गुरुवार, 13 जनवरी 2011
देश में तिरंगे पर क्यों कोहराम ?
श्रीनगर का लालचौक आज खामोश है। पिछले 20 वर्षों में इस चौक पर सीना ताने खड़े घंटा घर ने जितनी शर्मिंदगी अलगाववादियों के कारण नहीं झेली होगी उससे ज्यादा जिल्लत उसे हुकूमत के कारण झेलनी पड़ी। पिछले दो दशकों में लालचौक ने दर्जनों आतंकवादी हमले के दंश सहे, दर्जनों बार पाकिस्तान का झंडा इसके सीने पर लटका दिया गया, लेकिन जब कभी तिरंगा के साथ इस चौक को सजाया जाता तो वह अपने पुराने जख्मो ंको भूल जाता था। अब वह एक चुनौती का सामना कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि वह आगामी 26 जनवरी को श्रीनगर के लाल चौक पर हर हाल में तिरंगा फहरायेगी। भाजपा के इस कदम का विरोध करने वालों से लाल चौक पूछ रहा है कि आखिर मेरा कसूर क्या है? क्या कश्मीर भारतवर्ष का हिस्सा नहीं है? क्या उमर अब्दुल्ला भारतीय नहीं है? फिर देश ने उसे मुख्यमंत्री क्यों बनने दिया? केंद्र ने इस असंवैधानिक कृत्य की आपराधिक उपेक्षा क्यों की? राजनीति के कंधे पर सवार होकर राष्ट्रविरोधी तत्व कहीं पूरे देश को ग्रसते तो नहीं जा रहे? अगर भारतभूमि पर राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान रोक दिया जाए तो यह गंभीर सवाल सामने उठेंगे ही और यह भी कि देशवासी इसे कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं! उमर अब्दुल्ला ने जो अपराध किया है उसके खिलाफ राष्ट्र और संविधान के अपमान का गंभीर मामला चलना चाहिए और कैद या देश निकाला दिया जाना चाहिए। राष्ट्रसम्मान अपमान निषेध कानून-1971 और भारत का ध्वज कोड-2002 जैसे कानून क्या केवल दिखावा हैं? लेकिन कौन उठाए यह आवाज..? ऐसे संवेदनशील मसले पर भी पूरा देश क्यों साधे है मौन..? भारत के किसी भी भूभाग में तिरंगा फहराना किसे अच्छा नहीं लगता। किसे पसंद नहीं कि देश का विजय घोष, संप्रभुता के प्रतीक, सम्मान के प्रतीक और गौरव के प्रतीक अपने प्यारे झंडे को अपनी जमीन पे शान से लहराए, लेकिन ऐसा भी है कि इस देश के कुछ लोग तिरंगे के दुश्मन हैं। श्रीनगर के लाल चौक पे भारतीय झंडा कैसे लहरा सकता है। कैसे देश की जनता उस झंडे को सलामी दे सकती है और अगर ऐसा हो गया तो कैसे राष्ट्रद्रोही अपनी मुराद पूरी कर सकते हैं। अलगाववादियों के बंद और हड़ताल ,आतंकवादियों की धमकी के बीच खाली और सुनसान पड़े श्रीनगर के इस तारीखी चौक पर सिर्फ एक लहराता तिरंगा ही तो है जो अलगाववादियों के मंसूबे को फीका करने की कूबत रखता है। कश्मीर के लाखों लोगों को यह एहसास करा सकता है कि यहाँ की अलगाववादी सियासत कुछ चंद सिरफिरों की सनक है। पिछले कुछ सालों से लालचौक आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बन गया है। बन्दूक के खौफ ने अलगाववादियों को एक सियासी आधार दिया और उनका सियासी ठिकाना लालचौक हो गया। पिछले 20 वर्षों में लालचौक 5 साल बंद रहा। सैकड़ों मासूमों को इस चौक ने अपने आँखों के सामने आतंकवादियों की गोलियों से छलनी होते हुए देखा है। वजह जो भी हो लेकिन लाल चौक शर्मसार है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि यदि लाल चौक पे तिरंगा फहराने की कोशिश की गई तो हिंसा भड़क सकती है और यदि हिंसा भड़की तो उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनेगी। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का ये बयान पूरे भारत देश के लिए चेतावनी है कि वो जम्मू-कश्मीर से अपना दावा छोड़ दे और मान ले देशद्रोहियों की मांगें। कांग्रेसी नीतियों ने देश को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहॉ देश प्रेम या तिरंगे की बात भी लगता है अब गुनाह है। तुष्टिकरण की नीति पर चलते-चलते कांग्रेसियों की बुद्धि पथरा गयी है और उन्हें आसन्न खतरा नजर नहीं आता। उन्हें भारत के सम्मान की चिंता नहीं, भारतीय भूभाग के शत्रुओं के पास चले जाने का गम नहीं, उन्हें तो फिकर है केवल अपने सत्ता सुख की। उमर जैसों को सबक सिखाने की बजाय घनघोर चुप्पी क्या जाहिर करती है। सत्ता लोलुप दलालों के नेतृत्व में ही यह सब संभव है। यहॉ आतंकवादी बिरयानी खाते हैं और देशभक्त जेल में होते हैं, तो फिर सतर्क हो जाइए