सोमवार, 31 मई 2010

और कितनी आहुतियां

नक्सलियों द्वारा रेल पटरी पर किए गए विस्फोट से देर रात महाराष्ट्र जा रही ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के 13 डिब्बे पटरी से उतर गए। इन्हें विपरीत दिशा से आ रही एक मालगाड़ी ने जोरदार टक्कर मारी, जिससे 65 यात्रियों की मौत हो गई और 200 अन्य घायल हो गए। दंतेवाड़ा की बात अब पुरानी हो जाएगी। नई कहानी सभी परोसने को आतुर होंगे। मगर ध्यान देने वाली बात है। नक्सली समस्या पर केंद्र और राज्य सरकारों की बड़ी-बड़ी बातें हम कई बार सुन चुके हैं लेकिन इस समस्या का समाधान होने की बजाए पुलिस और सुरक्षा बलों के ज्यादा से ज्यादा कर्मी तथा साथ ही आम नागरिक दिन-ब-दिन इस समस्या की चपेट में आ रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच इस समस्या को लेकर कोई खास समन्वय दिखाई नहीं देता। दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री के बयानों और राज्य सरकारों की कोशिशों की चर्चा तो बहुत होती है लेकिन समस्या और ज्यादा गहरी हो रही है। नक्सलवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। सरकारें इसकी भयावहता का सही अंदाजा लगाने में या तो नाकामयाब रही हैं या फिर सब कुछ पता होते हुए कारगर कदम नहीं उठाए गए हैं। नक्सल समस्या से निबटने के लिए आबंटित धनराशि इतने वर्षों से पानी में बहाई जा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समावेशी विकास की बातें करने वाली सरकारों की कथनी और करनी के अंतर की उचित समीक्षा भी जरूरी है। राज्य सरकारों के सहयोग से केंद्र सरकार को यह पता लगाना होगा कि नक्सलियों के पास इतने उन्नत हथियार कहां से आते हैं, उनके आर्थिक स्रोत क्या हैं और वे देश के सुरक्षा तंत्र को भेदने में हर बार क्यों कामयाब हो जाते हैं? लाशें बिछा दी जाती हैं और फिर तांडव की गाथा चटखारे लेकर परोसी जाती है, आखिर क्यों और कब तक? मासूम लोगों पर नक्सली हमलों की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इन घटनाओं ने भारत के लोगों को झकझोर कर रख दिया है लेकिन शासन की तरफ से नक्सली हिंसा पर लगाम लगाने की ठोस कोशिशें होती नजर नहीं आ रही हैं। सरकार अब भी न चेती तो काफी देर हो जाएगी। अब वक्त आ गया है कि सरकार इस मसले पर सभी दलों को साथ लेकर चले और नक्सल समस्या की कमर तोडऩे के लिए पूरी ताकत झोंक दे।
क्या है नक्सलवाद :
1967 में सशस्त्र क्रंाति के माध्यम से किसानों और मजदूरों को उनका हक दिलाने के लिए पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान पर एक आंदोलन की शुरूआत की गई थी। जिसे उसके स्थान के नाम पर नक्सलवाद आंदोलन कहा गया। इसके सिद्धांत माक्र्सवाद से प्रभावित थे, जबकि तरीके माओवाद से। माओ चीन के सश्सत्र क्रंाति के प्रसिद्ध नेता थे जिनका ऐतिहासिक कथन था राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। इसके अलावा राजनीति रक्तहीन युद्ध है, जबकि युद्ध रक्त से भरी राजनीति। शुरूआत में यह आंदोलन केवल पश्चिम बंगाल में चलाया जा रहा था। लेकिन पिछले कुछ सालों में देश के बाकी भागों में भी यह फैलने लगा। खासकर पूर्वी भारत, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में भी माओवादियों के साथ नक्सलवादी अपने पैर पसारने लगे। 2009 के आंकड़ों के अनुसार, नक्सली देश के 20 राज्यों की 220 जिलों में सक्रिय हैं। वह प्रमुख तौर पर रेड कॉरिडोर कहे जाने वाले क्षेत्रों में सक्रिय हैं। भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के मुताबिक देश में 20000 नक्सली काम कर रहे हैं। फरवरी 2009 में केंद्र सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, माहाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल में जवाबी कार्रवाई के संयुक्त ऑपरेशन की घोषणा की थी।
विकृत होता नक्सलवाद :
अब तो यह साफ हो गया है कि वास्तव में नक्सलवाद भटका हुआ आंदोलन है । यह अधैर्य की उपज है। इसकी बस्ती में मानवता की कोई बयार नहीं बहती। यह पशुयुग की वापसी का उपक्रम है, जिसके मूल में है हिंसा और सिर्फ हिंसा। यह जन के लुटे हुए सत्व के लिए नहीं अपितु हितनिष्ट ताकतों की राजनैतिक सत्ता के लिए संघर्ष मात्र है, जिन्हें वस्तुत: जनता के कल्याण से कोई वास्ता नहीं है । तथाकथित समाजवादी मूल लक्ष्यों की साधना से न अब किसी कमांडर को लेना देना है न वैचारिक सूत्रधारों को। वह पथभ्रष्ट और सिरफिरे लोगों की राक्षसी प्रवृत्तियों और हिंसक गतिविधियों का दूसरा नाम है। रहे होंगे उसके अनुयायी कभी सताये हुए लोगों के देवता, अब तो उनका दामन आदिवासियों, गरीब और अहसाय लोगों के खून से रंग चुका है । उसके मेनोफेस्टो में अब दीन-दुखी, पीडि़त-दलित, मारे-सताये हुए पारंपरिक रूप से शोषित समाज के प्रति न हमदर्दी की इबारत है, न ही समानता मूलक मूल्यों की स्थापना और विषमतावादी प्रवृतियों की समाप्ति के लिए लेशमात्र संकल्प शेष बचा है। वह स्वयं में शोषण का भयानकतम् और नया संस्करण बन चुका है। वह अभावग्रस्त एवं सहज, सरल लोगों के मन-शोषण नहीं बल्कि तन-शोषण का भी जंगली अंधेरा है। एक मतलब में नक्सलवाद शोषितों के खिलाफ हिंसक शोषकों का नहीं दिखाई देने वाला शोषण है।
नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ :
यदि समाजवादी आंदोलन की बुनियाद में मानव प्राण के प्रति सम्मान था तो फिर निरीह, निर्दोष लोगों को खुलेआम कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहाँ से ढूंढ़ निकाली। जैसा कि नक्सली मानते हैं कि वे जनता के अधिकारों के पहरुए हैं और उन्हें शोषण से मुक्त करना ही उनका लक्ष्य है तो वे उसी शोषित जनता की हत्या की राजनीति क्यों चलाते हैं। यहाँ उनकी यह करतूत क्या उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से नहीं जोड़ देती है? नक्सली जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे अंतत: लाभकारी होगा वॉर इंडस्ट्री को। खास कर उन्हें जो हथियारों की चोरी-छिपे भारत में अस्त्र-शस्त्र की आपूर्ति को निरंतर बनाये रखना चाहते हैं । इनकी घोर क्रांतिकारिता जैसे शब्दावली ही बकवास है। उसे मानवीय गरिमा की स्थापना की लड़ाई कहना नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ है अदृश्य किंतु सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि वह सत्ता प्राप्ति का गैर प्रजातांत्रिक और तानाशाही (अ)वैचारिकी का हिंसक संघर्ष है ।
ढोंग और नक्सलवाद की कुटिल चालें :
देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मजदूरों के खिलाफ ठेकेदार,मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। यह भी भूल साबित हो चुका है और इस भूल के शिकार होकर सैकड़ों हजारों असंतुष्ट युवा, बुद्धिजीवी और बेरोजगार इस आंदोलन में अपना जीवन व्यर्थ गवाँ चुके हैं। वे भारी भूल में थे जो यह समझते रहे कि वे मानवीय हित के लिए लड़ रहे हैं या वे समाज के लिए शहीद हो रहे हैं। न उनके आँगन का अंधेरा छंटा न ही गाँव-समाज-देश का । वास्तविकता तो यही है कि जाने कितने गरीब मांओं का आँचल सूना हो चुका है । सैकड़ों असमय वैधव्य झेल रही हैं। हजारों बच्चे आज सामाजिक विस्थापन झेल रहे हैं। एक ओर उन्हें हिंसावादी की संतान मान कर असामाजिक दृष्टि को झेलना पड़ रहा है दूसरी ओर वे असमय आसराविहीन हो रहे हैं। कभी-कभी उनके पिताओं के नाम पर बने किसी स्मृति पत्थर पर जरूर दो-चार जंगली फूल जरूर सजा दिये जाते हैं। वह भी इसलिए कि भावुक और आक्रोशित युवा नक्सलियों को शहीद होने का भ्रम बना रहे । यह सिर्फ ढोंग और नक्सलवाद की कुटिल चालें हैं, और कुछ नहीं । बस्तर और सरगुजा का भी युवजन नक्सलवाद के इसी ढोंग का शिकार हो चुका है। विकास के लिए आरक्षित धनराशि का एक बड़ा हिस्सा पुलिस और सैन्य व्यवस्था के नाम पर व्यय हो रहा है जो अनुत्पादक है । इससे तरह-तरह की नया भ्रष्टाचार भी पनप रहा है। यदि खबरों पर विश्वास करें तो नक्सल प्रभावित लोगों के लिए प्रायोजित राहत के नाम पर फिर से बाजारवादी और लूट-घसोट में विश्वास रखने वाले ठेकेदारों को नई उर्जा मिल रही है ।
इनका लक्ष्य समाज की शुचिता नहीं :
नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो ज्यादा संभव है कि उनका यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर साबित हो। लेकिन खेद है कि यह उनका लक्ष्य कम से कम अब तो वह कतई नहीं रहा । यदि ऐसा होता तो वे भी समाज की, देश की अन्य बुराईयों और दासतावादी मानसिकता के विरूद्ध लड़ते। यदि ऐसा होता तो वे न्याय व्यवस्था में सुधार, न्यूनतम मजदूरी या वेतन, मादा भ्रूण हत्या, सांप्रदायिकता, धर्मांधता और अशिक्षा के विपरीत भी एकजूट होते। यदि ऐसा होता तो ये भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लड़ाई लड़ते जो आज वनांचलों की ही नहीं समूचे भारत की सबसे बड़ी समस्या है। और ऐसी सभी विद्रुपताओं का खात्मा समान उद्देश्यों की सूची में होती। तब कदाचित् देश का अधिसंख्यक समाज भी जो आजादी के इतनी लबीं अवधि के बाद भी बुनियादी स्वप्नों और आंकाक्षाओं को फलित होते नहीं देख सका है, उनके वैचारिक लड़ाई में साथ होता। जाहिर है कि इनका लक्ष्य समाज की शुचिता नहीं।
शर्म, शर्म, शर्म...
नक्सलवादियों के क्रूरतम आक्रोश का जो शिकार हो रहे हैं, जो बमौत मारे जा रहे हैं क्या उनका कोई मानव अधिकार नहीं है ? जो इन नक्सलियों के बलात्कार और लूट-घसोट के स्थायी शिकार होने को बाध्य हैं क्या उनके भी मानव अधिकार निरस्त कर दिये गये हैं पुलिस के उपरले नहीं किन्तु निचले स्तर के जो अकारण सिपाही मारे जा रहे हैं उनके अनाथ बच्चों का कोई मानव अधिकार नहीं? बड़े-बड़े पुलिस अधिकारियों के नक्सली क्षेत्र के दौरों के बहाने वन की सैर-सपाटे और शानो-शौकत में मातहत कर्मचारियों अपने छोटे-छोटे बच्चों के पेट काट कर जो चंदा दे रहे हैं उसमें मानव अधिकार हनन की कोई दुर्गंध नहीं आती? नक्सलियों को कौन-सा ऐसा विशिष्ट मानव अधिकार मिल गया है जो नौनिहालों को पाठशाला से जो वंचित कर रहे हैं ? नक्सलवादी भूगोल की संभावित गरिमा जो छीन रहे हैं वे क्या मानव अधिकार का हनन नहीं कर रहे हैं। आखिर आदिवासी ग्रामों को सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधा से वंचित करके रखने वाले ये नक्सली कौन सा मानव अधिकार का पाठ पढ़ा रहे हैं।
त्रासदी का शिकार कब तक?
आखिर कब तक हम इन नक्सलियों की त्रासदी का शिकार होते रहेंगे। वारदातों का होना लगातार जारी है। मासूम लोग मर रहे हैं और सरकार मुआवजों का ऐलान कर के चुप हो जाती हैं, लेकिन सरकार कोई भी समाधान इस समस्या का निकाल नहीं पा रही है। बैठकों के दौर जारी हैं, चिदंबरम ने नक्सलियों से लडऩे की जिम्मेदारी खुद ले ली है लेकिन फिर भी कोई ठोस कदम उठाए नहीं गए हैं। हम अभी दंतेवाड़ा के घावों से उबर भी नहीं पाये थे कि पं, बंगाल की घटना ने हमारी चोट और दर्द को फिर से हरा कर दिया। आखिर सरकार से चूक कहां हो रही है?
72 फीसदी लोग चाहते हैं, सेना ले लोहा :
एक सर्वे में हमने देश की जनता से सवाल किया गया कि क्या नक्सलियों के खात्मे के लिए हमें सेना की मदद ले लेनी चाहिए? आपको जानकर हैरत होगी कि जनता का जवाब आया कि हां हमें अब नक्सलियों के खात्में के लिए सेना की मदद लेनी चाहिए। देश के 72 प्रतिशत लोगों का मत है कि सरकार को अब नक्सलियों के अंत के लिए भारतीय सेना की मदद ले लेनी चाहिए। इससे साबित होता है कि भारत की आम जनता का भरोसा देश की सुरक्षा बलों से उठ गया है और वो जल्द से जल्द इस आतंक का खात्मा चाहती हैं, और शायद ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि मरता तो एक आम आदमी ही है। देश की सरकार चलाने वाले हमारे पुरोधा केवल एसी कमरों में बैठ कर मुकाबले की रणनीति ही बनाते रहते हैं लेकिन उसे अमल में कब लाया जायेगा ये उन्हें भी पता नहीं है। दंतेवाड़ा की खबर के बाद सेना की मदद का प्रस्ताव रखा गया था और सेना ने नक्सली प्रभावित क्षेत्रों मे उन इलाकों को चिन्हित किया था जहां से नक्सली आग बरसाने का काम करते हैं। लेकिन तब विरोधियों ने ये कह कर इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि इससे आम लोगों को बेहद परेशानी होगी, अब ये तो वो ही जाने कि क्या अभी आम जनता परेशान नहीं हैं। देखना ये होगा कि सरकार पं. बंगाल की त्रासदी के बाद मुआवजे का ऐलान करके चुप हो जाती है या फिर वो जनता के फैसले का सम्मान करती है।
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