सोमवार, 31 मई 2010

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल

सन्मार्ग पर चलने का, परोपकार करने का या अच्छे काम करने का नशा भी कई लोगों को होता है और जिन लोगों को यह नशा होता है, ऐसे ही लोग दुनियां को दिशा देते हैं। मानवता को सिद्ध और सार्थक करते हैं,पर यह नशा जरा दुर्लभ है। सात्विक उन्मादी निश्चित ही विशाल हृदयी ,विनयशील ,पर दुखकातर होते हैं। उनके समस्त प्रयास कल्याणकारी होते हैं। सत्य, धर्म के रक्षार्थ सहज ही प्राणोत्सर्ग को ये तत्पर रहते हैं। करुणा क्षमा ममत्व इनके स्थायी गुण होते हैं। इनकी सोच समझ चिंतन,सब सात्विक और विराट हुआ करते हैं और इसके ठीक विपरीत अभिमानी अपने सुख संतोष और तुष्टि हित ही समस्त उद्यम करते हैं । किसी को अपमानित प्रताडि़त कर ये परमसुख पाते हैं... और तो और यदि कोई इनका अहित करे ,कहीं इनका अहम् आहत हो तो किसीके प्राण लेने में भी ये पल को नहीं झिझकते। संकीर्ण ह्रदय,छोटी सोच का रह वह कभी बड़ा नहीं हो सकता। कितना भी कुशल अभिनेता क्यों न हो, मुखौटा लगा, कुछ समय के लिए व्यक्ति नाम,मान, यश, प्रतिष्ठा यदि कमा भी ले, तो उसे चिरस्थायी नहीं रख सकता। कोई न कोई पल ऐसा आएगा जब अभिमान मद में चूर हो व्यक्ति चूकेगा ही और सारी पोल पट्टी खुलते क्षण न लगेगा ...। अंगुलिमाल जब गंडासा ले भगवान् बुद्ध की हत्या करने को उद्धत हो उनके सामने आ खड़ा हो गया तो भी भगवान् बुद्ध की जो स्थायी प्रवृत्ति क्षमा दया करुणा और शांति थी,वही बनी रही और उनके इसी गुण ने, उनके विराट व्यक्तित्व ने, अंगुलिमाल को भी हत्यारे से योगी बना दिया। यह होता है सात्विक स्वरुप और उसका असर। तुलसीदास जी ने कहा है- कुमति सुमति सबके उर रहहीं... सभी धर्मों, सम्प्रदायों, पंथों ने स्वीकारा है कि मनुष्य के भीतर देव और दानव दोनों ही बसते हैं। बस बात है कि किसे किसने अपने वश में कर रखा है। दानव देव के वश में होगा तो मनुष्य देवतुल्य हो जायेगा और देव दानव के वश में होगा तो मनुष्य असुर सम होगा। महाभारत के महासंग्राम में रथ पर बैठे अर्जुन और सारथि बने कृष्ण कितना कुछ सिखा जाते हैं। जबतक व्यक्ति स्वयं को अपनी वृत्तियों को इस प्रकार निबंधित न करेगा ,वह जीवन संग्राम नहीं जीत सकता। इस रथ में जुटे घोड़े वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी स्वेच्छाचारी घोड़े हैं जो सदैव ही मनुष्य को तीव्र वेग से अपनी अपनी दिशा में भगा ले जाने को उद्धत रहते हैं। परन्तु एक बार जब इनकी लगाम व्यक्ति कुशल सारथी ईश्वर (विवेक) के हाथों सौंप देता है, तो फिर साधन साथ हो न हो,विजयश्री उसे मिलती ही है। दुनिया में इतने सारे लोग जो इस प्रकार विभिन्न व्यसनों में लिप्त हैं, उन्मादित होने को लालायित रहते हैं , ऐसा नहीं है कि प्रमाद /नशा में कोई सुख नहीं। सुख है, और बहुत बहुत सुख है। सुख है तभी तो लोग इसकी ओर इस तरह भागते हैं...पर तय यह करना होगा कि कौन सा सुख किस कीमत पर लेना है। दुनियां में मुफ्त कुछ भी नहीं होता, हर सुख की कोई न कोई कीमत होती है। बस चयन में जो चपलता, बुद्धिमानी दिखायेगा ,वही जय या पराजय पायेगा।

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