बुधवार, 15 दिसंबर 2010
नागरी कलेवर में रोमन
हिंदी को रोमन लिपि में लिखने के फायदे-नुकसान को जांचा-परखा जाए और उसके प्रति एक वैज्ञानिक रवैया अपनाया जाए। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि मानव समाज में भाषा और लिपि को बदलने का काम बहुत कठिन, जटिल और बहुपक्षीय होता है। बहुत-से देश इसका प्रयास ही नहीं करते क्योंकि यह एक तरह से जन-भावनाओं से छेड़छाड़ करने वाला काम माना जाता है। मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले, जिनकी तादाद कुछ ही साल बाद लाखों से बढ़ कर करोड़ों तक पहुंच जाएगी, अच्छी तरह जानते हैं कि निजी और कारोबारी किस्म के एसएमएस हिंदी में आते और जाते हैं। इसकी पहली वजह यह है कि कारोबारी एसएमएस भेजने वाले जानते हैं कि आमतौर पर लोग हिंदी समझते हैं या अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी अच्छी तरह और जल्दी समझ लेते हैं लेकिन उनमें बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो हिंदी लिपि नहीं पढ़ सकते या पढऩे में कठिनाई महसूस करते हैं। विज्ञापन जगत बहुत जागरूक, चतुर और चालाक है जो संचार के नियमों से परिचित है और उसका पूरा उपयोग करता है। संचार का एक मोटा सिद्धांत यह है कि संप्रेषण सीधा हो, उसमें जटिलता या प्रभावी वर्ग के लिए असुविधा न हो। एसएमएस के बाद या पहले ई-मेल का नंबर आता है। हिंदी जानने-बोलने और समझने वाले एक दूसरे को ई-मेल हिंदी में भेजते हैं लेकिन प्राय: लिपि रोमन होती है। इसके कारण भी वही हैं जो रोमन लिपि में एसएमएस भेजने के हैं। यह सब किसी योजना या आंदोलन या समझी-बूझी राजनीति के बगैर हो रहा है। ऐसा नहीं है कि नागरी लिपि जानने और समझने वालों की संख्या नहीं बढ़ रही है, लेकिन उन लोगों की तुलना में, जो हिंदी समझते-बोलते हैं मगर नागरी लिपि नहीं जानते, यह संख्या बहुत नहीं बड़ी है। यही वजह है कि विज्ञापन जगत का हिंदी प्रेम जाग रहा है। आज अंग्रेजी विज्ञापनों में जितने हिंदी शब्द आ रहे हैं उतने पहले कभी नहीं आए। लेकिन विज्ञापन जगत में हिंदी भाषा का आगमन नागरी लिपि में नहीं बल्कि रोमन लिपि में हो रहा है। हिंदी स्कूलों की स्थिति लगातार गिर रही है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति जनता का उत्साह बढ़ रहा है। हिंदी माध्यम स्कूल अब सिर्फ गरीबों के बच्चों के लिए रह गए हैं जो हिंदी माध्यम में शिक्षा पाकर प्राय: (अपवादों को छोड़ दें) गरीब ही बने रहते हैं। हिंदी में अंग्रेजी की तुलना में न तो अच्छी पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध हैं और न पढऩे-पढ़ाने की विकसित तकनीक ही है। पचास करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी की आज जितनी दुर्दशा है उतनी दुर्दशा पांच और दस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं जैसे पोलिश, चेक, हंगेरियन, फिनिश आदि की भी नहीं है। हिंदी भाषा की इस दुर्दशा की जिम्मेदारी हम दूसरों पर नहीं डाल सकते। इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं, हमारी सरकार जिम्मेदार है। लेकिन बोलने वाले लोगों की संख्या के आधार पर विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा हिंदी ने मीडिया के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किए हैं वे संभवत: अतुलनीय हैं।
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