मंगलवार, 28 दिसंबर 2010
सलीब पर उम्मीदें
गुजिस्तां साल खट्टे-मीठे अनुभव के साथ समापन पर है। नए साल नई उम्मीदों के साथ दहलीज पर खड़ी है। विश्लेषण का अवसर फिर सामने है। उच्च वर्ग को शायद असर पड़े न पड़े, मध्यम वर्ग और निचले तबके के लिए आने वाला हर पल अग्निपरीक्षा से कम नहीं। क्या नया साल किसानों के लिए कोई उम्मीद जगाएगा? साल दर साल किसानों की आर्थिक दशा बद से बदतर होती जा रही है। साथ ही कृषि भूमि किसानों के लिए अलाभकारी होकर उनकी मुसीबतें बढ़ा रही है। रासायनिक खाद के अत्यधिक इस्तेमाल से मिट्टी जहरीली हो रही है। अनुदानित हाइब्रिड फसलें मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर रही है और भूजल स्तर को गटक रही है। इसके अलावा इन फसलों में बहुतायत से इस्तेमाल होने वाले रासायनिक कीटनाशक न केवल भोजन को विषाक्त बना रहे हैं, बल्कि और अधिक कीटों को पनपने का मौका भी दे रहे है। परिणामस्वरूप किसानों की आमदनी घटने से वे संकट में फंस रहे हैं। खाद, कीटनाशक और बीज उद्योग किसानों की जेब से पैसा निकाल रहा है, जिसके कारण किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि किसानों के खूनखराबे के लिए सबसे अधिक दोषी कृषि अधिकारी और विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक हैं। रोजाना दर्जनों किसान रासायनिक कीटनाशक पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेते हंै। पिछले 15 वर्षों में कृषि विनाश का बोझ ढोने में असमर्थ दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है। यह सिलसिला थमता दिखाई नहीं देता। पुरजोर प्रयासों के बावजूद करोड़ों किसान अपनी पीढिय़ों को विरासत में कर्ज देने को मजबूर हैं। सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों को अकारण दोषी नहीं ठहराया जा रहा है, किंतु एक हद तक किसान भी इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं। जल्दी से जल्दी पैसा कमाने का लोभ उन्हें अनावश्यक प्रौद्योगिकियों की ओर खींच रहा है, जो अंतत: उनके हितों के खिलाफ है। लंबे समय से किसान उपयोगी कृषि व्यवहार से विमुख होते जा रहे हंै और कृषि उद्योग व्यापार के जाल में फंसते जा रहे हैं। उद्योग उन्हें एक सपना बेच रहा है-जितना अधिक उपजाओगे, उतना ही कमाओगे, जबकि असलियत में उद्योग जगत का मुनाफा बढ़ रहा है, किसानों को तो मरने के लिए छोड़ दिया गया है। हरित क्रांति के 40 साल बाद 90 प्रतिशत से अधिक किसान गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। मानें या न मानें, देश भर में किसान परिवार की औसत आय 2400 रुपये से भी कम है। यह भी तब जब किसान अधिक आय के चक्कर में तमाम प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस प्रकार अनेक रूपों में किसानों के साथ जो श्राप जुड़ गया है उसके लिए वे भी कम जिम्मेदार नहीं है। जरा इस पर विचार करें कि क्या किसानों को कृषि संकट के लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए? आप कब तक सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों के सिर ठीकरा फोड़ते रहेंगे। आप कृषि से दीर्घकालिक और टिकाऊ तौर पर अधिक आय हासिल क्यों नहीं करते? कृपया यह न कहे कि यह असंभव है। अगर किसान अपने परंपरागत ज्ञान का इस्तेमाल कृषि में करे तो वे इस लक्ष्य को आसानी से हासिल कर सकते हंै। विदर्भ की पहचान किसान आत्महत्या प्रभावित क्षेत्र के रूप में की जाने लगी है। यहां