क्योंकि ये एक चेतावनी नहीं बल्कि प्रत्यक्ष हमला है। आजादी की मांग को लेकर एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में आग लगी हुई है। कुछ भाड़े के कट्टरपंथी पाकिस्तान के इशारे पर सड़क पर उतरकर भारत की संप्रभुता को तार-तार करने में तुल गए हैं। उनमें से कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें इज्जत भरी निगाहों से देखा और सुना जाता है। ये लोग जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं मानते और आजादी की मांग करने लगे हैं, परंतु पहले उन्हें एक माह तक एक आदमी की तरह पाकिस्तान में रहकर देखना चाहिए। उन्हें समझ में आ जाएगा कि जम्मू-कश्मीर की भलाई भारत के साथ रहने में है या स्वतंत्र रहने में। वैसे भी आज जो कश्मीर की हालत है, उसके लिए कट्टरपंथी जिम्मेदार हैं। यदि ये लोग जितनी ताकत जम्मू-कश्मीर को आजाद कराने में लगाते हैं,उससे 50 फीसदी ताकत भी यदि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास में लगाते तो शायद जम्मू-कश्मीर की वादियों में आग नहीं, बल्कि आज सोना बरस रहा होता। कांग्रेस भी अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रही है। यह चिन्तनीय है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस भी पंडित नेहरू के ही नक्शे-कदम पर चल पड़ी है ? सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी आक्रमण के दौरान कश्मीर की जीती हुई लड़ाई को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी। ठीक उसी प्रकार की भूल कांग्रेस भी कर रही है। इतिहास गवाह है कि यदि पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले गए होते तो आज अपने पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारत का ध्वज फहराता और 'पाकिस्तान अधिकृत कश्मीरÓ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं होता। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में अलगाववाद का समर्थन करते हुए जो बयान दिया था, वास्तव में उस बयान के बाद उनको मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उमर ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं बल्कि सशर्त विलय हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र को भारत का अविभाज्य अंग कहना उचित नहीं है। यह मसला बिना पाकिस्तान के हल नहीं किया जा सकता है। उमर के इस प्रकार के बयान से वहां की सरकार और अलगाववादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है। जो मांगे अलगाववादी कर रहे हैं, उन्हीं मांगों को राज्य सरकार के मुखिया उमर भी दुहरा रहे हैं। आखिर, सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में क्या फर्क बचा है ? यदि उमर अब्दुल्ला अलगाववादी भाषा बोलने के बाद भी राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं, तो इसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही अब्दुल्ला सरकार टिकी हुई है। कश्मीर उस सोये हुए ज्वालामुखी के सामान हो गया है ,जो अचानक कभी भी फट पड़ता है और परेशानी इस बात की है कि कोई भी इसकी तीव्रता का अंदाज नहीं लग सकता। कांग्रेस और मुफ्ती सईद की पिछली सरकार के समय ये ज्वालामुखी लगभग शांत सा बना रहा और पर्यटकों ने फिर कश्मीर को अपने कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था, लेकिन कांग्रेस के हिस्से की सरकार के दौरान अमरनाथ यात्रा से उपजे विवाद ने जो माहौल खराब किया, तब से लेकर अब तक दिन-ब -दिन हालात खराब होते जा रहें है और उसे उमर अब्दुल्ला की वर्तमान सरकार भी नहीं सम्हाल पा रही है। इस आग में घी का कम एक लेखिका के बयान ने कर दिया जो सदा ही नक्सलियों और अलगाववादियों के साथ है, इस बयान की ध्वनि और अलगाववादियों के सुर एक से लगते हैं,जो किसी भारतीय को ललकारते से प्रतीत हो रहें है। सर्वदलीय संसदीय दल के दौरे के विफलता के बाद नियुक्त तीन वार्ताकारों से कुछ आस बंधी थी के ये गैर राजनीतिक लोग शायद कुछ कर सके पर अफसोस की ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा। इन नव नियुक्त वार्ताकारों का दल भी असफलता के पथ पर जाते दिख रहा है। भारत में कम्युनिस्ट मांग कर रहें है के कश्मीर के लिए एक विधिवत गठित संसदीय समित हो जो कश्मीर और जम्मू में लोगों से बात करे साथ ही विशेष सेना शक्ती अधिनियम को वापस लिया जाये क्योकि इस अधिनियम की आड़ में सेना कथित रूप से मानव अधिकारों का हनन का करती है, यद्यपि ये अधिनियम उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी लागू हंै। इस तरह से सरकार में शामिल दलों और विपक्षी दलों की सोच भी एकरूप नहीं है। हम एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी बिना नतीजा तक इस समस्या को स्थानान्तरित तो कर ही चुके है। अब तो कोई कड़ा निर्णय ही कश्मीर समस्या का हल दे पायेगा। नहीं तो यह विवाद ऐसे ही धधकता रहेगा और हमारे बहुमूल्य संसाधनों को ईधन के रूप में डकारता रहेगा। भारत पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था और दुनिया में सिर्फ इस विभाजन को छोड़ दे तो सभी जगह भूमि के साथ जनता ने अपने को विभाजित किया है। अब घाटी में मुस्लिम आबादी की अधिकता को देखकर पाकिस्तान इस पर अपने दांत गड़ाये बैठा है ,तो हमारे धर्मनिरपेक्ष स्वरुप के कारण ये हमारे लिए भी प्रतिष्ठा की बात है। सैंतालीस से कारगिल तक और आज भी इस भूमि पर स्वामित्व का संघर्ष जारी है। लेकिन ये प्रतिष्ठा की लड़ाई अब तक ना जाने कितने ही मानव और अर्थ संसाधन लील चुकी है और नतीजा सिफर है। कश्मीर में कानून व्यवस्था राज्य सरकार का जिम्मा है फिर केंद्र सरकारों को भी अपनी पूरी दम -खम का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। जम्मू-कश्मीर के कथित अवाम को उकसाने और अलगाववादियों के भारत विरोध की प्रायोजित योजना का रहस्य समझा जाना चाहिए। फिर जम्मू कश्मीर का असली आवाम तो वे पांच लाख कश्मीरी पंडित हैं जिन्हें जम्मू कश्मीर से खदेड़कर शरणार्थी बना दिया गया है। सियासत के मजहबीकरण के कारण बहकावे अथवा विदेशी दबाव में आकर जम्मू-कश्मीर के बारे में अपनी नीति में तनिक भी नरमी लाने का मतलब लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पायी होगा। भारतीय जनता पार्टी ने देश की राष्ट्रीय अखण्डता, सार्वभौम सत्ता और भारतीय अस्मिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए कहा कि यही समय है, जब भारत को स्पष्ट संदेश देकर अलगाववादियों, पाकिस्तान और अमेरिका से साफ सपाट शब्दों में कह देना चाहिए कि जम्मू -कश्मीर के मामले में कोई भी दबाव अथवा वार्ता कबूल नहीं है। पाकिस्तान से डायलाग का जहां तक सरोकार है, उसे पाक अधिकृत कश्मीर को खाली कर उसे मुक्त करने पर विचार करना चाहिए। आईएसआई ने अपनी रणनीति बदलकर सुरक्षा बलों को उकसाने के लिए पथराव करने वाला फोर्स बना डाला है। जिसे कलेंडर के मुताबिक ट्रकलोड पत्थर उपलब्ध रहते हैं। स्कूल जाने वाले छात्रों के बस्तों में किताबों की जगह पत्थर रखवाये जाते हैं, बुर्काधारी महिलाएं भी पत्थराव में शामिल होती है। सुरक्षा बल निशाना बन रहे हैं। भीड़ में आतंकवादी गोली चलाकर भी सुरक्षा जवानों को मौत की नींद सुला रहे हैं। दरअसल जम्मू-कश्मीर में अवाम के लिए राजनीतिक, आर्थिक कोई समस्या नहीं है। देश के 28 सूबों से सबसे अधिक अधिकार यहां प्राप्त है। अनुच्छेद 370 ने जम्मू कश्मीर को विशिष्ठ राज्य का दर्जा दिया हुआ है। दो निशान, दो प्रधान की व्यवस्था नहीं है। फिर भी दो विधान है। यही कारण है कि राजनेता वोट की राजनीति करके जनता को गुमराह करते हैं। स्वायत्तता का एजेंडा जनता का नहीं है। यह पाकिस्तान के विफल हुक्मरानों का है, जो अलगाववादियों के जरिए पराजय बोध व्यक्त कर भारत को तोडऩे का दंभ भरते हैं। पाकिस्तान ने भारत पर 1948, 1965, 1971 के युद्ध थोपे, बाद में कारगिल पर हमला कर भारत की पीठ में छुरा झोंका और मुंह की खायी। अटल बिहारी वाजपेयी अमन का पैगाम लेकर बस से लाहौर गये लेकिन पाकिस्तान जो मंसूबा युद्ध के मैदान में पूरा नहीं कर पाया, वह आतंकवाद, अलगाववाद के जरिये पूरा करना चाहता है। इसका माकूल जवाब देने के बजाय डा.मनमोहन सिंह सरकार विदेशी दबाव में थ्रेड वेयर बातचीत करने, हीलिंग टच भरने पर राजी होकर अपनी दुर्बलता उजागर कर रहे हैं।
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