सोमवार, 20 दिसंबर 2010
मोहरों के बीच चेहरे
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक किताब लिखने का वादा किया है, जिसमें 2004 के आम चुनावों में जीत हासिल करने के बाद आए तनाव से भरे उस वक्त का जिक्र होगा जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद ठुकराकर मनमोहन सिंह के हाथों में देश की बागडोर सौंप दी थी। विकिलीक्स की ओर से जारी अमेरिकी कूटनीतिक केबलों के मुताबिक, लोगों की ओर से बार-बार यह पूछे जाने के बाबत कि उन्होंने देश के शीर्ष पद को क्यों नहीं स्वीकार किया, सोनिया ने 2006में दिल्ली आई कैलिफोर्निया की प्रथम महिला मारिया श्राइवर से कहा था कि मुझसे अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है, लोगों से कहिए कि किसी दिन मैं एक किताब लिखूंगी जिसमें पूरी कहानी बयान की जाएगी। वर्ष 2006 में भेजे गए इस केबल में सोनिया और कैलिफोर्निया के गवर्नर आर्नोल्ड वारजेनेगर की पत्नी मारिया के बीच हुई बातचीत का विवरण है। इस केबल का शीर्षक मारिया श्राइवर के सामने राज खोलतीं सोनिया गांधी हैं। संभवत: तब तक राष्ट्रपति ने यह साफ कह दिया था कि वे प्रधानमंत्री के रूप में सोनिया गांधी को शपथ लेने के लिए नहीं बुला सकते। इसलिए इस बार मिलने जाते समय सोनिया गांधी अपने साथ मनमोहन सिंह को ले गयी थीं। उसी दिन शाम को कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई जिसमें सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद से अपनी दावेदारी वापस ले ली थी। इसके बाद यहां भी मान-मनौवल का एक नाटक चला, जिसमें अजीत जोगी जैसों ने चापलूसी की नयी मिसाल पेश की। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि सोनिया गांधी ने बहुत बड़ा त्याग किया है। सोनिया गांधी के इस इनकार को देशभर में प्रचारित किया गया कि सोनिया गांधी ने कोई महान त्याग किया है। यह बात छिपा ली गयी कि कई तरह की कानूनी अड़चनों के कारण सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया गया था। उनकी नागरिकता पर भी सवाल खड़े किये गये और कहते हैं राष्ट्रपति से अपनी मुलाकात में सुब्रमण्यम स्वामी ने ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत किये थे, जिससे सोनिया गांधी की नागरिकता और संसद में उनके हलफनामे पर सवाल खड़ा होता था। इन दस्तावेजों में सोनिया गांधी ने कई झूठी जानकारियां दी थीं। उस दिन देर रात यही सब नाटक चलता रहा। लेकिन सोनिया गांधी ने साफ कह दिया कि उन्होंने अपने बच्चों से राय-मशविरा कर लिया है और अब वे अपने प्रधानमंत्री न बनने के निर्णय पर कोई पुनर्विचार नहीं करेंगी। उन्होंने अपनी 'अन्तरात्माÓ की आवाज सुन ली थी, भले देर से ही सही। 19 मई को ही 10 जनपथ पर एक बैठक हुई जहां औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का नाम तय हुआ। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के नाम की घोषणा के साथ ही तात्कालिक तौर पर राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन ने इस मुद्दे पर अपनी गतिविधियां रोक दी। इन ढाई दिनों में जो लोग सक्रिय हुए थे उन्हें इस बात की खुशी थी कि इस आंदोलन ने अपने लक्ष्य को इतने कम समय में हासिल कर लिया। इस पूरे घटनाक्रम का उल्लेख यहां करने का कारण है। पहला आपको अब तक पता चल गया होगा कि सोनिया गांधी या कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में कलाम क्यों पसंद नहीं आये। दूसरा, सोनिया गांधी कोई त्याग की देवी नहीं हैं। वे ताकत की राजनीति करती है। अगर उन्हें सत्तामोह नहीं होता तो वे यूपीए अध्यक्ष पद को प्रधानमंत्री के समानांतर न बना देतीं। मनमोहन सिंह ऐसे कठपुतली प्रधानमंत्री हैं जिसकी डोर सोनिया गांधी के हाथ में है। अब यह सब कुछ साबित हो गया है। कलाम का उन ढ़ाई दिनों में जो रुख था, वही उनके दोबारा राष्ट्रपति बनने में सबसे बड़ी बाधा बन गया। यह बात अलग है कि उनके उस रुख के कारण ही भारत के स्वाभिमान की रक्षा हो सकी। यदि कलाम ने उस समय वैसा ही व्यवहार किया होता जैसा सोनिया गांधी अपेक्षा करती थीं तो आज कलाम शायद दोबारा राष्ट्रपति पद के दावेदार होते, क्योंकि यह कांग्रेस भी जानती है कि कलाम की लोकप्रियता और सच्चरित्रता का कोई जोड़ नहीं है। इस समय जिस प्रकार कांग्रेस ने प्रतिभा पाटिल के रूप में एक कमजोर और गुमनाम व्यक्ति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है, उससे यह प्रमाणित हो रहा है कि कांग्रेस और उसकी नेता सोनिया गांधी के लिए कलाम का कार्यकाल किसी दु:स्वप्न से कम नहीं था। अब हर हालत में कांग्रेसी टोले की रुचि एक ठप्पा राष्ट्रपति बनाने में है जो राष्ट्रपति भवन में बैठकर अंधभक्ति के साथ उनका समर्थन करे। लगता है कांग्रेस आगे चलकर कुछ ऐसा करने वाली है जिसमें उसे राष्ट्रपति के समर्थन की सख्त जरूरत पड़ेगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि सोनिया गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करने वाली हैं?
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