गुरुवार, 13 जनवरी 2011

राह आसान नहीं

तेलंगाना के तकदीर की तहरीर बांच श्रीकृष्णा समिति ने देश के अन्य भागों में उठ रही पृथक राज्यों की आवाज को भरसक दबाने का ही प्रयत्न किया है। हिंसक आंदोलनों की धारावाहिक किश्तों ने जहां तेलंगाना को हर पल जीवंत रखने की कोशिश की वहीं नेताओं के आमरण अनशन ने केंद्र को फैसले लेने पर बाध्य किया। लेकिन श्रीकृष्णा समिति ने अपनी रिपोर्ट में तेलंगानावादियों की और से लगभग अस्वीकार प्रस्तावों की झड़ी लगाकर रख दी है। श्रीकृष्णा समिति की रिपोर्ट में 6 विकल्प सुझाये गये हैं-अविभाजित आंध्र प्रदेश बनाया जाए, सीमांध्र और तेलंगाना का बंटवारा, यथास्थिति बनी रहे तथा सीएम या उप मुख्यमंत्री तेलंगाना का हो, हैदराबाद केन्द्र शासित प्रदेश हो, रायल-तेलंगाना और तटीय आंध्र में बंटवारा तथा हैदराबाद रायल-तेलंगाना को मिले। इन विकल्पों में साफ हो गया है कि समिति की रिपोर्ट पूरी तरह केन्द्र सरकार के पक्ष में हैं। तेलंगाना संयुक्त संघर्ष समिति इन प्रस्तावों से सहमत नहीं। उसका साफ कहना है कि अब केवल आंदोलन का रास्ता बचा हुआ है। साफ है कि लगातार आंदोलनों के बाद चिरप्रतीक्षित प्रस्ताव ने जिस तरह से तेलंगानावादियों पर कुठाराघात किया है, उससे तेलंगाना आंदोलन के और हिंसक होने की ही संभावना ज्यादा है। तेलंगाना आंदोलन का गढ़ माने जाने वाला उस्मानिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया है। यहां तक कि तेलंगाना क्षेत्र के अन्य मुख्य केंद्रों वारंगल, निजामाबाद और मेदक में भी तनाव बढ़ गया है और हर जगह लोग श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट पर ही चर्चा कर रहे हैं। उन पर गृहमंत्री पी. चिदंबरम के इस आश्वासन का कोई असर नहीं कि जनवरी के अंत तक इस मसले पर एक और सर्वदलीय बैठक बुलाई जाएगी। तेलंगाना के सरकारी कर्मचारियों की यूनियन के अध्यक्ष स्वामी गौड़ ने तो दो टूक कह दिया है कि सरकारी कर्मचारी अपना काम रोक देंगे और असहयोग के जरिए काम-काज ठप कर दिया जाएगा। मतलब साफ है। अगर तेलंगाना बनता है तो देश के अन्य राज्यों के विरोध नेता भी अपने -अपने राज्य की मांग करेंगे। जिसे मानना बेहद कठिन है। खैर देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में तेलंगाना जन्म लेता है या नहीं। अलग तेलंगाना राज्य की मांग कामरेड वासुपुन्यया ने पहली बार तब उठाई, जब 1956 में तेलंगाना क्षेत्र को भाषा के आधार पर पहले राज्य बने आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया। एक तरफ जहां दोनों की संस्कृति अलग थी, वहीं मदास प्रेजिडेंसी का हिस्सा होने की वजह से आंध्र, तेलंगाना से शिक्षा और आर्थिक दोनों मोर्चों पर आगे था। उस समय इस आंदोलन का उद्देश्य था भूमिहीनों को भूपति बनाना। छह सालों तक यह आंदोलन चला लेकिन बाद में इसकी कमर टूट गई और इसकी कमान नक्सलवादियों के हाथ में आ गई। आज भी इस इलाके में नक्सलवादी सक्रिय हैं। 1969 में इस आंदोलन को फिर हवा दी तेलंगाना प्रजाराज्यम पार्टी के चेन्ना रेड्डी ने, जिन्होंने जय तेलंगाना का नारा दिया, पर जब इंदिरा गांधी ने उन्हें आंध्र के मुख्यमंत्री का पद सौंपा तो उन्होंने खुद को इससे अलग कर लिया। आगे इस आंदोलन की कमान संभाली टीआरएस नेता के. चंद्रशेखर राव ने, जो आज भी इससे जुड़े हैं। दरअसल दोनों इलाकोंं में भारी असमानता है। आंध्र मद्रास प्रेसेडेंसी का हिस्सा था और वहां शिक्षा और विकास का स्तर काफ़ी ऊँचा था जबकि तेलंगाना इन मामलों में पिछड़ा है। तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने आंध्र में विलय का विरोध किया था। उन्हें डर था कि वो नौकरियों के मामले में पिछड़ जाएंगे। अब भी दोनों क्षेत्र में ये अंतर बना हुआ है। साथ ही सांस्कृतिक रूप से भी दोनों क्षेत्रों में अंतर है। तेलंगाना पर गठित श्री कृष्ण समिति ने 11 महीने में राज्य के 23 जिले और 35 गावों में 30 बैठकें कर आम लोगों की राय जानने की कोशिश की। अब इसके सार्वजनिक होने के साथ ही राजनीतिक संघर्ष भी तेज हो गया है। जहां कांग्रेस विधायक उत्तम कुमार रेड्डी ने आंध्र प्रदेश के तेलंगाना और सीमांध्र में बंटवारे और हैदराबाद को तेलंगाना की राजधानी बनाने के विकल्प की वकालत की, वहीं माकपा नेता बीवी राघवुलू ने यथास्थिति बनाए रखने का समर्थन किया। साफ है कि कांग्रेस के लिए यह वक्त सत्ता की अग्निपरीक्षा का है। कांग्रेस की मुश्किल तेलंगाना के पक्ष और विपक्ष दोनों में ही बोलने पर है। अगर कांग्रेस पक्ष में बोलती है तो आंध्र के कांग्रेसी विधायक नाराज हो जाएंगे और विपक्ष में बोलने पर तेलंगाना के। कांग्रेस के लिए तेलंगाना और आंध्र दोनों क्षेत्र के नेताओं को मिलाकर चलना जरूरी है पर राह आसान होती नहीं दिखती।

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