गुरुवार, 13 जनवरी 2011
राहतों के दांवपेंच में बोफोर्स
बोफोर्स की कहानी फिर हिंदुस्तान की राजनीति में हंगामा मचा सकती है। महंगाई और घोटालों से जूझ रही सरकार के लिए बोफोर्स के जिन्न का बोतल से बाहर आना किसी बम फटने से कम नहीं। विपक्ष अपनी आस्तीन पहले से ही चढ़ा चुका है, ताल ठोंकने के दौरान उसे एक और टॉनिक मिल गया है। आयकर अपीलीय ट्रिब्यूनल ने अपने महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि इस मामले में स्वर्गीय विन चड्ढा और इटली के व्यापारी ओटावियो क्वात्रोच्चि को 41 करोड़ रुपए की दलाली दी गई थी। लिहाजा, इस आय पर भारत में कर चुकाना उनका या वारिस का दायित्व बनता है। सालों में भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे मशहूर रहे कांड का नाम बोफोर्स कांड है। इस कांड ने राजीव गांधी सरकार को दोबारा सत्ता में नहीं आने दिया। वी. पी. सिंह की सरकार इस केस को जल्दी नहीं सुलझा पाई और लोगों को लगा कि उन्होंने चुनाव में बोफोर्स का नाम केवल जीतने के लिए लिया था। कांग्रेस ने इस स्थिति का फायदा उठाया और देश से कहा बोफोर्स कुछ था ही नहीं, यदि होता तो वी. पी. की सिंह सरकार उसे जनता के समक्ष अवश्य लाती। सीबीआई की फाइलों में इस केस का नंबर है-आर.सी. 1(ए)/90 ए.सी.यू.-आई.वी.एस.पी.ई.,सी.बी.आई., नई दिल्ली। सीबीआई ने 22.01.1990 को इस केस को दर्ज किया था, ताकि वह इसकी जांच कर सच्चाई का पता लगा सके। इस केस को दर्ज करने के लिए सीबीआई के आधार सूत्र थे- कुछ तथ्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य, मीडिया, रिपोट्र्स, स्वीडिश नेशनल ब्यूरो के ऑडिट रिपोर्ट, ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी की रिपोर्ट में आए कुछ तथ्य और कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट। यद्यपि 1987 के बाद से ही देश में बोफोर्स सौदे को लेकर काफी बहसें और शंकाएं खड़ीं कर दी गईं थीं और इस सवाल को राजनीतिक सवाल भी बना दिया गया था। मामला इतना गंभीर बन गया था कि संसद को संयुक्त संसदीय समिति बनानी पड़ी, लेकिन सरकार ने अपनी जांच एजेंसी को इसकी जांच नहीं सौंपी। जब 1989 में सरकार बदली तब यह निर्णय हुआ कि इसकी जांच कराई जाए, तभी सीबीआई ने इसकी एफआईआर लिखी। सीबीआई ने जब उपरोक्त रिपोर्ट का अध्ययन किया, तब उसे लगा कि 1982 से 1987 के बीच कुछ लोक सेवकों ने कुछ खास असरदार व्यक्तियों के साथ मिलकर आपराधिक षड्यंत्र किया और रिश्वत लेने और देने का अपराध किया है। ये व्यक्ति देश व विदेश से संबंध रखते थे। सीबीआई ने यह भी नतीजा निकाला कि ये सारे लोग धोखाधड़ी, चीटिंग और फोर्जरी के भी अपराधी हैं। यह सब उसी कांट्रैक्ट के सिलसिले में हुआ, जो 24.3.1986 को भारत सरकार और स्वीडन की कंपनी ए.बी. बोफोर्स के बीच संपन्न हुआ था। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। उन्होंने लोकसभा को आश्वस्त किया कि बोफोर्स मामले में कोई बिचौलिया नहीं था और किसी को कोई दलाली नहीं दी गई। घोटाले के खुलासे का असर यह हुआ कि 1989 में कांग्रेस की सरकार को हार का मुंह देखना पड़ा । काफी समय तक राजीव गांधी का नाम भी इस मामले के अभियुक्तों की सूची में शामिल रहा लेकिन उनकी मौत के बाद नाम फाइल से हटा दिया गया। सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी गयी लेकिन सरकारें बदलने के साथ ही सीबीआई की जांच की दिशा भी लगातार बदलती रही। एक दौर था, जब जोगिन्दर सिंह सीबीआई चीफ थे तो एजेंसी स्वीडन से महत्वपूर्ण दस्तावेज लाने में सफल हो गयी थी। जोगिन्दर सिंह ने तब दावा किया था कि केस सुलझा लिया गया है। बस, देरी है तो क्वात्रोच्चि को प्रत्यर्पण कर भारत लाकर अदालत में पेश करने की। उनके हटने के बाद सीबीआई की चाल ही बदल गयी। इस बीच कई ऐसे दांवपेंच खेले गये कि क्वात्रोच्चि को राहत मिलती गयी। दिल्ली की एक अदालत ने हिंदुजा बंधुओं को रिहा किया तो सीबीआई ने लंदन की अदालत से कह दिया कि क्वात्रोच्चि के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं हैं। अदालत ने क्वात्रोच्चि के सील खातों को खोलने के आदेश जारी कर दिये। नतीजतन क्वात्रोच्चि ने रातों-रात उन खातों से पैसा निकाल लिया। बहरहाल, 80 के दशक में भारतीय राजनीति में तूफान लाने वाले बोफोर्स मुद्दे की आज दशकों बाद भी जांच पूरी नहीं हो पाई है, लेकिन यह मुद्दा सरकार के गिरने और बनने की वजह बन चुका है। बोफोर्स का यह मुद्दा ढाई दशकों से राजनैतिक रूप से अहम बना हुआ है। इस मामले से जुड़ी जब भी कोई नई बात सामने आती है यह मुद्दा बोतल से जिन्न की तरह बाहर निकलता है, जिसका इस्तेमाल पार्टियां अपने सियासी मकसद साधने के लिए करती हैं। एक तरफ सीबीआई क्वात्रोच्चि को बोफोर्स मामले में दलाली खाने के मामले में क्लीन चिट देती है तो दूसरे तरफ आयकर ट्रिब्यूनल कुछ और ही कहानी बयां कर रहा है। खैर, इसमें कोई दो राय नहीं कि क्वात्रोच्चि ने इस सौदे को कराने में भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों पर दबाव डाला और सौदा बोफोर्स के पक्ष में कराया। उसने पैसा कहां, कैसे, किन तारीखों में और किन अकाउंटों में ट्रांसफर किया यह एक अलग कहानी है। इतना ही नहीं, उसके भारत के सर्वोच्च राजनीतिक ताकतों और सर्वोच्च नौकरशाहों से कैसे संबंध थे और उन पर कैसा दबाव था, यह भी रहस्यमयी दास्तान है।
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