मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

गतिरोध जीत गया

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की आंच से आखिरकार मनमोहन पिघल ही गए। संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की विपक्षी दलों की मांग पर अड़े रहने के बीच उन्होंने लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी को लिख ही दिया कि वह स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में पेशी को तैयार हैं। जैसा कि याद होगा प्रधानमंत्री ने कांग्रेस महाधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा था कि वह इस मामले की जांच के लिए संसदीय समिति लोक लेखा समिति (पीएसी) के समक्ष पेश होने को तैयार हैं। मनमोहन की मंशा साफ है और वह कुछ नहीं छिपाना चाहते। सिंह ने पत्र ऐसे दिन लिखा है जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय ने संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) को 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर अपनी रिपोर्ट के बारे में जानकारी दी। कैग की रिपोर्ट में 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन में 1.76 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा बताया गया है, जिसके चलते संसद के पूरे शीतकालीन सत्र की कार्यवाही बाधित रही।नि:संदेह 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले बहुत बड़ा है। इस मामले का संबंध इससे है कि क्यों प्रधानमंत्री ने टेलिकॉम मिनिस्ट्री के लिए एक खास पार्टी के एक खास व्यक्ति का चुनाव किया। और क्यों उन्होंने टेलिकॉम पॉलिसी बनाने का काम एक खास पार्टी (डीएमके) पर छोड़ दिया। जब इन मुद्दों को लेकर प्रधानमंत्री संदेहों के घेरे में हैं, तो उन्हें शक से बरी कैसे माना जा सकता है? खुद कांग्रेस बैकफुट पर है। कारण सीएजी रिपोर्ट के खुलासे और स्पेक्ट्रम घोटालों की जानकारी के बावजूद वह अनजान बनी रही! जब सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद तूफान मचा है और प्रधानमंत्री सवालों के घेरे में हैं। मगर यह सरकार के लिए नई बात नहीं है। चाहे सीएनजी का मामला हो या कॉलेजों में रैगिंग या खुले में खाद्यान्न सडऩे का मामला; कार्यपालिका-विधायिका ने स्पष्ट दिशा-निर्देश के लिए अदालत का ही मुंह ताका, ताकि जनता की नाराजगी के जोखिम से बचा जा सके। बड़े भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति देने में सरकार जान-बूझकर विलम्ब करती है जिससे कानून के हाथ उन तक न पहुंच सकें। कांग्रेस अपने राजनीतिक ईमान पर लगे ग्रहण से वह बेचैन और बेबस है। आमजन में उसकी छवि भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने की बनती जा रही है, जिससे उसकी संसद के अंदर और बाहर फजीहत हो रही है। इसके चलते आम धारणा बन रही है कि सत्ता के लिए कांग्रेस कुछ भी कर सकती है। उसके शासन काल में बड़े घोटाले हो रहे हैं और वह जान-बूझकर मूकदर्शक बनी है। क्या कांग्रेस जनमानस में बनती यह छवि तोड़ पाएगी! इसके लिए उसे दृढ़ता दिखाने की जरूरत है, अन्यथा उसकी छवि पर भ्रष्टाचारियों को आश्रय देने के लगे दाग की भारी कीमत, आने वाले दिनों में चुकानी पड़ सकती है। कांग्रेस को आज अपने अतीत से सबक लेने की जरूरत है। 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव पर अपनी अल्पमत सरकार को बहुमत में बदलने के लिए झामुमो सांसदों को रिश्वत देने का आरोप था। मामला अदालत गया जिसमें वह कटघरे में थे। उस समय भी पार्टी की खूब भद्द पिटी थी। यूपीए-एक में भी परमाणु करार को लेकर संसद में विश्वासमत के दौरान मनमोहन सरकार पर भाजपा सांसदों को पैसा देने का आरोप लग चुका है। उस समय सांसदों ने पैसे को सदन में दिखाया था, जिसको लेकर सरकार की किरकिरी हुई थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति संविधान, विधि और न्याय से ऊपर नहीं है, चाहे वह देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। प्रधानमंत्री तो इस लोकतंत्र के मुखिया हैं, वह मंत्रिपरिषद के प्रमुख हैं, तो उन पर इसका उत्तरदायित्व दूसरों से कहीं ज्यादा है कि कैसा भी संदेह उन पर नहीं किया जा सके। इसकी पूरी जिम्मेदारी उन्हीं पर है कि अगर उनके मंत्रिमंडल का कोई सदस्य संदिग्ध आचरण करता है तो वह उस पर संविधानसम्मत कार्रवाई करें और इस तरह स्वयं पर कोई आक्षेप लगने की स्थिति पैदा नहीं होने दें। लगभग दो दशक से देश में गठबंधन सरकार है। क्षेत्रीय दल खूब सौदेबाजी करते हैं, यह जग-जाहिर है। इसलिए गठबंधन धर्म के निर्वहन के लिए राजनीतिक आचार संहिता जरूर बननी चाहिए। कांग्रेस, जिसे अपने सहयोगी दल द्रमुक के भ्रष्टाचार के चलते बगलें झांकनी पड़ रही हैं, को इस घटना से सबक लेना चाहिए। उसे सहयोगियों के साथ आम सहमति से यह तय करना चाहिए कि किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगने पर उसे स्वत: नैतिकता के आधार पर पद त्याग देना चाहिए। तभी सहयोगी दलों के भ्रष्ट कारनामों पर रोक लग सकेगी। साथ ही यह भी होना चाहिए कि जिस विभाग का भ्रष्टाचार उजागर हो, वह विभाग स्वत: सम्बंधित सहयोगी दल के कोटे से हट जाए। मुमकिन है इस तरह के कुछ ठोस उपायों से कांग्रेस की जन छवि में सुधार हो सके।आम जन में उसकी तस्वीर भ्रष्टाचारियों के शरणदाता की बन गई है।

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