गुरुवार, 13 जनवरी 2011
चुनौती बनते चीन की चतुराई
चीनी सैनिकों ने एक बार फिर भारतीय क्षेत्र में घुसकर धमकी दी है। मोटर साइकिल सवार चीनी सैनिक जम्मू-कश्मीर के देमचोक के गोंबिर गांव में पुहंचे। वहां बनाये जा रहे यात्रियों के शेड के कर्मचारियों को धमकी दे डाली और नारे लगाते हुए वापस चले गए। यह घटना सितंबर-अक्टूबर 2010 की है। जो लेह हेडक्वाार्टर से करीब 300 किलोमीटर दूर है। बारतीय सेना ने तुरंत राज्य सरकार को यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश दिया। और नियंत्रण रेखा के करीब 50 किलोमीटर के अंदर कोई भी निर्माण कराने के लिए रक्षा मंत्रालय से अनुमति लेने को कहा। राज्य प्रशासन ने कहा है कि इससे न्योमा और दमचोक के विकास कार्य प्रभावित होगें। राज्य सरकार की इस क्षेत्र में सात लिंक रोड बनाने की योजना थी। अब सवाल असल मुद्दे की। चीन क्यों इस तरह की हिमाकत करता है? चीन आखिर चाहता क्या है और उसकी रणनीति क्या है? हाल के दिनों में चीन की नई-नई गतिविधियां नि:संदेह चिंतित कर रही हैं। कई देशों के लिए चुनौती बनता जा रहा है। वह भारत, जापान, नार्वे, दक्षिण कोरिया जैसे देशों को जब-तब झिड़क देता है और अब अमेरिका के विरुद्ध भी चलने की हिम्मत जुटाने लगा है। बावजूद इसके यह समझ से परे है कि आखिर कोई भी देश चीन के विरुद्ध ठोस कदम क्यों नहीं उठा रहा है। चुनौती बनते चीन की चतुराई भरी गतिविधियों को सहन करना भविष्य के लिए ठीक नहीं है। चीन समय-समय पर आंखें तरेरता रहता है। बताते हैं कि चीन उन देशों के साथ व्यापार कम कर देता है, जो तिब्बत के धर्मगुरु दलाईलामा का स्वागत करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया के उन देशों, जो दलाईलामा की मेजबानी करते हैं, पर चीन अपनी आर्थिक ताकत की धौंस जमाता है। भारत और दलाईलामा के रिश्ते जगजाहिर हैं। एक और कारण है और वह यह कि इस समय चीन बेचैेन है। बैचेनी का कारण भारत की विस्तारवादी विदेश नीति है। इस विदेश नीति के तहत भारत ने उन देशों से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी है, जो देश चीन से किसी न किसी मसले पर भिड़े है। दिलचस्प बात है कि चीन अपनी सारी गतिविधियों को विस्तारवादी बताने के बजाए सहयोगी बताता है पर भारत और अमेरिका की हर गतिविधियों को अलग तरीके से व्याख्या कर रहा है। अब तक ये माना जाता था कि आर्थिक विकास के लिये लोकतंत्र और बाजार व्यवस्था दोनों ही अनिवार्य हैं। चीन में न लोकतंत्र है और न ही पूरी तरह से बाजार व्यवस्था। राजनीति पूरी तरह से तानाशाही के अधीन है तो पश्चिम के लिये दरवाजे खोलने के बावजूद भी सरकार की गहरी नजर लगातार अर्थव्यवस्था पर बनी रहती है और उसकी अनुमति के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता। पर सवाल ये है कि क्या ये विकास स्थाई है? क्योंकि भले ही वो अर्थव्यवस्था के नियम को पलट रहा हो लेकिन पश्चिम से संपर्क ने चीन के समाज में बेचैनी बढ़ा दी है। अल्पसंख्यक तबका परेशान है। मजदूर वर्ग मजदूरी के सवाल पर नाराज है, त्येन आन मन चौक पर छात्र बीस साल पहले ही अपने तेवर दिखा चुका है। ऐसे में सबसे दुनिया में दूसरे नंबर का देश होने के साथ ही उसकी चुनौतियां बढ़ गयी हैं। ये चुनौती बाहर