की मिट्टी अभी काली है जो हजारों किसानों की मौतों के बाद भी लाल नहीं हुई। राज्य सरकार पैकेजों की पुनर्समीक्षा करने के बजाय बयान देते फिर रही है कि विदर्भ के किसान आर्थिक कारणों से नहीं मनोवैज्ञानिक वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं। सच यह है कि कर्ज और सूदखोरी आत्महत्याओं की मुख्य वजह है। विदर्भ में कुल ग्यारह जिलों में इन ज्वलंत तथ्यों को हकीकत न मानने वाली सरकार की बयानबाजियां बेशक फरेब लगती हैं । सवाल यह है कि क्षेत्र में किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे हैं। व्यावहारिक सचाई यह है कि जिन किसानों ने बैंकों से पहले कर्ज ले रखा है उन्हें बैंक कर्ज देते ही नहीं हैं, जिस कारण सूदखोरों के चक्रव्यूह में फंसे रहना और न चुका पाने की स्थिति में खुद को समाप्त कर लेना ही किसानों के पास अंतिम विकल्प रह जाता है। सरकार फिर भी घोषणाओं और आश्वासनों से काम चला रही है। विदर्भ के खासकर दो जिले अमरावती और यवतमाल के गांवों में हाल के दिनों में दवा ही जहर बन रही है। मरने वाले ज्यादातर किसान जहर खाकर मर रहे हैं। मरने के लिए जहर खरीदना नहीं पड़ता बल्कि कपास और सोयाबीन के खेतों में डाला जाने वाला कीटनाशक, खरपतवार नाशक ही मौत का काम आसान कर देता है जो विदर्भ के हर किसान के घर में सहज उपलब्ध है। फिनोलफॉस कपास में डाला जाता है तथा मोनोक्रोटाफॉस सोयाबीन से लगने वाली सफेद मक्खी के खात्मे की दवा है। किसानों को खतरपतवार नाशकों और कीटनाशकों का प्रयोग इसलिए भी अधिक करना पड़ता है क्योंकि मासेंटो और कारगिल बीज कंपनियों से पिछले दशकों में भारत सरकार ने जो गेहूं के बीज आयात किये उनके साथ विभिन्न तरह के खरपतवार आए। इलाकों के ज्यादातर किसानों से बातचीत में यह स्पष्ट ढंग से उभरकर सामने आया कि बीटी कॉटन की खेती करने वाले किसानों की आत्हत्याओं का प्रतिशत सर्वाधिक है। परंपरागत बीजों से खेती करने वाले किसान इसलिए भी कम मरते हैं क्योंकि बीज की कीमत 400 से 600 के बीच ही होती है। बीटी कॉटन जहां एक तरफ महंगा पड़ रहा है वहीं वह परंपरागत बीजों के संरक्षण को तो नष्ट कर ही रहा है अपने को उत्पादित करने वाली मिट्टी की उर्वरता को भी समाप्त कर रहा है बावजूद इसके सरकार ने बीटी कॉटन को प्रतिबंधित नहीं किया है। किसान आत्महत्याओं का सिलसिला 1994-95 से शुरू हुआ जो आज सामूहिक का रूप ले चुका है। उल्लेखनीय है कि मरने वाले ज्यादातर किसान कपास और सोयाबीन पैदा करने वाले हैं। वैसे तो तुअर और गेहूं, ज्वार की भी खेती होती है किन्तु तत्काल मुनाफा देने वाली फसल कपास बोने का प्रचलन तेजी के साथ बढ़ा है। प्रचलन बढऩे का एक कारण क्षेत्र में लगातार विकराल होती पानी की समस्या है। कपास, सोयाबीन ऐसी फसलें हैं जिनका काली मिट्टी से ज्यादा उत्पादन होता है और पानी की जरूरत बाकी फसलों के मुकाबले कम होती है। सरकार विदर्भ को लेकर कितनी लापरवाह है इसका अंदाजा पिछले बारह सालों से लंबित बांधों की योजनाओं से लगाया जा सकता है। यह अलग पहलू है कि बांधों के बचने के बाद भी विदर्भ की बीस प्रतिशत जमीन असिंचित रहेगी। कारण कि उतनी उंचाई पर पानी पहुंचना फिलहाल की तैयारियों के हिसाब से असंभव होगा। अभी भी विदर्भ में 57 प्रतिशत खेती योग्य जमीन का ही उपयोग हो पाता है। यहां जितनी बारिश होती है उससे मात्र पांच प्रतिशत भूमि ही सिंचित हो सकती है। रहा सवाल नलकूपों, कुओं या पंप सेटों का