बुधवार, 15 दिसंबर 2010
शह और मात के खेल में दिग्गी राजा
यह सही है कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह अपने भूतपूर्व और अभूतपूर्व राजनैतिक अभिभावक रहे अर्जुन सिंह की हर दशा और दिशा में नकल करने की कोशिश करते हैें लेकिन अपने गुरु जैसा दुस्साहस और प्रतिभा शायद दिग्विजय में उतनी नहीं हैं इसीलिए वे मुसीबतों में इतने फंस जाते हैं कि खुद भूल जाते हैं कि आखिर उनकी असली पॉलिटिक्स क्या है? मध्य प्रदेश में आप किसी भी कांग्रेसी से बात कर लीजिए। वह बगैर एक पल लगाए कहेगा कि ठाकुर दिग्विजय सिंह की शैली में ठाकुर अर्जुन सिंह की छाया और पद्चिन्ह साफ नजर आते हैं। यह बात अलग है कि अर्जुन सिंह हर बार अपने शब्दों पर टिके रहते हैं और दिग्विजय सिंह को करकरे के फोन के विवरण सामने आने के बाद बात बदलनी पड़ती है। करकरे वाले पूरे मामले पर कांग्रेस में आम धारणा यह है कि दिग्विजय सिंह मुस्लिम वोट बैंक के हिसाब से कांग्रेस के मुलायम सिंह यादव बनना चाहते हैं और उनका निशाना चिदंबरम पर हैं। अर्जुन सिंह को अप्रासंगिक मानने वाले भूल जाते हैं कि अर्जुन सिंह ने सीधे प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव से पंजा लड़ाया था। पहले बाबरी मस्जिद को नहीं बचा पाने का सवाल था और अर्जुन सिंह ने मंत्रिमंडल का सदस्य होने के बावजूद इस घटना को पाप बताया था। नरसिंह राव ने ऐलान किया था कि यह उनकी जिंदगी का सबसे दुख का दिन है। यह सब होता रहा था। नरसिंह राव कल्याण सिंह पर इल्जाम लगाते रहे थे कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने वायदे तोड़े और विश्वासघात किया। अर्जुन सिंह उनके बयान का मजाक उड़ाते रहे लेकिन दोनों रहे एक ही मंत्रिमंडल मेंं। अर्जुन सिंह ने नरसिंह राव की कांग्रेस तब छोड़ी जब सोनिया गांधी का सवाल आ गया था। दिग्विजय सिंह तो तब भी साथ नहीं थे। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री के तौर पर इसके भी दस साल पिछड़े वर्ग के विकास के लिए जब अर्जुन सिंह ने महाजन आयोग बिठाया था तो- शायद 1981 की बात है, उच्च न्यायालय ने आयोग की सिफारिशों पर रोक लगा दी थी। अर्जुन सिंह पर इल्जाम लगाया जाता है कि उन्होंने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई नहीं लड़ी। मनमोहन सिंह की सरकार सर्वोच्च न्यायालय के कितने फैसलों के खिलाफ लड़ रही है? फिर 1990 में तिवारी कांग्रेस बनाने वाले अर्जुन सिंह 1997 में यानी राव के पराभव के बाद वापस लौट आए थे और उस समय सोनिया गांधी सीताराम केसरी को आदेश देने के हालत में आ गई थी। जहां तक दिग्विजय सिंह की बात है तो अर्जुन सिंह ने तो तेंदू पत्ता नीति बना और लागू कर के लाखों जंगल के मजदूरों का भला किया था लेकिन दिग्विजय सिंह तो ठहाके मारते रहे और ऐलान पर ऐलान करते रहे मगर उनके ऐलानों की असलियत यह थी कि दलित एजेंडा लागू करने के बावजूद दलितों के प्रति उनके ही राजकाज में सबसे ज्यादा अत्याचार हुए और विकास को अपना मूल मंत्र बनाने वाले दिग्विजय सिंह उमा भारती से 2003 में बिजली, सड़क, पानी के मुद्दे पर ही चुनाव हार गए। तब उन्होंने कोई भी राजनैतिक या सरकारी पद नहीं लेने का ऐलान किया था लेकिन कांग्रेस की महासचिव बन गए और चूंकि पार्टी के सच्चे सिपाही हैं इसलिए उन्हें अगर मंत्री बनने के लिए कहा जाएगा तो अपनी कसम भूल जाएंगे। दिग्विजय सिंह वाकई भारतीय राजनीति में अपनी पीढ़ी के सबसे सुदर्शन और सम्मोहक राजनेता हैं लेकिन उनकी राजनीति क्या है यह बताने की तकलीफ उन्होंने कभी नहीं की। वे आजमगढ़ वालों को या उनमें से कुछ को आतंकवादी मानते हैं या नहीं। बाटला हाउस मुठभेड़ के बारे में उनकी क्या राय है? चिदंबरम से उनकी असली शिकायत क्या है? जिनकी उंगली पकड़ कर राजनीति में चलना सीखे थे उन अर्जुन सिंह का खुल कर संकटों में साथ क्यों नहीं दिया? कुल मिला कर सवाल यह है कि दिग्विजय सिंह को साफ करना पड़ेगा कि उनकी राजनीति है क्या? यह सही है कि हेमंत करकरे मध्य प्रदेश के मूल निवासी हैं और इसलिए मध्य प्रदेश के बड़े नेता और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को मृत्यु के दो घंटे पहले उनका फोन किया जाना किसी को अटपटा नहीं लग सकता। