समाज में बड़ा नाम, सम्मान पाने वालों को कई बार घर में ही सम्मान या स्वीकार्यता का संघर्ष करना पड़ता है। जानी - मानी हस्तियां इस अनुभव के साथ जीती रही हैं। सार्वजनिक जीवन में जीत के शिखर तक पहुंचने के बाद भी घर-परिवार का अपेक्षित प्रेम न मिल पाना, सालते रहता है। नागपुर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म स्थान हैं। दोनों की परस्पर पहचान जुड़ी है। देश व देश के बाहर संघ भले ही राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ रहा है, लेकिन जन्मस्थान में अब वह अपेक्षित स्थान नहीं बना पाया है।
पुस्तैनी आवास के तौर पर नागपुर में संघ की दो इमारतें हैं। 1925 में डॉ.केशव बलीराम हेडगेवार ने संघ की नींव रखी। वे कोलकाता में मेडिकल छात्र थे। अंगरेजों के राज में संघ की बातें युवाओं को प्रभावित करती थी। अंगरेजी कालोनियों का विरोध व मुस्लिमों के पृथक्कीकरण का मुद्दा उठाया जाता था। करीब दो दशक पहले तक रेशमबाग स्थित हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ का मुख्यालय मानता और समझता था। हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है। हर सुबह, शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती है और खुला मैदान होने के कारण खेल का शोर कुछ इस तरह रहता है कि पुराने नागपुर की दिशा में जानेवाले हर शख्स को दूर से दिखाई पड़ जाता है। आज भी हेडगेवार भवन सभा, चिंतन व प्रशिक्षण के लिहाज से महत्वपूर्ण है। आधुनिकीकरण किया गया है। बड़ी लागत का सभागृह बनाया गया है। लेकिन असली संघ मुख्यालय की बात हो तो महल क्षेत्र का भवन याद किया जाता है। 6 दिसंबर 1992 को समूचे देश में हंगामा मचा हुआ था। अयोध्या-विध्वंस को लेकर क्रिया-प्रतिक्रिया की आहट सुनायी दे रही थी। तब के सरसंघचालक बालासाहब देवरस को संघ के महल-भवन के अहाते में कुर्सी पर बैठाया गया। तब तक इस संघ मुख्यालय की पहचान उसी तरह थी जैसे किसी रिहायशी बस्ती में सामाजिक संगठन के कार्यालय की रहती है। उस दिन के बाद संघ मुख्यालय मील के पत्थर में तब्दील हो गया। पुलिस के डेरे के रुप में पहचान होने लगी। सुरक्षा टेंट लगाए गए ,जवानों की टोली बिठा दी गई। 20 वर्षों में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीनें आ गई। महल का मतलब संघ का मुख्यालय हो गया। अब संघ की सारी शतरंज यहीं खेली जाती है।
एक बात और। संघ पर अंगरेजों ने आधा दर्जन से अधिक बार प्रतिबंध लगाया। स्वतंत्रता के बाद भी 3 बार प्रतिबंध लगा। 1948 में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। तब गोडसे संघ छोड़ चुके थे। फिर पर संघ को प्रतिबंध की सजा मिली। आपातकाल के समय 1975 से 78 तक अन्य संगठनों के साथ ही संघ पर भी प्रतिबंध लगा। उसके बाद 1993 में संघ ने प्रतिबंध का स्वाद नागपुर में ही चखा।
अयोध्या-विध्वंस के बाद संघ को नई पहचान मिली। वह स्वयं बदलाव के पथ पर नजर आया। अयोध्या मामले पर स्वयंसेवक की भूमिका निभानेवाले कांग्रेस के बनवारीलाल पुरोहित ने भाजपा की टिकट पर नागपुर से चुनाव लड़ा। वे चुने गए, संसद पहुंचे। उस जीत से भाजपा को जितनी खुशी मिली, उससे कहीं अधिक संघ गदगद हुआ होगा। लेकिन खुशी व्यक्त करने की स्थिति भी नहीं बन पायी। संघ व भाजपा दिल्ली की राजनीति के मामले में यह कहने की स्थिति में नहीं पहुंच पाए कि नागपुर उनके साथ है।
संघ के राजनीतिक संस्करण जनसंघ को कभी नागपुर में जीत नहीं मिली। आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत विदर्भ की सभी 11 सीटों पर जनता पार्टी का उम्मीदवार जीत नहीं पाया। प्रयासों के बाद भी संघ नागपुर में भाजपा को लाभ नहीं दिला पाया।
