मंगलवार, 28 दिसंबर 2010
न्यायालयों पर बाजार बुरी तरह से हावी
तारीख पर तारीख और वकीलों की लूट- खसोट, बाप रे बाप! यह उस हर नागरिक की कहानी है जो न्याय पाने के चक्कर में इस अनंतकाल तक चलने वाली पीड़ादायक न्याय प्रक्रिया में पड़ जाते हैं। देखो, गौर करने वाली बात है कि जिसे हम न्याय मान लेते हैं वह न्याय होता भी है क्या? मान लो किसी सुदूर गांव में कोई घटना घटती है, चाहे वह जमीन का मामला हो या हत्या का ही हो। शुरू में न्याय के लिए जिसका दरवाजा खटखटाया जाता है वह होती है पुलिस, जिसे आपको न्याय दिलाने में कोई भी दिलचस्पी नहीं है। और वहीं से शुरू होता है आपके शोषण का सिलसिला जो जिला कोर्ट, हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाता है। न्याय तो एक ही होता है किसी भी मामले के लिए, लेकिन यहां एक ही संविधान में, एक ही देश में, एक ही व्यक्ति के लिए और एक ही केस में तीनों कोर्ट तीन तरह के फैसले सुना देते हैं। हत्या के किसी मामले में अगर जिला कोर्ट फांसी सुनाता है तो हाई कोर्ट उम्र कैद और वहीं सुप्रीम कोर्ट उसे बाइज्जत बरी भी कर सकता है। यहां एक प्रश्न उठता है कि कोर्ट में फैसले सुबूत के आधार पर होते हैं या फाइल के आधार पर? कोर्ट तो कहता है सबूत के आधार पर। लेकिन सुदूर क्षेत्र का सबूत शहर में बैठे जज साहब और बहस करते वकील साहब के पास कहां से आएगा और अगर सबूत आता है तो तीन कोर्टों में तीन तरह के फैसले क्यों सुनाए जाते हैं। एक कहावत है हमारी परम्परा में कि न्याय तो त्वरित होना चाहिए और मुफ्त होना चाहिए। आज जहां किसी मामले के निपटारे में कोर्ट 20 वर्ष भी लगा देता है तो त्वरित होने की बात स्वत: ही खत्म हो जाती है और मुफ्त न्याय की बात तो मजाक ही लगती है, क्योंकि न्यायालयों पर बाजार बुरी तरह से हावी है। न्यायालय परिसर में घुसते ही वकीलों और दलालों की जो लूट-खसोट मचती है, उसकी अपेक्षा तो कभी-कभी चोर और डाकू भी ज्यादा मानवीय लगते हैं। यह न्याय नहीं बल्कि अन्याय प्रक्रिया है। अगर न्याय होना है तो इसका भी विकेंद्रीकरण करना पड़ेगा और न्याय करने का अधिकार गांवों और कस्बों को तो देना ही पड़ेगा। न्याय अविलम्ब हो, इसके लिए न्याय तो मौके पर ही मिलना चाहिए। पंच परमेश्वर की प्रतिष्ठा जो इन कोर्ट, कचहरी और थानों से खण्डित हुई, उसे थोड़ा बहुत युगानुकूल सुधार के साथ प्रतिस्थापित करना ही पड़ेगा। चीन के राजा ने लाओ-त्जु से अपने न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश बनने का अनुरोध किया और कहा कि सम्पूर्ण विश्व में आप जितना बुद्धिमान और न्यायप्रिय कोई नहीं है। आप न्यायाधीश बन जायेंगे तो मेरा राज्य आदर्श राज्य बन जायेगा। लाओ-त्जु ने राजा को समझाने का बहुत प्रयास किया कि वे उस पद के लिए उपयुक्त नहीं हैं लेकिन राजा नहीं माना। लाओ-त्जु ने कहा कि आप मेरी बात नहीं मान रहे हैं लेकिन मुझे न्यायालय में एक दिन कार्य करते देखकर आपको अपना विचार बदलना पड़ेगा। आप मान जायेंगे कि मैं इस पद के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। वास्तव में सम्पूर्ण व्यवस्था में ही दोष है। आपके प्रति आदरभाव रखे हुए ही मैंने आपसे सत्य नहीं कहा है। अब या तो मैं न्यायाधीश बना रहूंगा या आपके राज्य की कानून-व्यवस्था बनी रहेगी। देखें, अब क्या होता है। पहले ही दिन न्यायालय में एक चोर को लाया गया, जिसने राज्य के सबसे धनी व्यक्ति का लगभग आधा धन चुरा लिया था। लाओ-त्जु ने मामले को अच्छे से सुना और अपना निर्णय सुनाया -चोर और धनी व्यक्ति, दोनों को छ: महीने का कारावास दिया जाए। धनी ने कहा-आप यह क्या कर रहे हैं? चोरी मेरे घर में हुई है! मेरा धन चुरा लिया गया है! फिर भी आप मुझे जेल भेजने का निर्णय कर रहे हैं!? यह कैसा न्याय है? लाओ-त्जु ने कहा-मुझे तो लगता है कि मैंने चोर के प्रति न्याय नहीं किया है। तुम्हें वास्तव में अधिक लम्बा कारावास देने की आवश्यकता है क्योंकि तुमने आवश्यकता से अधिक धन जमा करके बहुत से लोगों को धन से वंचित कर दिया है! सैकड़ों-हजारों लोग भूखे मर रहे हैं लेकिन तुम्हारी धनसंग्रह करने की लालसा कम नहीं होती! तुम्हारे लालच के कारण ही ऐसे चोर पैदा हो रहे हैं। अपने घर में होनेवाली चोरी के लिए तुम ही जिम्मेदार हो। तुम अधिक बड़े अपराधी हो। कहना न होगा कि राजा ने लाओ-त्जु को अपने पद से उसी दिन मुक्त कर दिया। यह घटना आज भी प्रासंगिक है। न्याय वास्तव में किसके लिए हो, यह विचारणीय है। आज न्याय के नाम पर लटकाने की प्रवृति चल पड़ी है। सक्षम जानते हैं कि लंबी अवधि के रेस में सब घोड़े नहीं टिकते। लिहाजा न्याय को लेकर रोना किस बात का?
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