बुधवार, 15 दिसंबर 2010
नोबेल पर चीन की मर्जी के मतलब
आज से ठीक दस साल पहले जब गाओ जिंग्जियान को साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था, तब भी चीन की प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी आज शांति का नोबल पुरस्कार लू श्याबाओ को दिए जाने पर हो रही है। जो नोबल पुरस्कारों का उद्भव, इतिहास और राजनीति जानते-समझते हैं, वे शायद ही चीन के इस विरोध को बहुत गंभीरता से ले रहे होंगे। यहां यह जानना जरूरी है कि सन अस्सी से लेकर अगले दो दशक तक चीन ने नोबल पुरस्कारों के लिए जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया था। परदे के पीछे लॉबिंग की थी। वहां की सरकार अपने लेखकों को स्वीडेन की यात्राएं कराती थी। नोबल पुरस्कार विजेताओं के साहित्य का संग्रह छापने के लिए चीन अनुदान देता था। दरअसल, चीन के कम्युनिस्ट शासन को इस बात की बहुत चिंता रही कि तमाम चीजों का आविष्कार करने के बावजूद उसकी मेधा को नोबल समिति क्यों नहीं मान्यता देती है। यह चिंता कम्युनिस्ट शासन से राजकीय पूंजीवाद में उसके तब्दील होने की प्रक्रिया से उपजी थी, जो खुद की वैश्विक ज्ञान तंत्र के एक हिस्से के रूप में पहचान की आकांक्षा रखती थी। जब 2000 में गाओ जिंग्जियान को साहित्य का नोबल मिला तो चीन की प्रतिक्रिया बेहद ठंडी थी। तब उसने जिंग्जियान की किताबों को प्रतिबंधित कर दिया था। फर्क बस इतना है कि आज लू श्याबाओ की पत्नीं को नजरबंद कर दिया गया है। दलाई लामा को नोबल मिलने पर भी चीन ने यही रवैया दिखाया था, जो प्रत्यक्षत ज्यादा स्वाभाविक था। दरअसल, चीन के इस विरोध को दो स्तरों पर समझने की कोशिश की जानी चाहिए। सर्वप्रथम, इसका आधार हमें वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज की प्रतिक्रिया में मिलता है, जिन्होंने चीन के पक्ष का समर्थन किया है। उनका मानना है कि यह पुरस्कार पिछले साल ओबामा को दिए गए पुरस्कार जैसा ही है। नोबल समिति को उन्होंने परोक्ष रूप से अमरीकी एजेंट करार दिया है। यह बात कुछ हद तक सतह पर और सतह के नीचे सही दिखती है। ओबामा को जब पुरस्कार मिला, तो राष्ट्रपति के रूप में उनका काम किसी ने देखा नहीं था। आज दो साल बाद भी यदि हम उनके काम का मूल्यांकन करने चलें, तो इसके लिए सिर्फ एक कसौटी काफी होगी। वह हैं- अश्वेत पत्रकार मुमिया अबू जमाल, जो पिछले 28 बरस से जेल में हैं। ओबामा के रूप में एक अश्वेत के राष्ट्रपति बनने से कुछ उम्मीद जगी थी कि इस अन्याय विरोधी पत्रकार की रिहाई हो जाएगी। शायद ओबामा ने उन्हें पिछले दो साल में याद तक नहीं किया। ओबामा की ही तरह लू श्याबाओ को 11 साल की कैद की सजा हुए डेढ़ साल हुए हैं। डेढ़ साल का वक्त बहुत नहीं होता नोबल पुरस्कार मिलने के लिए (यदि हम जेल में रहने को ही नोबल पुरस्कार की कई कसौटियों में एक मान लें तो), क्योंकि नेल्सन मंडेला को जब शांति का नोबल पुरस्कार मिला था तो वह 27 साल जेल में बिता चुके थे- तकरीबन उतना ही वक्त जितना अबू जमाल ने बिताया है। तो फिर सवाल उठता है कि आखिर नोबल समिति ने लू को शांति का नोबल इतनी जल्दी क्यों दे दिया, जबकि उसके हकदार मुमिया अबू जमाल भी हो सकते थे। इतना दूर जाने की भी जरूरत नहीं- हमारे यहां मणिपुर की इरोम शर्मिला इसके लिए कमजोर दावेदार तो नहीं ही हैं, जिन्हें सश बल विशेष सुरक्षा अधिनियम के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठे दस साल हो गए। इसका जवाब खोजने के क्रम में आप महात्मा गांधी को याद कर सकते हैं जिन्हें आज तक नोबल पुरस्कार नहीं दिया गया। गांधी की शख्सियत हालांकि किसी भी पुरस्कार से ज्यादा बड़ी है। सवाल यह नहीं है कि नोबल पुरस्कार मिलने या न मिलने से कोई छोटा या बड़ा हो जाता है। नोबल पुरस्कार, खासकर शांति के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार