गुरुवार, 13 जनवरी 2011
मिथकों के बीच महंगाई
एक तरफ वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी राज्यों को खाद्य उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाने के उपाय करने को पत्र लिख रहे हैं। दूसरी तरफ उनकी सरकार आम उपभोक्ताओं को राशन में मिलने वाले रियायती अनाज के दाम बढ़ा रही है। सरकार का यह फैसला महंगाई को भड़काने में एक पलीता बन सकता है। कहने को तो भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन कृषि क्षेत्र की बदहाली बढ़ती जा रही है। हालांकि राज्यों और केंद्र में मुख्यत: किसानों के वोट से सरकारें बनती हैं, लेकिन सत्ता में बैठे लोग उनकी ही अवहेलना करते हैं। धीरे-धीरे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सरकारी मदद पर आश्रित होती जा रही है। इसके विपरीत शहरों की अर्थव्यवस्था काफी कुछ निजी क्षेत्र पर निर्भर हो चुकी है। अब इस पर विचार किया जाना चाहिए कि कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसलिए तो पंगु नहीं हो रही, क्योंकि वह सरकार की बैशाखियों पर टिकी है? कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकारी तंत्र पर निर्भरता के चलते कृषि क्षेत्र अपनी कमजोरी से उबर नहीं पा रहा। चूंकि सरकारी तंत्र पर कृषि क्षेत्र की निर्भरता राजनीतिक दलों को वोट दिलाती है इसलिए वे हालात बदलने के लिए तैयार नहीं। कृषि क्षेत्र पर सरकारी तंत्र की पकड़ बरकरार रहने का एक अन्य कारण घपलों-घोटालों को आसानी से अंजाम देना और उन पर पर्दा डालना भी नजर आता है। खाद्य पदार्थो के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भी एक किस्म में भ्रष्टाचार ही दिखता है। यह आम आदमी की कमर तोडऩे वाली स्थिति है, क्योंकि खाद्य पदार्थों के साथ-साथ घर-गृहस्थी में काम आने वाली करीब-करीब उस प्रत्येक वस्तु के दाम बढ़ गए हैं, जो मध्यम वर्गीय परिवारों की जरूरत में शामिल है। इनमें से कुछ वस्तुएं ऐसी भी हैं जिनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में या तो घट रही हैं या फिर स्थिर हैं। केंद्र सरकार के महंगाई नियंत्रित करने के दावे खोखले ही नही झूठे भी साबित हुए हैं। पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने यह कहकर देश को तगड़ा झटका दिया कि उन्हें इसका भरोसा नहीं कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय हैं। दो बार वित्त मंत्री रह चुके चिदंबरम ने यह भी कहा कि बढ़ती महंगाई अपने आप में एक टैक्स है। महंगाई पर लगाम लगाने के पर्याप्त उपाय न होने की स्वीकारोक्ति कोई सामान्य बात नहीं और वह भी तब जब यह स्वीकारोक्ति केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ एवं अर्थशास्त्री माने जाने वाले एक ऐसे मंत्री की ओर से की गई हो जो पिछले सात वर्ष से सत्ता में हो। इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट होता है कि सरकार महंगाई पर नियंत्रण के मामले में अंधेरे में तीर चला रही है। पिछले वर्ष जब मुद्रास्फीति दर दहाई अंकों पर पहुंची थी तब सरकार ने उस पर जल्द ही काबू पाने का आश्वासन दिया था, लेकिन वह खोखला साबित हुआ। इसके बाद सरकार की ओर से महंगाई बढऩे के तरह-तरह के कारण गिनाए गए। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह तर्क दिया कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि लोगों की आमदनी बढ़ रही है। इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन बाद में इस तरह के वक्तव्य अन्य नेताओं की ओर से भी दिए गए। यदि यह मान लिया जाए कि पिछले कई वर्षो से विकास दर आठ प्रतिशत के आसपास रहने के कारण औसत भारतीयों की आमदनी बढ़ी है और इसके चलते खाने-पीने की वस्तुओं की खपत भी बढ़ गई है तो भी यह कोई ऐसी असामान्य बात नहीं। आखिर उसकी ओर से ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकी, जिससे खाद्य पदार्थो और विशेष रूप से खाद्यान्न एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ता? इसका मतलब है कि कृषि मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ है और उसे इसकी कोई परवाह नहीं कि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े। आम आदमी के दुख-दर्द की तो किसी को परवाह ही नहीं और शायद हमारे राजनेता यह मान बैठे हैं कि मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक रूप से इतने सक्षम हो गए हैं कि वे बढ़ती महंगाई किसी न किसी तरह सहन कर लेंगे। विपक्षी दल महंगाई को लेकर शोर तो बहुत मचा रहें हैं, लेकिन अनेक राज्यों में उनका ही शासन है और वहां भी मूल्यवृद्धि पर कोई अंकुश नहीं। बढ़ती महंगाई के लिए राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं और केंद्र राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है। इससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यह कि कोई भी भ्रष्ट व्यवस्था में दखल देने के लिए तैयार नहीं। शायद इसी में राजनीतिक दलों का हित है यानी उनकी तिजोरियां आसानी से भर सकती हैं। बढ़ी कीमतें चुनौती की तरह खड़ी है। अर्थव्यवस्था ऐसी स्थिति में है जहां राजकोषीय घाटा बढऩे का खतरा भी है। नीति निर्माताओं के लिए यह स्थिति चुनौती भरी है। श्रीगणेश तभी हो सकता है जब पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जाएगा।
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