सोमवार, 31 मई 2010

खिलौने जासूसी करेंगे चीन के लिए

कनाडा के रिसर्चरों ने चीनी कंप्यूटर - जासूसों अथवा हैकरों की गतिविधियों की पड़ताल करने के बाद शेडोज इन क्लाउड के नाम से एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट के मुताबिक चीन के सिचुआन प्रांत में बैठे हैकरों ने भारतीय प्रतिष्ठानों और विदेशों में भारतीय दूतावासों के कंप्यूटरों को निशाना बनाया है। चीनी हैकरों ने न सिर्फ भारत के मिसाइल कार्यक्रम के बारे में संवेदनशील सूचनाएं एकत्र करने की कोशिश की है, बल्कि मिलिट्री इंजिनियरिंग सर्विसेज के अनेक कार्यालयों के कंप्यूटरों में भी सेंध लगाई है। इससे स्पष्ट है कि हमारा कंप्यूटर रक्षा कवच कितना कमजोर है। सरकार ऊपरी तौर पर भले ही यह कहे कि सब कुछ सुरक्षित है , लेकिन यह सच है कि अभी हम इस तरह की कंप्यूटर सेंधमारी रोकने या उसका माकूल जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। हालांकि हाल में थोड़े बहुत कदम उठाए गए हैं। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में विदेशी चिप लगे होने के कारण हैकर संचार प्रणालियों के कंप्यूटरों में सूराख करने में सफल हो रहे हैं। खतरों को भांपते हुए अब सरकार ने चीन से आयातित होने वाले दूरसंचार उपकरणों पर बंदिशें लगा दी हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन निर्मित खिलौने भी आगामी दिनों में जासूस की भूमिका अदा करेंगे। चीनी खिलौने के प्रति भारत के घर-घर में पैदा मोह को यूं ही नेस्तानाबूद तो नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके प्रति सजग रहने की बेहद आवश्यकता है। आशंकाओं को देखते हुए भारत को अपना सिक्युरिटी सिस्टम और मजबूत करना होगा। साथ ही ऐसे विशेषज्ञ भी तैयार करने होंगे, जो न सिर्फ साइबर हमलों को नाकाम कर सकें, बल्कि जरूरत पडऩे पर जवाबी हमले भी बोल सकें। हाल में कई साइबर हमले देखने में आए। ये हमले या तो सरकारों द्वारा प्रायोजित हैं या कुछ लोग निजी तौर पर इन्हें अंजाम दे रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे संवेदनशील और महत्वपूर्ण सिस्टम नेटवर्क से जुड़ रहे हैं, इन पर हमलों का खतरा भी बढ़ रहा है। इस साइबर मैदान में सिर्फ देशों के बीच ही लड़ाई नहीं होगी, आतंकवादी संगठन, अपराध माफिया और बुरी नीयत वाले लोगों से लेकर उच्च प्रशिक्षित कंप्यूटर के जानकार भी हिस्सा लेंगे। एक इंटरनेट सिक्युरिटी कंपनी मैकाफी ने 2007 में अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अनुमान लगाया था कि कम से कम 120 देश इंटरनेट को हथियार के रूप में विकसित करने के उपाय कर रहे हैं। इनके निशाने पर फाइनैंशल मार्केट, सरकारी कंप्यूटर सिस्टम और महत्वपूर्ण संस्थान हैं। मैकाफी के मुताबिक दुनिया के विभिन्न कॉरपोरेशंस को हर रोज लाखों साइबर हमले झेलने पड़ते हैं। हमारा देश भी इसका शिकार बन रहा है। कुछ समय पहले पीएमओ और विदेश मंत्रालय के कंप्यूटरों पर किए गए हमलों में चीन का हाथ बताया जाता है। पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के. नारायणन ने अपने कार्यालय में हैकिंग की शिकायत की थी। इसका शक भी चीन पर गया था। अमेरिका, ब्रिटेन व जर्मनी के सरकारी और सैनिक नेटवर्कों में भी चीनी हैकरों ने घुसपैठ करने की कोशिश की थी। गत फरवरी में गूगल भी साइबर हमलों का शिकार हुआ था और इसमें भी शक की सूई चीन पर गई। पिछले दिसंबर में दक्षिण कोरिया ने अपने यहां हुए साइबर हमलों की जानकारी दी थी। दक्षिण कोरिया के मुताबिक उत्तरी कोरिया के हैकरों ने गोपनीय सैन्य योजना का ब्यौरा उड़ा लिया था। पिछले साल जुलाई में रूस और चीन के साइबर जासूसों ने जर्मनी के पावरग्रिड और औद्योगिक गोपनीय डेटा को निशाना बनाया था। दुनिया में सबसे नियोजित साइबर हमला 2007 में एस्टोनिया में हुआ था, जब सरकारी, व्यापारिक और मीडिया वेब साइट्स को जाम करने के लिए करीब दस लाख कंप्यूटरों का इस्तेमाल किया गया। इन हमलों के पीछे रूस का हाथ समझा गया था क्योंकि उस वक्त दोनों देशों के बीच जबर्दस्त तनाव चल रहा था। इस हमले में लाखों यूरो का नुकसान हुआ था। दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमेरिका भी साइबर हमलों का शिकार हुआ है। हालांकि उसने खुद भी इस हथियार का इस्तेमाल किया है। 2007 में अज्ञात विदेशी ताकत ने अमेरिका के तमाम हाईटेक और सैनिक संस्थानों के कंप्यूटरों से सूचनाएं उड़ा ली थीं। विशेषज्ञों ने इस हमले को इलेक्ट्रॉनिक पर्ल हार्बर की संज्ञा दी थी। आज अधिकांश सरकारें और राष्ट्रीय रक्षा संस्थान यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि उन पर कब और किसने हमला किया और ऐसे हमलों का समुचित जवाब कैसे दिया जाए। कुछ देशों के पास ऐसे हमलों को समझ पाने की सीमित क्षमता है। साइबर स्पेस में लड़ा जाने वाला युद्ध अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है और विभिन्न देशों के लिए इसके परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं , इसका अंदाजा लोग अभी नहीं लगा पा रहे हैं। भविष्य की किसी लड़ाई में साइबर युद्ध बहुत ही निर्णायक हथियार बन सकता है क्योंकि शत्रु सरकारें अति उन्नत टेक्नॉलजी की आड़ में एक - दूसरे पर ऐसे हमले कर सकती हैं, जो पकड़ में नहीं आ सकते। पारंपरिक और परमाणु हथियारों के प्रयोग के बारे में अंतरराष्ट्रीय संधियों की तरह साइबर हथियारों के प्रयोग के बारे में अभी तक कोई सर्वमान्य संधि न होने के कारण साइबर युद्ध प्रभावित पक्षों पर बहुत भारी पड़ सकता है।

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