सोमवार, 31 मई 2010

सामने वाले में शराफत ही नहीं

देश में मूल रूप से शराफत की दो किस्में पाई जाती हैं। एक अभी वाली, एक पुराने जमाने वाली। पुराने जमाने वाली में एक अतिरिक्त समस्या यह भी थी कि उसे लगातार ओढ़े रहना पड़ता था। लगातार ओढ़े-ओढ़े एक दिन शराफत कवच की तरह शरीर से चिपक जाती थी। फिर आदमी भले ही उसे छोडऩा चाहे, शराफत उसे नहीं छोड़ती थी। तो ऐसे संघर्षो के बाद मजबूरी में आदमी शरीफ मान ही लिया जाता था। हालांकि तब शराफत की परीक्षा कठिन होती थी। बहुत तैयारियां लगती थीं। उच्चस्तरीय प्रयासों के दौरान कई बार मूलभूत शरीफ आदमी तक ऊब जाता था। आखिर कोई शराफत को कब तक ओढ़े रहे, एक दिन तो उसे भी उतारकर फेंकनी होती है। कब तक मुंह को गंभीर किस्म का बनाकर रखे। भई, बड़ा जोर लगता है शराफत को मुंह पर चिपकाकर रखने में, शराफत तक हाथापाई पर उतर आती थी कि कहीं तो खाल से निकलकर औकात पर उतरो। हालांकि तब मामला इस मायने में थोड़ा आसान था कि जरूरत के हिसाब से पावभर या छटांकभर शराफत लेनी होती थी। उसे मुंह पर चिपकाकर ड्राइंगरूम में लगातार बैठना पड़ता था। ड्रइंगरूम खाली न मिला तो दालान में चिपकना होता था, दालान खाली न मिली तो बागीचे में कुर्सी डालने की व्यवस्था जमानी होती थी। सामने वाली टेबल पर कुछ अखबार रखने होते थे। बाजू वाले स्टूल पर शराफत का कुछ अतिरिक्त स्टाक भी रखना होता था। हर तरह की आवाजों के प्रति बहरोचित होने का गुण भी विकसित करना होता था। इतने प्रयासों के बाद जो चीज निकलकर आती थी वो होता था, खालिस शरीफ आदमी। एकदम 24 कैरट का। बाहर से आने वालों से लेकर रास्ते तक से गुजरने वाले इस शराफत को नमन करते हुए गुजरते थे। अब वक्त बदल चुका है। वर्तमान में शराफत की जरूरत थोड़ी अलग तरह की है। अब शरीफ होना-भाई साब अच्छे हैं काम के नहीं हैं-टाइप का है। इसलिए शरीफ दिखना सब चाहते हैं, होना कोई नहीं चाहता। अब तो आदमी जीविका के अलावा दंद-फंद की आजीविका में ही मुख्य रूप से उलझा है। जब नहीं उलझा है, तो उलझने के तरीकों पर मनन कर रहा है। पत्नियां तक श्रीमान को गाहे-बगाहे समझाती रहती हैं-ज्यादा शराफत दिखाने की जरूरत नहीं है, इन पड़ोसियों को अच्छी तरह समझा देना हमें ज्यादा शरीफ समझने की भूल न करें, नहीं तो अच्छा नहीं होगा। फिर थकहार कर हर आदमी शराफत की तलाश में निकल ही जाता है। अंत में जब उसे शराफत मिलती है तो उसे वह अपने लिए नहीं दूसरे के लिए ही चाहिए। दूसरे की चाह भी यही है। अर्थात् अब हर आदमी शराफत को दूसरों में ही देखना चाहता है। अपनी ऐसी फजीहत से ऊबकर ही शराफत कहीं कोने में सिमटी बैठी है। अच्छे दिनों के इंतजार में . .जब उसे फिर से कोई शरीफ अपनाएगा, वापस सम्मान दिलवाएगा।
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