तो कम से कम अमरावती और यवतमाल में असंभव जान पड़ता है क्योंकि यह क्षेत्र वर्षों से 'रेन फेडेडÓ घोषित है। हालांकि विदर्भ में नदियां भी हैं किन्तु बेमड़ा जैसी नदियां पानी की कमी के चलते कई साल से छह महीने सड़क के रूप में इस्तेमाल होती है। इसके अलावा वर्धा, वैनगंगा, कोटपूर्णा नदियों को नहरों से न जोड़े जाने के कारण किसानों को लाभ नहीं पहुंच पाता। इन तथ्यों पर ध्यान दें तो किसान जहां एक तरफ सिर के बल खड़ी सरकारी नीतियों के कारण आत्महत्या करने को मजबूर हैं वहीं मोसेन्टो और कारगिल जैसी कंपनियों के बीजों से भी त्रस्त हैं। यह सचाई किसी से छुपी नहीं है कि गाजारगौंत, पहुनियां, हराड, गोंडेल, लालगांडी, वासन, लई, केन्ना और जितनी भी किस्मों की घासों के नाम गिना लें यह सभी विदेशी बीजों और खादों के प्रयोग के बाद से ही पनपनी शुरू हई। आत्महत्या रोकने के सरकारी प्रयासों में एक है सब्सिडी का प्रावधान। सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी के बावजूद किसानों को सरकारी खरीद महंगी पड़ रही है, जो कि सरकारी नीतियों की पोल खोलती है। विवादों को यदि छोड़ भी दिया जाए तो जारी हुए पैकेज किसानों को और अधिक कर्ज में फंसाने के ही उपक्रम साबित हो रहे हैं। किसानों की मांग है कि सरकार कर्ज माफ करे जबकि सरकार ने कर्ज का दायरा बढ़ा दिया है। क्षेत्र के 80 प्रतिशत किसान सूदखोरों के चंगुल से उबर नहीं पाए हैं। वैसे सरकार ने आत्महत्याओं के बढ़ते प्रतिशत के दबाव में आदेश जारी किया है कि सूदखोर किसानों से सूद न वसूलें। किन्तु इस पर गरीब किसानों के बीच अमल नहीं हो रहा है। उल्टे सूदखोरी और बढ़ रही क्योंकि सरकारी बैंक ज्यादातर कर्जदार किसानों को कर्ज देने से बच रहे हैं। हरियाणा के जींद जिले में चुपचाप एक क्रांति हो रही है। यहां के किसान बीटी कॉटन पैदा नहीं करते, बल्कि प्राकृतिक परभक्षियों पर भरोसा करते हैं। ये परभक्षी कीट, नुकसानदायक कीटों को चट कर जाते हंै। उन्होंने कपास में लगने वाले प्रमुख कीट मिली 'बगÓ का प्राकृतिक उपाय खोज निकाला है। जींद के सुरेद्र दलाल ने बड़े परिश्रम के बाद मिली 'बगÓ को काबू में करने में सफलता प्राप्त कर ली है। उन्होंने इस विषय पर काफी शोध किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि नुकसान न पहुंचाने वाली आकर्षक 'लेडी बीटलÓ इन मिली 'बगों Ó को चट करने के लिए काफी है। यह इन मिली 'बग Ó को बड़े चाव से खाती है, जिससे किसानों का महंगे कीटनाशकों पर पैसा खर्च नहीं होता। उन्होंने महिला पाठशाला भी शुरू की है। इन दो किसानों ने कृषि क्षेत्र में नया अध्याय लिख दिया है। अब सही समय है कि आप इनकी सफलता से सबक लें और कृषि का खोया हुआ गौरव वापस लौटा दें। निश्चित तौर पर आप यह कर सकते हैं। इसके लिए बस दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है। तभी हम उम्मीद कर सकते है ं कि किसानों के लिए नया वर्ष नया हर्ष लेकर आएगा। कर्ज के इस भयावह चक्र से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि किसान हरित क्रांति के कृषि मॉडल का त्याग कर दें। हरित क्रांति कृषि व्यवस्था में मूलभूत खामियां हैं। इसमें कभी भी किसान के हाथ में पैसा नहीं टिक सकता। अब वह देश भर में कार्यशाला आयोजित कर किसानों को सजग कर रहे हंै कि प्राकृतिक कृषि के तरीकों से कर्ज के जाल को कैसे काटा जा सकता है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें