बुधवार, 5 मई 2010

जब थिरकने लगे जिंदगी

हमारी सांस्कृतिक परम्परा में साहित्य एवं कला के साथ-साथ संगीत भी मनुष्य की श्रेष्ठताओं में एक है। संगीत का सीधा सम्बन्ध हमारी आत्मा से है। ह्रदय से नि:स्सृत शब्द जब भावनापूर्ण अवस्था में मुख से नि:स्सृत होते हैं तो संगीत का रूप धारण करते हैं। संगीत आन्तरिक संवेदनाओं एवं वैश्विक सम्प्रेषणाओं के संयोग से उद्भुद् होता है। संगीत का हमारी अन्त:चेतना से सीधा संबंध है। वह सीधा हमारी अन्त:चेतना से नि:स्सृत होता है। जब किसी संवेदनशील व्यक्ति का हृदय हर्ष, शोक, करुणा के भावों से भर जाता है, तो वे ही भाव कविता, भजन, गीत, गजल आदि के रूप में फूट पड़ते हैं। चूँकि ये शब्द हमारे हृदय की गहराई से आते हैं इसीलिये कविता, भजन, गीत आदि हमारे मन या हमारी सत्ता के केन्द्र को गहराई तक छू जाते हैं। हम अवश से हुए अनायास ही एक प्रकार की गहन संवेदनशीलता की ओर बहे चले जाते हैं। यह गहन संवेदनशीलता की ओर बह जाना हमें स्वत: ही आन्तरिक रूप से रूपान्तरित करने लगता है और हम पशुत्व से मनुष्यत्व की ओर आरोहण करने लगते हैं। आज के आधुनिक युग में हमारा जीवन बहुत यांत्रिक होते जा रहा है और हमें ऐसी बातों के लिए न तो वक्त है और ना ही उनकी कदर ! इसके कारण जीवन में और समाज में स्वार्थ-केन्द्रितता, क्लेश, अशांति तथा अस्थिरता बढ़ते दिख रहे हैं । लय और ताल पर जिंदगी थिरकने को बेताब हो तो मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि शारीरिक और मानसिक परेशानियों पर थोड़ी बहुत अंकुश लगाने में तो हम अवश्य सफल हुए हैं। तब सहसा मन की अभिलाषाओं को बल मिलता दिखाई देता है, दूर दीवार के पीछे से कोई झांकता दिखाई देता है। समझने की बात है, जिन मंजिलों के इंतजार में जिंदगी तिरोहित हो जाता है वो मेरे अन्दर ही थी पर अब तक मैं उन को पहचान ना सका।

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