की तो नींव ही शांति का विरोध है क्योंकि यह पुरस्कार उस व्यक्ति अल्फ्रेड नोबल के नाम पर है, जिसने अशांति फैलाने वाले डायनामाइट का आविष्कार किया था। इसलिए बुनियादी सवाल पर बात करना बेमानी है। नोबल पुरस्कार का हालांकि प्रतीकात्मक महत्व जरूर होता है और विज्ञान व साहित्य के क्षेत्र में तो इसकी विश्वसनीयता है ही। अगर विवादों में कोई भी कोटि आती है तो वह है शांति की, क्योंकि वहां सीधे तौर पर वैश्विक राजनीति जुड़ी होती है। लू को पुरस्कार दिए जाने पर चीन का विरोध, शावेज का चीन सरकार का पक्ष लेना और दलाई लामा द्वारा पुरस्कार का स्वागत करना दरअसल एक ऐसी वैश्विक एक ध्रुवीय राजनीति से जुड़ी चीजें हैं, जिनका हिस्सा नोबल समिति भी है। वह चाह कर भी उससे अलग नहीं हो सकती। शांति के नोबल पुरस्कारों के संदर्भ में विशेष तौर पर इस राजनीति को समझने के लिए हमें पुरस्कार विजेताओं की फेहरिस्त पर भौगोलिक आधार पर भी नजर दौड़ानी होगी। आप पाएंगे कि जहां कहीं अधिनायकवादी सत्ता तंत्र मौजूद रहा है, उन जगहों पर लगभग उन्हीं व्यक्तियों को साहित्य या शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया है, जिन्होंने अधिनायकवाद का विरोध किया है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि मुमिया अबू जमाल अगर अफ्रीका में होते तो शायद उन्हें अब तक यह पुरस्कार मिल गया होता, या फिर इरोम शर्मिला को शायद आने वाले वर्षों में यह पुरस्कार मिल सकता है, जबकि भारत में लोकतंत्र का चरित्र अधिनायकवादी होता जा रहा है (हालांकि यह चीजों का सरलीकरण ही है)। एक वक्त था जब सर्वाधिक नोबल पुरस्कार जर्मनी के नागरिकों को मिलते थे, लेकिन उत्तर-नाजीवादी जर्मनी में यह संख्या घटकर आधी रह गई। जितने यहूदियों को नोबल मिला, वे अधिकांश पश्चिमी देशों के नागरिक थे। चीन के मामले में लू को मिला यह पहला पुरस्कार है जो किसी चीनी नागरिक को मिला है, वरना अब तक चीनी मूल के नौ लोगों को यह पुरस्कार मिल चुका है, जिनकी नागरिकता कहीं और की थी। जिंग्जियान को जब नोबल मिला था, तो वह फ्रांस के नागरिक थे। यही स्थिति अरब देशों की है। वहां जिन पांच व्यक्तियों को अब तक विज्ञान का नोबल मिला है, उनमें तीन ईसाई थे और दो अरब-अमरीकी मुस्लिम। जैसा कि चीनियों के मामले में होता रहा है, वही बात अरब देशों के लिए भी लागू होती है कि जब तक कोई अरबी मूल का व्यक्ति अरब-अमरीकी या गैर-मुस्लिम न रहा हो, उसे नोबल नहीं मिलता। यानी सवा अरब की आबादी वाला चीन उन्हीं वजहों से नोबल नहीं जीत पाया, जिन वजहों से अरब के किसी नागरिक को नोबल नहीं मिला। जहां तक साहित्य के लिए मिलने वाले नोबल की बात है, तो चीन और अरब देशों में एक समानता यह है कि पुरस्कार विजेता लेखक को उसके ही देश में असम्मान से देखा जाता रहा है। इस तरह चीन एक दर्दनाक द्वैत में फंसा हुआ है- वह मानता है कि उसकी संस्कृति अद्वितीय है और साथ ही इस दावे की स्वीकारोक्ति पश्चिम की ओर से चाहता है। लोवेल के लिए यह द्वैत दरअसल बौद्धिक स्वतंत्रता और तानाशाही के बीच का संघर्ष है। मौजूदा अध्याय को समझने के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। जहां तक लू श्याबाओ को शांति का पुरस्कार मिलने पर तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का सवाल है, तो यह समझने के लिए बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी कि इससे न तो चीन की राजसत्ता का चरित्र बदलने जा रहा है, न ही लू जेल से रिहा होने जा रहे हैं। लू को पुरस्कार मिलने का विरोध करने के पीछे यदि चीन और शावेज के राजनीतिक-आर्थिक हित जुड़े हैं, तो उसका समर्थन करने वालों के उससे भी सूक्ष्मतर राजनीतिक आग्रह हैं, जो जाने-अनजाने साम्राज्यवादी हितों का पोषण करते हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें