गुरुवार, 13 जनवरी 2011

पीढ़ी पर लानत क्यों

कौन बिगड़ रहा है , इसका फैसला किस बात से होता है ? हम कितनी बार बड़ों के पैर छूते हैं , या इस बात से कि हम बस में अपनी सीट किसी बुजुर्ग महिला को दे देते हैं , किसी नेत्रहीन का हाथ पकड़ कर सड़क पार करने में उसकी मदद कर देते हैं ? शायद अपनी जिद पर अड़ जाना , या शायद घर - परिवार की परेशानियों में शिरकत करने के बजाय अपनी धुन में मस्त रहना। क्या खुश रहना गलत है , बेवजह हंसना गलत है , या अपनी सोच को साबित करने की ललक गलत है आज बच्चे पंद्रह साल की उम्र में ही तय कर लेते हैं कि उन्हें क्या करना है , उन्हें जिंदगी से क्या चाहिए। सूचना तकनीक ने आज के युवाओं को सब कुछ एक साथ संभालना सिखा दिया है। दौड़ इतनी तेज है कि सब भाग - भाग के हलकान हो रहे हैं। रुकने का वक्त नहीं है। सड़कों पर मटरगश्ती करने के लिए , सिनेमा हॉल में सीटियां बजाने के लिए। और तो और , बेधड़क ऊंची आवाज में गाने - बजाने के लिए भी। टीवी के सामने बैठे चाचा जी हेलेन का - पिया तू अब तो आ जा - देखते हुए कहते हैं , आजकल के बच्चे सिर्फ नाच - गाने की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। जाहिर है , जोश तेज - तर्रार होगा। कभी - कभार वह आपे से बाहर भी हो सकता है। फिर यह शिकायत आज ही क्यों यह तेजी तो आज से बीस साल पहले के युवाओं ने भी महसूस की होगी और उन्हें भी अपने बड़ों से रास्ता भटकने के ताने ही सुनने पड़े होंगे। घर की पुश्तैनी जमींदारी और पिता की दुकान पर बैठने की जगह खुद अपना काम शुरू करने से लेकर सरकारी नौकरी के लिए कदम बढ़ाने तक सारे ही काम उस पीढ़ी के लिए बिल्कुल नए रहे होंगे। और अगर बात की जाए उससे भी पहले की , यानी साठ - सत्तर बरस पहले वाली पीढ़ी की तो उस वक्त युवा पीढ़ी ने अंग्रेजों की सत्ता को स्वीकार करने की जगह अपनी आजादी और अपनी पहचान के लिए हथियार उठाए थे। जवानी बदनाम थी , बदनाम रहेगी। अभी की पीढ़ी पर लानतें भेजते वक्त लोग अपने दिन भूल क्यों जाते हैं ? क्या इसलिए कि यह पीढ़ी पहले की तरह अपने आदर्शों का ढिंढोरा नहीं पीटती? आज की पीढ़ी मंदिर में हाथ भी जोड़ लेती है और गुरुद्वारे में मत्था भी टेक लेती है। यही नहीं , दोस्तों के साथ चर्च जाकर मोमबत्ती जला आने में भी कोई आपत्ति नजर नहीं आती। जब - तब मजारों पर जाकर इस जेनरेशन के लड़के - लड़कियां अपनी ख्वाहिशों के धागे भी बांध आते हैं।

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