सोमवार, 20 दिसंबर 2010
सदाचार के ताबीज
सदाचार के ताबीज की तलाश भारत में छोडि़ए, दुनिया में किसी भी देश में आसानी से नहीं मिलते। जिन्हें मिलते हैंं वे भी इनका इस्तेमाल करने के पहले कई बार सोचते हैं। सदाचार हमारे समाज की और हमारे समय की संस्कृति का पुछल्ला भी नहीं रह गया है। अगर आप एक सप्ताह सदाचार के साथ और अपने आपको ठीक रखते हुए बिता लेते हंैं तो आपको जरूर विचित्र किंतु सत्य प्राणी माना जाएगा। जमाना भ्रष्टाचार का है और जैसा कि बड़े बड़े यानी पहली दुनिया के कहे जाने वाले देश करते हैं, बड़े बड़े देशों की पत्रिकाएं बड़े बड़े सर्वेक्षण छाप कर सिद्व करती है कि जिसे तीसरी दुनिया कहा जाता है और जिसमें अभी तक तमाम खगोलीय आर्थिक विडंबनाओं के बावजूद भारत अब तक बना हुआ है, वहां भ्रष्टाचार का पैमाना काफी ऊपर है। कुल मिला कर हम जिस समय में रह रहे हैं वहां हमे अपने आपको समकालीन बनाए रखने के लिए भ्रष्ट साबित करना ही होगा। विकल्प दो ही है। या तो भ्रष्ट कहलाओ या बेवकूफ कहलाओ। आप चुन लीजिए। भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री राजनैतिक प्रतिष्ठान में से निकलती है। यह प्रतिष्ठान में गोमुख के रास्ते की तरह बहुत उबड़ खाबड़ है। अब तो भ्रष्टाचार बाकायदा ईमानदारी का धंधा बन गया है और दुनिया में भ्रष्टाचार नापने की एक बड़ी संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल हर साल चंदे में तीन चार सौ करोड़ रुपए प्राप्त करती है। इस रकम से वह निर्वाचित भ्रष्टाचार को पारदर्शी बना देती है। इस बार इस संस्था का गणित है कि आठ अरब डॉलर सिर्फ रिश्वतों में खर्च किए गए। हो सकता है कि यह गणित भारत के राजा रानी के खेल के पहले का हो। वैसे 2010 के लिए भारत को दुनिया के 178वें सबसे भ्रष्ट देश की गिनती में इस संस्था ने रखा है। पिछले साल हम इस प्रतिभा सूची में 191 नंबर पर थे। भारत ने तरक्की की है। अब तो भ्रष्टाचार अनुपात इंडेक्स बन गया है जो शेयर बाजार की तरह बार बार बदलता रहता है। भारतीय राजनीति के जो आयाम हैं वे देख कर ही समझा जा सकता है कि देश को दुराचार और भ्रष्टाचार से मुक्ति सिर्फ राजनीति दिलवा सकती है मगर जो राजनीति अपने सड़क छाप चुनाव चिन्हों के बावजूद हैलीकॉप्टरों ने नीचे नहीं उतरती उसकी काली आकाशगंगा को अपन कहां तक ठीक कर सकते हैं। जुलाई 2008 में वॉशिंगटन पोस्ट ने लिख दिया था कि भारतीय संसद के 540 सदस्यों में से एक चौथाई बाकायदा घोषित अपराधी हंै। पूरे विवरणों के साथ कहा गया था कि इन पर हत्या से ले कर तस्करी, बालात्कार, रिश्वत, ठगी और जालसाजी के आरोप हैं और ज्यादातर के खिलाफ प्रमाण ऐसे हैं कि आरोप सिद्व होने में बहुत दिक्कत भी नहीं आएगी। सदाचार का ताबीज निकाल कर भारत के राजनैतिक प्राणियों ने वॉशिंगटन पोस्ट को दौड़ा लिया था और माफी मांगने के लिए कहा था। वॉशिंगटन पोस्ट ने उल्टे भारत सरकार से कहा था कि उन्होंने जो आंकड़े दिए हैं उनका खंडन किया जाए तो वे माफी मांग सकते हैं। खंडन करने के लिए कलेजा चाहिए सो, वह नहीं हुआ। एक और अंतर्राष्ट्रीय संस्था की ओर से एक और सर्वेक्षण हुआ जिसमें कहा गया था कि 1948 से 2008 के बीच बीस लाख करोड़ रुपए की रकम गलत सलत तरीकों से विदेशी खातों में भारत से जाती है और यह भी बताया गया था कि यह रकम भारत के सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत है। 1950 से 1980 तक के तीस सालों में जब भारत की अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी तो कोटा परमिट लाइसेंस का राज था और उस जमाने में भी रेल का कंडक्टर आपको सोने की जगह देने के पांच रुपए ले लिया करता था। इसी चक्कर में दलाल बढ़ेे और विकास धीमा हुआ। भारत के भूतपूर्व गृह सचिव एन एन वोहरा की एक रिपोर्ट 1993 में आई थी। इस रिपोर्ट में भारत में अफसरों और नेताओं के कर्मकांडों की जांच पड़ताल की गई थी और चूंकि यह सरकारी जांच थी इसलिए स्वाभाविक तौर पर सरकारी एजेंसियों ने सरकारी प्रश्नावली का सरकारी ढंग से सरकारी उत्तर दिया था और यह सरकारी तौर पर बताया था कि जहां