारण बात नहीं है। चीन ने महसूस किया है कि भारत हर उस देश को अपने साथ करेगा जिसका किसी न किसी तरीके से चीन के साथ विवाद है। चीन को पता है कि सीमा विवाद के मसले पर जापान भारत के साथ खड़ा है। चीन के साथ बेशक भारत का व्यापार चालीस अरब डालर से उपर पहुंच चुका है, पर अभी तक इस व्यापार का झुकाव चीन की तरफ है। भारतीय दवाई उद्योग की चीन के बाजार में अभी तक पहुंच नहीं है। इसका सीधा नुकसान भारत को है। चीन पर भारत मुक्त व्यापार पर दबाव डाल रहा है। चीन इसके लिए राजी नहीं है। क्योंकि भारतीय दवाई उद्योग के खुलते ही चीन को नुकसान हो सकता है। पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल तीनों मुल्क गरीब है। इनकी अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है। चीन इन्हें सहायता देकर अपने खेमें करना चाहता है। चीन की इस नीति की काट करते हुए भारत ने चीन की इस नीति के विरोध में मजबूत अर्थव्यवस्था वाले मुल्क जापान, दक्षिण कोरिया आदि को अपने पक्ष में करने की नीति पर चल पड़ा है। साथ ही मध्य एशिया में भी चीन को मजबूती से टक्कर देने के खेल में जुट गया है। भारत को चाहिए 4,054 किलोमीटर सरहदीय सीमा की ऐसी चाक-चौबन्द व्यवस्था करें कि परिंदा भी पर न मार सके। इसके साथ-साथ देश के राज्यीय राजनैतिक शक्तियों को अपने-अपने प्रान्तों को व्यवस्थित करने की अति आवश्यकता है। जिससे वह किसी भी सूरत में भारत की आंतरिक कमजोरी का लाभ न ले सके। देश की सरकार को जल, थल तथा वायु सैन्य व्यवस्थाओं को और अधिक ताकतवर बनाना चाहिए। जिससे चीन भारत पर सीधे आक्रमण करने के बारे में सौ बार विचार करे। 1954 के हिन्दी-चीनी भाई-भाई तथा वर्तमान चिन्डिया के लुभावने नारों के मध्य चीन ने 1962 के साथ-साथ कई दंश भारत को दिये हैं। भारत को आज सुई की नोक भर उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। चीन जैसे छली राष्ट्र के साथ विश्वास करना निश्चित ही आत्मघाती होगा।
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