से नहीं अंदर से है। ठीक पाकिस्तान की तरह। पाकिस्तान में जिस तरह छद्म शासन चलाया जा रहा है, वह किसी से छाप हुआ नहीं है। पाकिस्तानी भी रह-रह कर आंखें तरेरता है, चीन भी। भूमि विवाद तो एक बहाना है, असल में भारत को किसी तरह उलझाए रखना है, ताकि दुनिया भर में भारत की गलत प्रस्तुति हो। मगर चीन को उसे अपनी ऐतिहासिक सनक से बाहर आना पड़ेगा और ये काम नंबर दो बनने से ज्यादा मुश्किल है। क्योंकि सनक अगर स्थाईभाव हो जाये तो पागलपन का रूप ले लेती है। आर्थिक रूप से देखें तो पाएंगे कि चीन की व्यापार नीति मुक्त नहीं है। इस कारण उनके व्यापारिक सहयोगी देशों को नुकसान होता है। भारत इसमें से एक है। चीन जिस तरह से पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका को अपने खेमें किया है, उससे भारत की परेशानी बढ़ी है। नेपाल सीमा तक चीन ने तिब्बत स्थित लहासा से रेल लाइन बिछाने का काम शुरू कर चुका है। पहले चरण में लहासा से सिगात्से से तक रेल लाइन बिछाया जाएगा। इसके बाद इसे नेपाल सीमा तक लाया जाएगा। बाद में इसे काठमांडू तक बिछाए जाने की चीनी विस्तारवादी योजना है। इससे भारत काफी नाराज है। लंका में भी हैबेनटोंटा बंदरगाह का विकास चीन कर रहा है। लंका ने भारत-चीन विवाद का फायदा लेते हुए चीन से रक्षा सहयोग पर भी विचार शुरू कर चुका है। भारत चीन समेत अपने पड़ोसी मुल्कों की रणनीति को समझ रहा है। पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल तीनों मुल्क गरीब है। इनकी अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है। चीन इन्हें सहायता देकर अपने खेमें करना चाहते है। हाल ही में नेपाल में भारतीय राजदूत राकेश सूद पर जूता फेंके जाने की घटना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह जूता माओवादियों ने फेंका जिनका नेतृत्व नेपाल के एक पूर्व मंत्री और माओवादी नेता गोपाल कर रहे थे। जबकि उस समय उसी इलाके में गए चीनी राजदूत का जोरदार स्वागत नेपाली माओवादियों ने किया था। संभवत : यही कारण है कि चीन की इस नीति की काट करते हुए भारत ने चीन की इस नीति के विरोध में मजबूत अर्थव्यवस्था वाले मुल्क जापान, दक्षिण कोरिया आदि को अपने पक्ष में करने की नीति पर चल पड़ा है। साथ ही मध्य एशिया में भी चीन को मजबूती से टक्कर देने के खेल में जुट गया है। अफगानिस्तान में भारत पहले ही अपना खेल कर चुका है। इससे चीन पूरी तरह से घबराया हुआ है। पाकिस्तान-चीन की जोड़ी भारत को अफगानिस्तान से निकालना चाहते हैं, पर अभी तक कामयाब नहीं हो पाए है। जबकि पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत स्थित ग्वादर में चीन द्वारा बनाए गए गवादर बंदरगाह का महत्व पहले ही भारत ने अपनी रणनीति से खत्म करवा दिया है। भारत ने ईरान स्थित एक बंदरगाह से तेहरान होते हुए सेंट्रल एशिया के अस्काबाद तक रेल लाइन पहले ही बिछवा दिया। इससे चीन द्वारा पाकिस्तान में बनाए गए ग्वादर बंदरगाह का महत्व खत्म हो गया। इस पराजय को चीन अभी तक भूल नहीं पाया है। हाल ही में भारतीय सेना ने 2017 तक भारत और चीन के बीच जंग होने का अनुमान लगाया है, तो क्या चीन की हर साजिश के पीछे कुछ ऐसी ही चतुराई है?
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