मंगलवार, 28 दिसंबर 2010
न्यायमंदिर के गुंबद पर पड़ते हथौड़े
सामान्य नागरिक को राहत की अंतिम उम्मीद न्याय के मंदिर से होती है। इस मंदिर के गुंबद पर इन दिनों हथौड़ा चलने की आवाज आ रही है। न्याय-व्यवस्था में पारदर्शिता, तटस्थता, न्यायाधीशों की नियुक्तियों-तबादलों और गड़बड़ होने पर कठोर कार्रवाई के मुद्दों पर पिछले वर्षों के दौरान बहस होती रही हैं। संसद-विधानसभा यानी विधायिका और कार्यपालिका-सरकार-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और विश्वसनीयता पर पहले ही बहुत कालिख लगी हुई है। पेड न्यूज पर मचे बवाल से मीडिया की साख गड़बड़ा गई है। हाल के वर्षों में सेना के विभिन्न अंगों में भी भ्रष्टाचार के मामलों की गूँज दूर तक पहुँचने लगी है। ऐसी स्थिति में न्यायालय के दरवाजे से ही राहत की अपेक्षा की जाती है। व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के आधार पर संपूर्ण न्याय-पालिका पर हमला कहाँ तक उचित है? देश में इंसाफ की आखिरी उम्मीद भी अब चुकने लगी है। न्यायिक सुधार पर आठ राज्यों के 29 शहरों में करीब दो सप्ताह चले अभियान ने यह तल्ख सच्चाई उघाड़ दी है कि आम लोग न्याय प्रणाली में विश्वास खो रहे हैं। करीब एक लाख लोगों के बीच हुए अपनी तरह के पहले एवं सबसे बड़े सर्वेक्षण में 75 फीसदी लोगों ने दोटूक कहा कि न्याय प्रणाली में उनका भरोसा डगमगाने लगा है। जनता न केवल एक पारदर्शी न्याय प्रणाली के लिए बेचैन है, बल्कि यह भी चाहती है कि मुकदमों के निपटारे के लिए समय-सीमा तय की जाए। आम लोगों की बेबाक राय है कि कानून से ऊपर कोई न हो, न्यायमूर्ति भी नहीं। यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि न्याय से भरोसा उठना अराजकता को आमंत्रण है। उच्च न्यायालय और जिला अदालतों में हुए सर्वेक्षण में लोगों से यह पूछा गया था कि न्यायिक व्यवस्था में उनको कितना भरोसा है, आधा, पूरा या बिल्कुल नहीं। लगभग 75 फीसदी लोगों की प्रतिक्रिया थी कि उनको न्यायपालिका में या तो बिल्कुल भरोसा नहीं है या भरोसा आधा-अधूरा है। जब न्याय व्यवस्था में भरोसा नहीं है तो संतुष्टि कैसे होगी। इसलिए न्याय व्यवस्था से संतुष्टि का प्रतिशत आश्चर्यजनक तौर पर दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सका। ऐसे लोग चार फीसदी से भी कम थे जिन्हें न्यायिक प्रणाली संतुष्ट कर रही थी। देश की आम जनता अदालतों में अंधेर से बुरी तरह परेशान है। सर्वेक्षण के तहत एक सवाल के जवाब में 81.1 प्रतिशत प्रतिभागियों ने न्याय व्यवस्था को भ्रष्ट बताया। अदालतों की साख के लिए यह निष्कर्ष बहुत गंभीर है। अदालतों में अपारदर्शिता से परेशान लोगों ने बेबाक तौर पर कहा कि उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण को भी सख्त कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए। जनता के सामने त्वरित न्याय, पारदर्शी न्याय, सस्ता न्याय और सक्षम न्याय जैसे चार मुद्दे रखे थे और सर्वेक्षण में एक सवाल के जरिये यह पूछा था लंबित मामले, भ्रष्टाचार, पुराने कानून या महंगा इंसाफ में सबसे बड़ी समस्या क्या है। जवाब में लोगों ने अपारदर्शिता व लंबित मामलों को न्याय प्रणाली के सामने बड़ी चुनौती बताया। लंबित मामलों से परेशानी का आलम यह है कि 88 फीसदी लोग मामलों के निपटारे की समय-सीमा तय करने के पक्ष में हैं जबकि 60 फीसदी से ज्यादा लोगों ने इस बात की हामी भरी है कि ऑनलाइन मुकदमे दायर करने की इजाजत दी जाए। हालांकि सर्वे में 36.6 फीसदी से अधिक लोगों ने इस सुझाव पर असहमति भी जताई है। 