बुधवार, 15 दिसंबर 2010
लोकतंत्र के चीरहरण का जलसा
चाणक्य नीति की एक सूक्ति में राजनीति को उस वेश्या के सामान बताया गया है जो कीमत के आगे हर रात अपना बिस्तर बदल लेती है। सुना था, पढ़ा था और आज देख भी रहा हूं। देश के विकास के लिए गठित पंचायत, मीडिया और लोकप्रशासन किसी बेबस विधवा की तरह लोकतंत्र के चीरहरण जलसे को चाहे अनचाहे खामोशी से देख रहा है। जनता को बेबकूफ बनाकर बेशर्मी की चादर ओढ़ ली गई है। कोई बिकने की बात को लेकर टोकेगा तो कछुए की तरह भ्रष्टाचार की दौलत से बने मोटे खोल में वह बेशर्मी से मुंह छुपा लेगा। ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो कि शाम का थोड़ा-बहुत समय जनता को भाषण देने के लिए निकाल ही लेते हैं। वे सब बेकार हैं। हमें लेनिन जैसे जांबाज क्रांतिकारी से कुछ सीखना चाहिए, जिनकी क्रांति पाने की चाहत के अलावा कोई दूसरी महत्वाकांक्षा नहीं थी। अगर आक्रामकता से ताकत का इस्तेमाल करते हैं तो वह हिंसा कहलाती है और यह नैतिकता की दृष्टि से गलत कहलाएगी, मगर जब यही काम किसी न्याय संगत सबब को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है तो उसका एक नैतिक औचित्य होता है। आप सभी का मानना है कि इस धरती और इस सौरमंडल को चलाने वाला सर्वशक्तिमान कहीं मौजूद है। मैं जानना चाहता हूं कि आखिर वह कहां है? मैं उससे यह पूछना चाहता हूं कि आखिर उसने यह दुनिया क्यों बनाई, जो कि पूरी तरह से दु:खों और परेशानियों से भरी है, जहां पर एक भी इंसान चैन की जिंदगी नहीं जी सकता? समाज को भगवान के अस्तित्व पर वैसे ही सवाल उठाने चाहिए जैसे उसने मूर्ति पूजा और इसी तरह की सीमित अवधारणाओं पर उठाए थे। अगर ऐसा होगा तो इंसान कम-से-कम अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश तो करेगा। यथार्थवादी हो जाने के बाद वह अपनी श्रद्धा व भक्ति को दरकिनार कर विरोधियों का वीरता के साथ मुकाबला कर सकेगा। पुरानी मान्यताओं के सिद्धांतों की आलोचना करना हर उस शख्स के लिए जरूरी है, जो प्रगति के मकसद के लिए खड़ा हुआ है।
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