सोमवार, 20 दिसंबर 2010
अपने मुंह मियां मिठ्ठू
2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला... अपने मुल्क में घोटालों की फेहरिस्त काफी लंबी है। भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री राजनैतिक प्रतिष्ठान में से निकलती है। यह प्रतिष्ठान गोमुख के रास्ते की तरह बहुत ऊबड़-खाबड़ है। अब तो भ्रष्टाचार बाकायदा ईमानदारी का धंधा बन गया है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी का पार्टी के 83वें महाधिवेशन में यह कहना कि पार्टी भ्रष्टाचार को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करेगी, हास्यास्पद जरूर लगता है। ऐसा लगता हैं कि 2-जी घोटाले के मामले में विपक्ष के हमले का जवाब देने में कांग्रेस व सोनिया के तरकश के तीर या तो खत्म हो गए हैं या जो तीर बचे हैं वे भी भोथरे हो गए हैं ! उल्टे भ्रष्टाचार पर विपक्षी दलों के रूख की आलोचना करते हुए सोनिया ने कहा कि कांग्रेस ने एक मिसाल कायम की है और केवल आरोप के आधार पर मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों के इस्तीफे लिए हैं। मगर इससे इनकार कौन कर सकता है कि चाणक्य नीति से लेकर दंड विधान तक एक समान विचार लगातार चलता रहा है और इसका सार यह है कि अभियोगी और अपराधी को उन सभी लाभों से वंचित कर दो, जो उसने भ्रष्टाचार के जरिए अर्जित किए हैं। अपने देश में जहां नगरपालिकाओं और कचहरियों के मामूली कर्मचारी भी करोड़पति पाए जाते हैं और जब छापे पड़ते हैं, तो जूनियर इंजीनियरों की भी कोठियां पाई जाती हैं। भारत के भूतपूर्व गृह सचिव एन. एन. वोहरा की एक रिपोर्ट 1993 में आई थी। इस रिपोर्ट में भारत में अफसरों और नेताओं के कर्मकांडों की जांच-पड़ताल की गई थी और चूंकि यह सरकारी जांच थी इसलिए स्वाभाविक तौर पर सरकारी एजेंसियों ने सरकारी प्रश्नावली का सरकारी ढंग से सरकारी उत्तर दिया था और यह सरकारी तौर पर बताया था कि जहां हाथ रख दो, वहां भ्रष्टाचार का पौधा उग आता है। समस्या यह है कि अब भ्रष्टाचार हमारी आदत में शामिल हो गया है। यह अपवाद नहीं, सच बन गया है। हमें शर्म नहीं आती, समाज में पसरे भ्रष्टाचार को हम तब भी गाली देते हैं लेकिन काम भी उसी से चलाते हैं। ठेकों, लाइसेंसों और परमिटों में घपले इतने चलते हैं कि अगर हम लोग खुद नहीं भुगत रहे हों तो हमें आनंद आ जाता। बाढ़ और सूखा एक पूरे-के-पूरे वर्ग के लिए आनंद का उत्सव लेकर आते हैं। राहत का सामान उनकी कई पीढिय़ों को राहत दे जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम बड़े-से-बड़े घोटाले और उनके तथाकथित सदाचारी पात्रों के चेहरों से नकाब उठ जाने, तमाम टेप सुन लेने, तमाम दस्तावेज देख लेने के बावजूद चौंकते नहीं है। भ्रष्टाचार से लडऩे की जिम्मेदारी समाज की है। लोकायुक्त से लेकर अदालतों के जो न्यायसंगत संगठन बनाए गए हैं, वे समाज की सहायता करने वाले ही हैं, मगर जब तक उन्हें शिकायत नहीं मिलेगी, तब तक वे भी हाथ बांधे बैठे रहेंगे। अलग-अलग राज्यों में लोकायुक्तों, लोक अदालतों और सूचना आयुक्तों के अलावा दूसरी न्याय संस्थाओं के खिलाफ भी शिकायतें मिलती ही हैं। राज्य सरकारों तक तो लोकायुक्त हैं भी, लेकिन केंद सरकार में प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रिमंडल को समेटने वाला लोकपाल का पद सिर्फ संविधान में रचा रह गया है और इसे अमली जामा कौन, कैसे, कब पहनाएगा, यह किसी को पता नहीं है। भ्रष्टाचार की परिभाषाएं देश, काल, परिस्थितियों के हिसाब से सापेक्षतावाद के हिसाब से बदलती रहती हैं और इसीलिए लगभग संविधान के स्तर की कोई किताब होनी चाहिए जो काले, सफेद अक्षरों में परिभाषित कर दे कि किस सीमा तक भ्रष्टाचार समाज या देश सहन कर सकता है और कहां से उल्लंघन की सीमा शुरू होती है। सारे सरकारी नियम और संहिताएं कोई अमृत से नहीं लिखी गई हैं, जिन्हें मिटाया नहीं जा सके। जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि समाज और प्रतिष्ठान भ्रष्टाचार के तत्वों को पहचानें और पहचान कर इस पाप से मुक्ति पाने का इंतजाम करें। वरना दलाली से लेकर तमाम किस्म की भाडग़ीरी को भी हम मान्यता देते रहेंगे और किताबों में सिर्फ कक्षाओं से आवाज आती रहेगी कि हमारा देश एक महान देश है।
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