ऐसा भी नहीं है कि संघ को नागपुर में अपनी पहचान बनाने का अवसर नहीं मिला। स्वतंत्रता संघर्ष के समय महात्मा गांधी के समांतर संघ नेता चलते रहे। गांधी को लेकर संघ के विचार समझे जा सकते हैं। लेकिन दलितों को लेकर डॉ.बाबासाहब आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नजर नहीं आया। नागपुर या महाराष्ट्र में दलितों की संख्या राजनीतिक ,सामाजिक गतिविधियों के मामले में काफी मायने रखती है। नागपुर में दलितों के संघर्ष से लेकर बुनकरों का संघर्ष स्वतंत्रता के बाद से ही शुरु हुआ,लेकिन संघ साथ नहीं खड़ा हुआ।
यहां बुनकरों के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गए थे। अंगरेजों ने सबसे बड़ी कपास मिल स्थापित की थी। संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बी.एम.एस ने कॉटन मिल में ही अपनी यूनियन बनायी थी। 90 के दशक में मिल बंद होने को आयी तो बीएमएस मजदूरों के हक की लड़ाई से किनारा करते नजर आया। संघ उन लोगों से भी पहले अधिक मधुरता नहीं बना पाया, जिन्हें उसका समविचारी समझा जाता था। आज भले ही संघ राजनीतिक तौर पर सक्रिय है व बदलाव को स्वीकार कर रहा है। पर हिंदू महासभा के राजनीतिक स्वरुप को संघ झटकती रही। पहली बार जब सावरकर नागपुर पहुंचे तो उन्होंने कॉटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीकों को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा माना था। संघ की राजनीतिक समझ पर सवाल उठाए थे। सावरकर संघ मुख्यालय भी नहीं गए।
सरसंघचालक डॉ.मोहन भागवत भारतीय मुस्लिमों को हिंदुत्व का ही हिस्सा मानते हैं। लेकिन 7 दिसंबर 1992 को मुस्लिमों के प्रति संघ की जो समझ उभरी वह अब भी कायम है। 6 दिसंबर को बालासाहब देवरस के नजर कैद होने के बाद मोमिनपुरा में हिंसा हुई। रैलियों की शक्ल में सड़क पर आए लोगों पर पुलिस ने गोलीबारी की। 9 युवा समेत 13 लोग मारे गए। तब कहा गया कि मुस्लिमों की रैली व अन्यों की रैली के साथ पुलिस भी दोयम दर्जे का व्यवहार करती है। नागपुर में अन्य संगठन की भी रैली निकली थी। उसे बर्दाश्त कर लिया गया। गोलीबारी के बाद तत्कालीन पुलिस आयुक्त अरविंद इनामदार का तबादला किया गया। लेकिन युति सरकार ने उन्हें पदोन्नति भी दी। अयोध्या प्रकरण के पहले संघ की पहचान स्वयंसेवी संस्था की तरह ही थी। लेकिन बाद में वह राजनीतिक सत्ता की सीढिय़ों पर चढ़ता नजर आया।
एक दशक में
नागपुर में भले की संघ समाज में पूरी तरह से घुल मिल नहीं पाया पर संघ पर नागपुर का प्रभाव बढ़ता गया। राजग सरकार तक स्थिति थोड़ी अलग थी। लालकृष्ण आडवाणी का मतलब भाजपा के रुप में प्रचारित किया जाता था। सबकुछ दिल्ली में तय होता था। नागपुर से जुड़े डॉ.मोहन भागवत के तेवर ने संघ व भाजपा में हलचल मचा दी। आडवाणी ने पाकिस्तान में जिन्ना का गुणगान क्या किया भागवत तीखेे बोलने लगे। वे सरसंघचालक पद पर नहीं थे। संघ व भाजपा में तालमेल की बात पर यह भी कहा जा रहा था कि भागवत को संयम में रहना चाहिए। लेकिन नागपुर में एकाएक परिवर्तन हुआ। के.एस सुदर्शन ने सरसंघचालक की कुर्सी पर अपनी जगह डॉ.भागवत को बिठा दिया। उनका कहना था- पिता की चप्पल पुत्र के पैर में आने लगे तो पिता को समझ लेना चाहिए कि परिवार में मुखिया बदलने का समय आ गया है। युवाओं को प्रोत्साहन देना आवश्यक है। उम्र भले ही 60 तक पहुंच रही है पर भागवत युवा हैं। युवा को नेतृत्व देने की बात वहीं नहीं थमी। भाजपा को युवा नेतृत्व देने की सुगबुगाहट ने सबका ध्यान नागपुर की ओर खींच लिया। 2009 में भाजपा महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की हार का चिंतन भी नहीं कर पायी थी। महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष नितीन गडकरी को देश स्तर पर भाजपा की कमान सौंपी गई। केंद्रीय स्तर पर पारिवारिक कसमसाहटों के बाद भी संघ व भाजपा का नियंत्रण केंद्र नागपुर हो गया। यह बात अलग है कि अपनों में गिने जानेवाले ही अधिक आंख दिखाते रहे।
पुस्तैनी आवास के तौर पर नागपुर में संघ की दो इमारतें हैं। 1925 में डॉ.केशव बलीराम हेडगेवार ने संघ की नींव रखी। वे कोलकाता में मेडिकल छात्र थे। अंगरेजों के राज में संघ की बातें युवाओं को प्रभावित करती थी। अंगरेजी कालोनियों का विरोध व मुस्लिमों के पृथक्कीकरण का मुद्दा उठाया जाता था। करीब दो दशक पहले तक रेशमबाग स्थित हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ का मुख्यालय मानता और समझता था। हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है। हर सुबह, शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती है और खुला मैदान होने के कारण खेल का शोर कुछ इस तरह रहता है कि पुराने नागपुर की दिशा में जानेवाले हर शख्स को दूर से दिखाई पड़ जाता है। आज भी हेडगेवार भवन सभा, चिंतन व प्रशिक्षण के लिहाज से महत्वपूर्ण है। आधुनिकीकरण किया गया है। बड़ी लागत का सभागृह बनाया गया है। लेकिन असली संघ मुख्यालय की बात हो तो महल क्षेत्र का भवन याद किया जाता है। 6 दिसंबर 1992 को समूचे देश में हंगामा मचा हुआ था। अयोध्या-विध्वंस को लेकर क्रिया-प्रतिक्रिया की आहट सुनायी दे रही थी। तब के सरसंघचालक बालासाहब देवरस को संघ के महल-भवन के अहाते में कुर्सी पर बैठाया गया। तब तक इस संघ मुख्यालय की पहचान उसी तरह थी जैसे किसी रिहायशी बस्ती में सामाजिक संगठन के कार्यालय की रहती है। उस दिन के बाद संघ मुख्यालय मील के पत्थर में तब्दील हो गया। पुलिस के डेरे के रुप में पहचान होने लगी। सुरक्षा टेंट लगाए गए ,जवानों की टोली बिठा दी गई। 20 वर्षों में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीनें आ गई। महल का मतलब संघ का मुख्यालय हो गया। अब संघ की सारी शतरंज यहीं खेली जाती है।
एक बात और। संघ पर अंगरेजों ने आधा दर्जन से अधिक बार प्रतिबंध लगाया। स्वतंत्रता के बाद भी 3 बार प्रतिबंध लगा। 1948 में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। तब गोडसे संघ छोड़ चुके थे। फिर पर संघ को प्रतिबंध की सजा मिली। आपातकाल के समय 1975 से 78 तक अन्य संगठनों के साथ ही संघ पर भी प्रतिबंध लगा। उसके बाद 1993 में संघ ने प्रतिबंध का स्वाद नागपुर में ही चखा।
अयोध्या-विध्वंस के बाद संघ को नई पहचान मिली। वह स्वयं बदलाव के पथ पर नजर आया। अयोध्या मामले पर स्वयंसेवक की भूमिका निभानेवाले कांग्रेस के बनवारीलाल पुरोहित ने भाजपा की टिकट पर नागपुर से चुनाव लड़ा। वे चुने गए, संसद पहुंचे। उस जीत से भाजपा को जितनी खुशी मिली, उससे कहीं अधिक संघ गदगद हुआ होगा। लेकिन खुशी व्यक्त करने की स्थिति भी नहीं बन पायी। संघ व भाजपा दिल्ली की राजनीति के मामले में यह कहने की स्थिति में नहीं पहुंच पाए कि नागपुर उनके साथ है।
संघ के राजनीतिक संस्करण जनसंघ को कभी नागपुर में जीत नहीं मिली। आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत विदर्भ की सभी 11 सीटों पर जनता पार्टी का उम्मीदवार जीत नहीं पाया। प्रयासों के बाद भी संघ नागपुर में भाजपा को लाभ नहीं दिला पाया।
ऐसा भी नहीं है कि संघ को नागपुर में अपनी पहचान बनाने का अवसर नहीं मिला। स्वतंत्रता संघर्ष के समय महात्मा गांधी के समांतर संघ नेता चलते रहे। गांधी को लेकर संघ के विचार समझे जा सकते हैं। लेकिन दलितों को लेकर डॉ.बाबासाहब आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नजर नहीं आया। नागपुर या महाराष्ट्र में दलितों की संख्या राजनीतिक ,सामाजिक गतिविधियों के मामले में काफी मायने रखती है। नागपुर में दलितों के संघर्ष से लेकर बुनकरों का संघर्ष स्वतंत्रता के बाद से ही शुरु हुआ,लेकिन संघ साथ नहीं खड़ा हुआ।
