बुधवार, 22 दिसंबर 2010

गुम होता बचपन

'अर्पाटमेंट कल्चरÓ आज देश के कई शहरों में बड़ी तेजी से अपने पांव पसार रहा है, जिसका उदाहरण मध्यम और छोटे श्रेणी के शहरों में घरों की जगह पर लगातार बहुमंजिला भवनों का बनना है। तेज रफ्तार दौड़ती जिन्दगी में आज अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस अर्पाटमेंट आम लोगों की पहली पसंद बनता जा रहा है। लोगों का रूझान अब भूमि खरीद कर मकान बनाने की बजाए फ्लैट लेने में ज्यादा दिखाई पड़ रहा है, लेकिन इस कल्चर की वजह से बच्चों का बचपन गुम होता जा रहा है क्योंकि न तो अब उन्हें खेलने के लिए घर के आगे बड़े-बड़े मैदान मिल रहे हैं , न ताजी हवा के लिए छत ही नसीब हो रही है। बस महज दो से चार कमरों के फ्लैट में उनका बचपन सिमटता जा रहा है। उंची-ऊंची इमारतों के बीच मासूम बच्चों का बचपन खोता जा रहा है। सुबह से लेकर दोपहर तक बच्चों की दिनचर्या स्कूल के बैग के बोझ तले ही दबी रहती है। खाली समय में वह थोड़ी मस्ती भी करना चाहे तो इस के लिए उन्हें खाली जगह नहीं मिलती। छत पर खेलने पर पाबंदी होती है क्योंकि नीचे के फ्लैट में रहने वाले पड़ोसी को शोर पसंद नहीं होता। बच्चे यदि नीचे खेलने जाएं तो गाडिय़ों का डर बना रहता है। बाल मनोविज्ञानिकों की राय में जो बच्चे शारीरिक खेल नहीं खेलते उन में सहन क्षमता कम होती है और उन के स्वभाव में चिड़चिड़ापन हमेशा रहता है। साथ ही वे दूसरे बच्चों की अपेक्षा ज्यादा भावुक और हीन भावना से ग्रसित होते हैं। ऐसे बच्चे धीरे-धीरे अंर्तमुखी होते जाते हैं। इस कारण कई बच्चों का न तो शारीरिक विकास हो पाता है, न ही वे मानसिक रूप से दृढ़ बन पाते हैं। अपार्टमेंट कल्चर में जगह की कमी की वजह से परिवार भी एकल होते जा रहे हैं क्योंकि संयुक्त परिवार जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची समेत अन्य लोग साथ होते थे, उनके लिए अब साथ रहना असंभव हो गया है। इससे बच्चे जहां एक ओर दादा-दादी समेत अन्य बड़े बुजुर्गो के प्यार से वंचित रह जाते हैं वहीं दूसरी ओर उन्हें उनसे मिलने वाले ज्ञानवर्धक बातों का ज्ञान नहीं मिल पाता है।

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