बुधवार, 15 दिसंबर 2010

10 लाख की गाड़ी में ब्रेक नहीं

मेरी समझ में यह नहीं आता कि दस लाख की गाड़ी चलाने वालों को दस सेकंड रुकना भी भारी क्यों लगता है? वह क्यों अगले दस मिनट के बारे में नहीं सोचते? सड़क पर चलने वाले दस लोगों के बारे में भी वह क्यों नहीं सोचते? लगता है स्टंट करने वाले युवकों को न तो अपने जीवन से प्यार है न ही अपने परिवार के सदस्यों की चिंता। युवावस्था में जोश रहता है, जीवन के प्रति उमंग और उत्साह रहता है। हो सकता है इसकी अभिव्यक्ति युवा तेज गति से गाड़ी चलाकर करते हों। लेकिन इसमें कई बार वे अति कर डालते हैं और जीवन को दांव पर लगा देते हैं। पर क्या इसके लिए हम सब भी जिम्मेदार नहीं हैं? जीवन में इस तेज गति का जो नशा उनमें दिख रहा है, वह समाज की ही देन है। वे अपने घर और परिवार में देख रहे हैं कि किस तरह की आतुरता हर किसी में समाई हुई है। महानगरों में खासतौर से यह बात है। एक तो इन शहरों का स्वरूप ही ऐसा है कि जीवन में अपने आप भागदौड़ आ जाती है। लेकिन हम व्यावहारिक वजहों से ही दौड़धूप नहीं कर रहे, गति हमारे जेहन में समा चुकी है। लोग जल्दी से जल्दी सब कुछ पाना चाहते हैं। किसी को रातोंरात समृद्धि चाहिए किसी को प्रसिद्धि चाहिए। एक युवा यह सब अपने तरीके से ग्रहण कर रहा होता है। वह रफ्तार को ही जीवन का निर्णायक तत्व मान लेता है। धीमा चलना उसके लिए पिछड़ेपन का पर्याय बन जाता है। सड़क पर पिछडऩे को वह जीवन में असफलता के रूप में देखने लग जाता है। दिक्कत यह है कि हम युवाओं से संवाद भी नहीं कर रहे हैं। नई पीढ़ी को हम गंभीरता से समझा नहीं पा रहे कि रफ्तार सफलता की अनिवार्य शर्त नहीं है। तेज चलने से ही सब कुछ नहीं हासिल हो जाता। गाड़ी चलाते हुए डर लगने लगा है। कम भीड़-भाड़ वाली सड़क पर पीछे से आ रही एक कार लगभग 100 की स्पीड से बहुत सी गाडिय़ों को बायीं ओर से क्रॉस करती हुई आगे एक टर्न पर अपना बैलेंस खो बैठी और फुटपाथ से जा टकराई। शुक्र है कि कार चलाने वाले युवक को मामूली चोट आई और पास के अस्पताल से ही उसकी मरहम-पट्टी भी हो गई। लेकिन गाड़ी की जो दशा थी उसके लिए युवक का जवाब था- बीमा कंपनी देख लेगी। आखिर यह भावना क्यों घर कर गई है? क्यों नहीं है जीवन से मोह, अपना हो या पराए की।

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