गुरुवार, 13 जनवरी 2011
कठघरे में अनुशासन
एक और विवादास्पद पेशी। थल सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह रक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित की जाने वाली कैंटीन में कथित अनियमितताओं के आरोप के संबंध में संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) के समक्ष पेश हुए। सेनाध्यक्ष का पीएसी के समक्ष पेश होने का यह पहला मौका है। दरअसल, सीएजी की गत अगस्त की इस रिपोर्ट में सीएसडी और उसकी यूनिट-रन-कैन्टींस (यूआरसी) के कामकाज के तरीकों और लेखे में पारदर्शिता न होने की आलोचना की गई है। इस पर पीएसी ने रक्षा मंत्रालय ने जवाब मांगा था। मंत्रालय ने सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों से इस बारे में जवाब मांगा था। किसी भी लोकतंत्र के लिए सेना वह प्रमुख स्तंभ है, जो न केवल सरहदों की रक्षा करता है, बल्कि जरूरत पडऩे पर देश की आंतरिक कानून-व्यवस्था बनाए रखने और विभिन्न आपदाओं के समय भी सहयोग करता है। लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न घोटालों के कारण सेना की उस छवि को नुकसान हुआ है। सेना की जिम्मेदारियों और उसके जोखिमों को ध्यान में रखकर ही उसे हर तरह की सुविधाएं प्रदान की गई हैं। सेना के लिए अलग संचार प्रणाली, चिकित्सा, न्याय प्रक्रिया, डाक व्यवस्था और पीडब्ल्यूडी की तरह एमईएस (जो सेना के लिए भवन व सड़क निर्माण का काम करती है) की व्यवस्था की गई है। सेना को अपने काम के लिए सिविल प्रशासन या किसी अन्य संस्था से सहायता लेने के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ता। इसकी एक वजह यह भी है कि सेना अक्सर ऐसी दुर्गम जगहों में रहती है, जहां सिविल प्रशासन की पहुंच नहीं होती। सवाल उठता है कि जब सेना को इतनी सुविधाओं से लैस किया गया है, तो फिर ये घोटाले क्यों होते हैं। कारगिल की लड़ाई का ही अगर विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि यह लड़ाई हमारे ऊपर किसी ने थोपी नहीं थी, बल्कि वह हमारे ही कुछ सैन्य अधिकारियों की गलती का नतीजा थी। कारगिल की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वहां सेना को दो तरह से सरहद की सुरक्षा करनी पड़ती है। गरमी में अलग तरह से और सर्दियों में अलग तरह से। सरदी के मौसम में यह पूरा क्षेत्र बर्फ से पूरी तरह ढक जाता है। इसी का फायदा उठाकर सर्दी के मौसम में पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के रूप में ऊंची पहाडिय़ों पर बंकर बनाकर घुस गए। इसका पता हमारी सेना को जब चला, तब बहुत देर हो चुकी थी। उस समय तक श्रीनगर-लेह राजमार्ग पाक सैनिकों के कब्जे में आ चुका था। इस गलती को सुधारने के क्रम में हमारी सेना को कारगिल की लड़ाई लडऩी पड़ी, जिसमें बहुत से सैनिकों और अफसरों को अपनी जानें गंवानी पड़ी। वह एक असंभव लड़ाई थी, जिसको केवल वीरता के बल पर जीता गया। हमारी सेना ने भले ही एक-एक इंच जमीन वापस ले ली, लेकिन इसमें लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई, यह जनता के सामने कभी नहीं आया। इसी प्रकार सेना के एक बड़े अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश प्रकाश ने सुखना के अंदर सेना की जमीन का एक बड़ा भू-भाग निजी स्कूल चलाने वाले अपने किसी संबंधी को दे दिया। मीडिया में इसकी खबरें काफी दिनों तक सुर्खियों में रहीं। तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल दीपक कपूर इसे दबाने में लगे रहे और न्याय प्रक्रिया में खूब रोड़े अटकाए गए। इसी बीच अवधेश प्रकाश रिटायर हो गए। हालांकि इस मामले में जनरल वी के सिंह की तारीफ करनी होगी, जो हमेशा न्याय के साथ खड़े रहे। इससे उम्मीद बंधी है कि दोषियों को सजा अवश्य मिलेगी। अब बात सबसे चर्चित आदर्श सोसाइटी घोटाले की, जिसने सेना प्रमुख जैसे शीर्ष पद की गरिमा को तार-तार कर दिया। यदि सेना का शीर्ष अधिकारी ही इस तरह के घोटालों में संलिप्त पाया जाता है, तो वह कैसे अपने अधीनस्थों से आदर्श और ईमानदारी की अपेक्षा कर सकता है? सवाल उठता है कि सेना के इन उच्च अधिकारियों के घोटाले में संलिप्तता का जवानों के मनोबल पर क्या असर पड़ेगा। हालांकि ऐसे लोगों की सेना में तादाद कम है, फिर भी इससे सेना की छवि पर तो असर पड़ता ही है। ऐसे में जरूरी है कि सेना आत्ममंथन करे और ऐसे उपाय करे, जिससे कि उस पर दोबारा दाग न लगे। हमारी सेना को एक ऐसी संस्कृति विकसित करनी होगी कि उसके अधिकारी या जवान अपने उद्देश्यों से भटके नहीं। इसके लिए उसे अपनी दंड प्रक्रिया में चुस्ती लानी पड़ेगी और देश का विश्वास हासिल करना पड़ेगा।
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