गुरुवार, 13 जनवरी 2011
नतीजा ढाक के तीन पात
मूल्य वृद्धि से जहां आम लोग दो-चार हो रहे हैं, वहीं नीति निर्माताओं की पेशानियों पर भी बल पड़ गए हैं। विपक्षी पार्टियां महंगाई पर नियंत्रण न किए जाने से लगातार सरकार की आलोचना कर रही हैं। लिहाजा प्रधानमंत्री ने महंगाई पर एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई, लेकिन बैठक में कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया। महंगाई घटने तक बैठकों का जोर अवश्य जारी रहेगा। प्रधानमंत्री ने महंगाई और आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में लगातार हो रही वृद्धि की समीक्षा के लिए बैठक बुलाई थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि महंगाई अब यूपीए सरकार के गले की फांस बन गई है। आम आदमी की रसोई में आग लग गई है , मगर चूल्हा है कि ठंडा होता जा रहा है। खाद्य महंगाई दर ने सरकार के दावों की पोल खोल कर रख दी है। महंगाई दर छप्पर फाड़कर 18 फीसदी से ऊपर पहुंच चुकी है। आंकड़ों पर यकीन करें तो दामों में 60 फीसदी का इजाफा हो गया है। कीमतें सरकार की पकड़ से दूर जा चुकी हैं। महंगाई बढ़ाने वाले तीन प्रमुख कारक इधर कुछ सालों में उभरे हैं। एक, होर्डिंग या जमाखोरी, जो बेमौसम बरसात जैसी खबरों से अधिक उग्र हो गई है और जिसके सामने सरकार बिल्कुल बेबस है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण प्याज है, जिसकी बड़ी मात्रा देश में मौजूद होने के बावजूद यह अपनी सामान्य मौसमी कीमत के चार गुने भाव में बिकने लगा था। दो, एक्सपोर्ट, यानी जैसे ही कोई चीज सस्ती होने की संभावना बने, उसे बाहर भेज देना। फिलहाल यह काम चीनी के साथ हो रहा है, जिसके एक्सपोर्ट पर लगी रोक इधर बिना कोई सूचना दिए हटा ली गई है। और तीन, मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज, जिसके वायदा कारोबार ने खान-पान की सारी चीजों का संतुलन बिगाड़ दिया है। सरकार इन तीनों के खिलाफ नीतिगत स्तर पर कुछ नहीं करने जा रही है, लिहाजा बीच-बीच में कुछ राहत भले मिल जाए, पर महंगाई कम होने की अब बात ही बेमानी हो गई है। वायदा कारोबार और निर्यात उसे दोहरी मार से बचा रहे हैं तो यह ठीक ही है। लेकिन सरकारी दलीलों की आड़ लेकर अगर किसान और उपभोक्ता, दोनों का शिकार किया जा रहा है और बिचौलिए मजे लूट रहे हैं तो महंगाई रोकने के तात्कालिक उपायों से ऊपर उठकर सरकार को बीमारी का कोई स्थायी निदान खोजना चाहिए। कृषि एवं खाद्य आपूर्ति मंत्री का कहना है कि वायदा कारोबार के बिना मंडियों को कारगर नहीं बनाया जा सकता और मंडियां मजबूत नहीं हुईं तो नकदी खेती से जुड़े किसानों को राहत नहीं दी जा सकती। मौसम और कीड़ों की मार से लुटा-पिटा किसान फसल अच्छी होने पर अपना माल सस्ता होने की वजह से भी मारा जाए, यह तो सरासर नाइंसाफी है। महंगाई रोकने वाले मौसमी कारकों के सक्रिय होने का समय यही है। खरीफ की फसल बाजार में है। सब्जियां इसी मौसम में सस्ती होती आई हैं। गन्ने की अग्रिम फसल कोल्हुओं और मिलों में पहुंचने लगी है, लिहाजा गुड़-चीनी भी सस्ते होने चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है, खाने-पीने की हर चीज महंगी है तो इसकी कोई प्राकृतिक वजह नहीं है। कुछ सरकारी नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं और उनके चलते आगे भी देश में महंगाई रुकने के आसार नहीं हैं। कृषि उत्पादन और वितरण की व्यवस्था सुधारे बिना इस समस्या से निजात नहीं है। कुछ बड़े सुधारों के लिए अच्छे मानसून वाले इस बरस से अच्छा समय कब मिलेगा? दूसरी हरित क्रांति की बात तो चल रही है, लेकिन उस दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया, बल्कि देश के बड़े हिस्सों में पहली हरित क्रांति ही नहीं पहुंची है। सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की दुर्दशा भी इसके लिए जिम्मेदार है, क्योंकि कीमतों पर नियंत्रण में इस व्यवस्था का योगदान बहुत बड़ा है। अब भी सरकार को इस व्यवस्था को फिर से चुस्त-दुरुस्त बनाकर इस्तेमाल करना चाहिए। लगातार बढ़ती हुई महंगाई न सिर्फ आम जनता के लिए मुसीबत है, बल्कि सरकार और नीति निर्माताओं के लिए भी फिक्र का विषय है। भारत की विकास दर 9 प्रतिशत के पास है, लेकिन इसका असली फायदा तभी है, जब महंगाई की दर चार-पांच प्रतिशत के आसपास बनी रहे। तब बढ़ती विकास दर का असली फायदा लोगों तक पहुंचता है और सरकार विकास दर और ज्यादा बढ़ाने पर जोर दे सकती है।
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