55 फीसदी लोगों ने माना कि वह मुकदमा लड़ रहे हैं या मुकदमे में उलझ चुके हैं। वहीं 35.8 फीसदी लोगों की नजर में उन्हें अदालत से केवल आंशिक न्याय ही हासिल हो पाया। अर्थात करीब 70 फीसदी लोग न्याय से संतुष्ट नहीं हुए। मुकदमे को लेकर 41.2 फीसदी लोगों ने अपने अनुभव को खराब और 27.6 प्रतिशत लोगों ने बेहद खराब बताया। न्याय विभाग में अकुशल पीठासीन अधिकारियों के कारण जनता को न्याय नहीं मिल पा रहा है । न्याय विभाग में गुण-दोष के आधार पर निर्णय नहीं हो पा रहे हैं इसलिए भी वाद लंबित रहते हैं । अकुशल पीठासीन अधिकारी अपने सारे अपराधिक वाद के फैसले में सजा सुना कर इतिश्री कर लेते हैं। सजा सुना देने से वाद का निर्णय नहीं हो जाता है और अब व्यवहार में अधिकांश पीठासीन अधिकारी अभियोजन पक्ष के एजेंट के रूप में नजर आ रहे हैं। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता तथा उससे सम्बंधित अन्यविधियों की अनदेखी होती है जनता पीठासीन अधिकारियों को बड़े सम्मान की निगाह से देखती है लेकिन उनके निर्णय जो आ रहे हैं उससे न्याय नहीं हो पा रहा है। आज आवश्यकता इस बात की है की पीठासीन अधिकारियों को और बेहतर प्रशिक्षण और कानून की जानकारी दी जाए । याय अगर समय पर नहीं मिले तो वह न्याय नहीं होता! देर से न्याय अपने आप में ही एक अन्याय है! वावजूद इसके देश में आज की तारीख में साढ़े तीन करोड़ मामले देश की विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं! लोगों को अपने मामलों में तीन तीन दशक तक इंतजार करना पड़ रहा है! भोपाल गैस कांड पर न्यायालय का फैसला दुर्घटना के 26 वर्षों के बाद आया,वो भी ऐसा फैसला आया जिस पर पूरी दुनिया में आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है! सिख दंगों के दो बड़े नेताओं जिसमे वे आरोपी हैं,पर 25 वर्ष बाद मामला दाखिल किया गया! रुचिका काण्ड में उसके परिजनों को भी काफी लम्बे अंतराल तक संघर्ष करना पड़ा! ये कुछ मामले ऐसे हैं जो भारत में नया व्ययवस्था का असली चेहरा सामने खोल कर रख देते हैं! हालाँकि सरकार ने इस दिशा में सुधर लाने के प्रयास तेज कर दिए हैं! संभावना जताई जा रही है आने वाले 4 वर्षों में मुकदमों की संख्या में कमी होगी लेकिन असली सवाल अभी भी बरकरार है कि न्यायिक व्यवस्था में पिसने वाले परिवार को इससे लाभ मिलेगा? पीढिय़ां जो न्याय के इन्तजार में खत्म हो जाती हैं क्या उन्हें कुछ हासिल हो पायेगा? ऐसे प्रश्नों के लिए अभी इन्तजार का ही वक्त बचता है! प्रश्न यह है की सुचना अधिकार,शिक्षा अधिकार,ग्रामीण रोजगार अधिकार और वनाधिकार कानून की तरह क्या आम आदमी को सही और त्वरित न्याय का अधिकार नहीं मिलना चाहिए! सबसे बड़ी बात यह है कि राजतांत्रिक व्यवस्थाओं के ध्वस्त होने के पीछे सबसे बड़ा कारण न्याय व्ययवस्था में मनमानी रही है! गलत और देर से मिला न्याय लोगों में आक्रोश पैदा करता है! सरकारों के अलोकप्रिय होने के मुख्यत: कारणों में एक यह भी है! इसी दिशा में सुधार कर सरकार नए भारत के निर्माण में योगदान कर सकती है नहीं तो आम आदमी अपनी पूरी पूंजी, क्षमता और पूरा समय लगा कर भी न्याय के लिए दर-दर भटकता रहेगा और दुनिया के विकसित देशों में भारत उपहास का पात्र बनता रहेगा !
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