यहां बुनकरों के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गए थे। अंगरेजों ने सबसे बड़ी कपास मिल स्थापित की थी। संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बी.एम.एस ने कॉटन मिल में ही अपनी यूनियन बनायी थी। 90 के दशक में मिल बंद होने को आयी तो बीएमएस मजदूरों के हक की लड़ाई से किनारा करते नजर आया। संघ उन लोगों से भी पहले अधिक मधुरता नहीं बना पाया, जिन्हें उसका समविचारी समझा जाता था। आज भले ही संघ राजनीतिक तौर पर सक्रिय है व बदलाव को स्वीकार कर रहा है। पर हिंदू महासभा के राजनीतिक स्वरुप को संघ झटकती रही। पहली बार जब सावरकर नागपुर पहुंचे तो उन्होंने कॉटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीकों को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा माना था। संघ की राजनीतिक समझ पर सवाल उठाए थे। सावरकर संघ मुख्यालय भी नहीं गए।
सरसंघचालक डॉ.मोहन भागवत भारतीय मुस्लिमों को हिंदुत्व का ही हिस्सा मानते हैं। लेकिन 7 दिसंबर 1992 को मुस्लिमों के प्रति संघ की जो समझ उभरी वह अब भी कायम है। 6 दिसंबर को बालासाहब देवरस के नजर कैद होने के बाद मोमिनपुरा में हिंसा हुई। रैलियों की शक्ल में सड़क पर आए लोगों पर पुलिस ने गोलीबारी की। 9 युवा समेत 13 लोग मारे गए। तब कहा गया कि मुस्लिमों की रैली व अन्यों की रैली के साथ पुलिस भी दोयम दर्जे का व्यवहार करती है। नागपुर में अन्य संगठन की भी रैली निकली थी। उसे बर्दाश्त कर लिया गया। गोलीबारी के बाद तत्कालीन पुलिस आयुक्त अरविंद इनामदार का तबादला किया गया। लेकिन युति सरकार ने उन्हें पदोन्नति भी दी। अयोध्या प्रकरण के पहले संघ की पहचान स्वयंसेवी संस्था की तरह ही थी। लेकिन बाद में वह राजनीतिक सत्ता की सीढिय़ों पर चढ़ता नजर आया।
एक दशक में
नागपुर में भले की संघ समाज में पूरी तरह से घुल मिल नहीं पाया पर संघ पर नागपुर का प्रभाव बढ़ता गया। राजग सरकार तक स्थिति थोड़ी अलग थी। लालकृष्ण आडवाणी का मतलब भाजपा के रुप में प्रचारित किया जाता था। सबकुछ दिल्ली में तय होता था। नागपुर से जुड़े डॉ.मोहन भागवत के तेवर ने संघ व भाजपा में हलचल मचा दी। आडवाणी ने पाकिस्तान में जिन्ना का गुणगान क्या किया भागवत तीखेे बोलने लगे। वे सरसंघचालक पद पर नहीं थे। संघ व भाजपा में तालमेल की बात पर यह भी कहा जा रहा था कि भागवत को संयम में रहना चाहिए। लेकिन नागपुर में एकाएक परिवर्तन हुआ। के.एस सुदर्शन ने सरसंघचालक की कुर्सी पर अपनी जगह डॉ.भागवत को बिठा दिया। उनका कहना था- पिता की चप्पल पुत्र के पैर में आने लगे तो पिता को समझ लेना चाहिए कि परिवार में मुखिया बदलने का समय आ गया है। युवाओं को प्रोत्साहन देना आवश्यक है। उम्र भले ही 60 तक पहुंच रही है पर भागवत युवा हैं। युवा को नेतृत्व देने की बात वहीं नहीं थमी। भाजपा को युवा नेतृत्व देने की सुगबुगाहट ने सबका ध्यान नागपुर की ओर खींच लिया। 2009 में भाजपा महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की हार का चिंतन भी नहीं कर पायी थी। महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष नितीन गडकरी को देश स्तर पर भाजपा की कमान सौंपी गई। केंद्रीय स्तर पर पारिवारिक कसमसाहटों के बाद भी संघ व भाजपा का नियंत्रण केंद्र नागपुर हो गया। यह बात अलग है कि अपनों में गिने जानेवाले ही अधिक आंख दिखाते रहे।
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