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से दिग्विजय सिंह इन दिनों चौकाने वाली और गलत समय पर सही और सही समय पर गलत बात कहने वाले नेताओं में गिने जाने लगे हैं। 26/11 को शहीद हुए हेमंत करकरे के बारे में अचानक दिग्विजय सिंह ने बयान दे दिया कि मरने के दो घंटे पहले जब शायद उन्हें पता नहीं था कि मुंबई पर आतंकवादी हमला बोलने वाले हैं या बोल चुके हैं, श्री करकरे ने उन्हें फोन किया था और कहा था कि चूंकि मालेगांव हादसे की वे जांच कर रहे हैं इसलिए हिंदू आतंकवादी उन्हें लगातार धमकीयां दे रहे हैं और उनसे जान का खतरा है। अभी तक मामला यही बना हुआ है कि हेमंत करकरे पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले को असफल बनाने की कोशिश मे मारे गए। सरकारी रिकॉर्ड में यहीं हैं और मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड रूम में भी यही लिखा है। ल्ेकिन एक तो दिग्विजय सिंह ने जो कहा वह कहने में इतनी देर क्यों लगाई और दूसरे जो कहा उसको कहने की जरूरत क्या थी यह किसी की समझ में नहीं आ रहा है। दिग्विजय सिंह कोई सड़क छाप नेता नहीं हैं और दो बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। कांग्रेस में भी उन्हें खासा जिम्मेदार माना जाता है। लेकिन उनकी जिम्मेदारी अचानक उन्हें उलझन मे डाल रही है। सबसे पहले तो दिग्विजय सिंह बाटला हाउस मुंबई मुठभेड़ के शिकारों या कम से कम उसमें शामिल लोगों से मिलने के लिए सरायमीर आजमगढ़ पहुंच और बयान दे डाला कि यहां के लोग निर्दोष हैं। जिस मामले की जांच चल ही रही हो और जिसमें भारत, अमेरिका, पाकिस्तान तीनों शामिल हों तो जाहिर है कि भारत में राज कर रही एक पार्टी के नेता को ऐसा तितर बितर बयान नहीं देना चाहिए। लेकिन दिग्विजय सिंह तो बयान दे चुके थे। कांग्रेस मेें भी बहुत सारे लोग उनकी इस बयानबाजी से नाराज हैं। कांग्रेस को उनका सबसे बड़ा खैरख्वाह साबित करने के लिए दिग्विजय पहले भी सीमाएं तोड़ते रहे हैं। वे बटला हाउस कांड में मारे गए आतंकियों के घरवालों से मिलने न सिर्फ आजमगढ़ गए, बल्कि उनके परिजनों को लेकर गृह मंत्रालय से लेकर कांग्रेस आलाकमान तक पैरवी करते नजर आए। साथ ही संघ परिवार और भाजपा पर हिंदू आतंकवाद के पोषण का आरोप लगाते हुए खूब हमलावर नजर आए। नक्सलियों के खिलाफ आक्रामक अभियान के मुद्दे पर वह सीधे गृह मंत्री पी. चिदंबरम से टकरा गए। इस मामले में भी पार्टी ने पहले उनके बयान से कन्नी काटी, लेकिन बाद में कांग्रेस अध्यक्ष भी दिग्विजय की लाइन को पुष्ट करती दिखीं। मगर इस दफा मामला ज्यादा ही आगे निकल गया। दिग्विजय की कोशिश तो मुसलिमों के बीच पैठ बनाने की थी, लेकिन मामला कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गया। शहादत पर सियासत के आरोप के साथ-साथ कांग्रेस महासचिव पाकिस्तान को मजबूती देते दिखे। इसका परिणाम यह हुआ कि दिग्विजय को सफाई के लिए मजबूर होना पड़ा। खुद पार्टी ने तीसरी बार दिग्विजय सिंह के किसी भी बयाने से अपने आपको अलग कर लिया है। दिग्विजय ंिसह के विरोधियों का कहना है कि यह बयान श्री सिंह ने आजमगढ़ की अपनी यात्रा के संदर्भ से ध्यान हटाने के लिए दिया हैं और ऐसा इसलिए हुआ है कि वाराणसी के बम विस्फोट में आजमगढ़ के बहुत सारे लोगों के शामिल होने का पता चला है। इसलिए वे एक बड़े दुर्भाग्य को एक छोटे दुर्भाग्य की ओर ले जाना चाहते हैं। लेकिन कांग्रेस आजकल क्षमा दान के मूड में नहीं है। प्रधानमंत्री ने तो इस बार खामोशी रखी लेकिन सोनिया गांधी ने इशारे ही इशारे में कह डाला कि संवदेनशील मुद्दों पर बोलने की निजी तौर पर सबको आजादी हैं लेकिन पार्टी के पदाधिकारियों को पार्टी की इज्जत ध्यान में रखनी चाहिए।
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