जब से यह खबर आई है कि जीवविज्ञानी क्रेग वेंटर और उनकी टीम ने लैब में सिंथेटिक लाइफ रच दी है। इस अनुसंधान के नतीजों के आधार पर वैज्ञानिक अब जीवन के ऐसे नए रूपों की रचना भी कर सकेंगे, जिनके जीनों को विविध कार्यों को अंजाम देने के लिए पहले से ही निर्देशित कर दिया जाएगा। इन विविध कार्यों में कार्बन-रहित ईंधन का उत्पादन, वायुमंडल में कार्बन डायऑक्साइड सोखना, अपनी जरूरत के हिसाब से दवाओं का निर्माण, खाद्य वस्तुओं की नए रूप और स्वच्छ पानी उपलब्ध करना शामिल है। इस तरह यह कृत्रिम जीवन, बायोटेक्नॉलजी के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला देगा और इस धरती पर मानव जीवन के लिए एक बड़ा वरदान साबित होगा। लेकिन, इस रिसर्च टेक्नॉलजी के गलत हाथों में पडऩे का खतरा भी तो हो सकता है। मसलन नई तकनीक के जरिए जैविक हथियारों का निर्माण किया जा सकता है या जीवन के मौलिक स्वरूप से छेड़छाड़ की जा सकती है। संभव है कोई ऐसे जीवों का निर्माण करने लगे जो जुओं की तरह दुश्मन देश के नागरिकों के सिरों में डाल दिए जाएं और वे अपने जहरीले उत्सर्जन से दिमाग को नष्ट कर दें। क्या डॉ. वेंटर अपने कृत्रिम जीव को नियंत्रित कर पाएंगे? उनके आलोचकों और धार्मिक संगठनों ने नई तकनीक के संभावित दुरुपयोग को लेकर चिंता जाहिर की है। उनको डर है कि कृत्रिम जीवन अनियंत्रित होकर मैदानों में पहुंचकर पर्यावरण में तबाही मचा सकता है। हो सकता है कुछ सैनिक दिमाग नई तकनीक से संहारक जैविक हथियार बनाने के बारे में सोचें। वेंटर मानवता के इतिहास के सबसे राजदार दरवाजे को खोल रहे हैं। एक तरह से वह उसकी नियति में झांकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन हर तरफ इसी की चर्चा हो रही है कि अब इस सिंथेटिक लाइफ से कैसे-कैसे करिश्मे हो सकते हैं। अतिरेक में यह तक कहा जा रहा है कि अब वैज्ञानिक अपने मन-मुताबिक जैसा चाहें, जीव रच सकते हैं और मनचाहा काम कर सकते हैं। इन दावों से ख्याली पुलाव पकाने वालों को सिंथेटिक लाइफ रूपी एक नया हथियार मिल गया है, लेकिन वैज्ञानिक बिरादरी इस खबर को लेकर उतनी उत्साहित नहीं है जितना मीडिया या आम जनता। वहां इस सनसनी से उलट यह बहस जोरों पर है कि क्या सच में वेंटर को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने लैब में सिंथेटिक लाइफ बनाने के सपने को साकार कर दिखाया है। ज्यादातर वैज्ञानिक और यहां तक कि खुद वेंटर कह रहे हैं कि उनका प्रयोग जीवन की रचना के करीब होते हुए भी उससे काफी अलग है। वेंटर के शब्दों में उपलब्धि सिर्फ यह है कि हमने दुनिया का पहला सिंथेटिक सेल (कोशिका) बनाने में सफलता पाई है। सिंथेटिक जीनोम का निर्माण और एक बैक्टीरिया का जीनोम निकालकर दूसरे में ट्रांसप्लांट करना, ये दो काम लैब में वेंटर और उनकी टीम पहले ही कर चुकी है। इस बार उन्होंने ये दोनों काम एक साथ किए और सफलता यह है कि जिस बैक्टीरिया में सिंथेटिक सेल डाला गया, वह अपनी खूबियां छोड़ सिंथेटिक सेल की तरह व्यवहार करते हुए इसकी प्रतिलिपियां बनाने लगा। हालांकि कई जीवविज्ञानी प्राकृतिक और सिंथेटिक बैक्टीरिया में कोई जैविक अंतर नहीं मानते, लिहाजा इस काम को ईश्वर के काम के समकक्ष माना जा सकता है। लेकिन शुद्धतावादी इससे सहमत नहीं। उनकी आपत्ति यह है कि एक बैक्टीरिया भी असली क्यों लिया गया। आश्चर्य नहीं कि यह बहस लंबी खिंच सकती है। विज्ञान के दायरे में होने वाली बहस से कोई ऐतराज भी नहीं। पर मुश्किल यह है कि वैज्ञानिक प्रयोगों और उपलब्धियों की कोई जानकारी आम समाज में आती है तो उसे या तो बहुत महान और ईश्वरीय ठहराने की कोशिश होती है या फिर किसी फिजूल के नैतिक पहलू के आधार पर उसके विरोध का कोई बहाना ढूंढ लिया जाता है। वेंटर को कृत्रिम जीवन के सर्जक के रूप में देखने और वैसी सनसनी खड़ी करने के बजाय यह जानना ज्यादा उपयोगी होगा कि ये सिंथेटिक सेल अजीबोगरीब जीव भले नहीं बना पाएं, पर सिंथेटिक दवाएं और बायो फ्यूल जैसे कई बेहतरीन उत्पाद बनाने में कमाल की भूमिका निभा सकते हैं।
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