मंगलवार, 4 मई 2010
नई बिरादरी के उल्लुओं की पहचान
जंगलों में उल्लू कम हो रहे हैं। फिर गए कहां? उल्लू के पट्ठे आए कहां से। क्यों बात-बात पर कोई कह देता है-उल्लू के पट्ठे। बात चिन्ता की है। मुद्दा गंभीर है। सवाल है कि जंगल से पलायन कर उल्लू कहां सिधार रहे हैं? कहीं शहरों में तो नहीं आ रहे? क्या इसीलिए शायर फरमा गए - 'हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ? पेड़ शहीद हो रहे हैं। घरों में कतई जगह नहीं है। हां, दफ्तर जरूर तरक्की पर हैं। रोज नए जो खुल रहे हैं। क्या वहां समाएंगे उल्लू? बिल्कुल सही, नए नस्ल के ये उल्लू हैं। खुद हैं भी और बनाते भी हैं। सरकार और उल्लू में समानता है। दोनों जनता की फरियाद गौर से सुनते हैं। यहां तक कि सुनते-सुनते सो जाते हैं। फरियादी को भ्रम होता है कि जिसने इतनी देर कान दिए, वह ध्यान भी देगा। उसे क्या पता कि सरकार बहरी है, उल्लू अंधा। नमूना हर कहीं उपलब्ध है। सरकारी अस्पतालों में दवा है तो डॉक्टर नहीं हैं, और डॉक्टर है तो दवा गायब है। पुराने कार्यालयों में जगह नहीं है, और नयों में कर्मचारी नहीं। अच्छे-अच्छे संस्थानों में काम है पर योग्य कर्मचारी नहीं। अधिकारी हैं तो निर्णय की क्षमता नहीं और क्षमता जिनके पास है उन्हें निर्णय का अधिकार नहीं। उल्लू की मेहरबानी। आकाओं की पौ-बारह है। अधिक पैसे उन्हें दिलवाते हैं, जिन्हें काम कम, गुणगान ज्यादा आती है। उल्लुओं की फौज कायम है। सर्वत्र है। चोला बदल गया है। आसपास अपने बिरादरी वालों की मेला है। अपनों को पुचकार, दूसरों को दुत्कार, नई बिरादरी के उल्लुओं की पहचान है। इनका अगर डीएनए टेस्ट कराया जाए तो नि:संदेह साबित हो जाएगा कि यहां 'हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?Ó
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