बुधवार, 5 मई 2010
रेंकने में कोई कोताही नहीं
बियाबान में यह कैसा शोर? हल्ला मचाने से कुछ नहीं होगा। वही होगा जो मंजूर-ए-खुदा होगा। तुरुप का पता हाथ में होने का भ्रम सभी पाल बैठे हैं। चाल पर चाल। कमाल। अकड़ ऐसी कि पूरा आसमां इन्हीं के सर पर है। दिमाग अति शातिर। सुपर बॉस को खुश कैसे किया जाए, इसमें इन्हें खास महारत होती है। यह इनके एक दिन की नहीं, महीनों-बरसों की साधन ा होती है। पास में बैठ दिल की बात उगलवा लेते हैं, फिर दुलत्ती दे बैठते। वैसे यह नस्लीय पहचान में शामिल है। रेंकने में कोई कोताही नहीं। अपना उल्लू सीधा करने इतने उल्लू के पट्ठे अगल-बगल जुट जाते हैं। सलाम के मायने बदल जाते हैं। चुगलखोर चुगली में जुट जाते हैं। कोई झुककर पांव छुता है तो कोई हाथ जोड़कर चेहरा निहारने में लग जाता है। तो कोई आनंद में आकंठ डूबे होने का स्वांग रचता है। यह है कार्यालयों की सच्चाई। निजी दफ्तरों में तो सच को सच साबित करना काफी मुश्किल है। क्योंकि, सच पर यदि अडिग हुए तो नौकरी तक चली जाएगी? सवाल यह भी कि यदि सच बॉस को बताया जाए तो क्या वे मानेंगे? जवाब यही होगा कतई नहीं? वजह साफ है-काम करने वाला व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि सही में वह कार्यों के प्रति सजग है? कहे भी तो क्यों? उसे यह अभिमान रहता है कि वह मेहनती और अपने कार्य के प्रति ईमानदार है। फिर वह सबूत क्यों दे, परंतु यह कलयुग है। यहां हर चीज का सबूत चाहिए। बॉस को भी सबूत चाहिए। हालांकि कुछ बॉस ऐसे भी होते हैं, जो ज्यादा आगे-पीछे करने वालों को तुरंत भांप लेते हैं और उन्हें दरकिनार कर देते हैं। परंतु इसमें थोड़ा वक्त लग जाता है। तब तक कई कामचोर, देहचोर और चुगलखोर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। हालांकि इनकी कलई भी जल्द ही खुल जाती है और वे कहीं के नहीं रहते हैं। इसलिए संस्थान के प्रति ईमानदार रहें न कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रति। काम करने वाला हर बॉस अपने साथियों से यही उम्मीद करता है।
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