हाथ रख दो, वहां भ्रष्टाचार का पौधे उग आता है। भ्रष्टाचार की इस बागवानी पर भी काफी सवाल उठे थे और कम से कम तीन राज्यों की विधानसभाएं तो अपने अपने यहां के जंगल काटने को तैयार हो गई थी लेकिन शायद सदाचार के ताबीज का ही कमाल था कि जो सच एन एन वोहरा को दिख गया वह विधानसभाओं और संसद को नहीं दिखा। और तो और वोहरा कमेटी की मुख्य रपट के परिशिष्ट उनमें मौजूद पुख्ता दस्तावेजों की वजह से छापे नहीं गए। आज भी अगर उन्हें प्रकाशित किया जाए तो बड़े बड़े चेहरों के आभामंडल टूटने की बहुत प्रचंड आवाजें होगी। समस्या यह है कि अब भ्रष्टाचार हमारी आदत में शामिल हो गया है। यह अपवाद नहीं, सच बन गया है। हमें शर्म नहीं आती जब हम थोड़े से ले कर ज्यादा पैसे दे कर अपने बिजली के बिल और मकानों के दस्तावेज ठीक करवा लेते हैं। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को हम तब भी गाली देते हैं लेकिन काम भी उसी से चलाते है। जुलाई 2008 वाली वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में सबसे ज्यादा आपराधिक मामलों के अभियोगी उत्तर प्रदेश विधानसभा में पाए गए थे। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल भारत के बारे में हर साल कहती है कि देश के आधे से ज्यादा लोगों, और उनमें बच्चे भी शामिल हैं, यह जानते हैं कि भ्रष्टाचार क्या होता है और कैसे किया जाता है? इसी रिपोर्ट में लिखा है कि बाबू शाही और अफसरशाही दोनों ही खास तौर पर दक्षिण पूर्व एशिया में भ्रष्टाचार को पनपाने में आदर्श माली का काम करते हैं। यह भी लिखा गया है कि सरकारी लोग आम तौर पर सरकारी संपत्ति की चोरी करते हैं। हाल ही में जिस बिहार में विकास के नाम पर ढोल नगाड़े बजा कर चुनाव हुआ है वहां औसतन अस्सी प्रतिशत गरीबों को दिया जाने वाला अनाज वे लोग खा जाते हैं जिनका उससे कोई संबंध नहीं होता। पूरे देश की नगरपालिकाओं ग्राम जनपदों और जिला पंचायतोंं में माफिया राज चल रहा है, इसके सबूत मिलते जा रहे हैं लेकिन हम भारतीय अपने घर में महात्मा गांधी की तस्वीर लगा कर और ऑफिस या दुकान जाने के पहले जल्दी जल्दी बजरंग बली को याद कर के अपने आपको अपनी ही नजर में कलंक मुक्त कर लेते है। कलंक हमारा है और मुक्त करने का तरीका ही हमे ही खोजना है। इसमें वॉशिंगटन पोस्ट वगैरह कहां से आ गए? ठेकों और लाइसेंसों और परमिटों में घपले इतने चलते हैं कि अगर हम लोग खुद नहीं भुगत रहे हो तो हमें आनंद आ जाता। बाढ़ और सूखा एक पूरे के पूरे वर्ग के लिए आनंद का उत्सव ले कर आते हैं। राहत का सामान उनकी कई पीढिय़ों को राहत दे जाता है। कुछ लोग पकड़े जाते हैं, कुछ लोगों के खिलाफ जांच होती हैं, कुछ के खिलाफ जांच के ऐलान होते हैं जिन्हें कभी पूरा नहीं किया जाता और अब सबसे बड़ी बात यह है कि हम बड़े से बड़े घोटाले और उनके तथाकथित सदाचारी पात्रों के चेहरों पर से नकाब उठ जाने, तमाम टेप सुन लेने, तमाम दस्तावेज देख लेने के बावजूद चौकते नहीं है। डार्विन के सिद्धांत के बाद अनुकूलीकरण का जो सिद्धांत आया था उसे हमने बगैर पढ़े अपना लिया है। हमने अपने आपको भ्रष्टाचार के प्रति अनुकूलित कर लिया है। कुछ लोग हैं जो उम्मीद का आंचल नहीं छोड़ते। वे पानीपत और प्लासी के मैदान में रास होने की कल्पना करते ही रहते हैं। उनके लिए यह दुनिया अटपटी जरूर है लेकिन उनके संदेहों और संकटों का निराकरण भी शायद इसी दुनिया में हैं। अगर हम शास्त्रों वाले सतयुग से इक्कीसवीं सदी के कलयुग तक आ पहुंचे हैं और अभी तक हमारा अस्तित्व और वर्चस्व बरकरार है तो इसका एक मात्र सीधा अर्थ यही होता है कि अभी सारे उम्मीदें खत्म नहीं हुई है। सिर्फ उन उम्मीदों तक पहुंचना हैं और इसमें सदाचार का ताबीज शायद कुछ मदद कर सके। वैसे ताबीजों और तमगों के भरोसे जंग नहीं जीती जाती और करने वाले भूदान में और गोदान में भी घपला करते हैं लेकिन सब कुछ बुरा हो रहा है इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अच्छा होने की कल्पना से भी हम अपने आपको दूर कर लें।
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