बुधवार, 5 मई 2010

नारको की नारको जांच हुई

उच्चतम न्यायालय ने जबरन नारको टेस्ट किए जाने को असंवैधानिक करार दिया है। अदालत का मानना है कि यह अभियुक्त के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। हालांकि न्यायालय ने कहा कि बहुत ज्यादा जरुरी होने पर ही जांच एजेंसियां नार्को एवं अन्य परीक्षण कर सकती हैं लेकिन इसके लिए अभियुक्त की लिखित सहमति अपरिहार्य है। दरअसल गुजरात में गॉड मदर के नाम से चर्चित संतोख बेन जडेजा एवं करीब दस अन्य याचिकाकर्ताओं ने इन याचिकाओं के जरिए ब्रेन मैपिंग, मशीन के जरिए झूठ का पता लगाने और नारको जांच जैसी जांच तकनीकों को खास तौर पर उन मामलों में अवैध तथा असंवैधानिक बताते हुए चुनौती दी थी। इन जांच तकनीकों के इस्तेमाल को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले लोगों में गुजरात में संतोख बेन शारमनभाई जडेजा के अलावा तमिल फिल्म निर्माता के वेंकेटेश्वर राव, जाली स्टाम्प पेपर घोटाले के आरोपी दिलीप कामथ और महाराष्ट्र के निर्दलीय विधायक अनिल गोटे शामिल हैं। उनकी अलग-अलग याचिकाओं का एक साथ निपटारा करते हुए खंडपीठ ने यह ऐतिहासिक फैसला दिया। न्यायालय ने 23 अक्टूबर 2007 को संतोख बेन के नार्को परीक्षण पर अंतरिम रोक लगा दी थी। इसके बाद से यह माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट का इस संदर्भ में फैसला आने तक अन्य अभियुक्तों का नार्को परीक्षण नहीं किया जाएगा लेकिन बाद में भी विभिन्न मामलों में जांच एजेंसियों ने इस तरह के परीक्षण कराए। न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या किसी अभियुक्त को उसकी लिखित सहमति के बगैर नार्को परीक्षण के लिए बाध्य किया जा सकता है। मनुष्य के शरीर में दो मन होते हैं - जाग्रत मन और अंतर्मन। जाग्रत मन सच-झूट, छल-कपट आदि सब जानता है और इसमें तर्कशक्ति होती है. अंतर्मन सीधा-सच्चा होता है। यह छल-कपट, जालसाजी, चालबाजी, चार सौ बीसी, धूर्तता जैसी बातों को नहीं जानता। इसमें तर्कशक्ति का अभाव होता है। किसी अभियुक्त से सम्बंधित घटना के बारे में सही स्थिति जानने के लिए नारको टेस्ट किया जाता है। अभियुक्त को एक विशेष रसायन का इंजेक्शन दिया जाता है। जिससे उसका जाग्रत मन सो जाता है, जबकि उसका अंतर्मन जागता रहता है। यह स्थिति मोह निद्रा जैसी होती है। इसके बाद जांचकर्ता अभियुक्त से तरह-तरह के प्रश्न पूंछकर घटना के बारे में सही जानकारी प्राप्त करता है। नार्को एनालिसिस मूलत : नार्कोटिक्स से बना है। नार्कोटिक्स यानि नशीले पदार्थ। सन् 1922 में एक अमेरिकन चिकित्सक रोबर्ट हाउस ने पता लगाया कि यदि कुछ खास रसायनों का मनुष्य द्वारा सेवन किया जाता है, तो कुछ समय के लिए उसकी कल्पना शक्ति और विचार शक्ति खत्म हो सकती है। इस प्रकार वह व्यक्ति कुछ भी सोचने और समझने की हालत में नहीं रहता है और फिर वह वही कहता है जो सच होता है अथवा जो उसके दिमाग में होता है। जिस व्यक्ति पर नारको किया जाता है वह व्यक्ति जो भी बोलता है वह अनायास ही बोलता है यानि कि कुछ भी सोच समझकर नहीं बोलता। हालांकि कई उदाहरण ऐसे भी हैं जब यह पाया गया कि व्यक्ति ने नारको टेस्ट के दौरान भी झूठ बोला है। वस्तुत: नारको टेस्ट में व्यक्ति की मानसिक क्षमता और भावनात्मक दृढ़ता पर ही सब कुछ निर्भर करता है। नारको टेस्ट कानूनी रूप से सबूत के तौर पर तो नहीं लिए जाते हैं, परंतु विभिन्न अपराधों की जांच में बहुत उपयोगी साबित होते रहे हैं। अब उच्चतम न्यायालय का कहना कि किसी व्यक्ति को इस तरह की प्रक्रिया से गुजारना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखलंदाजी होगी। न्यायालय ने कहा कि पॉलीग्राफी जांच के दौरान जांच एजेंसियों को मानवाधिकार आयोग के दिशा निर्देशों का सख्ती से पालन करना होगा। स्टाम्प घोटाला, आरूषि मर्डर केस, मुंबई बम ब्लास्ट, मालेगांव ब्लास्ट, निठारी कांड ये कुछ प्रमुख मामले हैं, जिनमें आरोपियों नारको टेस्ट किया गया है। सवाल यह उठता है कि पेचीदगी भरे मामलों को में अक्सर नारको जांच की मांग का क्या होगा? तय है कि इससे जांच की दिशा प्रभावित होगी। इस जांच को मुख्य अधिकार मान कर चलने वाली एजेंसियों के समक्ष दोहरी परेशानी होगी, आरोपी का नारको किया जाए तो अदालत की अवमानना, न किया जाए तो शातिरपन के आगे बेबसी। जांच एजेंसियों के लिए मंथन का वक्त है।

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