सोमवार, 20 दिसंबर 2010

ऐतिहासिक नुकसान, साहसिक दिलेरी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम सहित भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर रही लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने पेश होने को तैयार हैं। सिंह ने कांग्रेस के 83वें महाधिवेशन में कहा कि 2-जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल में अनियमितताओं की जांच चल रही है और मैं वायदा करता हूं कि कोई भी दोषी बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का नेता हो, अधिकारी हो या कोई कितना ही ताकतवर क्यों न हो। नि:संदेह प्रधानमंत्री के इसी दिलेरी का तो देश कायल है। उनका यह कहना कि मैं खुद पीएसी के चेयरमैन को पत्र लिखने जा रहा हूं कि अगर वह मुझे समिति के सम्मुख उपस्थित होने को कहेंगे तो मैं सहर्ष पेश होने को तैयार हूं, वाकई काबिलेतारीफ है। बावजूद इसके इसमें कोई दो राय नहीं कि 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले ने जहॉं एक ओर राष्ट्र के राजकोष को तकरीबन पौने दो लाख करोड़ की अत्यंत घातक क्षति पंहुचाई, वहीं दूसरी तरफ देश को ऐसी अपूरणीय नुकसान पंहुचाया, जिसको कि आर्थिक ऑंकड़ों के दायरों में रखकर कदाचित आंका ही नहीं जा सकता। यह भयावह नुकसान एक जबरदस्त गहरे यकीन को पूर्णत: ध्वस्त कर देने का गहन ऐतिहासिक नुकसान है। देश को यह ऐसा नैतिक नुकसान है, जिसकी भरपाई नामुमकिन प्रतीत होती है। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के तौर पर एक बेहद ईमानदार शख्स क रार दिया जाता रहा। वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री का ओहदा संभालने के पश्चात संपूर्ण देश को इस बात का पक्का यकीन था कि उसे एक अत्यंत समझदार प्रधानमंत्री के साथ एक ईमानदार प्रधानमंत्री भी मिल गया है। कॉंग्रेस और मनमोहन सिंह के धुर विरोधियों को भी उनकी ईमानदारी पर कोई शक शुब्हा नहीं रहा। मनमोहन सिंह पर अकसर राजनीतिक तौर पर एक कमजोर प्रधानमंत्री होने के इल्जामात तो आयद होते रहे, किंतु कभी उनकी ईमानदार नैतिक ताकत पर संदेह व्यक्त नहीं किया गया। कॉंग्रेस के यूपीए राज में बहुत से स्कैंडल उजागर होते रहे, किंतु किंचित तौर पर भी किसी भी घोटाले में प्रधानमंत्री का नाम दूर दूर तक नहीं लिया गया। 2 जी स्पैक्ट्रम स्कैंडल ने इसे गहन विश्वास को बहुत जबरदस्त धक्का पंहुचाया है और ऐसा कुछ एहसास हो रहा कि देश ने जीते जी ही एक ईमानदार प्रधानमंत्री खो दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 2 जी स्पैक्ट्रम केस में प्रधानमंत्री के संपूर्ण आचरण पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। मनमोहन सिंह के ईमानदार आचरण पर इससे पहले कदाचित कभी संदेह व्यक्त नहीं किया गया। वर्ष 2004 से 2009 तक प्रधानमंत्री के तौर पर कथित तौर पर शानदार पारी खेलने वाले मनमोहन सिंह ने 2006 में ही वह ऐतिहासिक भूल अंजाम दे डाली, जिसका खामियाजा देश को 2008 से ही निरंतर भुगतना पड़ा है। अब तो कुछ ऐसे तथ्य उजागर होने लगे हैं कि अपने विगत कार्य काल में अपने पद और सत्ता को बनाए बनाए रखने के लिए 2006 से ही मनमोहन सिंह डीएमके दूरसंचार मंत्री मारन को ऐसी घातक नीतियों का अनुसरण करने की पूरी छूट प्रदान कर दी थी, जोकि संवैधानिक तौर पर बेहद आपत्तिजनक करार दी जा सकती है। वर्ष 2006 से ही ग्रुप आफ मिनिस्टर्स के नियंत्रण से दूरसंचार मंत्रालय को मुक्त कर दिया गया था, क्योंकि किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वामपंथी दलों से लोहा लेने के लिए डीएमके पार्टी को अपने साथ यूपीए में बनाए रखना चाहते थे। इसी कारणवश मनमोहन सिंह ने डीएमके के मंत्री मारन की ब्लैकमेलिंग करने वाली प्रत्येक गैरवाजिब शर्त को स्वीकार कर लिया। तत्कालीन वित्त सचिव की सलाह को बाकायदा दरकिनार करते हुए मनमोहन सिंह ने असंवैधानिक तौर पर दूरसंचार मंत्री को नीतिगत मामलों में भी कैबिनेट की क्लेटिव रैसपांसबिलीटी से मुक्त करके, उनको मनमानी करने की भयंकर ऐतिहासिक गलती अंजाम दे डाली। जो कि आगे भी निरंतर कायम रही और उसका ही पूरा फायदा उठाकर डीएमके पार्टी के कोटे से केंद्र में दूरसंचारमंत्री का ओहदा सभालने वाले ए राजा ने 2008 में 2 जी स्पैक्ट्रम को मनमाने तौर पर औने पौने दामों में प्राइवेट कंपनियों को बेचकर राष्ट्र के राजकीय कोष को पौने दो लाख करोड़ का नुकसान करने की भयानक हिमाक़त कर डाली। जिसे कि अत्यंत तफसील के साथ कंपोटर एंड एकाउंटेट जनरल (सीजीए) ने अपनी रिर्पोट में पेश किया, जिसे संसद के पटल पर भी रखा जा चुका है। अब तो मनमोहन सिंह की समस्त ईमानदार प्रतिष्ठा ही दॉंव पर लग चुकी है। जबकि एक सत्तालोलुप प्रधानमंत्री के तौर पर उनके चरित्र की एक नई इबारत देश के समक्ष आ रही है। अपनी सत्ता की खातिर अभी तक देश की आजा़दी के दौर में किसी प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल में जानते बुझते इतना बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं होने दिया, जितना कि मनमोहन सिंह ने अपने सत्तालोपता के कारण राष्ट्र को करवा दिया। यदि प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह यदि डीएमके पार्टी की ब्लैकमैलिंग के समक्ष झुके नहीं होते तो देश इतनी विशाल आर्थिक क्षति से बच गया होता और उनका स्वयं का चरित्र भी कदाचित कलंकित नहीं हुआ होता। देश के आजादी के दौर के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री के विषय में इतनी विपरीत टिप्पणी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट विवश नहीं हुआ, जितना कि मनमोहन सिंह के विषय में हो गया। अब चाहे जो कानूनी दॉंव पेंच सुप्रीम कोर्ट में मनमोहन सरकार खेल ले, किंतु तो देश को जो नैतिक नुकसान होना था वह तो हो ही चुका है।

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